Sunday, 2 December 2018

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-03

[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100 लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल घुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इनमें से प्रथम 5 लघुकथाओं का प्रकाशन 17 नवम्वर, 2018 को तथा दूसरी 5 लघुकथाओं का प्रकाशन 24 नवम्बर, 2018 को जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इस साप्ताहिक प्रकाशन कार्यक्रम की तीसरी किश्त है। 
            टिप्पणी बॉक्स में कृपया पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांकों/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा।  साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो युनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप  भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]

वरिष्ठ लघुकथाकार भगीरथ द्वारा चुनी 100 समकालीन लघुकथाओं के धारावाहिक प्रकाशन की तीसरी कड़ी।
इस कड़ी के कथाकार और उनकी लघुकथा का शीर्षक :
                                  असग़र वजाहत-- लुटेरा

                                  आनंद --भूमंडलीकरण

                                  आभा सिंह--दर्पण के अक्स

                                  उर्मि कृष्ण----- नई औरत

                                  एन॰ उन्नी-- सर्कस



॥ 11 ॥
  
         असग़र वजाहत
         लुटेरा
वह धीरे धीरे चलता हुआ मेरे पास आया। उसके होठों पर मुस्कुराहट थी लेकिन उसकी आंखें अंगारे की तरह दिख रहीं थीं।
उसने कहा—मैं लुटेरा हूँ।
उसके हाथ खाली थे लेकिन मैंने उसके हाथों में सभी तरह के हथियार देखें। मैं डर गया।
मैंने कहा—मेरी घड़ी, मोबाइल और पर्स ले लो।
उसने कहा—नहीं, मैं घड़ी, मोबाइल और पर्स नहीं लेता।
मैंने कहा—मेरा क्रेडिट कार्ड ले लो।
उसने कहा—नहीं क्रेडिट कार्ड भी मैं नहीं लेता है।
मैंने कहा—मेरी गाड़ी ले लो।
उसने कहा—नहीं, गाड़ी भी मैं नहीं लेता।
मैंने कहा—मेरा घर ले लो।
उसने कहा—नहीं, मैं घर भी नहीं लेता।
मैंने कहा—फिर तुम क्या लूटते हो? तुम्हें क्या चाहिए? तुम किस तरह पीछा छोड़ोगे?
उसने कहा—मुझे तुम्हारी बुद्धि लूटना है। तुम्हारी अकल चाहिए। तुम्हारी समझदारी चहिए। मैं जो चाहूँ वही तुम्हारी सोच बन जाए। वही तुम्हारे विचार बन जाए। मैं तुमसे कहूँ कि मैं भगवान हूँ तो मान लो।
फिर उसने मेरी बुद्धि लूटी और लेकर चला गया। मैंने उसे भगवान मान लिया।
संपर्क : 79, कला विहार, मयूर विहार फेज-1, दिल्ली-110091
॥ 12 ॥
 
आनंद 

        भूमंडलीकरण

गाँव में जूते पहनने वालों की संख्या लगातार बढती जा रही थी| लेकिन वर्षों से मोची सिर्फ दो ही थे| दोनों की दुकाने आमने-सामने थीं और दोनों बुरे पडोसी थे| हालाँकि दोनों के पास गुजरे लायक धन्धा था, लेकिन एक आशंका प्रत्येक को परेशान किए थी—यदि ज्यादा लोग सामनेवाले से जूते खरीदने लगे, तो मेरा धन्धा चौपट हो जायगा, मैं बर्बाद हो जाऊँगा|
दोनों को ही लगता कि तमाम दुनिया में अगर किसी से खतरा है तो बस सामनेवाले से| इसलिए उनमें प्रतिद्वंद्विता थी, कटुता थी, शत्रुता थी इसीलिए प्रत्येक सामनेवाले के ग्राहकों को तोडने का भरसक प्रयत्न करता| ताकि पडोसी के हाथों बर्बाद होने से पहले ही उसे बर्बाद कर दिया जाय|  हालाँकि किसी ने किसी को बर्बाद नहीं किया, फिर भी दोनों ही की बर्बाद होने की आशंका सच होकर रही|
वह जूतों का निर्माण करनेवाली एक बहुराष्ट्रीय कंपनी थी , जिसने ग्रामीणों की जरूरतों के अनुरूप सस्ते, टिकाऊ और आकर्षक जूते बनाकर दोनों ही के मुँह का निवाला छीन लिया था|
संपर्क : ग्राम व पोस्ट—पुर, जिला—भिवानी-127032 (हरियाणा)


