Friday 8 February, 2008

जनगाथा- फरवरी 2008



लघुकथा का नेपथ्य
बलराम अग्रवाल
लघुकथा, कहानी और उपन्यास की प्रकृति और चरित्र में इनके नेपथ्य के कारण भी आकारगत आता है। उपन्यासकार स्थितियों-परिस्थितियों और घटनाओं को यथासम्भव विस्तार देता है तथा पाठक के समक्ष पात्रों की मन:स्थिति, चरित्र, परिस्थितियाँ, गतिविधियाँ एवं तज्जनित परिणाम तक का ब्यौरा देने को उत्सुक रहता है; इस तरह उपन्यास अत्यल्प या कहें कि नगण्य नेपथ्य वाली कथा-रचना है। कहानीकार जीवन के विस्तृत पक्ष को रचना का आधार नहीं बनाता। इसके अतिरिक्त, जीवनखण्ड से जुड़ी अनेक घटनाओं को विस्तार से लिखने की बजाय उनको वह आभासित करा देना ही यथेष्ट समझता है, क्योंकि गति की दृष्टि से उपन्यास की तुलना में कहानी को एक त्वरित रचना होना चाहिए। अत: उपन्यास की तुलना में कहानी का नेपथ्य कुछ अधिक हो सकता है। बावजूद इसके कहानी का नेपथ्य उपन्यास की प्रकृति और चरित्र से को-रिलेटेड और को-लिंक्ड रहता है, अत: कहानी ने सहज ही उपन्यास जैसी पूर्णता का आभास अपने पाठक को दिया और व्यापक जनसमूह के बीच अपनी जगह बना ली। लघुकथा आकार की दृष्टि से क्योंकि कहानी की तुलना में अपेक्षाकृत बहुत छोटी कथा-रचना है, अत: जाहिर है कि उसका नेपथ्य कहानी की तुलना में बहुत अधिक विस्तृत होगा; लेकिन उसे कहानी के नेपथ्य से उसी प्रकार को-रिलेटेड और को-लिंक्ड रहना चाहिए जिस प्रकार कहानी का नेपथ्य उपन्यास के नेपथ्य के साथ रहता आया है। लघुकथा-लेखक इस तथ्य से अक्सर ही अनभिज्ञ और लापरवाह रहे हैं। उन्होंने अधिकांशत: ऐसी रचनाएँ लघुकथा के नाम पर लिखी हैं जिनमें प्रस्तुत रचना तथा उसके नेपथ्य में एक और सौ का अनुपात नजर आता है जो किसी भी रचना के लिए स्वस्थ स्थिति नहीं है। कोई भी पाठक किसी रचना के अन्धकूप सरीखे नेपथ्य में भला क्यों उतरना चाहेगा? इसी के समानान्तर एक सोच यह भी है कि लेखक पाठक-विशेष या रचना-विधा के सिद्धान्त-विशेष को ध्यान में रखकर रचना क्यों करे? अपने आप को अभिव्यक्ति के धरातल पर उन्मुक्त क्यों न रखे? वस्तुत: ‘अभिव्यक्ति के धरातल पर उन्मुक्त’ रहने का अर्थ उच्छृंखल अथवा अनुशासनहीन हो जाना नहीं माना जाना चाहिए। इंटरनेट के माध्यम से ५ शब्दों से लेकर ५०० या ज्यादा शब्दों तक की ‘Flash Story’ लिखना सिखाने वाली व्यावसायिक साइटें कथा-विधा का भला कर रही हैं, कथा-लेखकों का भला कर रही हैं या स्वयं अपना_ यह तो समय ही तय करेगा; फिलहाल यहाँ हिन्दी की कुछ कौंध-कथाएँ यानी Flash Stories साभार प्रस्तुत हैं_


