Monday, 16 May 2016

कुणाल शर्मा की लघुकथाएँ

भाई श्याम सुन्दर अग्रवाल के सौजन्य से अम्बाला निवासी युवा कथाकार कुणाल शर्मा की कुछ लघुकथाएँ प्राप्त हुई हैं। उन्हें 'जनगाथा' पर प्रस्तुत किया जा रहा है।                          ----बलराम अग्रवाल


कुणाल शर्मा : 9728077749
मुक्ति
 
पिता की इच्छा थी कि उनकी अस्थियाँ गंगा में प्रवाहित की जाएँ।
उसकी गाँठ में जो पैसा था, वह तो अंत्येष्टि-क्रिया में ही लग गया था। अब अस्थियां प्रवाहित करने और तेरहवीं के कर्मकांड बाकी थे। रिश्तेदारों से कुछ रुपये उधार लेकर अस्थि-विसर्जन के लिए उसने हरिद्वार की ट्रेन पकड़ ली। पिता की मौत से दुखी वह सोच रहा था कि तेरहवीं के लिए किसके आगे हाथ पसारेगा। उसकी हालात तो इतनी खस्ता थी कि वह हर रोज कुआँ खोदता और पानी पीता था। आने वाले ख़र्च के बारे में सोचकर उसके माथे पर चिंता की लकीरें खिंच गई थी।
ट्रेन स्टेशन पर रुकी।  वह गले में अस्थियों की पोटली बांधे गंगा के अस्थि-विसर्जन घाट की ओर चल दिया। उसे देखते ही हाथ पसारते भिखारियों की चौकड़ी उसके पीछे लग गई । कुछ के हाथ में पैसे टिकाकर तो कुछ को डांट-डपटकर उसने उनसे अपना पीछा छुड़ाया । सफ़ेद वस्त्र और मुंडे सिर को देखते ही घाट पर पंडों ने गिद्धों की तरह उसे घेर लिया । इधर-उधर से पूछता-पछाता वह बड़ी जहमत से अपने कुल के पंडे के पास पहुंचा। पंडे ने अस्थि-विसर्जन की तैयारी शुरू की। पंडे के मंत्र रूपी बाण सीधे उसकी जेब पर प्रहार कर रहे थे। कभी इस नाम के तो कभी उस नाम के पैसे। हर मंत्र के साथ उसकी जेब से पचास-सौ ढीले हो रहे थे। वह अंदर तक भुन चुका था और उसकी मुट्ठियाँ भिंची जा रही थी। पंडा भी उसके चेहरे पर उतरे गुस्से को भांप गया था। इसलिए उसने बिना और देर किए आखिरी पटकनी दी, "यजमान, गऊदान के ग्यारह सौ रुपये!"
तमतमाते हुए वह उठा और स्वयं ही पिता की अस्थियां गंगा में बहा दीं।
अब वह हल्का महसूस कर रहा था।

उपेक्षित

वह कक्षा में फर्श पर अकेला बैठा रहता था। कक्षा के लगभग सभी विद्यार्थी उसे अपने साथ बेंच पर बैठाने से कतराते थे। उसकी पैंट की दोनों जेबें उधड़ी रहतीं और ऊपर के दोनों बटन कमीज से नदारद। शरीर हड्डियों का ढांचा था और दाँत पीले पड़े हुए थे। उसके करीब खड़े होने पर बदबू का एक तेज भभूका नथुनों में उतर जाता। अपने पीरियड में तो मैं उसे दूसरे बच्चों के साथ बेंच पर बैठा देता, परंतु बाद में वह फिर से फर्श पर बैठा नजर आता। पिछले कई रोज से मैं उसे अपने विषय की पाठ्य-पुस्तक लाने के लिए टोक रहा था, परंतु वह रोज एक ही जवाब देता,  " मास्टर जी,  कल ले आऊंगा।"
उस दिन मैंने कक्षा में पढ़ाने के लिए पुस्तक खोलते हुए  सभी विद्यार्थियों पर एक नजर डाली। वह कक्षा में अकेला था जो फिर से किताब नहीं लाया था।
 "क्यों बे, तू आज भी किताब नहीं लाया?" मैं उस पर गरजा।
“मास्टर जी, कल ले आऊंगा।"
उसका जवाब सुनकर मैं गुस्से से भर गया> बालों से पकड़कर उसके गाल पर चार-पांच थप्पड़ जड़ते हुए बोला,  " किताब क्यों नहीं लाता तू?… क्या करता है तेरा बाप?"
"मास्टर जी, इसके माँ-बाप नहीं हैं, अपने चाचा के पास रहता है।" उसकी बगल में बैठा लड़का बोला।
यह सुनकर मेरा गुस्सा थोडा हल्का पड़ गया मानो किसी ने गर्म तवे पर पानी के छींटे मार दिए हों। चेहरे पर बनावटी गुस्सा लिए मैंने फिर से उससे जवाब-तलब किया,  "अबे गधे, जब तेरे पास किताब ही नहीं है तो स्कूल में क्या करने आता है?"
"जी..जी.. स्कूल में भरपेट खाना मिल जाता है।" उसने सुबकते हुए जवाब दिया।
उसका जवाब सुनकर मैं निरुत्तर-सा हाथ में पुस्तक थामे कुर्सी में धँस गया।

