Tuesday 16 June, 2009

कथाकार विजय की लघुकथाएँ

-->
उपन्यासकार व कहानीकार विजय ने हिन्दी लघुकथाओं की सम्प्रेषण क्षमता से प्रेरित होकर सन् 2004-05 में लघुकथा लिखना प्रारम्भ किया। अब तक उनकी लघुकथाएँ वागर्थ, नया ज्ञानोदय, कथाबिंब, हरिगंधा(लघुकथा-विशेषांक), सनद, संरचना(लघुकथा वार्षिकी) आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। जनगाथा के जून 2009 अंक में प्रस्तुत हैं उनकी कुछ चर्चित लघुकथाएँ

आदर्श गाँव
कुछ ही दिनों में गाँव का नक्शा बदल गया। लाला की छोटी-सी दुकान जिसमें जरूरत की हर चीज मौजूद रहती थी, बड़े-से डिपार्टमेंटल-स्टोर में बदल गई। निर्मल सिंह का मुख्य सड़क के साथ खड़ा खोखा जहाँ सर्दियों में चाय और पकौड़े थाल में रखे रहते थे व गर्मियों में हंडिया में मथनी से मथकर लस्सी भी पिला दी जाती थी, वहाँ पक्की दुकान बन गई। चाय-कॉफी की मशीन लग गई और कोल्ड-ड्रिंक के क्रेट्स आने लगे। कंपनी फ्रिज भी लगा गई। मैला राम की पान की टोकरी, जिसमें घर की बनी खैनी भी रहती थी, अब एक दुकान में बदल गई। दुकान में जाने कितनी तरह के शीशे लटके रहने लगे। एक बैंक ने भी अपनी छोटी-सी शाखा पंचायत की इमारत में खोल दी थी। सरपंच के दस्तखत करते ही उधार मिल जाता था, आसान किश्तों पर।
किसान और उसके बीवी-बच्चे, जो कभी नीम और कभी बबूल की डालियाँ तोड़कर दातुन कर लेते थे, अब हर महीने टी वी पर विज्ञापन देखकर अपना ब्रश और पेस्ट बदलने लगे। बिजली की सप्लाई अच्छी न होने पर भी कई घरों में वॉशिंग मशीनें आ गईं। एक डेरी खुल गई। आमदनी कुछ ही घरों की बढ़ी, मगर जरूरत हर घर में कुछ ज्यादा ही बढ़ गई। अब लोगों ने मेहमानों को आने पर दूध, मट्ठा देना बंद कर दिया, क्योंकि जरूरतों की आपूर्ति में वे पूरा दूध डेरी पर पहुँचाने लगे थे। अब मेहमान आता तो कोल्ड-ड्रिंक मँगा देते या चाय के साथ पैकिटों में आने वाला नमकीन रख देते।
कई खेत-मजदूरों के परिवार गाँव छोड़कर शहर चले गए क्योंकि जब शहरी की तरह रहना है, तो शहर में रहना ही ठीक रहेगा। वहाँ काम भी पूरे साल रहता है। गाँव में रहकर क्या करेंगे, जब मट्ठा भी किसी घर में न मिले।
चुनाव के समय उस क्षेत्र के एम एल ए ने गाँव को आदर्श गाँव करार देते हुए कहा,यह हमारी सरकार की उदार-नीति की वजह से ही संभव हुआ। अब हमारे ग्रामीण भाइयों को काम के लिए भागना नहीं पड़ता, बैंक उनके द्वार पर पहुँचकर कर्ज देने आता है। इस बार भी अगर हमारी पार्टी को आपने सरकार बनाने का मौका दिया तो आसपास का हर गाँव आदर्श गाँव बन जाएगा।