एक

राजपथ से गुजरती हुई सैनिक टुकड़ी क्विक मार्च करते हुए गा रही थी-हम सब एक हैं।
फुटपाथ पर खड़े पुलिस के अफसर, सेठ रामलाल और प्रसिद्ध जुआरी गोवर्द्धन एक दूसरे की आँखों में हँसते हुए न जाने क्यों गाने लगे- हम सब एक हैं।


दो

शेर गुर्राया, हिरण को खूँखार दृष्टि से देखा और फिर हिरण को कुछ किए बगैर गुफा के अँधेरे में चला गया। दोनों एक ही कश्ती के सवार थे।...
बाहर आदमी घात लगाए बैठा था।

इनके साथ ही मैं Wits अर्थात विलक्षण-वाक्यकथा की ओर भी लेखकों/पाठकों और संपादकों का ध्यान आकर्षित करना चाहूँगा। इन्होंने भी लघुकथा में हो रहे गंभीर प्रयासों को काफी धक्का पहुँचाया है। हिन्दी में लघुकथा के नाम पर प्रचलित Wits के कुछ नमूने निम्न प्रकार हैं-


एक

‘इंपाला’ की पिछली सीट पर बैठे अल्सेशियन को देखकर अंगभंग भिखारी बच्चों ने ठंडी साँस लेकर कहा, “काश! हम भी ऐसे होते!”


दो

डियर ‘इतिहास’,
तुम्हारे अध्याय अब कलमें नहीं, मैं लिखूँगी...
मैं हूँ
‘बन्दूक’


तीन

मैंने जब भी डुबकी लगानी चाही
सारा मानसरोवर
चुल्लू हो गया!


चार

सामान्य-ज्ञान की परीक्षा में एक परिक्षार्थी एक सरल से प्रश्न पर अटक गया। प्रश्न था-’भारत का प्रधानमन्त्री कौन है?’ उत्तर परीक्षार्थी को पता था, इस पर भी वह परेशान था। अन्तत: उसने लिख ही दिया,पर उसमें एक वाक्य और बढ़ा दिया। उसने लिखा-आज भारत के प्रधानमन्त्री श्री...हैं, परचा जाँचते समय कौन होगा, मालूम नहीं।
इन विलक्षण-वाक्यकथाओं के लेखकों की हिन्दी-लघुकथा के क्षेत्र में लम्बी कतार है; और इन सब की प्रेरणा के मूल में सम्भवत: सुप्रसिद्ध कथाकार रमेश बतरा की बहुचर्चित लघुकथा ‘कहूँ कहानी’ रही है, जो निम्नप्रकार है-

