Friday, 10 June 2016

याद एक सार्थक सफर की / कान्ता राय



अभी, कुछ माह पहले, अखिल भारतीय लघुकथा लेखक सम्मेलन में भाग लेने के लिए हम सब लघुकथाकार 'मिन्नी कहानी' संस्था द्वारा कोटकपूरा पंजाब में आमंत्रित  किये गये थे। वहाँ हम पति-पत्नी दोनों गये थे। उस सम्मेलन का समूचा वातावरण इतना अपनत्वभरा और आकर्षक था कि आज भी भुलाए नहीं भूलता। यही कारण रहा कि जैसे ही  अखिल भारतीय  प्रगतिशील लघुकथा- मंच ,पटना के तत्वावधान में आयोजित  २८वें लघुकथा  सम्मेलन  के लिए आमन्त्रण मिला तो पटना जाने का भी इरादा पतिदेव को बता दिया। वह तैयार तो हो गये, लेकिन तारीख़  तय  होते ही  उन्होंने बताया कि वह साथ नहीं जा पायेंगे, उन्हें उन दिनों में बहुत जरूरी काम रहेंगे। सम्मेलन की तारीख़  बहुत नजदीक की निकलने  की वजह से ट्रेन आरक्षण में बड़ी जटिलता आई, लेकिन श्री सत्यजीत राॅय अर्थात मेरे पतिदेव जी ने मेरी सुविधा के लिए येन- केन- प्रकारेण आने और जाने की मेरी टिकट आरक्षित करवा ही दी । सो निश्चित दिन मैं अकेली ही निकल पड़ी उस यात्रा पर।
पटना मेरे लिए नया नहीं है । मूलरूप से मधुबनी बिहार की रहने वाली हूँ। पूर्व में भी पटना  आती-जाती रही हूँ, इसलिए वहाँ किसी भी तरह की दिक्कत आने का सवाल ही नहीं पैदा होता था। 
११ बजे सुबह रेस्ट-हाउस  पहुँचने, नहाने-धोने  के बाद मैंने आदरणीय सतीशराज जी को अपने पहुँच जाने की सूचना दी।  कुछ ही देर में  वह आदरणीया नीलम पुष्करणा जी को साथ लेकर मुझसे मिलने आ पहुँचे । मैंने उनके चरण छुए तो मातृ-भाव से आदरणीया नीलम जी ने  बड़े लाड़  से गले लगा लिया।  मिलन का वह  क्षण मेरे लिये  बेहद सुखद था ।  
सतीशराज जी उपहारस्वरूप मेरे लिए लघुकथा-विधा पर  अनेक तरह की ढेरों पुस्तकें ( करीब  आठ ) लेकर आये थे । लघुकथा पर आलोचना-संदर्भ में  एक खास तरह की किताब की तलाश  भी मेरी यहीं पर सम्पन्न हुई ।
दिन-रात लघुकथा पर व्यापक रूप से सतत  काम करने के कारण  मेरे पास नाना प्रकार के प्रश्न थे लघुकथा संदर्भ में, कई दुविधाएँ थीं जो मुझे लम्बे समय से उलझाये हुए थी,   उनका निराकरण सही मायनों में अब-तक मिल नहीं पाया था। इसलिए समस्त  प्रश्नएक के बाद एकआदरणीय सतीशराज जी के  सामने प्रस्तुत करती गई और  वे पितृ-भाव से  इत्मिनान से मेरे हर प्रश्न का उत्तर देते रहे ।
उनके आलेखों का संदर्भ-व्याख्या उनकी जुबानी सुनना, मुझे धैर्य से समझाना और चर्चा के दौरान  खासकर लघुकथा में शीर्षक के  महत्व पर उदाहरणस्वरूप जो नये  खुलासे  उनके द्वारा मेरे सामने आये, मैं  अचम्भित हुई ।