इंसाफ
गाँव में पानी की कमी नहीं थी। लोग खुशहाल थे। बड़े टोले में ब्राह्मण, बनिये और ठाकुर रहते थे। छोटे टोले में दूसरी जातियों के लोग रहते थे। गाँव का मुखिया सूरज प्रताप सिंह न्यायप्रिय व्यक्ति था। पंचायत दूध का दूध और पानी का पानी कर देती थी। सूरज प्रताप सिंह का लड़का चन्द्र प्रताप सिंह उनकी कमजोरी था। इकलौते बेटे से बेहद प्यार करते थे।
एक दिन चन्द्र प्रताप सिंह छोटे टोले में वारदात कर आया। रोती-कलपती नारायणी ने घर जाकर माँ से शिकायत की। माँ ने बेटे मल्लू को बताया और लाठी उठाते मल्लू ने सल्लू, अपने पिता को। मल्लू लाठी से सजा देना चाहता था और सल्लू चाहता था कि दण्ड पंचायत दे।
सल्लू की शिकायत पर पंचायत बैठी। सरपंच के पूछने पर चन्द्र प्रताप सिंह ने अपना अपना कुबूल कर लिया। पिता होते हुए भी सरपंच ने सजा सुना दीगाँव के लोगों के सामने पचास कोड़े! लोग वाह-वाह करने लगे।
तभी नारायणी सामने आ खड़ी हुई—“मेरा क्या होगा?
सल्लू रो पड़ा—“कौन ब्याहेगा अपना बेटा मेरी बेटी से?
सरपंच ने कहाबहुत-से लोग गरीब हैं तुम्हारी जात में। मैं विवाह करने वाले को बड़ी रकम दूँगा। दौड़-दौड़ कर ब्याह करने वाले आयेंगे।
नहीं, मेरा विवाह अपने बेटे से कर दो। उसी ने मेरे साथ कुकर्म किया है। उसी को निभानी होगी मेरे साथ जिन्दगी!
सरपंच और पंच अवाक-से देखते रहे, मगर बड़े टोले वालों ने लाठियाँ उठा लीं। छोटी जात की लड़की से विवाह! असम्भव।
छोटे टोले वालों ने भी लाठियाँ उठा लींजो काम आदमी औरत के साथ विवाह के बाद करता है, वह काम नारायणी के साथ विवाह से पहले क्यों किया चन्द्र प्रताप सिंह ने?
इस गलती का मुआवजा दे रहे हैं सरपंच!
बड़े टोले और छोटे टोले में बहस चलती रही। नारायणी समझ गई कि चाहे लाठियाँ चल जाएँ, लोग कट मरें, मगर जाति को लेकर कभी भी इंसाफ सच्चाई के करीब नहीं पहुँच सकता है। वह वहाँ से हट गई।
बहस के बीच पास ही के कुएँ से छपाक् का शोर उठा। काफी कोशिश के बाद कुएँ से जो लाश निकली, वह नारायणी की थी।

स्वा
दो देशों में युद्ध छिड़ा हुआ था। एक पहाड़ी पर अचानक उन देशों के सिपाही आमने-सामने हो गए। दोनों, दुश्मन सिपाही से बचने के लिए पेड़ की ओट में आकर बंदूकें दागने, मगर कुछ हुआ नहीं। तभी एक पेड़ के पीछे से आवाज आई—“गोलियों से बच गया, पर अब तू बचेगा नहीं। तुझे मारकर देश का एक दुश्मन तो खत्म होगा ही।
दूसरे पेड़ के पीछे से भी वैसे ही कटु शब्द उभरे—“तुझे मारकर मुझे पुण्य ही नहीं, पुरस्कार भी मिलेगा कमीने।
और दोनों तरफ से हैंड-ग्रेनेड उछाल दिए गए। दोनों ही के शरीर फट गए। पेड़ों पर बैठे दो गिद्ध किचकिचाकर किलक उठे—“मजा आ गया! दोनों दुश्मन थे तो उनके मांस का स्वाद भी अलग-अलग होगा।
गिद्धों ने एक-एक लाश का मांस नोंचकर खाया। फिर लाशें बदलकर खाईं। एक ने दूसरे से पूछा—“तुझे फर्क लगा?
नहीं तो।
मुझे भी नहीं लगा!