फर्क 

बस का इंतजार करते हुए बीस मिनट गुजर चुके थे । तभी मेरी नजर दूर से आती एक प्राइवेट बस पर पड़ी। एक झटके के साथ ठहराव पर आकर वह रुक गई । कुछ अन्य सवारियों के साथ मैं भी बस में सवार हो गया। पीछे की एक खाली सीट पर बैठकर मैंने खुद को व्यवस्थित किया। तभी मेरी दायीं तरफ वाली सीट पर एक बजुर्ग आकर बैठ गया। उसने मैला-सा कुर्ता पायजामा पहना था तथा आँखों पर मोटे शीशों की ऐनक चढ़ाई हुई थी। अभी मैं उसे ध्यान से देख ही रहा था कि  कंडक्टर ‘टिकट-टिकट’ बोलता हुआ मुझ तक आ पहुँचा। मैंने अपना गंतव्य बताते हुए जेब से पैसे निकाल उसकी ओर बढ़ा दिए। हाथ में पकड़ी टिकट_मशीन पर उंगलियां चलाते हुए कंडक्टर ने टिकट निकालकर मुझे थमा दी।
"बाबा टिकट?" कंडक्टर उस बजुर्ग से मुख़ातिब होते हुए बोला।
कुर्ते की जेब से बीस का एक नोट निकाल बजुर्ग ने उसकी तरफ बढ़ाते हुए कहा, "एक टिकट मूदपुर की।"
"पाँच रुपये और, मूदपुर की टिकट पच्चीस रुपये की है।"
"बेटा, सरकारी बस में तो बीस रुपये ही लगते हैं।"
"बाबा, ये कोई खैराती बस नहीं है, फटाफट पाँच रुपये निकाल, मुझे आगे भी टिकट काटनी हैं।" इस बार वह तल्ख़ी से बोला।
"पाँच रुपये तो अभी है नहीं,  देख ले बेटा …" वह थोडा गिड़गिड़ाया।
"बाबा, दिमाग ना खराब कर,  अब यहीं उतर ले।" कहकर उसने सीटी बजा बस रुकवाई और बाजू पकड़कर बुजुर्ग को बस से नीचे उतार दिया।
"पता नहीं कहाँ-कहाँ से चले आते है।" वह बुदबुदाता हुआ आगे बैठी सवारियों की ओर बढ़ गया।
"
मैडम टिकट?" मेरी सीट से दो सीट आगे जींस-टीशर्ट में सिर पर काला चश्मा लगाये बैठी लड़की से वह बोला।
"एक टिकट मूदपुर।" कह उसने बीस का नोट कंडक्टर की ओर बढ़ाया।
"मैडम, पाँच रुपये और?" लड़की अपना पर्स टटोलने लगी।
"सॉरी, आई डोंट हैव द चेंज।" वह चेहरे पर मुस्कान बिखेरती हुई बोली।
"ओके-ओके, नो प्रॉब्लम।" कंडक्टर ने प्रत्युत्तर में कहा और लड़की की ओर मुस्कान फेंकता हुआ आगे बढ़ गया।

 कंजक

अष्टमी का दिन था। आज वह जल्दी उठ गई थी। नहा-धोकर हलवे-पूड़ियों का प्रसाद तैयार कर, वह पूजन की तैयारी में जुट गयी।  अब इंतजार था तो केवल कंजक जिमाने का। अष्टमी का दिन, कंजकें जल्दी-जल्दी मिलती भी कहाँ है!
"जाओ जी, आप अड़ोस-पड़ोस से कंजकों को बुला लाओ।" उसने पतिदेव को आवाज दी।
कुछ देर बाद  रंग-बिरंगी पोशाकों में खिलखिलाते चेहरे लिए चार-पांच कंजकें आ गई। वे हाथों में हलवा-पूड़ी की प्लेट और तरह तरह के उपहार लिए थी। उसने उनके पाँव धोकर तिलक लगाया और हलवा-पूड़ी की प्लेट के साथ एक-एक उपहार उनके हाथ में रख दिया।
"आंटी, ये चीज और पैसे दे दीजिये बस, हलवा-पूड़ी रहने दो, हमारे पास पहले से ही बहुत है," वे बोलीं।
          यह सुनकर उसका चेहरा मुरझा गया। इतने प्रेमभाव से बनाये गए प्रसाद का निरादर जो था। परंतु वो कहती तो क्या कहती, आखिर कंजकें थीं और अष्टमी का दिन था। पैसे और उपहार देकर उसने कन्याओं को विदा किया।
भर गर्मी में वह प्रसाद लेकर मन्दिर को चल दी। उसका चेहरा उदास और मन मायूस था। मन्दिर के गेट के पास हाथों में लिफ़ाफ़े लिए आठ-दस बच्चों की टोली बैठी थी। उनके बाल बिखरे हुए थे और पाँव नंगे थे। दो-तीन बच्चे तो अर्धनग्न ही थे। अभी मन्दिर के गेट पर उसके पाँव पड़े ही थे कि आँखों में चमक लिए बच्चों ने उसे घेर लिया। उसने साथ लाई पूड़ियाँ अभी प्लेट से उठाई ही थीं कि बच्चों में धक्का-मुक्की शुरू हो गई। हलवा-पूड़ी लेने के लिए कई हाथ आगे बढ़े। उसकी थाली साफ हो चुकी थी और दो बच्चे अभी भी उसका मुँह देख रहे थे।
मंदिर में माथा टेक कर घर लौटते हुए अनायास ही उसके चेहरे पर मुस्कान उभर आई थी।
       
