10 जुलाई 2015 को श्रीमती विभा रश्मि की चार लघुकथाएँ 'जनगाथा' पर पोस्ट की थीं। आज प्रस्तुत हैं उनकी कुछ और लघुकथाएँ। उनके अनुसार, इनमें से कुछ पूर्व प्रकाशित लघुकथाओं का उन्होंने पुनर्लेखन किया है तथा कुछ ताजा लिखी, अभी तक अप्रकाशित भी हैं।
॥ 1 ॥ हथेली पे उगता सूरज
अभी भोर नहीं हुई थी कि पहाड़ी गाँवों में धरती
ज़लज़ले से काँप उठी। धमाकों के साथ कच्चे-पक्के निर्माण ध्वस्त हो गये। कुदरत का
तांडव व तबाही का दिल दहलाता मंज़र..।
त्रासदी से बचेे रहवासी बार-बार धरा के कंपन और
भूस्खलन से भयातुर हो पगलाये से सुरक्षित आश्रय तलाशते रहे।
सामूहिक चिताओं के सुलगते ही
मानवता का दर्द फूट आसमाँ की आँखों से भी बहने लगा, चिताओं के जलने और
दवाओं की दुर्गंध सर्द हवा में ठहर सी गई थी।
तबाही के इस मंज़र को कैमरे में
कै़द करने की, देसी-विदेशी मीडिया कर्मियों में होड़-सी लगी थी।
दुखिया माँ-बेटी, मलबे
में तब्दील अपने आशियाने के निकट तीन दिनों से बैठीं थीं। उसके सपने चिताओं के संग
भस्म हो चुके थे।
उस औरत की गठरी में वितरित किये
गये भोजन के पैकेटों को उसकी नन्हीं बेटी
बिखेरने का खेल खेलने की जि़द कर रोने लगती।
''धल चल ना'' नन्हीं
की जि़द।
पर कहाँ था उसका आशियाना? माता-पिता
व पति की याद कर वो मलबे की ओर देख, मुँह में आँचल ठूँस फफक
पड़ी.....।
धीरे-से खिसककर वो अपने घर के
मलबे के सामने जा बैठी। तभी नन्हीं एक ईंट का टुकड़ा उठा लाई। माइती की बाँह पकड़
गोद में चढ़ गई और ईंट का टुकड़ा उसे थमा दिया।
"ले मइती ! धल ले ले ...ले तेला
धल।’’
ईंट को कस के थामकर उसने स्वयं को अपने घर की चौखट
पर खड़ा पाया...।
बेटी को गोद में समेट कर वो बुदबुदा उठी--'फिर
बाँधूंगी घर....।’
॥2॥ अंधेरा
डाॅक्टर की पर्ची दुकानदार को थमा कर भी चच्ची शांत
नहीं हुई। ‘‘कित्ते पैसे हुए इन मुई लाल-पीली गोलियों के?’’
दाम सुनकर चच्ची ने बुर्के का
पर्दा उलट दिया , ’’इत्ती ज़रा-ज़रा सी गोलियों के दो सौ रूपइए, लूट
मच रही है लूट, अरी तू पैदा क्यों हुई मरी..!’’
पलट कर चच्ची ने शन्नो का झोंटा
खींच दिया, वह ‘उई अम्मा’ कह, कराह कर रोने लगी।
चच्ची
की आंँखों से आग बरस रही थी। बेटी की तरफ़ मुड़ कर वह फिर चीख़ने लगीं, ‘‘ज़ीनत
की बच्ची से वसूलूँगी सारे पैसे..... वही मरने आयी थी नल पे.....झगड़ा मुझ से
था.बाल्टी खेंच मारी शन्नों के....नीचे के दाँत तो बिल्कुल गये। ज़रा-सी बच्ची
बिलबिला गयी..कित्ता जुलम।’’
‘‘अरी
चोप्प कर भली मानस, सड़क पर च्यों गला फाड़े है।’’
सकीना चच्ची को खींचकर सड़क पर
ले आयी। उसका बढ़ा हुआ हाथ झटक कर चच्ची
बोली, ‘‘मैं च्यों चुप्प करूँ! क्या पता था ,मेरा
बदला चुड़ैल औलाद से निकालेगी, अब तो आॅपरेशन होगा। कै दी है, दो
हज़ार रूपये की चपत पड़ेगी........खाँसे लाऊँ....डाका डालूँ या कुँए में कूद
जाऊँ....?’’
