Saturday, 24 November 2018

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-02

[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100 लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल घुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इनमें से प्रथम 5 लघुकथाओं का प्रकाशन 17 नवम्वर, 2018 को  जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इस साप्ताहिक प्रकाशन कार्यक्रम की दूसरी किश्त है। 
            टिप्पणी बक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांको/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा। साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो युनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]

वरिष्ठ लघुकथाकार भगीरथ द्वारा चुनी 100 समकालीन लघुकथाओं के धारावाहिक प्रकाशन की दूसरी कड़ी

          6- अवधेश कुमार
नोट
उन्होंने मेरी आँखों के सामने सौ का एक नोट लहराकर कहा, "यह कवि कल्पना नहीं, इस दुनिया का सच है। मैं इसे जमीन में बोऊंगा और देखन… रुपयों की एक पूरी फसल लहलहा उठेगी।"
   मैंने उस नोट को कौतुक और उत्सुकता के साथ ऐसे देखा, जैसे मेरा बेटा पतंग देखता है।
मैंने उस नोट की रीढ़ को छुआ, उसकी नसें टटोली, उनमें दौडता हुआ लाल और नीला खून देखा।
   उसमें मेरा खाना और खेल दोनों शामिल थे।
   उसमें सारे कर्म, पूरी गृहस्थी, सारी जय और पराजय शामिल थी। भय और अभय, संचय और संशय, घात और आघात, दिन और रात शामिल थे। मुझे हर कीमत पर अपने आपको बचाना था।
   मैंने उसे कपड़े की तरह फैलाया और देखना चाहा कि क्या वह मेरी आत्मा की पोषक बन सकता है?
 उन्होंने कहा, "सोचना क्या? अरे, इसे पहन डालो। यह तुम्हारे पूरे अस्तित्व को ढँक सकता है।"  
जन्म : 7 जून 1951, देहरादून निधन : 14 जनवरी,1999 । पारिवारिक संपर्क सूत्र अप्राप्य।


            7- अविनाश
कर्ज
"तुम्हें चार हजार रुपये चाहिए बेटी की शादी के लिए न, मिल जाएँगे।"
"वह कैसे?" 
"तुम्हारी पत्नी के नाम शिक्षित बेरोजगारी का दस हजार का कर्ज ले लेंगे।"
"लेकिन उसे कर्ज देगा कौन?"
"बैंक देगी।"
"वह कैसे?"
"बैंक मैनेजर देगा… तीन हजार लेकर।"
"लेकिन उसके पास तीन हजार देने के लिए आयेंगे कहाँ से?" 
"ओफ्फोह! देने के लिए किसने कहा है!!! उसी दस हजार में से काट लेंगे।" 
"लेकिन मेरी पत्नी गारंटी कहाँ से देगी?"
"ओफ्फोह! गारंटी के लिए पहचान की क्या जरुरत है? मैं दूँगा गारंटी, एक हजार रूपये लेकर।" 
"लेकिन तुम्हें देने के लिए वह एक हजार लाएगी कहाँ से?
"अरे भाई, उसी दस हजार से काट लेंगें।"
"लेकिन मेरी पत्नी तो कोई रोजगार या हुनर जानती ही नहीं!" 
"ओफ्फोह! इसकी क्या  जरुरत है पापड़, बड़ी, अचार के व्यापारी से फर्जी बिल ले लेंगे दो हजार देकर।"
"लेकिन वह यह दो हजार लाएगी कहाँ से?"
"ओफ्फोह! देने के लिए कहा किसने? उसी दस हजार से काट लेंगे।"
"लेकिन वह दस हजार का कर्ज बैंक का, चुकायेगी किस तरह?" 
"ओफ्फोह! तुमसे कर्ज चुकाने को कहा ही किसने?"
छोटे-छोटे इन्द्रधनुष(सं॰ अनिरुद्ध प्रसाद विमल) आदि संकलनों व अनेक पत्र-पत्रिकाओं में लघुकथाएँ प्रकाशित। संपर्क सूत्र अप्राप्य।