॥ 13 ॥ 
  
         आभासिंह   
         दर्पण के अक्स 
पत्नी अपने बच्चों में गुम हो गयी और बच्चे अपने परिवारों में। रह गया वह। दिनभर की जी तोड़ मेहनत से व्यवसाय सम्भालता। शामें, रातें सूनी हो गयी। अकेलेपन की बेबसी को दूर करने के लिए उसने कम्प्यूटर की शरण ली। 'इन्टरनेट' पर 'चैटिंग'' का चस्का लगते भला क्या देर लगती। नये-नये अछूते संसार में विचरण करता वह अति व्यस्त हो गया। हर पन्द्रहवें बीसवें दिन एक नई लडकी से बातचीत करना। अंतरगता के दबे-छिपे कोनों तक पहुंच बनाना। अपने भीतर उछलती उत्तेजना को महसूस करना। बेवकूफ बना पाने की अपनी कुशलता  पर कुटिलता से मुस्कुराना।
     इस बार भी वह इंटरनेट बंद करके लिप्सा से मुस्कुराया। सोलह साल की लडकी की लहकती आवाज में नरम सा प्रेमालाप उसके कानों में रस घोल रहा था। उसने ऐनक उतारी। खुरदरे हाथों से माथा सहलाया और खुमारी में डूबा-डूबा बिस्तर में जा धँसा।  
     उधर भी उस सोलह बरस की लडकी ने इंटरनेट बंद किया। ऐनक उतार कर मेज पर रख दी। लहकती आवाज में गुनगुनाना शुरू कर दिया। रैक से झुर्रियाँ मिटाने की क्रीम को हल्के हाथों चेहरे पर लगाने लगी। खिचडी बालों की उलझी लटों को उंगलियों से सुलझाया। बेवकूफ बना पाने की अपनी कुशलता पर मंद-मंद मुस्कायी और खुमारी में डूबी-डूबी बिस्तर में जा धँसी।
संपर्क : मकान नं॰ 80-173, मध्यम मार्ग, मान सरोवर, जयपुर-302 020 (राजस्थान)


॥ 14 ॥
   
         उर्मि कृष्ण
        नई औरत
पति की मृत्यु पर उसने चूड़ी बिछिए उतार देने से साफ इंकार कर दिया| वहाँ  उपस्थित सभी औरतें सकते में आ गई। दुःख की इस घडी में भी औरतों की कानाफूसी साफ सुनाई पड़ रही थी| एक बुजुर्ग महिला उसे एकांत में में ले जाकर समझाने लगी बहू पति की मृत्यु के संग चूड़ी, बिंदी उतार देने की परम्परा है हम बिरादरी में क्या मुँह दिखायेंगे?
बुआ आत्मा अमर है| तुम सब हर क्षण यही राग अलापते रहते हो| उसने धीमे से कहा|
     “हाँ, सो तो है ही|
         “फिर उसकी अमर आत्मा के लिए मैं सब कुछ पहने रखूँगी| ये सब मेरे प्रिय को प्रिय थे| इन्हें उतारकर मैं उनकी आत्मा नहीं दुखाना चाहती|  
         “बहू, मैं तुम्हें कैसे समझाऊँ! ये हमारे धर्म के रिवाज हैं|
         “बुआ थोथे रिवाजों को क्यों बाँधकर रखा जाए?
         “तुझे सुहाग के लुट जाने का गम नहीं है क्या बहू?
मेरे दुःख को तुम्हारे रिवाज नहीं समझ सकेंगे| मैं दुःख का प्रदर्शन नहीं करना चाहती बुआ जी| उसकी भीगी आवाज में दृढता थी|
बुआ ने कानाफूसी करती औरतों के बीच आकर कहा, वो नई औरत है; हमारी क्या सुने|
संपर्क ; ‘कृष्णदीप’, ए-47, शास्त्री कॉलोनी, अम्बाला छावनी-133001 हरियाणा