ए रफीक भाई! सुनो...उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए, रात मैं घर पहुँचा तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही, ”एक लाजा है, वो बो...S...त गलीब है।"
यहाँ हमारा हेतु व्यक्ति अथवा गुट विशेष पर आक्षेप करना न होकर लघुकथा के सही स्वरूप एवं स्तर को रेखांकित करना भर है, अत: ‘कौंधकथा’ और विलक्षण-वाक्यकथा समझी जाने वाली हिन्दी रचनाओं के साथ उनके लेखक और संदर्भित लघुकथा का नाम नहीं दिया जा रहा है। यह ठीक है कि कोई अकेला आदमी लघुकथा का नियन्ता नहीं हैं, और यह भी कि किसी भी दृष्टि से हमारे द्वारा हेय तथा त्याज्य समझी जाने वाली, लघुकथा शीर्ष तले छपने वाली Flash Stories व Wits अन्य आलोचकों-समीक्षकों अथवा संपादकों को प्रभावशाली महसूस हो सकती हैं; तथा द्वारा स्वीकार्य रचनाएँ त्याज्य। इस बारे में विवाद की गुंजाइश हमेशा बनी रहेगी, परंतु लघुकथा को ‘कौंधकथा’ और ‘विलक्षण-वाक्यकथा’ से अलग रखना ही होगा।
मैं पुन: अपने नेपथ्य बिंदु पर आना चाहूँगा। वस्तुत: नेपथ्य वह वातायन है जिसे लेखक अपनी रचना में तैयार करता है और पाठक को विवश करता है कि वह उसमें झाँके तथा रचना के भीतर के व्यापक संसार को जाने। कई बार मुख्य-कथा के एक या अनेक पात्र भी लघुकथा के नेपथ्य में रहते हैं। लघुकथा में उनका सिर्फ आभास मिलता है, वे स्वयं उसमें साकार नहीं होते। दरअसल, घटनाओं और स्थितियों का यह प्रस्फुटन लघुकथा के नेपथ्य में उतरे उसके पाठक के मन-मस्तिष्क में होने वाली निरन्तर प्रक्रिया है। अगर कोई रचना इस प्रक्रिया को जन्म देने में अक्षम है तो नि:संदेह वह अच्छी रचना नहीं हो सकती। अपने इसी गुण के कारण लघुकथा गंभीर प्रकृति के पाठक को जिज्ञासु बनाए रखने में सफल रह सकी है। इसी बात को मैं यों भी कहना चाहूँगा कि अपने समापन के साथ ही जो लघुकथा पाठक के भीतर विचार की एक श्रॄंखला जाग्रत कर दे, वह एक सफल लघुकथा है।
लघुकथा में नेपथ्य की उपस्थिति को जानने के बाद यह आशंका निर्मूल सिद्ध हो जाती है कि कोई कथाकार लघुकथा लिखता है क्योंकि वह कथा को कहानी जितना विस्तार दे पाने में अक्षम है। सही बात यह है कि लघुकथाकार कथा के मात्र संदर्भित बिंदुओं पर कलम चलाता है और शेष को नेपथ्य में बनाए रखता है। उद्धरणस्वरूप प्रस्तुत हैं ऐसी ही सात लघुकथाएं…


जूते की जातविक्रम सोनी
उस दिन अचानक धर्म पर कुंडली मारकर बैठे पंडित सियाराम मिसिर की गर्दन न जाने कैसे ऐंठ गई और उन्हें महसूस हुआ कि उनकी गरदन में भी ‘हूल’ पैदा हो गया है। पार साल लखमी ठाकुर के भी ऐसा ही हूल उठा था। अगर रमोली उसके हूल पर जूता न छुआता तो...कैसा तड़पा था। यह सोचकर उन्हें झुरझुरी लगने लगी। तो क्या उन्हें भी...। “हुँ”, वह खुद से बोले, “उस चमार की यह मजाल!”
तभी उनकी गर्दन में असहनीय झटका-सा लगा और वे कराह उठे।
“अरे क्या है, बस जरा जूता ही तो छुआना है, उसके बाद तो गंगाजल से स्नान कर लेंगे। जब शरीर ही न रहेगा चंगा तो काहे का धर्म-पुण्य गंगा।”
रमोली को इधर ही आता देख मिसिर जी ने उसे करीब बुलाकर कहा, “अरे रमोलिया, ले तू हमार गरदनिया में तनिक जूता छुवा दे। हूल भर ग इल बा।”
“ग्यारह सौ रुपया लूँगा मिसिर जी।”
“का कहले रे हरामखोर, तोरा बापो कमाइल रहलन ग्यारह रुपल्ली।”
“मिसिर जी, इस जूते को कोई खरीदेगा नहीं न, और मैं झूठ बोलकर बेचूंगा नहीं।”
“खैर, चल लगा जूता, आज तोर दिन है। देख, धीरे-से छुवाना तनिक, समझे।”
जब रमोली जूता लेकर टोटका करने उठा तो उसकी आँखों के आगे सृष्टि के आरम्भ से लेकर इस पल तक निरन्तर सहे गए जुल्मो-सितम और अपमान के दृश्य साकार हो उठे।
उसने अपनी पूरी ताकत से मिसिर जी की गर्दन पर जूता जड़ दिया। मिसिर जी के मुँह से डकराहट निकल गई; ठीक वैसी ही, जब मिसिर जी ने उसके पिता पर झूठा चोरी का इल्जाम लगाया था और मिसिर जी के गुण्डे लाठी से उसे धुन रहे थे। तब बाप की धुनाई वाली डकराहट क्या वह भूल पाएगा?
“अरे मिसिर जी देख, तोरा हूल हमार जुतवा मां बैठ ग इल हव।” और मिसिर की चाँद पर लाठियों के समान जूते पड़ने लगे। गाँव वाले हैरान थे, किन्तु विचित्र उत्साह से इस दृश्य को देख रहे थे।

