डॉ. सुरेश वशिष्ठ
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लघुकथा पाठक मन को झकझोरने लगती है। उसे कम समय में पढ़ा जा सकता है। एक अच्छी लघुकथा सोच की शिराओं और रंध्र की गति को प्रभावित करती है। व्यंग्य से भरपूर कोई घटना वर्तमान के किसी सच पर जोरदार प्रहार करती है और अपना तीक्ष्ण प्रभाव पाठक पर छोड़ देती है। उसे चंद मिनटों में पढ़ा और समझा जा सकता है। यह जरुरी नहीं कि उसके कथानक वर्तमान के ही रहें, केवल परिवार और आपसी संबंधों तक ही वे सीमित रहें, राष्ट्र अथवा वैश्विक सच को भी लेखन में उकेरे जाने की जरूरत है। वे समसामयिक भी हो सकती हैं और इतिहास के आइने में व्यंग्यात्मक भी हो सकती हैं।
लघुकथा को एक विचार तक सीमित नहीं होना चाहिए, उसमें कथा-तत्व का होना भी अति आवश्यक है। किसी सच को प्रतिकार में ढालकर संवाद के रूप में भी कहा जाना लघुकथा का स्वरुप है। बशर्ते, वह प्रतिकार शब्दों की कसावट में बाहर आना चाहिए। रंध्र को क्षण-भर में गति देने और मानस की बुद्धि को सोचने पर विवश कर देने वाला कथा-तत्व ही लघुकथा है।
लघुकथा की सार्थकता यही है कि यथार्थ के उद्वेग से उत्पन्न कोई भी वाक्य लघुकथा हो सकता है, बशर्ते वह रहस्यों से पर्दा हटाने लगे। खुलकर कुछ कहने की बजाय इशारा भर ही कर दे और अंत में प्रश्न-चिन्ह अंकित करे! कथा है तो रोचकता दिखनी भी चाहिए। चाहे शब्दों की मार्फत या कथा-तत्व की दृष्टि से, वह पाठक को रुचिकर तो लगनी ही चाहिए। बंदूक से छूटी गोली के समान जो हृदय को बींध सके और बुद्धि को जागृत कर सके ! जिसे पढ़ने पर पाठक सोचने पर विवश होने लगे।
आज असंख्य लघुकथा लेखक बड़ी तेजी से रचना कर रहे हैं और उन्हें वाह-वाही भी खूब मिल रही है। कई नामचीन लोग भी उत्साहवर्धन में टिप्पणियाँ दे रहे हैं। पूरा एक समूह खीसें निपोरने में लगा है। उन्हें पढने पर मैं सोचने के लिए विवश होता हूँ कि उनमें निहित कथ्य, शैली और संप्रेषण बहुत कमजोर होने पर भी नामचीन लोग वाह-वाही क्यूँ कर रहे है? ना उसमें रोचक तत्व कहीं दिखाई देता है और ना कथा-रस ही उपस्थित रहता है। यथार्थ विसंगतियाँ गौण रहती हैं और आपसी संवाद नी-रस जान पड़ते हैं। जबकि किसी भी रचना-धर्म में वर्तमान विसंगतियों का निहित होना लाजमी होना चाहिए। यह सब सहज और स्वाभाविक है। आज यह कथारूप किस दिशा में अग्रसर है, मुझे समझ नहीं आता, केवल चाटुकारिता और लेखन-दम्भ वहाँ दिखाई देता है।
आज सच बेदम हो रहा है और झूठ चिंघाड़ने लगा है। झूठ की तेज धार सच को कंपा देती है। तर्कहीन संवाद चमत्कृत करने लगते हैं और सच बनकर प्रस्तुत होते हैं। जिसे उकेरा जाना चाहिए वह इन कथाओं में नदारद ही है। आज इस धार में लेखक बहने को विवश है। विचारभरी बहसों और तर्कों से उसे कमजोर और अपंग किया जा रहा है। बोलने वाले बहुत हैं और उन्हें गुलामी भी मंजूर नहीं, परन्तु उनके मुख सील दिए गए हैं। जुबानें लकवा-ग्रस्त होकर रह गई हैं। रियाया के साथ जो हो रहा है या हुआ है, उसकी तरफ उनकी दृष्टि जाती ही नहीं। उस सच को मानो किसी ने देखा ही नहीं! किसी रचनाकार ने अगर उसे शब्दों में कैद किया भी है तो कोई भी उस पर टिप्पणी नहीं करता। मानो किसी दृष्टि ने स्त्रियों को चीज की तरह इस्तेमाल किया और लेखक को कहा कि आपसी जिरह लिखते रहो और वे उसे ही लिखने में मशगूल हैं।
लोग बसेरा छोड़कर भागते रहे और जुबानें मौन रहती आई हैं। रचनाकार नींद के आगोश में ऊँघ बिखेर रहा है। उसने इतिहास से सच को मिटा देने का नायाब तरीका अपना लिया है। उनके हुक्म से वह बहुत पहले ही उसे सीख चुका है। डौंडी पीटते रहो और झुनझुना बजता ही रहेगा।
जिसे उकेरा जाना चाहिए था, वह आज भी नदारद है। इस धार में असंख्य रचनाकार बहने को विवश है। यथार्थ के उद्वेग से उत्पन्न कोई भी वाक्य लघुकथा हो सकता है, बशर्ते वह रहस्यों से पर्दा हटाने लगे। खुलकर कुछ कहने की बजाय केवल इशारा-भर कर दे और अंत में प्रश्न-चिन्ह अंकित करे ! कथा है तो रोचक तत्व दिखना भी चाहिए। चाहे शब्दों की मार्फत या कथा-तत्व की दृष्टि से, पाठक को वह रुचिकर भी लगनी चाहिए। बंदूक से छूटी गोली के समान जो हृदय को बींध सके और जो पाठक की बुद्धि को झिंझोड़ सके, जागृत कर सके ! जिसे पढने पर पाठक सोचने पर विवश होने लगे।
(03-6-2023 को वाट्सएप पर प्रेषित)
2 comments:
सामयिक चिन्तन लेकिन बड़े समूह पर असर नहीं कर रहा है
अनुकरणीय आलेख जिससे बहुत कुछ सीखा जा सकता है।
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