tag:blogger.com,1999:blog-3469604607014018885.post2234089588757183539..comments2024-01-13T02:57:09.093-08:00Comments on जनगाथा: लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-03बलराम अग्रवालhttp://www.blogger.com/profile/04819113049257907444noreply@blogger.comBlogger4125tag:blogger.com,1999:blog-3469604607014018885.post-21235486839316872612018-12-03T19:53:04.079-08:002018-12-03T19:53:04.079-08:00पांचों कथाएँ लाजवाब!!पांचों कथाएँ लाजवाब!!शोभना श्यामhttps://www.blogger.com/profile/12701295985493998900noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3469604607014018885.post-69050067830741204712018-12-03T10:03:32.472-08:002018-12-03T10:03:32.472-08:00Bhagirath Parihar
7:15 PM (7 minutes ago)
to balr...Bhagirath Parihar <br />7:15 PM (7 minutes ago)<br />to balram<br /><br />भाई ओमप्रकाश कश्यप की एक महत्वपूर्ण टिप्पणी प्राप्त हुई है आप चाहें तो ब्लॉग या फेसबुक पर लगा सकते है .<br /><br /><br />पांचों लघुकथाएं पढ़ीं. भगीरथ जी का धन्यबाद. मेरे लिए ये सभी कहानियां नई हैं. मैं यह नहीं कहूंगा कि असगर वजाहत की कहानी को पढ़कर खलील जिब्रान याद आ गए. वजाहत जी ने इससे पहले कई लघुकथाएं लिखीं हैं, जो वर्तमान की त्रासदी, धर्म और जाति के नाम के नाम पर सामाजिक रिश्तों में आ रही गिरावट को पेश करती हैं. यह कहानी में समाज नहीं है. केवल मनुष्य और उसका विश्वास है. उसे अंधविश्वास भी कह सकते हैं. यह असल में मनुष्य की अपने आप से मात खाते जाने की त्रासदी को दर्शाती है. धर्म का पहला और सबसे बड़ा हमला मानवीय विवेक पर होता है. खूबी यह होती है कि मनुष्य अपने नष्ट होते विवेक को देखकर भी आश्वस्त बना रहता है. ठीक ऐसे ही जैसे नशे में धुत व्यक्ति खुद को सबसे बहादुर आदमी समझने लगता है. <br />आनंद की कहानी 'भूमंडलीकरण' श्रम को स्पर्धा को दर्शाती है, जो सदैव नुकसान की ओर ले जाती है. कहानी संकेत करती है कि मनुष्य स्पर्धा के लिए नहीं बना है. स्पर्धा के लिए मशीनें हैं. समाज की नींव सहयोग पर रखी गई है. जैसे ही मनुष्य स्पर्धा में पड़ता है, सामाजिकता की नींव हिलने लगती है. कहानी में बहुत ज्यादा कहानीपन नहीं है. अगर होता तो यह और भी आकर्षक, और अधिक मारक हो सकती थी. प्रकारांतर में यह कहानी श्रम की सामाजिक उपादेयता को भी नकारती है. अगर मशीनों के आने से गांव वालों की जरूरतें आसानी से पूरी होने लगेंगी, उनके आने से बहुसंख्यक चिंता समाप्त हो जाएगी, तो दो 'मोचियों' की चिंता क्यों की जाए? यदि मशीनें पूरे गांव की जरूरत के हिसाब से सस्ता, टिकाउ और आकर्षक उत्पाद बना सकती हैं, तो मोचियों की यह नियति स्वाभाविक है. अगर वे मिलकर काम कर रहे होते तब भी उन्हें इसी त्रासदी तक पहुंचना था. लघुकथा श्रम की सामाजिक उपादेयता की ओर कोई संकेत नहीं करती. यही इसकी कमजोरी है. थोड़ी मेहनत से इसे और उपयोगी बनाया जा सकता था, मगर लेखक को लघुकथा के कथ्य से ज्यादा उसके अंत पर पहुंचने की जल्दी थी. <br />आभासिंह की कहानी 'दर्पण के अक्स' बेहतरीन कहानी है, उम्र के ढलान पर जिन रिश्तों को और अधिक आत्मीयता के साथ निभाने की जरूरत होती है, उसमें स्त्री—पुरुष का अपने—अपने दायरों में सिमट जाना ऐसी ही स्थितियों को जन्म देता है. उर्मि कृष्ण की लघुकथा सचमुच 'नई औरत' की कहानी है. इसकी विशेषता है कि यह बड़ी सहजता के साथ अपने समापन बिंदू तक पहुंचती है. लघुकथा समाज में आ रहे बदलाव की ओर भी संकेत करती हैं, जिसमें विद्रोहों को पचाने लायक धैर्य पैदा हो रहा है. 'उत्पीड़ित' की आजादी उत्पीड़न के एहसास से शुरू होती है, उन्नी की लघुकथा 'सर्कस' मुझे किसी दार्शनिक के इसी कथन की याद दिलाती है.<br />बेहतरीन चयन और इस चयन से परचाने के लिए भगीरथ जी और बलराम अग्रवाल दोनों का धन्यबाद.