पूर्व में कई-कई बार पढ़ी हुई चीजों का स्वरूप उनके मुँह से सुनने के बाद ही साकार हुआ। उनसे चर्चा करने के दौरान लघुकथा संदर्भ में  एक नया  दृष्टिकोण सामने आया। बहुत देर तक चर्चाएँ चलती रही। इसी दरम्यान  सतीशराज जी के पास डॉ॰ ध्रुव कुमार जी का फोन आया आयोजन स्थल से, तो वे मुझे भी आयोजन स्थल दिखाने के लिए अपने साथ ले गये। आदरणीया नीलम जी के संग हम सब भारतीय नृत्य कला मंदिर यानि आयोजन स्थल गये । वहाँ हाॅल वगैरह में अगले दिन के आयोजन सम्बन्धी इंतजाम होते देखा और यहीं पर पहली बार ध्रुव कुमार जी से मिलना हुआ।
ध्रुव  जी का कार्यस्थल मधुबनी ही है। मेरे  मधुबनी की होने को सुनकर वे बहुत हर्षित हुए। आयोजन स्थल पर कुछ देर रहने के बाद मैं वापस अपने कमरे पर लौट आई।  वहाँ से आने के कुछ देर बाद ही आदरणीया विभा रानी श्रीवास्तव जी का फोन आ गया । वे अब पटना में ही स्थायी तौर पर रहती हैं।  वे बहुत नाराज हुईं कि मैंने उनको अपने आने की खबर क्यों नहीं दी । कहने लगींआप अभी रूम छोड़कर हमारे यहाँ चली आओ। लेकिन शाम की धुँधलाहट देखकर बड़ी मुश्किल से उनको मनाया कि अगली बार जब भी आऊँगी, आपके पास ही ठहरा करूँगी । इस बार म्माफ कर दीजिए, वहीं आयोजन में मिल लेते हैं ।
रात में किताब पढ़ते हुए कब नींद आ गई, मालूम ही नहीं पड़ा । सुबह ५ बजे ही  नींद से जाग गई थी । इतनी सुबह जागने की आदत नहीं है मेरी । शायद सम्मेलन और सबसे मिलने के कौतूहल ने ज्यादा देर तक आँखों में नींद को रहने नहीं दिया था ।
खैर, नहा-धोकर अपने समय से तैयार होकर मैं आयोजन स्थल पर पहुँच गई ।
वहाँ धीरे-धीरे सब आने लगे थे। मैं हर पल  आदरणीया नीलम जी के साथ ही रही।
सतीशराज जी और  नीलम जी के बीच रिश्ते का माधुर्य, नीलम जी की अस्वस्थता के प्रति  सतीशराज जी की चिन्ता से साफ-साफ झलकता था।  सतीशराज जी का कार्यक्षेत्र, लघुकथा उद्देश्य और समर्पण उन दोनों के  अलग-अलग रहने का कारण बना हुआ है। आदरणीय सतीशराज जी अपना परिवार त्याग पटना में सिर्फ  साहित्यिक संदर्भ व लघुकथा उद्देश्य के तहत ही रहते हैं । वे लघुकथा- पुरुष के नाम से जाने जाते हैं लेकिन मुझे वो लघुकथा-संत  लगे। अपने निवास स्थान को लघुकथा नगर के नाम से ही नामित किया है। उनके समर्पण को देखकर मै अभिभूत हुई हूँ । सन् 1962 से आज तक का उनका अविराम संघर्ष एक मिशाल कायम करता  है 
आयोजन स्थल पर पहुँचते ही मैं नीलम जी के साथ  पुस्तकें व्यवस्थित करने लगी  थी और इसी सिलसिले में मैंने बहुत-सी किताबों और लेखकों को समझने का प्रयास किया। किताबों को संयोजित करते हुए अंदर की कुछ सामग्रियों पर नजर भी डालती जाती और अभिभूत हो उठती देखकर  कि कितनी समृद्ध है लघुकथा यहाँ इन पुस्तकों में। आदरणीय सतीशराज जी, डॉ॰ मिथिलेश कुमारी मिश्र और डॉ॰ पुष्पा जमुआर जी की लघुकथा विधा पर विविध सामग्रियों का संकलन, समीक्षाओं की किताब, लघुकथा-संग्रह मुझे ललचा गए थे; इसलिए आते वक्त मैंने कुछ और पुस्तकें भी खरीद लीं जिसके कारण मेरा बैग बहुत भारी हो गया था ।