॥ 15 ॥ 
                                                                                                                                                                                                                                               
 एन. उन्नी
        सर्कस   
पड़वा का पर्व था। सभी जानवरों को अच्छी तरह रंगे हुए देखकर संतुष्ट ठाकुर गुरूदयाल को लगा कि बंधुआ मजदूरों को भी आज कुछ रियायत देनी चाहिए। ठाकुर के अधीन तीस-चालीस बन्धक मजदूर थे। ठाकुर ने मजदूरों के मुखिया को बुलाकर कुछ रूपए दिए और कहा, ‘‘आज तुम लोगों की छुट्टी। घूम-फिर आओ। एक-एक धोती भी सबको दिला देना।’’
     पहले तो ठाकुर की बातें मुखिया को अविश्वसनीय लगीं। बाद में याद आया कि आज जानवरों का त्यौहार जो है। मुखिया ने मजदूरों को एकत्रित किया और सुखद समाचार सुनायाः लेकिन छुट्टी कैसे मनाएँ? यह किसी को भी नहीं सूझा। आखिर मुखिया ने सुझाया कि ‘‘चलो शहर चलते हैं, वहाँ सर्कस चल रहा है।’’
वे सर्कस देखने चले गए।
     सर्कस सबको अच्छा लगा, लेकिन काफी मनोरंजक होने के बावजूद लौटते समय वे बहुत गम्भीर थे। हाथियों का क्रिकेट, गणपति की मुद्रा में स्टूल पर बैठे हाथी, रस्सी पर एक पहिए वाली साईकिलों पर लड़कियों की सवारी आदि मनमोहक नृत्यों के बारे में वे कतई नहीं सोच सके। सबके मन में उस शेर का चित्र था जिसने पिंजरे से बाहर लाया जाते ही गुर्राना शुरू कर दिया था। हण्टर लिये सामने  खड़ें आदमी की परवाह वह कतई नहीं कर रहा था। उल्टे हण्टरवाला स्वयं काँप रहा था। दोबारा जब पिंजरे में जाने से शेर ने इन्कार कर दिया, तब उसको पिंजरे में डालने के लिए सर्कस की पूरी टुकड़ी को आपातकाल की घण्टी से इकठ्ठा करना पड़ा था।
     एक पल के लिए बंधक मजदूरों को लगा कि गुर्रानेवाला शेर वे स्वयं हैं और सामने हण्टर लिये वहाँ ठाकुर गुरूदयाल खड़ा है| पिंजरे में हो या बाहर, गुलामी आखिर गुलामी ही होती है। वे आत्मालोचन करते हुए सोचने लगे कि जानवर अकेला है। उसमें सोचने की शक्ति नहीं है। अपनी ताकत का अन्दाजा भी उसे नहीं हैं फिर भी, गुलामी से कितनी नफरत करता है आजादी को कितना चाहता है! और हम? एकाएक वे आत्मग्लानि से भर उठे।
     न जाने क्यों,  मुखिया को उनकी यह चुप्पी कुछ खतरनाक लगी। उद्वेगपूर्वक उसने पूछा, ‘‘क्यों रे, तुम लोग चुप क्यों हो?’’
     तब अचानक सब-के-सब बोल उठे, ‘‘मुखियाजी, हमें वह सर्कस फिर से देखना है, आज ही!’’
     हण्टरवाले पर गुर्रानेवाले बब्बर शेर की कल्पना तब तक उन लोगों के मन में घर कर गई थी।
मलयालम-भाषी हिन्दी कथाकार। जन्म ; 23-4-1943 देहावसान ; 14-7-2015

4 comments:

ओमप्रकाश कश्यप said...