ऐसा होता ही है
त्रकार ने एक बूढ़े रईस अरब द्वारा नाबालिग हिन्दुस्तानी लड़की से विवाह का भंडाफोड़ कर दिया। लड़की नारी-निकेतन भेज दी गई, मगर पुलिस बूढ़े अरब को नहीं पकड़ सकी। वह अपनी एम्बेसी पहुँच गया और एम्बेसी ने उसे देश भेज दिया।
पत्रकार को सम्मानित करना था, इसलिए बड़ी सभा का आयोजन सरकार द्वारा हुआ जिसमें जनता बुलाई गई थी। समारोह चल ही रहा था कि एक आदमी ने खबर दीपास की बिल्डिंग के चार नौजवानों ने एक दस वर्षीय लड़की से बलात्कार कर उसे मारकर सड़क पर फेंक दिया।
पुलिस आ गई। लड़की पूरी तरह मरी नहीं थी। अंतिम साँसें लेते हुए उसने चारों के नाम बता दिये।
खबर पत्रकार ने भी सुनी। किसी ने पूछा—“आप लिखेंगे?
क्या फायदा। ऐसा तो रोज होता रहता है।

भूत-1
हर के विशाल मनकामेश्वर देवालय में रोज ही पट बंद हो जाने के बाद दर्शनार्थी भूतों का ताँता लग जाता। एक दिन भूत भोलासिंह ने रुद्रप्रताप नामक भूत से पूछा—“क्या मनौती माँगते हो भगवान भूतनाथ से?
एक दीर्घ नि:श्वास खींचकर भूत रुद्रप्रताप ने कहा—“मैं इसी शहर का रहने वाला था। मेरी शादी एक बहुत ही सुंदर लड़की से हुई थी जिसे मैं बेतहाशा प्यार करने लगा था। मगर मुझे नहीं मालूम था कि उसका एक प्रेमी भी है। अपने प्रेमी के साथ षड्यंत्र रचकर उसने मेरी हत्या कर दी। वह अक्सर इस मंदिर में आती है। जिस दिन भी अकेली मिल गई…।
बीच में ही बोल पड़ा भूत भोलासिंह—“…तो तुम उसकी हत्या कर दोगे?
नहीं भाई। मैं उससे प्यार करता था और आज भी करता हूँ।
फिर?
मैं उससे पूछूँगा कि प्रेमी के प्यार के मुकाबले पति का प्यार क्यों निरर्थक-सा रह जाता है?

भूत-2
भूत रुदप्रताप ने भी एक दिन भूत भोलासिंह से पूछ लिया—“तुम इस मंदिर में क्यों रोज आते हो?
क्योंकि मेरी प्रेमिका भी यहाँ रोज आती है और हम दूसरों से निगाह बचाके चुपचाप मिल लेते हैं।
चुपचाप क्यों?
असल में, पिछले जन्म में मैं दलित था और मेरी प्रेमिका सवर्ण। सवर्ण हमारा प्यार सह नहीं सके और एक गुण्डे को पैसे देकर उन्होंने मुझे मरवा दिया। मेरी प्रेमिका ने दु:खी होकर जहर खा लिया।
फिर तो भूत-भूतनी बनकर दोनों साथ रह सकते हो?
नहीं भाई! भूतों में क्या कम जातिवाद है!
भगवान भूतनाथ से क्यों नहीं कहते हो?
जातिवाद को मिटाना तो उनके वश की बात नहीं है। इसीलिए मैं रोज प्रार्थना करता हूँ कि अपनी तरह हम दोनों को भी अर्द्धनारीश्वर बना दें; ताकि हम भी अभिन्न होकर जी सकें।

अन्तर
गाँधी और मार्क्स एक दिन घूमते हुए अपने-अपने उपग्रहों से बाहर निकलकर तीसरे उपग्रह में पहुँचकर मिल बैठे। मार्क्स ने नि:श्वास खींचकर कहा—“मैं वर्गहीन समाज की कल्पना करता रहा। सोचता था कि लुटेरे पूँजीपतियों की पूँजी एक दिन सर्वहारा वर्ग के हाथों में होगी। मगर देख रहा हूँ कि सोवियत संघ टूट गया, आधा चीन बाजारवाद के दंगल में व्यस्त है और हिन्दुस्तान में बंगाल जैसे साम्यवादी प्रांत में, वहाँ का मुख्यमंत्री विदेशी पूँजी-निवेश के लिए हाँक लगा रहा है।
गाँधी ने भी नि:श्वास खींचीमैं रामराज्य चाहता था। गाँवों को सम्पन्न बनाना चाहता था, उद्योगपतियों का हृदय परिवर्तन करना चाहता था और धर्म को सहिष्णुता का प्रतीक बनते देखना चाहता था…मगर…।
हाँ, न सत्य रहा और न अहिंसा! मार्क्स ने कहा।
हाँ, वर्ग-संघर्ष भी नहीं रहा। जम गया वर्ण-सघर्ष। हम दोनों नाबाद हो गये। गाधी बोले।
मार्क्स ने यथार्थ महसूस किया और कहा—“मेरी चाहनाओं और तुम्हारी चाहनाओं में अन्तर नहीं था। मगर मेरे और तुम्हारे अनुयायी एक-दूसरे को मिटाने में जुटे रहे। परिणाम----एक नृशंस अमरीका का जन्म!