अदला-बदली

मालती महावर

“क्या आप मुझे गोद ले सकते हैं?”
“पर मेरे भी एक लड़का है, जो तुम्हारी उम्र का है।”
“पर मेरा मतलब है, सिर्फ कागजों पर आप मुझे अपना लड़का बना लें।”
“पर मैं ऐसा क्यों करूँ?”
“साहब, बात यह है कि नौकरी करना चाहता हूँ; पर मेरे अंक इतने कम हैं कि उनसे नौकरी नहीं मिल सकती। पर अनुसूचित जाति वालों को आरक्षण मिलता है। आपका बेटा बनने से मुझे आरक्षण से नौकरी मिल जाअगी, आप चाहे जितना रुपया माँगें, मैं आपको दूँगा।”
“मेरा बेटा भी पढ़ा-लिखा है और नौकरी करना चाहता है। उसके प्रथम श्रेणी के अंक हैं। बिना आरक्षण के भी उसे नौकरी मिल सकती है। पर, जाति अनुसूचित होने के कारण वह आरक्षण से ही नौकरी में आयेगा। यह बात उसके स्वाभिमान को ठेस पहुँचाती है। तुम अपने पिताजी से पूछकर आओ कि वे मेरे लड़के को गोद ले लेंगे?”


औरत से औरत तक
धर्मपाल साहिल

टेलीफोन पर बड़ी बेटी शीतल के एक्सीडेंट की खबर सुनी। घबराए हुए वासदेव बाबू का मन शंकाओं से भर उठा। अपनी छोटी बेटी मधु को साथ लेकर वह तुरन्त अपने समधी के घर पहुँचे। उन्हें गेट में दाखिल होता देख, रोने-पीटने की आवाजें और तेज हो गईं। जमाई सुरेश ने आगे बढ़कर वासदेव बाबू को सँभालते भरे गले से कहा, “बाजार से इकट्ठे लौटते, स्कूटर से एक्सीडेंट हो गया। शीतल सिर के बल सड़क पर गिरी और बेहोश हो गई। फिर होश में नहीं आई। डॉक्टर कहते हैं, ब्रेन-हेमरेज हो गया था।”
वासदेव बाबू बरामदे में सफेद कपड़ों में लिपटी अपनी बेटी की लाश को देख, गश खाकर गिर पड़े। मधु ‘दीदी उठो...देखो पापा आए हैं...दीदी उठो’ पुकार-पुकार कर बिलखने लगी। शीतल की सास ने मधु को छाती से लगाकर हिचकियाँ लेते कहा, “बेटे हौसला रख, परमात्मा को यही मंजूर था।”
पीछे बैठी औरतों में एक की आवाज आई, “सुरेश की माँ, रो लेने दो लड़की को, भड़ास निकल जाएगी।”
पर, मधु ऊँचा-ऊँचा रोए जा रही थी और औरतों के वैण धीरे-धीरे कम होते खुसर-पुसर में बदलने लगे। एक अधेड़ औरत ने शीतल की सास का कंधा झंझोड़ते, कान के निकट मुँह करके पूछा, “क्या यह सुरेश की छोटी साली है?”
“हाँ बहन।” सुरेश की माँ ने दुखी-स्वर में कहा।
“यह तो शीतल से भी ज्यादा खूबसूरत है! तुम्हें इधर-उधर भटकने की जरूरत नहीं पड़ेगी। शीतल की बच्ची की खातिर इतना तो सोचेंगे ही सुरेश के ससुराल वाले।”
इतने में गुरो बोल पड़ी, “छोड़ो भी, बच्ची को हवाले करो उसके ननिहाल के। मैं लाऊँगी अपनी ननद का रिश्ता। बेहद खूबसूरत...और दोबारा घर भर जाएगा दहेज से।”
“हाय नसीब फूट गए मेरे बेटे के। कितनी अच्छी थी मेरी बहूरानी। पल भर अलग नहीं होता था मेरा सुरेश, हाय।” सुरेश की माँ सुबकी तो पास बैठी भागो ने तसल्ली देते कहा, “हौसला कर सुरेश की माँ, ईश्वर का लाख-लाख शुक्र कर, तेरा सुरेश बच गया। बहुएँ तो बहुत, बेटा और कहाँ से लाती तू...।”
शीतल की लाश के पास दहाड़ें मारती मधु ने सारी बातें सुनीं और पत्थर हो गई।
(पंजाबी से अनुवाद: श्यामसुन्दर अग्रवाल)


