Wednesday 29 June, 2022

आधुनिक लघुकथा : अब कहाँ हैं / विपिन जैन

[रचनात्मक साहित्य से जुड़े व्यवसायिक और गैर-व्यवसायिक पत्र-पत्रिकाएँ विशेषांकों से इतर सामान्य अंकों में लघुकथाएँ भी छापते हैं और तत्संबंधी समीक्षाएँ भी; लेकिन लघुकथा-केंद्रित आलेखों को जगह देने से कतराते हैं। 

इधर,  'हंस' के जून 2022 अंक में वरिष्ठ कवि-कथाकार विपिन जैन का लघुकथा केन्द्रित आलोचनात्मक लेख छपा है जिसे 'हंस' की ओर से सकारात्मक पहल समझा जाना चाहिए। 

भाई विपिन जैन के सौजन्य से प्राप्त उक्त लेख यहाँ प्रस्तुत है।]

आधुनिक लघुकथा जो अपने शिल्प, कथ्य, कथन और अभिव्यक्ति के रंगों के साथ आठवें दशक में उदित हुई तथा उभरी वह अपने उत्थान काल के आज तक भी कथा पत्रिकाओं में अपनी जगह बनाये हुए है। कहानी के मजबूत किले को भेदकर अपनी जगह बनाने वाली लघुकथा आज कहाँ खड़ी है? 50 साल के सफर को देखना जरूरी लगता है। कहने को आज आज लघुकथा हिन्दी कथा साहित्य की मान्य व स्वीकृत रचनात्मक विधा मानी जा चुकी है। परन्तु अब भी बहुत से लेखक, सम्पादक व आलोचक चाहे इसे गम्भीर विधा न मानने को तैयार नहीं है पर आज के कथा साहित्य में इसके अस्तित्व को पूर्ण रूप से नकार नहीं सकते। यह लघुकथा छोटी कहानी से पृथक् अपना एक स्थान व पहचान बना चुकी है तथा अभिव्यक्ति के नये आयामों को छूआ है। हिन्दी कथा साहित्य के बहुत से कहानीकार जो पहले लघुकथा का उपहास की हवा से उड़ाने का प्रयास करते दिखलाई देते थे, वह अब लघुकथा भी लिखने लगे है चाहे वह इसे कहानी की उपविधा या लघुकहानी ही कह रहे हो । 'छोटी कहानी' आज की लघुकथा से किस प्रकार भिन्न है तथा उसकी प्रवृत्तियाँ, खूबियाँ, कमजोरियाँ क्या है? या लघुकथा लेखन की शास्त्रीय कसौटी क्या है? इस पर विद्वानों, साहित्यवेत्ताओं व लेखकों के अलग-अलग विचार आये हैं बहुत से लेखों के जरिये सामने आये है। कुछ विवाद भी हैं। लघुकथा की रचना-प्रक्रिया, आकार-प्रकार, शिल्प शैली और कथ्य को लेकर विभिन्न मतों का होना गलत नहीं है। एक अपेक्षाकृत नयी विधा को लेकर मत भिन्नता तो सहज है पर इस पर अभी निर्णयात्मक व अधिकारिक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। रचनात्मकता में मत विभिन्नता होना जरूरी है। कुछ पत्रिकाएं जो लघुकथा रही है उनमें प्रारम्भ से अब तक एक ओर जहां गम्भीर एवं रचनात्मक लघु कथाएं सामने आ रही है साथ ही साथ सतही लेखन भी लघुकथा में उभर रहा है। लघुकथा कहां तक आगे बढ़ी है या अभी भी वहीं खड़ी है। अभी भी उसमें चोर सिपाही का खेल चल रहा है। हर विधा रचनात्मकता के जरिये उत्थान का रास्ता तय करती है। जिसमें पाठक वर्ग और सम्पादकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। लघुकथाएं पिछले दशकों से लिखी जा रही है। लघुकथाकारों के निजी व सम्पादित संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उसके रचना विधान, शास्त्रीय अवधारणा को लेकर पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। कई महत्वपूर्ण पुस्तकें इस सन्दर्भ में देखी जा सकती हैं। लघुकथाओं ने अपनी उपलब्धियाँ पाठ्यक्रमों में सम्मिलित होकर दर्ज की है। बहुत सी पत्रिकाओं ने लघुकथाओं के विशेषांक निकाले है। छोटी पत्रिकाओं ने गम्भीरता से लघुकथाओं को अपनी पत्रिका में जगह दी है। व्यवसायिक पत्रिकाओं का भी योगदान कमतर नहीं है। स्थापित कहानीकारों ने भी लघुकथाएं लिखी है। राजेन्द्र यादव न लिखने का कारण होते हुए भी पाँच लघुकथाएं छपवाते हैं। कई पत्रिकाओं ने प्रतियोगिता से लघुकथा का उभारा है। नई पीढ़ी भी इससे जुड़ी है। एक विराट परम्परा पीछे खड़ी है। उसकी पहचान के बिन्दु छोटी कहानी से अलग है। लघुकथा की यात्रा के आंकलन की जरूरत नहीं समझी गयी। भाषान्तरण से लघुकथा अन्य भाषाओं में गई तथा हिन्दी में आई। लघुकथा के पीछे शायद यह मानसिकता काम करती है कि यह दोयम दर्जे का लेखन है। कहानीकारों और कवियों की तरह लघुकथाकारों को कवर पर नहीं उभारा जाता। सबके अपने-अपने खेमे हो गये हैं। अपनी-अपनी बुलावन अपनी-अपनी चलावन यही खेल चल रहा है।