चच्ची फिर शुरू हो गयी, ‘‘ऐसे
ही हमारे चूल्हे औंधे पड़े हैं, उनके चूल्हे तो मटियाले हो रहे
हैं...उनके ख़सम जवान बैठे हैं...ला-लाकर खिला देंगे......।.भाग तो हमारे ही फूटने
थे, कौन लायेगा कमा कर......भरी जवानी में शराब की लत
ले धँसी!’’
अपने शराबी खाविंद को याद कर वो गालियाँ देती रही।
शन्नो
डर कर सकीना से लिपट गयी। उसकी ललछोई
आँखों में भय छिपा बैठा था। धोबियों का मुहल्ला पार कर के वो अपनी सरहद में पहुँच
गयी थी।
ओसारे में खाट पर दवाइयों को पटक कर चच्ची जीनत से
लड़ने चल पड़ीं। शन्नों को लगा इस बार वे अपने दांँत भी तुड़वा कर लौटेंगी..।
अकेली जायेंगी और...ज़ीनत का पूरा कुनबा टूट पड़ेगा।
अम्मी के ओझल होते ही शन्नो दर्द
के मारे रो पड़ीं।
उसके चोट से टूटे दाँत कम, भूख
से बिलबिलाती आँतें ज़्यादा दुख रही थीं। उसने सोचा....बाजी की तरह वह भी अंधे
कुएँ में कूदकर जान दे देगी।
पर अम्मी,नानी
से कहे थीं कि अंधा कुआँ बड़ा गहरा था, जिसमें....।
॥3॥ भरोसा
हाइवे पे बने ताया के ढाबे के पीछे कबाड़ में जिंदो
का छोटा पुत्तर तीन दिनों से नशे में बेसुध पड़ा था। उसने गाँव वापस जाने से साफ़
इंकार कर दिया था।
बड़ा पुत्तर कनाडा जा बसा था।
पैसे भी भेज देता था।
जब से छोटा झूठ बोलने और पैसे
चुराने लगा था पापा जी की नाराज़गी और सख़्ती उस पर बढ़ गई थी...।
फ़ेल होने के कारण आखि़र स्कूल
से उसे प्रताडि़त कर निकाल दिया गया।
घर में पापा जी की मार और सख़्ती
से डर वो घर से भाग ताई के ढाबे में आ टिका था। कलह और तमाशे के डर से जिंदो बेटे
को दिल ही दिल में याद कर लेती।
आवारा
निखट्टू लड़कों ने दोस्ती के बहाने उसका हाथ थामा और नशे का आदि बना दिया। अब उनकी कुसंगति में नशे की सूइयाँ चुभो कर जिंदो का पुत्तर अपनी
बाजू छलनी कर के पड़ा रहता ।
ढाबे
में दिन भर ग्राहकों की चहल-पहल रहती।बाहर मंजियों पे ग्राहक बैठे-लेटे रहते।
ताई बड़ी जिगरा वाली थी।
ढाबे के इर्द-गिर्द मँडराते
नशेडि़यों को ताई बेंत से पीट के खदेड़ती। कबाड़ में छिपा कर रखी नशीली पुडि़यों
को वो कचरे में फेंक आती।
रोट्टी
खा लै... ताई रोटी-दाल के लिये उसे झिंझोड़ कर उठाती।
अनुभवी ताई जान गई थी कि मुंडे
नू भरोसे ते प्यार दी लोड़ हैग्गी.....।
ढाबे में एक तरफ ख़राब पडे़
टी.वी. को जिंदो के निकम्मे बेटे ने ठीक कर के चला दिया । ताया को तो यकीन हीं न हुआ। पर ताई ने उसके सिर पे हाथ
फेरा .... वो गुमसुम सा पिछवाड़े जा कर फिर सो गया।
एक सुबह...ताया बड़े ख़ुश थे ।
सुण नी....कल्ल पुत्तर नू मत्था
टिकाण गुरुद्वारे लै चलांगे अस्सी......मुंडे नू कोई समझ नहीं पाया... वाहेि-गुरु
दी जो मर्जी...।
हुण वाहे गुरु दी किरपा से बच्चे
दा सुख साड्डे नसीब-ते. ..।