गुरु-चेला संवादअसग़र वजाहत

गुरु : चेला, हिन्दू-मुसलमान एक साथ नहीं रह सकते।
चेला : क्यों गुरुदेव?
गुरु : दोनों में बड़ा अन्तर है।
चेला : क्या अन्तर है?
गुरु : उनकी भाषा अलग है...हमारी अलग है।
चेला : क्या हिन्दी, कश्मीरी, सिन्धी, गुजराती, मराठी, मलयालम, तमिल, तेलुगु, उड़िया, बंगाली आदि भाषाएँ मुसलमान नहीं बोलते...वे सिर्फ उर्दू बोलते हैं?
गुरु : नहीं...नहीं, भाषा का अन्तर नहीं है...धर्म का अन्तर है।
चेला : मतलब दो अलग-अलग धर्मों के मानने वाले एक देश में नहीं रह सकते?
गुरु : हाँ...भारतवर्ष केवल हिन्दुओं का देश है।
चेला : तब तो सिखों, ईसाइयों, जैनियों, बोद्धों, पारसियों, यहूदियों को इस देश से निकाल देना चाहिए।
गुरु : हाँ, निकाल देना चाहिए।
चेला : तब इस देश में कौन बचेगा?
गुरु : केवल हिन्दू बचेंगे...और प्रेम से रहेंगे।
चेला : उसी तरह जैसे पाकिस्तान में सिर्फ मुसलमान बचे हैं और प्रेम से रहते हैं?

[लेखक के कथासंग्रह "मैं हिंदू हूँ"(२००६) से]
आत्महन्ताभगीरथ
उसने जीवन के सपने संजोये थे, किंतु वे चटखते रहे, टूटते रहे। ठीक उस शीशे की तरह, जिसमें उसकी असली शक्ल कई खानों में विभक्त होकर टूटने का पूर्ण अहसास दे जाती है।
बेकारी के दिन व्यतीत करते कितना फ्रस्ट्रेशन हुआ था उसे। सब संबंध अर्थहीन और निरर्थक हो गये थे। वे दिन मानसिक तौर पर बहुत ही यातनाजनक थे। वह सनकी और बदमिजाज हो गया था। वह अक्सर आत्महत्या के बारे में सोचने लगा था। कभी-कभी उसमें आक्रोश की भावनाएं उफनने लगतीं।
यकायक ही परिस्थितियां बदल गयीं। नौकरी मिलते ही दुनिया इन्द्रधनुषी दिखने लगी। परिवार एवं दोस्तों में उसकी कद्र होने लगी। यहां तक कि उसने स्वयं अपनी कद्र की। बॉस की भृकुटि पर उसकी नजर रहने लगी। उसका हिलना-डुलना, रोना-मुस्कराना सब भृकुटि पर निर्भर रहने लगा। उसका पूरा प्रयत्न होता कि भृकुटि तने नहीं। जिन मानवीय मूल्यों के बारे में वह अक्सर सोचा करता था, अब वे उस भृकुटि में समा गये थे।
फिर भी, वक्त-बेवक्त, वह महसूस करता कि जीवन परिधि में बँध गया है। परिधि- जिसकी किनारी चाँदी के गोटे-सी चमकती थी। लेकिन उसके अन्तर में एक भयानक घुटनभरा अंधकार हिलोरें ले रहा था। वह चाँदी की चकाचौंध में आँखें बंद किए अंधकार में डूबा रहा। सब-कुछ जानते-महसूसते हुए।
उसे अब तीव्रता-से महसूस होने लगा है कि वह सुविधाजनक किश्तों में आत्महत्या कर रहा है, जिसका अफसोस उसे है भी और नहीं भी।