लेखन से ही रचना विधा का स्वरूप ग्रहरण करती है। लघुकथा लेखन में दो प्रकार के लेखक सक्रिय है। एक तो वे हैं जो सिर्फ लघुकथाएं और उससे जुड़े लेख या समीक्षा आदि के लेखन में जुटे हुए है। ऐसे लेखक अपने को लघुकथाकार ही कहलाना पसंद करते है। दूसरे वो लेखक हैं जो अन्य विधाओं पर कलम चलाने के साथ लघुकथाएं भी लिख रहे हैं लघुकथा लेखन में घटना - विवरण, दृष्टांत, संवाद, चुटकुला जैसी सतही चीजें भी बहुतायत से लिखी गयी है। कुछ लेखकों ने एक पंक्ति के जुमले में आज की विसंगतियों, त्रासद स्थितियों, दहेज की समस्या या पुलिस व व्यवस्था, विरोध, मूल्यों के विघटन को भरकर लघुकथाएं कहीं है संवादात्मक शैली को या एक-दो पंक्ति की व्यंगोक्ति भी लघुकथा के रूप में प्रकट हुई है। हास्य व व्यंग्य लघुकथा का प्रमुख स्वर बनकर भी उभरा।

छोटी कहानियों के शिल्प व शैली में लिखी गयी लघुकथाएं भी बहुत सी है। मात्र 'संवाद' में कही गयी लघुकथाएं भी लेखकों ने लिखी है।

'लघुकथा' की वर्तमान स्थिति उसकी रचनात्मक प्रवृत्तियों, उसकी बनावट, कथ्य तत्वों, शिल्प, शैली व रचनाविधान के बारे में अनेकों लेखकों, सम्पादकों व कथा साहित्य समीक्षकों और विद्वानों ने अपना मत विस्तार से प्रकट किया है। यहाँ मैं लेखकीय प्रवृत्तियों को उद्धृत न करते हुए कुछ पत्रिकाओं से अलग दृष्टियों से की ऐसी पंक्तियाँ ले रहा हूँ जो लघुकथा सृजनात्मक पर प्रकाश डालती हों या परिभाषित करती हों।

श्री अवधनारायण मुद्गल ने लघुकथा के इतिहास से जुड़ाव सम्बन्ध में कहा है, "इसके इतिहास को यदि जोड़ना ही है तो आज की कहानियों और उपन्यासों के इतिहास से जोड़ा जा सकता है, तब यह मानना जरूरी हो जायेगा कि लघुकथा समूची कथाधारा की उपधारा है और इसे मुख्य कथाधारा के उसी रूप से अलग किया जा सकता है। जब हम उपन्यास को नही, कहानी को नहरें और लघुकथाओं को उपनहरें मान लें। इन उपनहरों का अपना अस्तित्व और महत्व है। "

श्री विष्णु प्रभाकर, जिन्होंने लघुकथाएं भी लिखी हैं, उनका मत है--'लघुकथा किसी न किसी रूप में अनादि काल से चल रही है, प्राचीन काल में ऋषियों ने कुछ दृष्टांत लिखे थे, जिन्हें सर्वसाधारण भी समझ सकें। इसी प्रकार यदि दृष्टांतों को आज की भाषा में लिखा जाये तो अच्छी लघुकथाएं बन सकती है। मुझे कोई आपत्ति नहीं कि अगर इसे अलग से विधा मान लिया जाये।" लघुकथा युग की मांग है। यह कहना कि लघुकथा सन् पिचहत्तर में ही शुरू हुई, एक दम्भ है हम उसे इसका विकसित रूप कह सकते है।

