Sunday, 25 October 2015

खेमकरण ‘सोमन’ की चार लघुकथाएँ

(1) इनसान

दंगे ने पूरे शहर को चपेट में ले लिया था, और वह अपनी जान बचाकर भाग रहा था। परन्तु ज्यादा दूर तक भाग न सका। सामने ही दस-पन्द्रह दंगाई खड़े थे। वह अन्दर तक काँप गया।
"क्या नाम है तुम्हारा?" उनमें से एक दंगाई ने पूछा।
"मेरा........मेरा नाम रहीम है।" वह घबराया, "मुझे जाने दो।"
"ओह, ये तो अपनी ही जाति-बिरादरी का है।" उन दंगाइयों में से वही पहला बोला, "ठीक है जाओ। निकल जाओ।"
वह आगे बढ़ा और सोच में पड़ गया। अभी बमुश्किल तीन-चार गलियाँ ही फाँदा होगा कि सामने ही दूसरे गुट के दर्जनों दंगाई हथियार लिए खड़े थे।
"क्या नाम है तुम्हारा?" उनमें से एक दंगाई ने पूछा।
"मेरा........मेरा नाम राम है।" वह घबराया, "मुझे जाने दो।"
"ओह, ये तो अपनी ही जाति-बिरादरी का है।" उन दंगाइयों में से वही पहला बोला, "ठीक है जाओ। जल्दी निकल जाओ।"
अब तो वह और भी गहरी सोच में पड़ गया। सोचता हुआ अभी कुछ ही दूर चला था कि तुरन्त भागता हुआ आया और दंगाइयों के सामने खड़ा हो गया।
"माफ करना।"  उसके चेहरे से डर के सारे भाव गायब थे। जोर से बोला, "मेरा कोई भी नाम नहीं है और न ही कोई धर्म है। मैं तो बस एक इनसान हूँ। हाँ, सबसे पहले एक इनसान।"
"इनसान है तो साले ये ले!" झट दूसरे दंगाई ने उसके पेट में तलवार घुसेड़ दी। तीसरे दंगाई ने एक जोरदार लात मारी। वह वहीं छटपटा कर दम तोड़ गया।


(2)  बंजरभूमि

लड़का छब्बीस साल का था और लड़की चैबीस साल की। दोनों ही रिसर्च स्काॅलर थे। दोनों में जबरदस्त प्यार था। दोनों साथ रहते थे।
लड़की ने अपने घर वालों को बता दिया कि ऐसी-ऐसी बात है, ये दिन ये रात है। घर वाले भी बहुत खुश हुए। लड़की के पिताजी ने कहा, ‘‘लड़का दूसरी जाति का, इससे हमें कोई समस्या नहीं है। हमें बेहद खुशी है कि हमारी बच्ची ने एक सही जीवन साथी की खोज की है।’’
एक दिन लड़के ने लड़की से कहा, ‘‘अवन्तिका, मुझे उस दिन का इन्तजार है जब हमारी शादी होगी। तुम्हारे पिताजी मुझे अच्छा-खासा दहेज देंगे। तब मैं अपने बहुत-से सपने साकार कर पाऊँगा। मैं अपने बल पर कुछ करना चाहता हूँ!’’
लड़के की बात सुनकर लड़की आहत हुई। उसने लड़के को ध्यान से देखा। वह उसे बंजरभूमि समान नजर आया। हाँ! उस भूमि की तरह, जो उपजाऊ होने का स्वाद नहीं जानती।
उसने उसी दिन एक बड़ा निर्णय लिया।


(3)  बहुत हुआ

शाम ढले एकाएक रोशनी का भभूका-सा उठा। जब तक कोई कुछ समझ पाता, तब तक बाहरी बस्ती में लाइन से खड़ी सातों झुग्गियाँ राख के ढेर में तब्दील हो चुकी थीें। कई मजदूरिनें तो 'माई…ऽ…बापू…ऽ…' डकराती हुई पछाड़ खाकर जमीन पर लोट-पोट होने लगीं और बेहोश हो गयीं। उनकी जमा-पूँजी, अन्न-अनाज सब-कुछ खत्म हो चुका था।
धीरे-धीरे रात घिरने लगी। छोटे-छोटे बच्चे बिना खाये-पीये ही सो गये; लेकिन युवा और वृद्ध मजदूरों की आँखों में नींद दूर-दूर तक न थी। हाँ! पानी जरूर था। सभी एक जगह मिल-बैठकर इस विपत्ति का हल खोजने की बातें कर रहे थे।
उनके बैठने से कुछ ही दूरी पर  मिट्टी की दीवारों वाले कुछ पुराने-से खुले-खुले मकान थे। ठंडी हवा का हल्का-सा झोंका आते ही, उनमें से एक के अन्दर से आवाज आनी शुरू हुई--"बहुत हुआ! बहुत हुआ! अब सहना मुश्किल है। मुझसे तो देखा नहीं जाता! बेटा, जल्दी से रजाई, दरी, चद्दर और कपड़े निकालो। आटा-चावल, सब्जी--जो मिले, सिर पर रखो। सर्दी बढ़ रही है।"
यह आवाज बाकी घरों ने भी सुनी। बतियाते मजदूरों ने घने अंधकार से निकलकर अपनी ओर बढ़ते कुछ सायों को देखा।