विजय जी का संक्षिप्त परिचय:
कथाकार विजय, सेवानिवृत वैज्ञानिक(रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन) हैं। इनका जन्म 06 सितम्बर, 1936 को आगरा(उत्तर प्रदेश) में हुआ। एक किशोर उपन्यास समेत इनके अब तक 6 उपन्यास, 15 कहानी-संग्रह, 2 बाल-पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी अनेक कहानियों का अँग्रेजी, उर्दू, उड़िया, तेलुगु आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। कथाकार जोगिंदरपाल के उपन्यास पार परे समेत उनकी अनेक कहानियों और लघुकथाओं का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद कर चुके हैं। अनेक पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित।

संपर्क: 115 बी, पॉकेट जे एंड के, दिलशाद गार्डन, दिल्ली110095(भारत)
दूरभाष(लैंडलाइन) 01122121134,
(मोबाइल) 09313301435

Saturday 6 June, 2009

लघुकथा-लेखन में राजस्थान का योगदान

-->
महेन्द्र सिंह महलान
-->
(मई 2009 से आगे का अंश)
एकल लघुकथा-संग्रह
न 1966 में सुगनचंद्र मुक्तेश का लघुकथा-संग्रह स्वाति बूँद प्रकाशित हुआ। इसकी अधिकांश रचनाएँ उपदेशात्मक हैं। सन 1979 में दुर्गेश की पचास लघुकथाओं का संग्रह कालपात्र प्रकाशित हुआ, जिसका मुख्य-स्वर व्यंग्य है। वर्ष 1963 में प्रकाशित अनमोल सीपियाँ नाम से कृष्णा भटनागर का संग्रह प्रकाशित हुआ जिसकी अधिकांश लघुकथाएँ उपदेशात्मक हैं। 1984 में पुष्पलता कश्यप की 62 चुनिंदा लघुकथाओं का संग्रह अहसासों के बीच प्रकाश में आया। इनकी लघुकथाएँ इस विधा को सही दिशा देने में सक्षम हैं। 1985 में योगेन्द्र दवे की लघुकथाओं का संग्रह विषमता आया तथा इसी वर्ष मुकेश जे रावल का संग्रह मुट्ठी भर आक्रोश भी प्रकाश में आया। अंजना अनिल का लघुकथा-संग्रह साक्षात्कार 1986 में प्रकाशित हुआ। इसके उपरांत डॉ राम कुमार घोटड़ का पहला लघुकथा-संग्रह तिनके-तिनके सन 1989 में व दूसरा लघुकथा-संग्रह क्रमश: वर्ष 2000 में प्रकाशित हुआ। वर्ष 1993 में महेन्द्र सिंह महलान की लघुकथाओं का संग्रह सिलसिला प्रकाशित हुआ जिसमें 69 लघुकथाएँ हैं। आम-आदमी से जुड़ी ये लघुकथाएँ विसंगतियों पर प्रहार करती हैं। वर्ष 1996 में तीन महत्वपूर्ण लघुकथा-संग्रह प्रकाश में आए। ये हैं गोविंद गौड़ का प्रहार, रत्नकुमार साँभरिया का बाँग और अन्य लघुकथाएँ तथा भगीरथ का पेट सबके हैं। 1998 में माधव नागदा का लघुकथा-संग्रह आग प्रकाशित हुआ।
इस तरह राजस्थान के लघुकथाकार लघुकथा-साहित्य को निरन्तर समृद्ध करते आ रहे हैं।
संपादित लघुकथा-संकलन