काले अंगूर  

“ऐसे बिस्तर पर कब तक पड़े रहोगे , जाकर डॉक्टर को क्यों नहीं दिखा आते?" वह चूल्हे पर पतीली चढ़ाते हुए बोली।
"पल्ले पैसा नहीं है, फेरी लगाये भी चार दिन हो गए। कुछ पैसा कमाऊँ तो डॉक्टर के पास जाऊँ।" वह थोड़ा खीझते हुए बोला।  
साड़ी के पल्लू में लगी गाँठ खोलकर वह कुछ नोट उसकी ओर बढाती हुई बोली, "शरीर नहीं चलेगा तो गुजर-बसर भी दूभर हो जाएगा। अब जाकर दिखा आओ।”  
उसने चारपाई से उठकर साइकिल बाहर निकाला ही था कि उसकी बेटी भी साथ जाने की जिद्द करने लगी। उसने उसे साइकिल पर आगे बिठाया और डॉक्टर को दिखाने निकल पड़ा।
क्लीनिक पर डेढ़ सौ रुपये फीस भर, वह हाथ में पर्ची थामे डॉक्टर के केबिन में दाखिल हुआ। डॉक्टर ने उसे चेक किया और बोला,  "भइया, ये दवाइयाँ ले लेना। और हाँ, तुम्हारा ब्लड प्रेशर बहुत कम है, पहले जाकर एक गिलास जूस पियो वरना बिस्तर से उठना मुश्किल हो जाएगा।"  
वह क्लीनिक से बाहर निकल आया। कमजोरी के कारण वह खड़ा भी नहीं हो पा रहा था। उसने साइकिल उठाई और जूस की दुकान की ओर बढ़ गया। दुकान तक पहुँचते-पहुँचते उसकी साँस फूल गई थी। उसमें रखे काले अंगूरों को देखकर बेटी बोली, " पापा, पापा काले अंगूर खाने हैं!"
जेब में हाथ डाला तो दस-दस के तीन सिकुड़े हुए नोट हाथ लगे।
"बेटे, आज पैसे नहीं है, फिर ले लेंगे।" बच्ची के सिर पर हाथ फेरते हुए वह बोला।
"ठीक है पापा!" दबी आवाज में बच्ची बोली और चुपचाप उसका हाथ पकड़कर खड़ी हो गई। उसने एक नजर ‘चर्र-चर्र’ करती जूस की मशीन पर डाली और फिर बच्ची की ओर देखा। वह अभी भी काले अंगूरों को देख रही थी। जेब से पैसे निकालकर वह दुकानदार की ओर बढ़ाते हुए बोला, "भइया, एक पाव काले अंगूर देना।"
दुकानदार से लेकर अंगूर का लिफाफा उसने बच्ची को थमाया और साइकिल पर बैठाकर उसे पैदल ही खींचते हुए घर को चल  दिया।

















5 comments:

Niraj Sharma said...

बहुत अच्छी रचनाएं एक से बढ़कर एक

Vibha Rashmi said...

कुणाल शर्मा जी की लघुकथाएँ मैं पढ़ती रही हूँ। ।उनकी लघुकथाएँ ज़मीन से जुड़ी व हमारे आसपास की लगती हैं । मुंडे दी कलम विच स्पार्क दिसदा पया है
आगे भी बहुत संभावनाएँ हैं ।बधाई ।

पवन जैन said...

कुणाल जी ने हमारे आसपास से बढिय़ा कथा उठाईं है
अनेकानेक बधाइयाँ ।

LAGHUKATHA VRITT - RNI- MPHIN/2018/77276 said...

आदरणीय कुणाल शर्मा जी एक सजग लघुकथाकार है आपकी सभी लघुकथाएं बेहतरीन है . बहुत -बहुत बधाई आपको

Abhishek Tiwari said...

Sir, I like your short stories very much. I have read many of your short stories. All are more than one. Sir, I am proud that I am your student.