      
  8-अशोक जैन
जिन्दा मैं 
कई हफ्तों बाद आज वे फिर मिले। दोनों भरे थे, पर चुप्प! बात वहीं से शुरू हुई, जहाँ से अब तक हर बार शुरू होती रही है। छुटका आज मानसिक रूप से तैयार होकर आया था।
कहाँ थे इतने दिन?” बड़के ने प्रश्न किया।
यहीं।संक्षिप्त-सा उत्तर छुटके का।
“…स्कूल का क्या रहा?”
बन्द कर दिया।
क्यों?” बड़के ने अपनी निगाहें उसके चेहरे पर गड़ा दी।
आपस में कॉन्फ्लिक्ट्स हो गए थे; फिर एडमिनिस्ट्रेशन का नोटिस…”
नोटिस-वोटिस में बहलाने की कोशिश मत करो। तुम्हारे काम करने का आपरेशन ही गलत है, सफलता मिले कहाँ से?”
छुटका चुप रहा।
तुम्हारी असफलता का कारण है—तुम्हारा अपना गलत क्लैरिफिकेशन तुम्हारी अपनी कमजोरी!
क्या मैँ नहीं चाहता सेटहोना!!छुटके ने कुछ कठोर होने का प्रयास किया।
पिछले चार सालों में तुमने अपने कैरियर में क्या जोड़ा? तुम्हारी चाह से ही रास्ते नहीं खुल जाएँगे।
फिर थोड़ी देर खामोशी छाई रही। भावज चाय रख गई थी। बड़का चाय को सिप करने लगा था।
रोटी तो कुत्ता भी खा लेता है। जितना तुम ट्यूशनें करके कमाते हो, उतना तो पानी की टंकी धकेलनेवाला भी कमा लेता है। फिर तुम…”
छुटके को कड़वाहट झेलते देख, बड़का बोलता रहा।
आपने शायद कुछ प्रूफपढ़ने के लिए बुलाया था…!”  छुटके ने विषय पर आते हुए कहा।
पहले अपने आपको मानसिक रूप से तैयार करो, फिर आना। जिन्दगी में कुत्तों की तरह रोटी खाना ही ध्येयबड़का निरन्तर मन की बातें उगलता रहा। तभी ध्यान दूसरे भरे प्याले की ओर गया।
चाय पियो।उसने भरा प्याला उसकी ओर सरकाते हुए कहा।
छुटके का ध्यान उस ओर न था वह खामोश कुछ सोच रहा था। उसे चुप देख बड़के ने दुबारा कहा,  पियो न!
उसके स्वर में तल्खी थी।
नहीं,  मैं इसके लिए मानसिक रूप से तैयार नहीं हूँ।छुटके ने दृढ़ता से कहा।
वह उठा और उसके कदम दरवाजे की दहलीज लाँघ गए।
संपर्क : संपादक ‘दृष्टि’, ‘नेक सदन’, 908, सेक्टर 7 एक्सटेंशन, अरबन एस्टेट, गुरुग्राम-122001 (हरियाणा) / मो॰:9810374941


     
  9-अशोक भाटिया
सपना
दोपहर को बच्चा स्कूल से लौटा, तब चिड़िया पेड़ पर आराम कर रही थी| बच्चे की माँ ने उसे दुलराया खाना खिलाया और कहा, बेटे होमवर्क करो और पेपरों कि तैयारी करो|  
बच्चा पढने बैठा, चिड़िया ने दाना चुगा, पानी में किल्लोल किए, बच्चा पढता रहा, उसका ध्यान अपने खिलौनों की तरफ लगा हुआ था| साँझ को चिड़िया आकाश में चहकने लगी थी जब बच्चा पढने बैठा था| स्कूल जाने से पहले उसने कहा, माँ जब मैं यूनिवर्सिटी पढ़ लूँगा उसके बाद मैं ख़ूब खेलूँगा कोई काम नहीं करूँगा|
संपर्क : 1882, सेक्टर 13, अरबन एस्टेट, करनाल-132001 (हरियाणा) / मो॰:94161 52100