सन्दर्भों के दायरे
कुलदीप जैन

उसने उच्चाधिकारी के समक्ष यह तर्क रखा कि उसकी छोटी बच्ची बीमार है अत: उसके ठीक होने तक स्थानान्तरण के आदेश रोक दिए जाएँ। लेकिन उसका यह अनुरोध माना नहीं गया और हिदायत दी गयी कि एक सप्ताह के अन्दर अपना चार्ज सँभाल ले।
हर तरह से निराश हो जाने पर उस जूनियर इंजीनियर ने माल-असबाब सहित अपरिचित शहर की ओर कूच कर दिया। उचित व्यव्स्था होने तक उसने किसी धर्मशाला में ठहरना बेहतर समझा। उसी रात उसकी लड़की की तबियत और खराब हो गयी। डॉक्टर ने इंजेक्शन-दवाई के नाम पर डेढ़-सौ का बिल बैठा दिया। भोर होते-होते लड़की अंतिम साँस गिनने लगी और अस्पताल पहुँचने से पहले ही उसने दम तोड़ दिया। श्मशान तक ले जाने के लिए रिक्शेवाले ने २५ रुपये ऐंठ लिए, जबकि नदी तक पहुँचने में मुश्किल से २० मिनट लगते थे। यह सब इतनी तेजी से हुआ कि वह अपनी ड्यूटी का चार्ज भी नहीं सँभाल सका था।
इस घटना को वर्षों बीत चुके हैं। आज वह एक लड़के और लड़की का पिता है और अधिशासी-अभियंता के पद पर पहुँच गया है। उससे भी बड़ी बात यह है कि वह वापस अपने ही शहर में आ गया है। पहले इस पद पर उसका भूतपूर्व बॉस था जिसे भ्रष्टाचार के अपराध में निलम्बित कर दिया गया है। उसके विरुद्ध जो जाँच-बोर्ड बैठा है, उसमें उसे भी सम्मिलित कर लिया गया है।
उसके जी में आया कि अपने बॉस के विरुद्ध कड़ी से कड़ी राय जाहिर करे क्योंकि उन दिनों उसका ट्रांसफर करवाने में इसी ने विशेष उत्साह दिखाया था। जब उसने अपनी पत्नी को यह बात बताई तो वह बोली—“पहले यह देख लो, उसकी कोई लड़की बीमार तो नहीं है!”
पहचान
चित्रा मुद्गल
गेट के करीब पहुँची ही थी कि टिकट चेकर ने टोका, “टिकट प्लीज।"
ठेलती-ठूलती गुजरती भीड़ से अलग होकर बड़ी सहजता से मैंने अपना पर्स खोला। पाया कि वह छोटा बटुआ ही पर्स से नदारद है जिसमें रूपये, रेजगारी और टिकट तीनो ही थे। चेहरा फक पड़ गया। पलक झपकते ही माजरा समझ गयी कि बटुवा उड़ा लिया गया है। मगर मन को तसल्ली नहीं हुई। बेचैन उँगलियाँ ठुँसे पर्स का कोना-कोना तलाशने लगीं कि किसी अन्य चीज के आगे-पीछे बटुवा दुबका हुआ मिल जाए। मगर निराशा ही हाथ लगी। चेकर पर दृष्टि उठी तो पाया एक अर्थपूर्ण मुस्कराहट वहाँ डटी बैठी है। चेकर के पास जो भी खड़ा रहता है, संदिग्ध हो उठता है। मेरे आसपास भी लोग एकत्रित होने लगे।