सतीशराज जी ने हॉल में उपस्थित हो चुके लगभग सभी वरिष्ठजनों सहित डॉ॰ पुष्पा जमुआर जी, डॉ॰ अनिता  राकेश जी, वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज जीसिद्धेश्वर जी, लता पाराशर, श्री नागेंद्र प्रसाद सिंह, अवधेश प्रीत जी से आत्मीय परिचय करवाया। डाॅ॰ नीरज शर्मा भी पहुँच चुकी थीं ।  हठात् वहाँ आदरणीय गणेश 'बागी' जी आये। उन्हें देख  मैं हर्षोल्लास से भर  उठी।  लगा, जैसे हमारा अपना कोई अचानक से मिल गया। उनसे मिलने की सुखद अनुभूति को शब्दों में बयान करना मुश्किल है।
ओबीओ की सर्जना उपहार में दी और किसी जरूरी काम के कारण  थोड़ी देर ठहरने के बाद चले गये । जाने से पहले हमने उनके साथ कई फोटो  भी खिंचवाये। मुझे तो लगा ही नहीं कि उनसे हम पहली बार मिल रहे हैं। उस क्षण यह एहसास हुआ कि दिलों के रिश्ते बहुत गहरे होते हैं। ओबीओ परिवार, साहित्यिक नाता जैसे एक अदृश्य बंधन  है जिसमें एक पारिवारिक  लगाव व अपनेपन का  सम्मोहन  है। ऐसा ही कुछ लगाव 'मिन्नी' पत्रिका के द्वारा आयोजित २४वें अंतरराज्यीय लघुकथा सम्मेलन, कोटकपूरा में भी महसूस किया था मैंने ।
मंत्री जी के आने के पश्चात्  ही सभी गणमान्य   अपना-अपना  स्थान ग्रहण कर चुके थे। विशिष्ट अतिथियों  द्वारा दीप प्रज्ज्वलित किया गया । यहाँ  एक नवीन व स्वस्थ परम्परा यह भी देखने को मिली कि अतिथियों का स्वागत फूलों से नहीं वरन् फलों की टोकरियों से हुआ। वाकई सही कह रहे थे डॉ॰ ध्रुव कुमार जी कि फूलों का हश्र दो दिन बाद कचरे के डिब्बे में जाना ही होता है तो क्यों ना फल जैसी उपयोगी वस्तु से  ही सबका स्वागत किया जाये। सार्थक पहल! नया  चिंतन!! नई मिशाल!! सराहनीय कर्म !!!
माननीय मंत्री जी को प्रतीक चिन्ह भेंट करने के उपरांत कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए आदरणीय सतीशराज जी ने लघुकथा के  लम्बे संघर्ष का संक्षिप्त वर्णन करते हुए अपने समस्त साथियोंमहासचिव ध्रुव कुमार जीसंयुक्त सचिव राजकुमार 'प्रेमी' जी का आभार व्यक्त किया।
कार्यक्रम शुरू होने से पहले चाय पानी की व्यवस्था थी ।
उसके बाद ध्रुव कुमार जी ने कार्यक्रम का संचालन सँभाल सामारोह में उपस्थित सभी  अतिथियों का  स्वागत करते हुए प्रतिवेदन पेश किया  और इसके साथ ही सम्मान समारोह शुरू हो गया। इतने समृद्ध मंच से स्वयं को सम्मानित होते हुए देख अपने वरिष्ठों के प्रति  मैं कृतज्ञता से भर उठी । सम्मान सामारोह में 'लघुकथा अंकुर' सम्मान लेते हुए बच्चों को देखकर मन हर्षित हो उठा कि इतने छोटे बच्चे और लघुकथा लेखन जैसी तीक्ष्ण विधा! बात तो आश्चर्य की थी। सम्मान सामारोह सम्पन्न होने के बाद ही पुस्तक लोकार्पण शुरू हुआ ।