ताया ने ऊपर आकाश की ओर देख कर तसल्ली की गहरी साँस
ली।
॥4॥ रिश्ता
श्रावन की पूनो आने में अभी वक़्त था।सकीना आपा का
पूरा परिवार राखियाँ बनाने में जुटा था।हमारे छोटे शहर में उसकी बनाई खूबसूरत
राखियाँ खूब धूम मचातीं। हमेशा की तरह इस बार भी काफ़ी बड़ा आॅडर मिला था।हालाँकि
बाज़ार में प्रतिस्पर्धा कम न थी।
तीन दिनों से सकीना आपा बुख़ार
से निढाल थीं।हालत बिगड़ी तो अस्पताल में जाँच के बाद भर्ती होना पड़ा। उन्हें
ख़ून चढ़ रहा था। डाॅक्टर का कहना था कि जब तक प्लेटलेट्स सामान्य नहीं आ जाते
उन्हें छुट्टी नहीं मिलेगी।अली मुंबई पढ़ने चला गया वर्ना वो सारी भाग -दौड़ कर
लेता।
सबके
हाथ-पाँव फूल गये।ऐसे आड़े वक्त में बड़ी फूफी और उनकी बेटियाँ आगे आयीं। दिन-रात
एक करके कर्मठ अँगुलियाँ मनमोहक
स्नेहसूत्र बनाने में जुट गयीं।
सकीना आपा की सकुशल घर लौट आने
की खु़़़शी दोगुनी हो गई, जब फूफी ने गले लगा के राखियों
का आॅर्डर पूरा कर लेने की सुखद ख़बर सुनाई।
लक्ष्मी
स्टोर वाले अपना आॅडर उठाने आ पहुँचे थे। सकीना आपा ने देरी के लिये
माफ़ी माँगते हुए पहली राखी उसकी कलाई पर बाँध दी।
तभी मोबाइल बज उठा।
अली का फ़ोन था । सकीना आपा
बिस्तर पे बैठ गयीं और मोबाइल कान से सटा अली को इधर के हाल बताने लगीं।
’’मैं ठीक हूँ ,राखियों
का आॅर्डर फूफी ने पूरा किया, खु़दा की रहमत ...।’’
कमरा मिला?’’
’’अभी दोस्तों के साथ
कमरा शेयर कर रहा हूँ , अम्मी! मेरा नाम ही परेशानी का
सबब ....।वर्ना अब तक इतनी मुसीबत...कोई बात नहीं, मिल कर रह लेंगे।आप
अपनी सेहत संभालें अम्मी...।‘‘
सक़ीना दुपट्टे से आँखें पोंछने
लगी तो राखियों के डिब्बों को थैलों में सजाते हुए लक्ष्मी स्टोर वाले के बेटे ने
सवालों से भरी निगाह से आपा को देखा।
वे बोल पड़ीं -’’कमज़ोरी से
आँखें ना जाने क्यों बार-बार पनिया रहीं ....।’’वे वाक्य पूरा नहीं कर पायीं....।
कंकूबाई किचन में दोपहर का भोजन पका रही थी। स्कूल
की छुट्टी के कारण बाई का छोकरा भी साथ आया था।आज वो रसोईघर के बाहर चुपचाप बैठा
मेधा मेमसाब को अपने बेटे को नाश्ता खिलाते बड़े कौतुहल से देख रहा था।
डायनिंग
टेबल पर फ्रूट बास्केट में ढेर सारे दशहरी और अल्फ़ांज़ो आम सजे थे। कंकूबाई के
बेटे की निगाह बार-बार डायनिंग टेबल पर फ्रूट बास्केट में रखे रसीले आमों में उलझ
जाती। मेधा ने उसकी हसरत भरी निगाहें
पकड़ लीं।
आमों
को मेधा ने कपड़े से ढक दिया। बेटे को खिलाने के लिये आम की फाँकें प्लेट में सजाईं और उसे भी खींच कर भीतर
कमरे में ले गई....।
कुछ
बरस बीत गये। गर्मी की उमस भरी दोपहर में मेधा के द्वार की घंटी बज उठी।
रसोईघर से गीले हाथ डस्टर से पोंछते हुए मेधा ने
द्वार खोला तो एक नौजवान को मुस्कराते खड़ा पाया।
‘‘किससे मिलना है?’’