सन 1974 में भगीरथ व रमेश जैन के संयुक्त संपादन में गुफाओं से मैदान की ओर लघुकथा-संकलन प्रकाश में आया। इसमें 31 कथाकारों की 42 लघुकथाएँ तथा भूमिका लघुकथा:गुफाओं से मैदान की ओर के अलावा लघुकथापरक 5 टिप्पणियाँ भी संकलित हैं। इस संकलन ने लघुकथा को अँधेरे दायरों से निकालकर जन-साधारण के संघर्ष, त्रासदी, भीषण यथार्थ को भोगने की यातनापूर्ण विडम्बना आदि के बहुआयामी धरातल से जोड़ा है। इसमें कैलाश जायसवाल की पुल बोलते हैं एक अनूठी लघुकथा है। गुफाओं से मैदान की ओर को देश में समकालीन हिन्दी लघुकथा-आन्दोलन का पहला संकलन होने का गौरव प्राप्त है।
वर्ष 1983 में आदर्श भारतीय साहित्यकार परिषद, जयपुर द्वारा आयोजित अखिल भरतीय लघुकथा प्रतियोगिता की पुरस्कृत लघुकथाओं का संकलन प्रेरणा(संपादक: नंदकिशोर नंद) प्रकाशित हुआ। इसमें श्रीराम ठाकुर दादा की लघुकथा सुरसा की विजय, कमलेश भारतीय की लघुकथा पूछताछ, रामनिवास मानव की एक ही रास्ता, महेन्द्र सिंह महलान की कटखना भय, विक्रम सोनी की बनैले सुअर तथा मधुकांत की इंटरव्यू श्रेष्ठ रचनाएँ हैं।
सन 1984 में महेन्द्र सिंह महलान और मोहन योगी के संपादन में युवा रचनाकार सोसाइटी, फेफाना द्वारा वर्ष 1981, 1982 व 1983 में आयोजित अखिलभारतीय लघुकथा प्रतियोगिताओं में पुरस्कृत 31 लघुकथाओं के साथ अन्य श्रेष्ठ रचनाओं को शामिल कर कुल 94 लघुकथाओं का संकलन सबूत-दर-सबूत प्रकाशित हुआ। मानवीय मूल्यों को स्थापित करने की दिशा में इस संग्रह को एक सार्थक प्रयास माना गया। इसमें जेबकतरा, अंधी दौड़, सब राजी-खुशी, प्रश्नहीन, ईद मुबारक, पहचान, भूख, धर्मयुद्ध, पागल, सच्ची गवाही आदि प्रथम श्रेणी की लघुअकथाओं के साथ डॉ पांडुरंग भोपले, पारस दासोत, सतीशराज पुष्करणा, सत्यवीर मानव, मदन मोहन उपेन्द्र, निहाल हाश्मी, शराफत अली खान, बलराम अग्रवाल, विक्रम सोनी, विष्णु प्रभाकर तथा महेन्द्र सिंह महलान की रचनाएँ विशेषत: सराही गईं।
1985 में महेश संतुष्ट, ओम पुरोहित कागद, राजेश चड्ढा, नरेश विद्यार्थी के संपादन में मरुधरा साहित्य परिषद, हनुमानगढ़ संगम का काव्य व लघुकथा-संकलन मरुधरा छपा। इसी वर्ष वकील साहेब(स्नेह इन्द्र गोयल), प्रमोद कुमार शर्मा, संदीप डूमरा गंभीर, गुरमीत सोहल के संपादन में युवा लेखक संघ, हनुमानगढ़ का काव्य एवं लघुकथा-संकलन साहित्य प्रसव प्रकाशित हुआ। नन्दकिशोर नन्द पारीक द्वारा संपादित अंजलिभर धूप में भी कविताएँ और लघुकथाएँ संकलित हैं।
वर्ष 1986 में माधव नागदा के संपादन में पहचान लघुकथा-संकलन संबोधन प्रकाशन, कांकरोली से प्रकाशित हुआ। इसमें संकलित लघुकथाएँ अपने कथ्य एवं शिल्प के ताजेपन के कारण अपनी सशक्त पहचान बनाती हैं। ये लघुकथाएँ मनुष्य के सुखद भविष्य के प्रति तो आश्वस्त करती ही हैं, उन षड्यंत्रों को भी बेनकाब करती हैं जो लगातार आदमी के खिलाफ किए जा रहे हैं। डॉ वेद प्रकाश अमिताभ, कमल चोपड़ा, बलराम अग्रवाल, यश खन्ना नीर और पारस दासोत के महतवपूर्ण लेख इस संग्रह में उपलब्ध हैं।