बलराम द्वारा सम्पादित 'भारतय लघुकथा कोष' की भूमिका में उनका लिखना है, 'लघुकथा की रचना-प्रक्रिया पर अभी ज्यादा विचारविमर्श नहीं हुआ है। और यहाँ का काफी धाँधली नजर आ रही है, फिर भी बोध, नीति, प्रतीक लोककथा या लतीफों से तो लघुकथा का अलगाव स्पष्ट है ही इसलिए अब यह कोशिश होनी चाहिए कि इन सब पूर्ववर्ती विधाओं से लघुकथा को मुक्त किया जाये। लोक, नीति, बोधकथा के विशाल साये लघुकथा के रूप को विकृत कर सकते हैं और अवरुद्ध भी । '


श्री हरिशंकर परसाई जिन्होंने सामाजिक विसंगतियों व रूढ़ियों को व्यंग लघुकथा में ढालकर दर्शाया है उनका एक साक्षात्कार में कहना है, "पंचतंत्र, हितोपदेश आदि में लघुबोध कथाएं हैं पश्चिम में आस्कर बाइल्ट की लघुकथाएं है। लेबनान के खलील जिब्रान की लघुकथाएं है। इन सबका मिला-जुला प्रभाव भारतीय लोककथा पर है। " "लघुकथाओं में चरम बिन्दु का महत्व है यह अन्त में आना चाहिए। लघुकथा छोटी, प्रभावशील और विचार करने को बाध्य करने वाली रचना होनी चाहिए। "


कमल किशोर गोयनका ने माधव राव सप्रे की 1901 में प्रकाशित कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी' को पहली लघुकथा कहा है, लघुकथा समीक्षा के बारे में उनका कहना है, "लघुकथा आज खूब लिखी जा रही है लेकिन इसे प्रतिष्ठित समीक्षकों ने अभी तक अछूत माना हुआ है। साहित्य की विधाओं पर जिन्होंने पोथे लिखे है, शोध किया है। " बलराम लघुकथा को सन् उन्नीस सौ में माखनलाल चतुर्वेदी की लिखी लघुकथा 'बिल्ली और बुखार' से जोड़ते हैं।


यहाँ एक विरोधाभास भी है। बलराम जिस संग्रह परम्परा से लघुकथा को जोड़ने की बात करते वह लोककथा, कहानी, नीतिकथा और बोधकथाओं के प्रभाव या छाया से मुक्त नहीं है।


'हंस' के फरवरी - 95 के अंक के 'सम्पादकीय में प्रतिष्ठित साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने लिखा है, “लघुकथा न बड़ी कहानी का सार-संक्षेप है न उसकी रूपरेखा । लघुकथा गजल या दोहे की तरह स्वतंत्र विधा है। यह दूसरी बात है कि बहुत-सी लम्बी कहानियों को खूबसूरत लघुकथा बनाया जा सकता है और बहुत-सी लघुकथाएं संभावनाओं के अनुसंधान में बकायदा कहानी का रूप ले सकती हैं। पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाओं, घेरकथाओं, अनंत लोककथाओं से लेकर ईसप, खलील जिब्रान ख्वाजा, नसीरुद्दीन, कन्फुसियस और अब आचार्य रजनीश तक लघुकथाओं की दुनिया का विस्तार कर रहे हैं।" "वस्तुतः फोटोग्राफी की भाषा में लघुकथा एक ऐसा सनैप शाट है जिसे समय के प्रभाव में स्थित कर दिया है। वह समग्र हिस्सा भी है और स्वतंत्र भी । कहानी उसके संदर्भों के साथ ही अर्थसंकेतिक करती है। "


कमल किशोर गोयनका ने लघुकथा को इस प्रकार विश्लेषित किया है, “विधायें अपने समय का सत्य होती है, वे अपने समय की आवश्यकता से जन्म लेती है और उसके अनुरूप ही फलती-फूलती है, मैं इस कारण लघुकथा को अपने समय का सत्य कहता हूँ। "


बलराम अग्रवाल जो लघुकथा लिखने के साथ-साथ उस पर बराबर आलोचनात्मक व विवेचनपूर्ण लेख लिखते रहते हैं, कहते हैं, " 'लघुकथा आकार की दृष्टि से क्योंकि कहानी से बहुत छोटी कथा रचना है, अतः जाहित है कि उसका नेपथ्य कहानी की तुलना में अधिक विस्तृत होगा। लघुकथाकार कथा के मात्र संदर्भित बिन्दुओं पर कल चलाता है शेष को नेपथ्य में रखता है लेकिन लघुकथा को कहानी के नेपथ्य से उसी तरह को-रिलेटेड और को-लिंक्ड रहना चाहिए। जिस प्रकार कहानी का नेपथ्य उपन्या के साथ रहता आया है। वस्तुतः नेपथ्य वह वातायन है जिसे लेखक अपनी रचना में तैयार करता है तथा पाठक को विवश करता है कि वह उसमें झांके तथा रचना के व्यापक संसार को जाने।