चार सत्रों में पूरा कार्यक्रम था। लघुकथा पर आलेख पाठ सुनने के पश्चात् उस पर भी वरिष्ठजनों ने अपनी समीक्षा रखी थी ।  आलेख और उसकी समीक्षा, उसी वक्त लघुकथा लेखन और सामाजिक उद्देश्य सहित कई नये दृष्टिकोण सामने निकल कर आये । साहित्यकार डॉ॰ वीरेन्द्र कुमार भारद्वाज  कुशल मंच संचालक के रूप में भी यहाँ  नजर आये । श्रीमती आभा रानी और डॉ॰ ध्रुव कुमार सदैव मंच पर लघुकथा सत्र को संयोजित करते रहे।  लघुकथा पाठ के दौरान जब 'किलकारी' के बच्चे सामने आये तो यह क्षण हम सबको  विस्मृत करने वाला था । १२ से १६ साल तक के  दस बारह बच्चों ने लघुकथा पाठ किया था जिसमें कुछ लघुकथाएँ बेहद उम्दा  थीं।
समीक्षा-सत्र के दौरान बेबाकी से लघुकथाओं की समीक्षाओं का दौर चला। डॉ॰ मिथिलेश अवस्थी जी सहित डॉ॰ नागेन्द्र प्रसाद सिंह जी और आदरणीय  अवधेश प्रीत जी ने जब समीक्षा का वाचन शुरु किया,तब मुझे वहाँ एहसास हुआ कि व्यक्ति विशेष से परे यहाँ सिर्फ कलम अर्थात्  लघुकथा  ही मायने रखती है ।
दिल खोलकर आलोचना, समालोचनाओं का दौर चला। बिना किसी पूर्वाग्रह के  विधा पर प्रतिक्रियाओं का दौर भी चला। कई वरिष्ठजनों की लघुकथाएँ भी आलोचना की शिकार बनीं और वे वहाँ सामने बैठे मुस्कुराते रहे । सकारात्मकता का ऐसा प्रवाहमय वातावरण बहुत कम ही देखने को मिलता है । सत्र समाप्ति के बाद समस्त आलोचनाओं को मंच पर ही छोड़कर  सब बड़े प्रेम से मिल रहे थे ।
बाहर आने पर आदरणीय अवधेश प्रीत जी से भी लघुकथा लेखन परम्परा पर जरा देर   मेरी चर्चा हुई । उसके बाद विदा होने से पहले आदरणीय सतीशराज पुष्करणा जी, नीलम जी,नीरज जी, ध्रुव कुमार जीमिथिलेश अवस्थी जी  सहित बहुत से लोगों के साथ एक परिचर्चापरक-सा माहौल बीता । सुनियोजित तरीके से आयोजन बेहद सफल और अपने उद्देश्य को परिपूर्ण करते हुए सार्थक  रहा है ।
डॉ॰  नीरज शर्मा के साथ इस बार आदरणीय डॉ॰ सुधांशु जी भी आये थे । उनसे मेरी यह पहली मुलाकात थी। हँसमुख, नर्म दिल सुधांशु जी से मिलकर मैं प्रभावित हुई।  यहाँ डॉ॰ मिथिलेश कुमारी मिश्र जी से  मुलाकात मैं अपनी बड़ी उपलब्धियों में ही गिनती हूँ।
आदरणीया डॉ॰ पुष्पा जमुआर जी से एक आत्मिक लगाव भी पाया मैंने । उन्होंने भी लघुकथा तकनीक पर मेरी कई भ्राँतियों को दूर किया है। पटना से आने के बाद भी उनको मै अपने बेहद  करीब पाती हूँ। आदरणीया  अनिता राकेश जी भी  समृद्ध साहित्यिक परम्परा का निर्वाह करती हैं। आदरणीया विभा रानी श्रीवास्तव जी से जब मिली तो ऐसा लगा जैसे कोई सहेली बरसों बाद मिल रही हो।  हम सब एक साथ बैठकर दिनभर लघुकथा को जीते रहे मानो पीते रहे। सुबह साढ़े दस बजे से रात साढ़े आठ बजे तक सिर्फ लघुकथा,और कुछ नहीं, खूब चर्चा सुनी वहाँ ।