वर्ष 1987 में पूरे देश में कुल ग्यारह लघुकथा-संकलन प्रकाशित हुए। विद्वान समीक्षकों की राय में इनमें महेन्द्र सिंह महलान व अंजना अनिल द्वारा संपादित संघर्ष के अतिरिक्त कोई अन्य संकलन ऐसा नहीं है, जिसे उल्लेखनीय कहा जा सके। इस दृष्टिकोण से 1987 का वर्ष पूर्णत: राजस्थान के खाते में दर्ज होता है। इस संग्रह की लघुकथाओं में तकनीक को लेकर सजगता का भान स्पष्ट दिखाई देता है। राजकुमार सिंह की कुत्ता पाठ-एक में फैंटेसी का उपयोग हुआ है तो डॉ शंकर पुणतांबेकर की अवैध संतान में प्रतीकात्मकता मुखर है। सुशील राजेश की अलगाव में अभिप्राय को सिर्फ संवादों के माध्यम से कहा गया है। सुकेश साहनी की वापसी में पूर्वदीप्ति का इस्तेमाल सार्थक ढंग से हुआ है। आनन्द बिल्थरे की इनसे कहना में मिथक को आधुनिक रूप दिया गया है। अशोक मिश्र की आँखें में व्यंग्य का प्रभाव रेज़र की छुअन जैसा है। इस प्रकार इस संग्रह की लघुकथाओं में शिल्पगत सुन्दरता एवं वैविध्य पर्याप्त मात्रा में है और ये रचनाएँ पाठकों को वैचारिक खुराक देकर बहुत-से मुद्दों पर सोचने-विचारने की प्रेरणा देने के लिहाज-से बहुत महत्वपूर्ण हैं।
पुस्तक में लघुकथा के सफल एवं चर्चित हस्ताक्षर कमल चोपड़ा से अंजना अनिल द्वारा लिया गया साक्षात्कार है जिसमें लघुकथा पर उठ रहे विभिन्न प्रकार के प्रश्नों के समुचित उत्तर दिए गए हैं। महेन्द्र सिंह महलान ने अपने लेख लघुकथा प्रतियोगिताएँ : दशा एवं दिशा में प्रतियोगिताओं के आयोजन के कारणों पर प्रकाश डालते हुए इस कार्य की विस्तृत समीक्षा की है। भविष्य में प्रतियोगिता आयोजित करने वाले महानुभावों के लिए यह लेख एक मार्गदर्शक का कार्य कर सकता है। मुद्रण, साज-सज्जा व कागज के दृष्टिकोण से यह पुस्तक अत्यंत सुन्दर है। जालंधर दूरदर्शन के साहित्यिक कार्यक्रम में इसे स्क्रीन पर दिखाया गया। हालातहस्ताक्षर की भाँति यह पुस्तक व्यापक स्तर पर अत्यन्त चर्चित हुई।
मोहन सोनी अनन्त सागर के सम्पादन एवं प्रकाश पंकज के संयोजन में गुलजस्ता रचना मंच, लोढ़सर द्वारा आयोजित अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता में पुरस्कृत तथा अन्य विशिष्ट लघुकथाओं को लेकर वर्ष 1988 में यथार्थ नामक संकलन आकर्षक साज-सज्जा के साथ छपा। संपादकीय, संयोजकीय एवं निर्णायकीय(विक्रम सोनी व लतीफ घोंघी) की औपचारिकता के बाद प्रतियोगी लघुकथाएँ साभार ली गई हैं। तरुण जैन, डॉ सतीशराज पुष्करणा, डॉ उषा माहेश्वरी, माधव नागदा, सतीश राठी, कर्मेन्द मणि भारतीय तथा धीरेन्द्र शर्मा के लेख हैं जो अपने-अपने स्थान पर उपयोगी हैं। यह पुस्तक युवा संपादकों के परिश्रम की एक सफल कोशिश है।