रमेश बत्तरा जिन्होंने उल्लेखनीय लघुकथाएं लिखीं तथा पत्रिकाओं व पत्रों के माध्यम से लघुकथा को आगे बढ़ाया। उन्होंने लघुकथा और कहानी को एक दूसरे का पूरक कहा है, “मेरी नजर में लघुकथा का औचित्य कहानी की पूरकता में है और इसलिए महत्वपूर्ण भी है क िजहां आकर कहानी अपना कार्य खत्म करती है। लघुकथा का काम शुरू हो जाता कहानी और लघुकथा अर्न्तधारा एक है।" "लघुकथा घटना नहीं बल्कि उसकी घटनात्मकाता में से प्रस्फुटित विचार है जो यथागत पात्रों के माध्यम से उभरे। लघुकथा की तर्ज पर सहज ढंग से सुलभ भाषा में लिखी जानी चाहिए।

लघुकथा को समर्पित लघुकथा लेखक जगदीश कश्यप लघुकथा का कालतत्व दोष से मुक्त होना आवश्यक मानते हैं। लघुकथा में काल तत्वदोष का वही महत्व है जो चाय बनाने में चाय की पत्ती का होता है। इसी बिन्द को न जानने के कारण अनेक लघुकथा लेखक लघुकथा लिखते-लिखते कथासार गाद्यांश या भावुकता भरा ब्यान लिख जाते है। आगे लिखते हैं- 'मेरे विचार से अच्छी लघुकथाएं वहीं लिख सकता है जिसक कथा जगत की सम्यक् पहचान हो, यही नहीं काव्यात्मक पड़ाव की जानकारी औश्र सारगर्भित अभिव्यक्ति के लिए उसे देशकाल - पात्र की भाषा व शिल्प-विन्यास की समझ हो ।

मुख्य रूप से कहानी लेखक व लघुकथाकार कथा समीक्षक कथा सम्पादन में योगदान रखने वाले महेश दर्पण का कहना है, "लघुकथा एक ऐसा 'स्लाइस ऑफ लाइफ' है जो कहानी का संक्षिप्त रूप नहीं हो सकता। विषय और काल की जो सीमाएं इस विधा पर लगाने के विचार आते हैं। मैं उनसे कतई सहमत नहीं। मुझे लगता है कि इस विधा पर विचार करने वालों में अब तक ठेकेदारी की प्रवृत्ति अधिक और विधा के रचनात्मक सरोकारों पर विचार करने की नीयत कम रही है। कविता के अधिकाधिक उपादान लघुकथा को विधा के रूप में समर्थ बना सकते हैअन्यथा किसी भी घटना को ब्यान कर देता भर ही लेखन माना जाता रहेगा।'

डा. कमल चोपड़ा जिन्होंने लघुकथा लेखन का कार्य व्यापक रूप से किया है, अपने एक लेख समकालीन लघुकथा संदर्भ में लिखते हैं, "अनुभूति की सूक्ष्मता, गहनता, तीक्ष्णता लघुकथा के लिए आवश्यक सी है; लेकिन लेखकीय दृष्टि या प्रतिभा के अभाव में इन सूक्ष्म और गहन गुणों की अभिव्यक्ति करते समय रचना के सतही अस्पष्ट और अपूर्ण रह जाने का खतरा दूसरी विधाओं के मुकाबले लघुकथा में सर्वाधिक है।"

'लघुकथा के मानदण्ड' नाम के लेख में शंकर पुणतांबेकर जिन्होंने बहुतायत में लघुकथाएं रची हैं। उसमें कहते हैं, "मैं लघुकथा को वास्तव में 'वैचारिक कथागीत' मानता हूँ, गीत पक्ष में लघुकथा का मानदण्ड है। उसकी लघुता, शैली प्रभावान्विति और वैचारिक पक्ष आ जाती है यह कथा जो युग के यथार्थ को प्रस्तुत करती है।"

विक्रम सोनी - "लघुकथाओं से उभरते विचार" नाम के लेख में लिखा हैं, "लघुकथाओं में बोझिलता का दोष यदि है तो केवल इसलिए कि परिवेश का 'ईमानदार चित्रण' के अर्थ कथाकार परिवेश में निहित तथ्यों तथा इन तथ्यों को उजागर करने वाली सूचनओं को ठूंस-ठूंसकर लिख लेते