‘‘मेधा लोखंडे मेमसाब
से,मेरी आई ,कंकूबाई नाम था,वो खाना बनाती थी इस घर में’’।
आगंतुक युवक ने मेधा को पहचान
लिया और पैर स्पर्श करने झुका पर मेधा ने उसे बीच में हीं रोक लिया।
युवक ने अपना पूरा परिचय
दिया-’’मैं कंकूबाई का बेटा रत्तू ,हाँ आई बीमार रहती है....।मैं
बाजू वाली रोड के साथ में मद्रासी होटल के रसोड़े में काम पे लग गया हूँ।’’
मेधा ने उसे पहचान कर प्रश्न
उछाल दिया, ‘‘कंकूबाई कैसी है?’’
’’ठीक नहीं है...अब मैं
कमाई करता हूँ, आई आराम करती है।’’
उसने
कलाई घड़ी में समय देखा और बोल पड़ा-‘‘जास्ती देर हो गया।’’
अपने हाथ में थामे पोलिथिन के
बंडल को उसने इतने़े आदर सेे मेधा को थमाया कि वो उसे अस्वीकार न कर सकी।
’’ये ख़ास आपके बेटे के
लिये, पहली पगार में से छोटा सा कुछ..,ना
नहीं बोलने का मेमसाब। ’’ वो मुंबइकर की तरह बोल रहा था।
उसके जाते ही मेन डोर बंद कर
मेधा ने पैकेट खोल कर देखा, उसमें रसीले दशहरी आम महक रहे थे।
विभा रश्मि
जन्म—यू॰पी॰ में 1952
शिक्षा—एम॰ ए॰ बी॰एड॰
कोलकाता एवं राजस्थान विश्वविद्यालय।
प्रकाशन—प्रथम
कहानी ‘उपहार’ 1974 में कलकत्ता से प्रकाशित। कहानी संग्रह ‘अकाल ग्रस्त
रिश्ते’ (1976) कोलकाता से
प्रकाशित।
सारिका,
कथायात्रा, मधुमति, साहित्य गुंजन, जगमग दीप ज्योति, बस्तर पाति, साहित्य नेस्ट,
कुतुबनुमा आदि देश के अनेक पत्र-पत्रिकाओं में अनवरत प्रकाशन। कहानियों का
आकाशवाणी से 1985 से निरंतर
प्रसारण। विभिन्न कविता व लघुकथा संग्रहों में कविताएँ एवं लघुकथाएँ प्रकाशित। ‘कुहू
तू बोल’ हाइकु संग्रह प्रेस में। कविता
संग्रह व लघुकथा संग्रह पर कार्य ।
फेस बुक पर ‘सरस्वती
दीप साहित्य हाइकु ताँका’ के अंतर्गत व
हिन्दी हाइकु साहित्य नेट मैग्ज़ीन में हाइकु प्रकाशित।
सेंट मेरीज़
कान्वेंट से अवकाश प्राप्त।
पुरस्कार व सम्मान—सर्वश्रेष्ठ
शिक्षिका 1995, कोलकाता में
महाविद्यालयी कविता लेखन प्रतियोगिता में प्रथम पुरस्कार, सामाजिक कार्यए अंधविद्यालय में सेवाकार्य व कहानी सुनाना। राजस्थान लेखिका
सम्मेलनों में पत्रवाचन व भागीदारी।
संप्रति—स्वतंत्र
लेखन।
मो॰नं॰ — 09414296536
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