वर्ष 1989 में व 1990 में मार्च तक देश में कुल 18 संपादित लघुकथा-संकलन प्रकाशित हुए। समीक्षकों की राय में इनमें मात्र 5 ऐसे संकलन थे जो लघुकथा की यात्रा को विकास देते हैं। इनमें महेन्द्र सिंह महलान व अंजना अनिल द्वारा संपादित वर्ष 1989 में प्रकाशित लघुकथा-संकलन मंथन का एक महत्वपूर्ण स्थान है। मुद्रण, साज-सज्जा व कागज के दृष्टिकोण से यह पुस्तक संघर्ष की तरह अत्यंत सुन्दर बन पड़ी है। इसमें एकल लघुकथा-संग्रहों पर देश में पहली बार एक अद्भुत कार्य हुआ है। संग्रह में डॉ सतीशराज पुष्करणा, मधुकांत, कमलेश भारतीय, डॉ किशोर काबरा, पूरन मुद्गल, डॉ सुरेन्द्र मंथन, पुष्कर द्विवेदी, मुकेश जैन पारस, अमरनाथ चौधरी अब्ज, चन्द्रभूषण सिंह चन्द्र, डॉ राजेन्द्र भारती, बृजेन्द्र सिंह वैरागी, अतुल मोहन प्रसाद, पारस दासोत, सिन्हा वीरेन्द्र, डॉ राम निवास मानव, अंजना अनिल, लखन स्वर्णिक, कृष्णा भटनागर, डॉ सतीश दुबे के निजी लघुकथा-संग्रहों की विस्तृत समिक्षाएँ की गई हैं तथा इनकी दो से छह तक चुनिंदा लघुकथाओं को लेकर 89 लघुकथाएँ संकलन में संजोई गई हैं। इसमें महेन्द्र सिंह महलान का एक लेख एकल लघुकथा संग्रह:स्थिति और मूल्यांकन है जो पुस्तक को अतिरिक्त गरिमा प्रदान करता है। इसके अतिरिक्त अंजना अनिल द्वारा डॉ सतीश दुबे से लिया गया साक्षात्कार है जो लघुकथा को एक दिशा प्रदान करता है। वर्ष 1989 में ही डॉ स्नेह इन्द्र गोयल द्वारा संपादित संकलन दर्पण श्रीगंगानगर से प्रकाशित हुआ।
राजस्थान शिक्षा विभाग सन 1967 से लगातार महत्वपूर्ण संकलन देश के ख्यातिलब्ध साहित्यकारों के संपादन में प्रकाशित कराता आ रहा है। इन संकलनों में साहित्य की अन्य विधाओं के साथ लघुकथाओं को पर्याप्त सम्मान के साथ स्थान दिया जाता रहा है। इसमें राजस्थानी भाषा के संग्रह भी सम्मिलित हैं। शिक्षा विभाग, राजस्थान, बीकानेर का यह देश में पहला और अनूठा प्रयोग है। शिक्षक दिवस, माह सितम्बर में प्रकाशित इन संग्रहों में कुछेक के नाम इस प्रकार हैंप्रयास(सं शिवानी) वर्ष 1980, धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे(सं मृणाल पाण्डे) वर्ष 1982, कूँपल(सं कल्याण सिंह शेखावत) वर्ष 1982, हिबरैड़ो उजास(सं श्रीलाल नथमल जोशी) वर्ष 1983, रास्ते अपने-अपने(सं राजेन्द्र अवस्थी) वर्ष 1985, प्रतिभा के पंख(सं क्षेमचन्द्र सुमन, पद्मश्री) वर्ष 1992, सुनो कहानी(सं स्वयं प्रकाश) वर्ष 1993, महकते अक्षरों का आकाश(सं डॉ मदन केवलिया) वर्ष 1995 इत्यादि।
वर्ष 1994 में बलराम के संपादन में थार की धार लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हुआ। इसमें सिंध, गुजरात और राजस्थान की लघुकथाएँ दी गई हैं। संपादकीय में बलराम ने राजस्थान के लघुकथा परिदृश्य पर संक्षिप्त किन्तु सटीक प्रकाश डाला है। इस संग्रह में विजयदान देथा, यादवेन्द्र शर्मा चन्द्र, सांवर दइया, हरदर्शन सहगल, मोहरसिंह यादव, योगेन्द्र दवे, हसन जमाल, भगीरथ, अंजना अनिल, उषा महेश्वरी, मालचंद तिवाड़ी, शकुंतला किरण तथा विभा रश्मि की कई चुनिंदा लघुकथाएँ इसमे संकलित हैं। विश्व लघुकथा कोश के अंतर्गत बलराम द्वारा किए कार्यों में यह पुस्तक काफी महत्वपूर्ण है।(समाप्त)