पांचों लघुकथाएं पढ़ीं. भगीरथ जी का धन्यबाद. मेरे लिए ये सभी कहानियां नई हैं. मैं यह नहीं कहूंगा कि असगर वजाहत की कहानी को पढ़कर खलील जिब्रान याद आ गए. वजाहत जी ने इससे पहले कई लघुकथाएं लिखीं हैं, जो वर्तमान की त्रासदी, धर्म और जाति के नाम के नाम पर सामाजिक रिश्तों में आ रही गिरावट को पेश करती हैं. यह कहानी में समाज नहीं है. केवल मनुष्य और उसका विश्वास है. उसे अंधविश्वास भी कह सकते हैं. यह असल में मनुष्य की अपने आप से मात खाते जाने की त्रासदी को दर्शाती है. धर्म का पहला और सबसे बड़ा हमला मानवीय विवेक पर होता है. खूबी यह होती है कि मनुष्य अपने नष्ट होते विवेक को देखकर भी आश्वस्त बना रहता है. ठीक ऐसे ही जैसे नशे में धुत व्यक्ति खुद को सबसे बहादुर आदमी समझने लगता है.
आनंद की कहानी 'भूमंडलीकरण' श्रम को स्पर्धा को दर्शाती है, जो सदैव नुकसान की ओर ले जाती है. कहानी संकेत करती है कि मनुष्य स्पर्धा के लिए नहीं बना है. स्पर्धा के लिए मशीनें हैं. समाज की नींव सहयोग पर रखी गई है. जैसे ही मनुष्य स्पर्धा में पड़ता है, सामाजिकता की नींव हिलने लगती है. कहानी में बहुत ज्यादा कहानीपन नहीं है. अगर होता तो यह और भी आकर्षक, और अधिक मारक हो सकती थी. प्रकारांतर में यह कहानी श्रम की सामाजिक उपादेयता को भी नकारती है. अगर मशीनों के आने से गांव वालों की जरूरतें आसानी से पूरी होने लगेंगी, उनके आने से बहुसंख्यक चिंता समाप्त हो जाएगी, तो दो 'मोचियों' की चिंता क्यों की जाए? यदि मशीनें पूरे गांव की जरूरत के हिसाब से सस्ता, टिकाउ और आकर्षक उत्पाद बना सकती हैं, तो मोचियों की यह नियति स्वाभाविक है. अगर वे मिलकर काम कर रहे होते तब भी उन्हें इसी त्रासदी तक पहुंचना था. लघुकथा श्रम की सामाजिक उपादेयता की ओर कोई संकेत नहीं करती. यही इसकी कमजोरी है. थोड़ी मेहनत से इसे और उपयोगी बनाया जा सकता था, मगर लेखक को लघुकथा के कथ्य से ज्यादा उसके अंत पर पहुंचने की जल्दी थी.
आभासिंह की कहानी 'दर्पण के अक्स' बेहतरीन कहानी है, उम्र के ढलान पर ​जिन रिश्तों को और अधिक आत्मीयता के साथ निभाने की जरूरत होती है, उसमें स्त्री—पुरुष का अपने—अपने दायरों में सिमट जाना ऐसी ​ही स्थितियों को जन्म देता है. उर्मि कृष्ण की लघुकथा सचमुच 'नई औरत' की कहानी है. इसकी विशेषता है कि यह बड़ी सहजता के साथ अपने समापन बिंदू तक पहुंचती है. लघुकथा समाज में आ रहे बदलाव की ओर भी संकेत करती हैं, जिसमें विद्रोहों को पचाने लायक धैर्य पैदा हो रहा है. 'उत्पीड़ित' की आजादी उत्पीड़न के एहसास से शुरू होती है, उन्नी की लघुकथा 'सर्कस' मुझे किसी दार्शनिक के इसी कथन की याद दिलाती है.
बेहतरीन चयन और इस चयन से परचाने के लिए भगीरथ जी और बलराम अग्रवाल दोनों का धन्यबाद.

राजेश उत्‍साही said...

लुटेरा,दर्पण के अक्‍स,नई औरत और सर्कस बेहतर रचनाएँ हैं। भूमंडलीकरण और विस्‍तार तथा स्‍पष्‍टीकरण मांगती है। दर्पण के अक्‍स में 'उधर भी सोलह बरस की लड़की ने...' में क्‍या वास्‍तव में सोलह बरस ही है या साठ बरस है ?

बलराम अग्रवाल said...