डॉ० महाराज कृष्ण जैन अपने एक आलेख 'लघुकथा - वर्तमान परिदृश्य' में लिखते है- 'कवित का स्थानापन्न जिस प्रकार क्षणिका से नहीं हो सकता उसी तरह लघुकथा भी कथा का स्थानापन्न नहीं है' आगे वह लघुकथा सीमा व परिदृश्य की ओर संकेत करते है- “लघुकथा संवदेना जागृत करने के बजाय नाटकीयता, विस्मयता, आघात, कथन की भंगिमा, उक्ति वैचित्य आदि का आश्रय लेने को बाध्य है। यही उसकी प्रभाव की सीमा है।


डॉ० बालेन्दुशेखर तिवारी का 'जनगाथा' में प्रकाशित लेख कहना है, 'लघुकथा के आकार शिल्प, कथ्य भाषा जैसे पहलुओं पर कच्ची और अशास्त्रीय दृष्टि ही पर्याप्त नहीं। सम्प्रेषण और तनाव, अनुभव और अभिव्यक्ति, सूत्रात्मकता, शैली और मौलिकता अभिरूचि और संवेदन में जिन नये-नये संदर्भों से आज की समीक्षा का रिश्ता है उन सबके आलोक में लघुकथा की पड़ताल बेहद जरूरी है। " सतीश राज पुष्पकरण जिन्होंने लघुकथा सम्मेलनों का आयोजन, संग्रहों का प्रकाशन व लेखन किया है। उनके विचार में लघुकथा का स्वाभाविक सटीक होना अनिवार्य है।


लघुकथा के रूप में हमारे समक्ष अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम है, जो कहानी की अपेक्षा बहुकोणीय आयामों को खोलता है। जीवन की बहुत-सी जटिलताओं को, संघर्ष, विचार, भावना, द्वन्द, वैचारिक व्यवस्था विरोध, शोषण, मार्मिक क्षणों तथा जीवन के समयगत सत्य, अर्थ व धर्म, दर्शन व अनेकोनेक पक्षों को हम लघुकथा के जरिये समग्र व सटीक रूप से व्यक्त कर सकते है । लघुकथा में अभिव्यक्ति के लिए हमारे पास एक कालजयी परम्परा भी है। हमें बोधकथाओं, लोककथा, नीति कथाओं तथा पौराणिक कथाओं के साये से बचने की जरूरत नहीं है अपितु लघुकथाकार के अपने कथ्य को अधिक प्रयोगात्मक व प्रभावी अभिव्यक्ति के लिए इसके शिल्प व शैली का सहारा ले सकते है। भाषान्तर से हिन्दी लघुकथा समृद्ध हो रही है । "मेरी समझ में लघुकथा कहानी से इतर एक पूर्ण स्केच है। स्केच चाहे आप पूरा करके पाठक के आगे रख दें या इस स्थिति में छोड़ दें कि आगे पाठक द्वारा बिना प्रयास के उसे महसूस किया जा सके। जो टुकड़ा आप छोड़ दें और पाठक के अन्दर से एक आवाज आए, हां ये टुकड़ा मेरे पास है। आठवें दशक व उसके बाद जो लघुकथाएं प्रकाशित हुई हैं उनकी शैली, रूप भाषा व कथ्य को हम अधिक पीछे नहीं ले जा सकते। सिर्फ छोटे आकार की कथा होने के कारण आधुनिक लघुकथाओं से नहीं जोड़ी जा सकती।

लघुकथा को चार दशकों से उसके किए गए सफर में आंके तो यह देखना जरूरी हो जाता है उसने कहानी से अलग मानव जीवन के कौन-कौन से पहलू छुए तथा कहां-कहां वह कहानी के आगे बढ़ गई है। क्या कहानी के जैसी रम्य और गम्भीर रचना वह बन पाई है। यूँ लिखने भर को लिखी जा रही है, छपने को छप रही है पर अपने ही द्वन्दों और सवालों में उलझी हुई है। उसकी समीक्षात्मक आलोचना तथा आंकलन अभी ओझल है। जो भी कार्य हुआ है, उसको विश्लेषण की दृष्टि से देखा नहीं गया है। लघुकथा में आज भी कहानी के तत्व तलाशे जाते हैं और वही उसका मापदण्ड बना गया है। यूं उपलब्धियाँ बहुत हैं। वैबसाईट पर उपलब्ध है, पर लेखीय विधा के रूप में वह परहेज जैसी चीज क्यूं बनी हुई है। क्यों पत्रिकाओं में फिलर के रूप में नजर आती है। स्वतंत्र मूल्यांकन के दायरे में क्यूं नहीं लिया गया। यहां मेरा मकसद उसकी आलोचना पक्ष की अनदेखी को उभारना है। कुछ पंक्तियाँ है- रंग खिल उठे नये-नये फिर, मैंने था एक रंग बिखेरा। लघुकथा भी अपने रंगों को उकेर कर अपना मूल्यांकन चाहती है।


विपिन जैन

के. आई. 147, कविनगर, गाजियाबाद-201001 (उ.प्र.)