     
  10- अशोक लव
अपना घर
डोली विदा होने के साथ-साथ ही रिश्तेदार विदा होने लगे। शकुन्तला आते-जाते ससुर को घूर जाती। उनके विदा न होने के आसार देख वह भीतर-ही-भीतर कुढ़ रही थी।
रात ससुर को सोया जान वह पति के सामने फट पड़ी, ‘‘मुझे नहीं लगता पिताजी वापस आश्रम जाएँगे। इस बार तो वे अपना बक्सा भी साथ उठा लाए हैं। तुम उन्हें साफ-साफ कह देना। मुझसे उनकी सेवा नहीं होती। आश्रम में सारे आराम हैं। यहाँ बार-बार कौन बाजू पकड़-पकड़कर उन्हें पेशाब कराने ले जाएगा? उनकी खाँसी और बलगम थूकने की आवाजों से मुझे तो रात-रातभर नींद नहीं आती। मेरा अपना ब्लड-प्रेशर हाई हो जाता है। तुम कल उनको आश्रम छोड़ आना।’’
सालभर बाद तो पिताजी आए हैं। उनकी हालत देख रही हो। पता नहीं कब आँखें बन्द कर जाएँ। अंतिम समय में जितनी हो सके उनकी सेवा कर लेनी चाहिए। बड़ों का आशीर्वाद ही मिलता है।’’ पति ने समझाते हुए कहा।
शंकुतला जिद पर अड़ी रही। श्रीकान्त करवट ले सो गया। बाहर लेटे बाबू रामदयाल की श्वास नली में बहू के शब्द फँस-से गए। अपना अंतिम समय निकट जानकर पोती के विवाह में इसलिए आए थे ताकि बेटे के घर में ही प्राण त्यागें, आश्रम में लावारिस न मरें। बहू के तेज-धार शब्द उनके हृदय को चीरते चले गए। उनके फेफड़ों में सोई खाँसी जग गई। उन्होंने उसे रोके रखने का बहुत प्रयास किया परंतु छाती पर जमी बलगम खड़खड़ाने लगी। दम फूल जाने से वे हाँफने लगे। खाँसी का रोक रखा बाँध टूट गया।
खाँसी की आवाज सुनकर किवाड़ खोलकर बेटा बाहर आ गया। उनकी छाती पर विक्स मलने लगा। हाथ-पैर दबाने लगा। पुत्र के हाथों का स्पर्श पाकर बाबू रामदयाल की आँखें भर आईं। रुँधे गले से कहने लगे, ‘‘श्रीकान्त! सवेरे जरा जल्दी उठा देना। तेरे साथ ही तैयार हो जाउँगा। दफ्तर जाते समय रास्ते में आश्रम छोड़ते जाना।’’
पुत्र, पिता की काँपती आवाज की थरथराहट महसूस कर रहा था। वह उन्हें ‘यहीं रूके रहिए’ कहने की हिम्मत न जुटा सका। पिताजी की खाँसी थमी देखकर वह पत्नी के पास जा लेटा।
पिताजी! यहीं रह जाइए सुनने की इच्छा लिए बाबू रामदयाल गहरी नींद में समा गए।
संपर्क : फ्लैट 363 ए, सूर्य अपार्टमेंट, प्लॉट नं॰ 14, सेक्टर 6, द्वारिका, दिल्ली-110075 / मो॰:9971010063

3 comments:

LAGHUKATHA VRITT - RNI- MPHIN/2018/77276 said...

अशोक जैन जी की लघुकथा पढ़ी हुई थी। आत्मसम्मान को बचाने की कवायद में 'मैं जिंदा'होने और उस होने के बने रहने को तीव्रता से अभिव्यक्त किया गया है।
बाकी चारों लघुकथाएं मेरे लिए बिलकुल नई थी। अवधेश जी की लघुकथा का कथ्य नोट पूरे आस्तित्व को ढक सकता है,पैनी दृष्टि से की गई कटाक्ष है।
अविनाश की लघुकथा 'कर्ज'सरकार द्वारा बैंक के मार्फत जरूरतमंद को ऋण सुविधा उपलब्ध करवाने को महाजनों से जनता को बचाने की मुहिम को धरासाई करने की कोशिश में जनता की बेइमान प्रवृत्ति प्रमुख कारक है। इस बात को बेहतर तरीके से बुना गया है।
'सपना'लघुकथा,अशोक भाटिया द्वारा बच्चों के मनोविज्ञान से उपजी लघुकथा है। बच्चे द्वारा यह कहना कि, "माँ जब मैं यूनिवर्सिटी पढ़ लूँगा उसके बाद मैं ख़ूब खेलूँगा कोई काम नहीं करूँगा|”
मन को अंदर तक छील जाती है क्योंकि हम सबको पढ़ाई के बाद नौकरी तलाशने की जद्दोजहद से गुजरते हुए वक्त की नयी कसौटियों पर खुद को कसाना तमाम उम्र सालतई रहती है।
अशोक लव जी की लघुकथा'अपना घर' पढ़ते हुए मन बहुत बेचैन हो उठा।

सभी पाँचों लघुकथाओं ने एकदम से डिस्टर्ब कर दिया है।

सतीश राठी said...

सभी लघुकथा के महत्वपूर्ण नाम है जिनकी लघुकथाएं यहां पर शामिल की गई हैं और लघु कथाएं प्रभावित भी करती हैं।

विभा रानी श्रीवास्तव said...
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