बलराम अग्रवालhttps://www.blogger.com/profile/04819113049257907444noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3469604607014018885.post-26752566405586771362018-12-02T09:12:31.008-08:002018-12-02T09:12:31.008-08:00लुटेरा,दर्पण के अक्स,नई औरत और सर्कस बेहतर रचनाएँ...लुटेरा,दर्पण के अक्स,नई औरत और सर्कस बेहतर रचनाएँ हैं। भूमंडलीकरण और विस्तार तथा स्पष्टीकरण मांगती है। दर्पण के अक्स में 'उधर भी सोलह बरस की लड़की ने...' में क्या वास्तव में सोलह बरस ही है या साठ बरस है ? राजेश उत्साहीhttps://www.blogger.com/profile/15973091178517874144noreply@blogger.comtag:blogger.com,1999:blog-3469604607014018885.post-1973836421754460032018-12-02T05:41:22.522-08:002018-12-02T05:41:22.522-08:00पांचों लघुकथाएं पढ़ीं. भगीरथ जी का धन्यबाद. मेरे ल...पांचों लघुकथाएं पढ़ीं. भगीरथ जी का धन्यबाद. मेरे लिए ये सभी कहानियां नई हैं. मैं यह नहीं कहूंगा कि असगर वजाहत की कहानी को पढ़कर खलील जिब्रान याद आ गए. वजाहत जी ने इससे पहले कई लघुकथाएं लिखीं हैं, जो वर्तमान की त्रासदी, धर्म और जाति के नाम के नाम पर सामाजिक रिश्तों में आ रही गिरावट को पेश करती हैं. यह कहानी में समाज नहीं है. केवल मनुष्य और उसका विश्वास है. उसे अंधविश्वास भी कह सकते हैं. यह असल में मनुष्य की अपने आप से मात खाते जाने की त्रासदी को दर्शाती है. धर्म का पहला और सबसे बड़ा हमला मानवीय विवेक पर होता है. खूबी यह होती है कि मनुष्य अपने नष्ट होते विवेक को देखकर भी आश्वस्त बना रहता है. ठीक ऐसे ही जैसे नशे में धुत व्यक्ति खुद को सबसे बहादुर आदमी समझने लगता है. <br />आनंद की कहानी 'भूमंडलीकरण' श्रम को स्पर्धा को दर्शाती है, जो सदैव नुकसान की ओर ले जाती है. कहानी संकेत करती है कि मनुष्य स्पर्धा के लिए नहीं बना है. स्पर्धा के लिए मशीनें हैं. समाज की नींव सहयोग पर रखी गई है. जैसे ही मनुष्य स्पर्धा में पड़ता है, सामाजिकता की नींव हिलने लगती है. कहानी में बहुत ज्यादा कहानीपन नहीं है. अगर होता तो यह और भी आकर्षक, और अधिक मारक हो सकती थी. प्रकारांतर में यह कहानी श्रम की सामाजिक उपादेयता को भी नकारती है. अगर मशीनों के आने से गांव वालों की जरूरतें आसानी से पूरी होने लगेंगी, उनके आने से बहुसंख्यक चिंता समाप्त हो जाएगी, तो दो 'मोचियों' की चिंता क्यों की जाए? यदि मशीनें पूरे गांव की जरूरत के हिसाब से सस्ता, टिकाउ और आकर्षक उत्पाद बना सकती हैं, तो मोचियों की यह नियति स्वाभाविक है. अगर वे मिलकर काम कर रहे होते तब भी उन्हें इसी त्रासदी तक पहुंचना था. लघुकथा श्रम की सामाजिक उपादेयता की ओर कोई संकेत नहीं करती. यही इसकी कमजोरी है. थोड़ी मेहनत से इसे और उपयोगी बनाया जा सकता था, मगर लेखक को लघुकथा के कथ्य से ज्यादा उसके अंत पर पहुंचने की जल्दी थी. <br />आभासिंह की कहानी 'दर्पण के अक्स' बेहतरीन कहानी है, उम्र के ढलान पर जिन रिश्तों को और अधिक आत्मीयता के साथ निभाने की जरूरत होती है, उसमें स्त्री—पुरुष का अपने—अपने दायरों में सिमट जाना ऐसी ही स्थितियों को जन्म देता है. उर्मि कृष्ण की लघुकथा सचमुच 'नई औरत' की कहानी है. इसकी विशेषता है कि यह बड़ी सहजता के साथ अपने समापन बिंदू तक पहुंचती है. लघुकथा समाज में आ रहे बदलाव की ओर भी संकेत करती हैं, जिसमें विद्रोहों को पचाने लायक धैर्य पैदा हो रहा है. 'उत्पीड़ित' की आजादी उत्पीड़न के एहसास से शुरू होती है, उन्नी की लघुकथा 'सर्कस' मुझे किसी दार्शनिक के इसी कथन की याद दिलाती है.<br />बेहतरीन चयन और इस चयन से परचाने के लिए भगीरथ जी और बलराम अग्रवाल दोनों का धन्यबाद. ओमप्रकाश कश्यपhttps://www.blogger.com/profile/15528163513667115228noreply@blogger.com