ईमेल : vipinkrjain54@gmailcom 

मोबाइल : 9873927829


Wednesday 22 June, 2022

हमशक्ल दोस्त / स्वप्निल श्रीवास्तव

 जीवन वृत्तांत 

Swapnil Shriwastva
कुछ चीजें हम रखकर भूल जाते है और उसे खोजते रहते हैं। अपनी एक किताब में  ग्रुप फ़ोटो रख दिया था जो वर्षों बाद बरामद हुआ है। किताबों में लोग प्रेमपत्र या सूखे हुए फूल रखते हैं लेकिन मैंने इस फ़ोटो को रख दिया था, इस लिहाज से कि वह सुरक्षित रहे। भले ही यह फ़ोटो  बहुत दिनों बाद मिला लेकिन यह महफूज था। इस ग्रूप फ़ोटो का तीसरा फ़ोटो थोड़ा क्षतिग्रस्त हो चुका था, इससे उन दिनों को याद करने  में कोई कठिनाई नही हुई। यह फ़ोटो हम लोगों के मित्र जगदीश कश्यप की है जिसे मैं लघुकथा का भीष्म पितामह कहता  था। वे लघुकथा की एक पत्रिका मिनीयुग निकालते थे। गाजियाबाद के स्टेशन रोड पर वे नगरपालिका की छोटी सी कोठरी अपना ठिकाना बनाए हुए थे ,उनकी रिहाइश कीर्तनवाली गली में थी। जब मैं वहाँ जाता था तो रेल की सीटी का शोर सुनायी पड़ता था, परिवार के लोग इस आवाज के अभ्यस्त थे। बाहर से आनेवालों को इस असुविधा का सामना करना पड़ता था।

  नगरपालिका की यह  कोठरी, कोठरी नही एक दड़बा था जहां हम दोस्त लोग फड़फड़ाते रहते थे–ज्यादातर दड़बे के बाहर  बैठते थे। उन  दिनों गाजियाबाद धीरे–धीरे विकसित हो रहा था ,जी टी रोड  दस बजे के बाद वीरान होने लगती थी। हाँ, जब सिनेमा का शो छूटता था तो लोग इस तरह हाल से निकलते थे जैसे  बिल से चीटियाँ निकल  रही  हों। क्या पता था कि आठवें दशक का गाजियाबाद एन सी आर का मुख्य केंद्र बन जाएगा और दिल्ली से होड़ लेने लगेगा। जब कभी गाजियाबाद जाता हूँ तो लगता है किसी नये महानगर में आ गया हूँ–इस नगर की संस्कृति बदल चुकी है। केवल शहर नही बदलते उसके साथ लोग भी बदलते हैं–विधाओं में परिवर्तन होते हैं।

    जगदीश कश्यप के साथ उनकी लघुकथा यात्रा में रमेश बतरा, महेश दर्पण, महावीर प्रसाद जैन, बलराम अग्रवाल बेहद सक्रिय थे। इस टोली में लघुकथा में सबसे ज्यादा  सक्रिय बलराम अग्रवाल हैं, उन्होंने आठवे दशक से जो यात्रा शुरू की थी, वह अब  तक जारी है। मैं तो कविता लिखता था लेकिन उनकी सोहबत में लघुकथा लिखने लगा था। उन दिनों लघुकथा की धूम थी। 'सारिका'  ने विश्वप्रसिद्ध कथाकारों की लघुकथाओं पर एक विशेषांक प्रकाशित किया था। भारत यायावर ने अपनी पत्रिका 'नवतारा' का एक अंक (1979) लघुकथा पर केंद्रित किया था जिसमें मेरी और अनिल  जनविजय की लघुकथा शामिल थीं। उन दिनों लघुकथा और लघुकहानी पर खूब विवाद चल रहा था। कुछ लोग लघुकथा को विधा मानने को तैयार नहीं थे। वे  कहते थे कि यह कहानी का संक्षिप्त रूप है।

   जगदीश कश्यप उन लोगों के विरोध में थे जो लघुकथा को विधा मानने को तैयार नहीं थे। वे लंबे–लंबे लेख लिखते थे और अपनी स्थापना के लिए लड़ जाते थे। उनकी आक्रमकता से सभी डरते थे, हर बात पर तुनुक जाते थे। उनके आक्रामक होने के पहले ही मैं उनकी बात मान जाता था और आत्मसमर्पण की मुद्रा में आ जाता था। वे अपनी मूर्खतापूर्ण स्थापनाओ पर अडिग रहते थे। ऐसे अवसरों पर मैं जॉर्ज बर्नाड शॉ के इस वाक्य का सहारा लेता था, उन्होंने कहा था–इट इज बेटर टू कंप्रोमाइज विथ फूल्स (मूर्खों से राजी होने में ही भला है) वे जुनूनी तबीयत के मालिक थे, जो कोई उनसे असहमत होता था, उसकी बखिया उधेड़ देते थे। मुझे याद है कि उन्होंने राजस्थान की एक लघुकथा–लेखिका के खिलाफ एक जेहाद ही छेड़ दिया था। वे चरित्र हनन की सीमा तक उतर आये  थे।