आते वक्त आदरणीय डॉ॰ मिथिलेश अवस्थी जी का साथ स्टेशन तक पाया। करीब डेढ़ घंटे हम स्टेशन पर साथ रहे। वह बेहतरीन लघुकथाकार होने के साथ-साथ एक समृद्ध समीक्षक भी हैं। मुझे मौका मिला तो मैंने स्टेशन के फूड कोर्ट में बैठकर टेबल पर  अपनी ८-१० लघुकथाओं की समीक्षा उनसे करवाई। सामने बैठकर वे जब मेरी लघुकथाओं में गलतियाँ निकालते और  बार-बार मुझे पूछते कि 'आपको बूरा तो नहीं लग रहा है ?' और मैं मुस्कुराकर कहती'नहीं ,जरा भी नहीं ।'
दरअसल मैं सामने बैठकर कथाओं को आकलन करने के  उनके दृष्टिकोण को आत्मसात्  कर रही थी । उस वक्त मैं शनैः शनैः जान रही थी कि किस तरह सूक्ष्मता से पंक्तियों को परखा जाता है। किस तरह कोई एक शब्द पूरी लघुकथा को परिभाषित कर जाता है। सकारात्मकता से भरपूर  बेहद उदार मन पाया था उनमें । उनके साथ बिताया हुआ डेढ़ घंटा स्टेशन पर मेरे लिए लघुकथा कर्मक्षेत्र में संजीवनी के समान था ।

कान्ता राय
उनकी ट्रेन आ गई थी और वे नागपुर के लिए विदा हुए। मैं अपनी ट्रेन के इंतजार में वहीं रह गई कि अचानक उत्साह से भरे  दो युवक मेरे समक्ष आकर  खड़े हो गये । मैं अपनी प्रतिक्रिया देती उससे पूर्व ही उनमें से एक ने  अपना परिचय राघवेंद्र चिंगारी के रूप में दिया तो याद आया कि आज मेरे साथ ये भी तो सम्मानित हुए हैं वहाँ। एक ही ट्रेन और एक ही बोगी में हमारा रिजर्वेशन था। फिर तो मेरा आगे का सफर भी बहुत अच्छा गुजरा। वे बहुत अच्छी  ग़ज़लें भी लिखते हैं। उनकी कई गजलों की रेकाॅर्डिंग भी हो चुकी है आकाशवाणी के वरिष्ठ कलाकारों द्वारा। रात डेढ़ बजे तक हम लघुकथा से जुड़ी  साहित्य-चर्चा  करते रहे। सुबह उनका स्टेशन आया तो फिर से मैं सफर में अकेली थी। 
सच कहूँ तो इस बार का सफर एक बार पुन: मेरे लिये सार्थक रहा। सुनहरी यादों का कारवाँ मेरे संग-संग चल रहा है अब तक।  इन दोनों ही सम्मेलनों में मैंने लघुकथा को पल-पल जिया है।


2 comments:

पवन जैन ,जबलपुर said...

आदरणीय कांता राय जी आपके इस जीवंत संस्मरण ने हमे भी सम्मेलन का हिस्सा बना दिया ।पटना में आयोजित अट्ठाइसवे लधु कथा सम्मेलन में आपको
सम्मानित किया जाना गौरव की बात है।आपने एक दिन भरपूर लधु कथा को जिया है ।आपका यह संस्मरण सम्मेलन की रपट की झलकी देता है तथा
सुखदायी अहसास है।अनेकानेक बधाइयाँ स्वीकार करें इस उपलब्धि हेतु।

विश्वमोहन said...

बहुत सुन्दर! बताइये मैं नृत्य कला मंदिर के ठीक सामने आकाशवाणी में ही हूँ और मुझे पता भी न चला कि कब हुआ। संभवतः सरकारी दौरे पर बाहर चले गए होंगे। लेकिन अगर देखता, तो भी उससे जीवंत आपकी ये सुनहरी यादों का कारवाँ ही है। बधाई!!