Bhagirath Parihar
7:15 PM (7 minutes ago)
to balram

भाई ओमप्रकाश कश्यप की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी प्राप्त हुई है आप चाहें तो ब्लॉग या फेसबुक पर लगा सकते है .


पांचों लघुकथाएं पढ़ीं. भगीरथ जी का धन्यबाद. मेरे लिए ये सभी कहानियां नई हैं. मैं यह नहीं कहूंगा कि असगर वजाहत की कहानी को पढ़कर खलील जिब्रान याद आ गए. वजाहत जी ने इससे पहले कई लघुकथाएं लिखीं हैं, जो वर्तमान की त्रासदी, धर्म और जाति के नाम के नाम पर सामाजिक रिश्तों में आ रही गिरावट को पेश करती हैं. यह कहानी में समाज नहीं है. केवल मनुष्य और उसका विश्वास है. उसे अंधविश्वास भी कह सकते हैं. यह असल में मनुष्य की अपने आप से मात खाते जाने की त्रासदी को दर्शाती है. धर्म का पहला और सबसे बड़ा हमला मानवीय विवेक पर होता है. खूबी यह होती है कि मनुष्य अपने नष्ट होते विवेक को देखकर भी आश्वस्त बना रहता है. ठीक ऐसे ही जैसे नशे में धुत व्यक्ति खुद को सबसे बहादुर आदमी समझने लगता है.
आनंद की कहानी 'भूमंडलीकरण' श्रम को स्पर्धा को दर्शाती है, जो सदैव नुकसान की ओर ले जाती है. कहानी संकेत करती है कि मनुष्य स्पर्धा के लिए नहीं बना है. स्पर्धा के लिए मशीनें हैं. समाज की नींव सहयोग पर रखी गई है. जैसे ही मनुष्य स्पर्धा में पड़ता है, सामाजिकता की नींव हिलने लगती है. कहानी में बहुत ज्यादा कहानीपन नहीं है. अगर होता तो यह और भी आकर्षक, और अधिक मारक हो सकती थी. प्रकारांतर में यह कहानी श्रम की सामाजिक उपादेयता को भी नकारती है. अगर मशीनों के आने से गांव वालों की जरूरतें आसानी से पूरी होने लगेंगी, उनके आने से बहुसंख्यक चिंता समाप्त हो जाएगी, तो दो 'मोचियों' की चिंता क्यों की जाए? यदि मशीनें पूरे गांव की जरूरत के हिसाब से सस्ता, टिकाउ और आकर्षक उत्पाद बना सकती हैं, तो मोचियों की यह नियति स्वाभाविक है. अगर वे मिलकर काम कर रहे होते तब भी उन्हें इसी त्रासदी तक पहुंचना था. लघुकथा श्रम की सामाजिक उपादेयता की ओर कोई संकेत नहीं करती. यही इसकी कमजोरी है. थोड़ी मेहनत से इसे और उपयोगी बनाया जा सकता था, मगर लेखक को लघुकथा के कथ्य से ज्यादा उसके अंत पर पहुंचने की जल्दी थी.
आभासिंह की कहानी 'दर्पण के अक्स' बेहतरीन कहानी है, उम्र के ढलान पर जिन रिश्तों को और अधिक आत्मीयता के साथ निभाने की जरूरत होती है, उसमें स्त्री—पुरुष का अपने—अपने दायरों में सिमट जाना ऐसी ही स्थितियों को जन्म देता है. उर्मि कृष्ण की लघुकथा सचमुच 'नई औरत' की कहानी है. इसकी विशेषता है कि यह बड़ी सहजता के साथ अपने समापन बिंदू तक पहुंचती है. लघुकथा समाज में आ रहे बदलाव की ओर भी संकेत करती हैं, जिसमें विद्रोहों को पचाने लायक धैर्य पैदा हो रहा है. 'उत्पीड़ित' की आजादी उत्पीड़न के एहसास से शुरू होती है, उन्नी की लघुकथा 'सर्कस' मुझे किसी दार्शनिक के इसी कथन की याद दिलाती है.
बेहतरीन चयन और इस चयन से परचाने के लिए भगीरथ जी और बलराम अग्रवाल दोनों का धन्यबाद.

शोभना श्याम said...

पांचों कथाएँ लाजवाब!!