  इसमें कोई संदेह नही कि वे अच्छी लघुकथाएँ लिखते थे। इसके अलावा उनके भीतर एक गुण और  था, वे आशुलिपि के उस्ताद थे। वे लड़कों को ट्यूशन देते थे–उन दिनों  जिन्हें आशुलिपि आती थी, उसकी नौकरी लगभग पक्की हो जाती थी। इसी के बल पर उन्हें डिस्ट्रिक्ट सप्लाई ऑफिस,  गाजियाबाद में स्टेनो की नौकरी मिल गयी थी। उनका जीवन ढर्रे पर आ गया था लेकिन अराजकता ने यहाँ भी उनका पीछा नही छोड़ा। रिश्वत के तौर पर वहाँ उन्हें पीने का रोग लग गया था, वे बेतरह पीते थे। इससे साहित्यिकों के बीच उनकी छवि धूमिल होने लगी और लीवर भी खराब होने लगा था। एक दिन लघुकथा का नायक हमें छोड़कर चला गया–उनकी अराजकता  हमें उनकी मृत्यु से ज्यादा प्रिय थी। हमें हमेशा सहजता प्रिय नहीं होती, कभी-कभार असहज भाव अच्छा लगता है। जगदीश कश्यप जैसे मित्र रस–परिवर्तन करते रहते हैं।

     ***

    अब इस दुखांत प्रकरण से अलग बलराम की  कथा पर आते हैं। बलराम अग्रवाल से मेरी मुलाकात बुलंदशहर में हुई थी। मेरे बॉस ने मुझे मेरठ  कार्यालय से बुलंदशहर  डिस्पैच  कर किया था। वहाँ मेरा काम अखबारों में सरकारी योजनाओं का प्रचार करना था, इस हेतु  वहाँ  सूचना केंद्र खोलना था। मैं इस केंद्र का केयर- टेकर, भिश्ती, चपरासी और डाकिया यानी था।  सूचना केंद्र का सफाई करना, अखबारों और पत्र –पत्रिकाओं को करीने से रखना मेरा दायित्व था।  जिस गली में सूचना केंद्र स्थापित था, बलराम उस गली में रहते थे। यह कवियों की गली थी जिसमें निर्धन और चंचल जैसे कई कवि रहते थे। उन्हें मंचों की शान  समझा जाता था, कविता पढ़ने  के पहले वे आलाप भरते थे और जब तालियाँ बजती तो उनका सदेह कविता–पाठ शुरू हो जाता था। वे गजब के तुकबाज थे, देखते–देखते कवित्त बना देते थे। हम उनका मुंह ताकते रह जाते  थे, यह सिद्धि हमें नहीं प्राप्त थी। बलराम कविताएँ नहीं लिखते  थे लेकिन कविताओं में उनकी रुचि थी। वे गंभीर साहित्य पढ़ते थे। सूचना केंद्र में अखबार और पत्र-पत्रिकाएं आती थी, मैं उस केंद्र को सुबह–शाम खोलता और बंद करता था। यह सूचना केंद्र, केंद्र कम मुशायरों और कवियों का मंच अधिक बन चुका था। अमूमन इसे आठ बजे तक बंद हो जाना चाहिए था, लेकिन यह देर रात तक गुलजार रहता था। शहर में यह अफवाह फैल गयी थी कि मैं भी कविताएँ लिखता हूँ। मुझे सुनने और अपने आपको ज्यादा सुनानेवाले  कवि यहाँ जुटने लगे। मुझे इसके अलावा कई काम करने होते थे, होटल में समय से पहुँचना होता था। अगर देर हो जाती थी तो स्टोव पर कोई पेट-भराव खाना बना लेता था। परांठे या रोटी के साथ आम या  मिरचे के आचार का कोई जोड़ नही। भूख लगने पर हर तरह के खाने में स्वाद आता था।  कभी–कभी अंडे की भुरजी मिल जाए तो क्या कहने–यह बिलासिता तो तनख्वाह के पहले दिन ही संभव थी। मेरी तनख्वाह 175 रुपये महीने थी–इसमें 'नंगा नहाएगा क्या, निचोड़ेगा क्या ?' का मुहावरा याद आता था। माह के पहले हफ्ते में वेतन उड़ जाता था फिर उधार पर भरोसा करना पड़ता था।