(4)    पावर वाले
उसने देखा कि इस समय वह आम जनता के बीच में खड़ा है।
दूसरी तरफ नंगे लोगों की एक विशाल फौज खड़ी है। शरीर पर एक भी कपड़ा नहीं; बल्कि कपड़ों की जगह अजीबो-गरीब कीड़े रेंग रहे थे। उसे और आम जनता को देखकर नंगे लोग एक दूसरे के पीछे छिपने-छिपाने की कोशिश करने लगे।
वह जोर से चिल्लाया,‘‘अरे हरामियो! अब तुम सबको शर्म आ रही है! अब चेहरा छुपा रहे हो! कुत्तो!, जिस देश में रहते हो, जनमते हो, उसी देश को कंगाल कर देते हो। जनता भूखी-प्यासी मर जाती है और तुम सब उन्हीं के पैसों से फाइव स्टार होटलों में बेशर्मी के साथ रातें गर्म करते हो! देश का सारा पैसा लूटकर अपने घर में और विदेशी बैंकों में डाल रहे हो। अरे! पढ़े-लिखे युवाओं को भी छल-बल से सेना बनाकर अपने पीछे घूमाते-फिराते हो। उन्हें धोखे मेें रखते हो। मैंने कहा था न कि एक दिन तुम जैसे नेताओं को तो नरक में भी जगह नहीं मिलेगी! नंगे पड़े रहोगे। कीड़े पड़ेंगे। और देख लो… आज चेहरा भी दिखाने लायक नहीें बचे हो! थू...थू है तुम सब पर!’’
‘‘अरे भाई, किस पर थू-थू कर रहे हो?" उसके पिताजी ने उसे नींद से जगा दिया और बोले, ‘‘इतना पढ़-लिखकर भी तुम बेरोजगार हो! ऊपर से गलत-सलत सपने भी देखते रहते हो। अब उठो भी...देखो...बाहर वो नेताजी आये हैं। जाओ, चुनाव में उनके प्रचार-प्रसार के लिए दिन-रात एक कर दो। दयादृष्टि बनी रहेगी तो जल्दी ही कहीं सेटलमेण्ट करवा देेंगे। बहुत पावर वाले हैं। नहीं, तो घूमते ही रहोगे इधर-उधर जीवन भर!’’
‘‘बस पिताजी!’’ वह गुस्से में उबल पड़ा, ‘‘इसी दिन के लिए पढ़ाया था आपने मुझे कि सेना बनकर घूमता रहूँ इनका! जाकर कह दीजिए इनसे, भाग जायें तुरन्त; वरना एक-एक का सिर फोड़ डालूँगा!’’
पिताजी शीघ्र ही कमरे से बाहर निकल गये।


खेमकरण ‘सोमन’
जन्मतिथि: 02 जून 1984
जन्मस्थान: भूरारानी, रुद्रपुर, जिला: ऊधम सिंह नगर (उत्तराखण्ड)
शिक्षा      : एम.ए. (हिन्दी), बी.एड., टीईटी, यूसेट, यू.जी.सी. नेट/जे.आर.एफ.

प्रकाशित रचनाएँ: कथादेश, कथाक्रम, नया ज्ञानोदय, लमही, वर्तमान साहित्य, अलाव, अक्सर, पाठ, सर्वनाम, संरचना, उत्तरा महिला पत्रिका, दैनिक जागरण, कृति ओर, अविराम साहित्यिकी, आधारशिला, आजकल, अमर उजाला और प्रतिश्रुति इत्यादि पत्र-पत्रिकाओं में कविता, कहानी, लघुकथा और आलोचना प्रकाशित व इन दिनों पहले कविता संग्रह की तैयारी
सम्प्राप्ति:
* दैनिक जागरण द्वारा कहानी ‘लड़की पसंद है’ पर युवा रचनाकार प्रोत्साहन  पुरस्कार
* कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता 2012 द्वारा लघुकथा ‘अन्तिम चारा’ को तृतीय पुरस्कार

सम्प्रति: शोधछात्र व स्वतऩ्त्र लेखन

सम्पर्क: द्वारा बुलकी साहनी, प्रथम कुंज, ग्राम व पोस्ट- भूरारानी, रुद्रपुर, जिला--ऊधम सिंह नगर, उत्तराखण्ड-263153   /      मो.: 09012666896, 09045022156    
Email- somankhemkaran@gmail.com

1 comment:

Shyam Bihari Shyamal said...

जीवंत लघुकथाएं.. चौथी रचना बेहद मुखर और पारदर्शी.. बधाई सोमन जी..