“लगता है किसी ने ट्रेन में मेरा बटुवा उड़ा लिया।"
चेकर के चेहरे पर विद्रूप गहराया, “बिना टिकट सफर करने वाले अक्सर यही दलील देते हैं। मैं इन झाँसों में नहीं आने का।"
“इत्मीनान से टिकट एक बार और ढ़ूँढ़ लीजिए, न मिले तो सीधी तरह जुर्माना भरने को तैयार हो जाइए...।"
अपमान में बिंध गयी, “क्या मैं आपको ऐसी लगती हूँ ?”
“देखिए, मुझे टिकट से मतलब है। न लिया हो तो कोई बात नहीं, जुर्माना भर दीजिए।"
बटुवा ही निकल गया तो जुर्माना कहाँ से भरूँ ? अपनी घबराहट को भरसक अनुनयपूर्ण बनाया, “विश्वास कीजिए... चाहें तो मेरा पता लिख लें। जुर्माने समेत टिकट के पैसे घर से भिजवा दूँगी या स्वयं आकर दे जाऊँगी।"
“चरका देने की कोशिश मत कीजिए।" उपहास उड़ाता चेकर का स्वर तनिक उग्र हुआ, “आप जैसी चुस्त-दुरस्त लड़कियों की असलियत से मैं खूब वाकिफ हूँ। चार सौ रुपल्ली की साड़ी लपेट, माँग में सिन्दूर भर लोगों की जेबें कतरती फिरती हैं। स्मगलिंग करती हैं और पकड़ी जाने पर भद्रता का नाटक... लगता है, आज बोहनी नहीं हुई वरना आपके पर्स से बटुवा गायब न होता। जुर्माना नहीं भर सकतीं तो खाइए हवालात की हवा।"
जी में आया तड़ाक से एक झापड़ रसीद कर दूँ और चीख पड़ूँ, “शिष्टता नाम की चीज से परिचित हैं आप ?" लेकिन, अवरुद्ध होते कण्ठ से प्रतिवाद में एक शब्द नहीं फूटा।
“कितना जुर्माना भरना है ?” एक शिष्ट स्वर ने सभी को चौंका दिया। मैंने अचरज से उस अपरिचित व्यक्ति की ओर देखा।
“आप भरेंगे ?” चेकर ने कटाक्ष से पूछा।
“पूछ किसलिए रहा ?”
“कल्याण लोकल है... जुर्माने समेत हुए पन्द्रह रुपये बीस पैसे। निकालिए।"
“रसीद काटिए।"
पैसे भरकर अपरिचित मेरी ओर मुड़े, “लीजिए, बहन जी। सँभालिए। इनका भरोसा नहीं, गेट से बाहर से पकड़कर दोबारा जुर्माना वसूलने लगें।"
कृतज्ञता से भरकर मैंने आग्रह किया, “पास ही घर है, भैया, थोड़ी देर के लिए चले चलिए... एक कप चाय पी लीजिएगा और रुपये भी...।"
मेरी बात पूरी भी नहीं हो पायी थी कि एक जुमला पीठ पीछे से उछला, “गैंग चलता है भई इनका... एक पकड़ा जाए तो दूसरा फौरन छुड़वा लेता है।"
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