  वहाँ मेरी दिनचर्या अलग  थी, मैं दिशा–मैदान के लिए काली नदी जाता था, वहाँ से लौटकर मकान–मालिक के नल पर नहाता था और कपड़े बदल कर आठ बजे सुबह  सूचना केंद्र खोल देता था। सुबह खूब हड़बड़ी होती थी और रात को देर हो जाती थी, इसी के बीच जीवन घूमता रहता था। इसी बीच मेरे बचपन के कवि–नाटककार  मित्र  रवीन्द्र भारती मुझसे मिलने बुलंदशहर आये थे। बलराम और मैं उन्हे लेकर काली नदी ले गये थे, हम लोग  कुछ  देर तक पुल पर टहलते रहे फिर उसके पास के एक सघन बाग में चले आये थे। उस बाग की छाँह अब तक याद हैं। रवीन्द्र भारती जे पी आंदोलन में सक्रिय थे, वे जे पी और रेणु के नजदीक थे। उन्होंने उस आंदोलन की बहुत-सी बातों को साझा किया। दुनिया में मैं कही भी रहूँ वे मुझे  खोज लेते थे। अब उनकी यह आदत छूट गयी है। सब लोग अपनी–अपनी जिंदगी में मशरूफ़ हो गये हैं, लोगों को  अपने लिए वक्त नही मिलता तो गैरों के लिए कहाँ समय मिलेगा।

  उस दौर की फटेहाली और फक्कड़पन खूब याद आता है, उन दिनों को कोई अगर खरीदना चाहे तो मैं किसी कीमत पर नही बेचूँगा। ऐसे दिन अनमोल होते हैं, वे याद रहते हैं।

     आपातकाल के बाद जनता सरकार गठित हो रही थी, यह सत्ता परिवर्तन का समय था। इधर जीवन की  सत्ता  भी बदल रही थी। मुझे दूसरी नौकरी का परवाना मिल चुका था, मैं ट्रेनिंग के लिए लखनऊ पहुँच चुका था, उसके बाद पोस्टिंग होनी थी। मैं यह सोच ही रहा था कि मेरी नियुक्ति गृह जनपद के आसपास होगी लेकिन जब नियुक्ति पत्र मिला तो उस पर पिलखुआ–गाजियाबाद लिखा हुआ था। मुझे तत्काल गाजियाबाद ज्वाइन करना था –मुझे पश्चिमी उ. प्र से अभी मुक्ति नही मिल पायी। बलराम की नौकरी डाक विभाग में लग चुकी थी, इस बार हम लोगों का मिलन स्थल गाजियाबाद बना, वहीं पर लघुकथा के गुरू जगदीश कश्यप मिले। गाजियाबाद में मेरी मुलाकात कथाकार सोमेश्वर और अपने समय के प्रमुख गीतकार कुँवर बेचैन से हुई। वहाँ यदा-कदा  गोष्ठियों का आयोजन होता रहता था ,उसमें नवोदित  कवि आते रहते थे, वे बछड़ों की तरह उछलते–कूदते रहते थे। जिसका कंठ मधुर होता था, उसे अच्छा कवि मान लिया जाता था। हम लोग छंद कविता में पारंगत नहीं थे इसलिए हमें कोई महत्व नहीं मिलता था।

   गाजियाबाद के तीन कस्बे पिलखुआ, गढ़मुक्तेश्वर और हापुड़ में मेरे तीन रचनात्मक साल गुजरे। पिलखुआ रहते हुए संभावना प्रकाशन हापुड़ आना–जाना बना रहा–जब मैनें अपना ठिकाना हापुड़ बनाया तो बलराम वहाँ आते-जाते रहे। उन दिनों रवीन्द्रनाथ त्यागी मेरठ कैंट के इंचार्ज और सर्वे-सर्वा  थे, वे बड़े अधिकारी तो थे ही अपने समय के प्रसिद्ध व्यंगकार थे। उनकी विनोदप्रियता अद्भुत थी , व्यंग के साथ वे कविताएँ भी लिखते थे। हरिशंकर परसाई ने उनसे कहा था कि तुम मुझसे  बड़े लेखक हो क्योंकि तुम व्यंग के साथ कविताएँ भी लिखते हो। आलोचकों की राय उनके बारे में चाहे जो हो,  वे लेखक के  साथ बड़े मनुष्य थे। इतने बड़े ओहदे पर पहुँचने के बाद उन्हें अहंकार छू तक नहीं गया था। वे हापुड़ अपनी गाड़ी से नहीं, पैसेंजर ट्रेन से आते थे। यह सहजता दुर्लभ थी। वहाँ पर उन्होंने अपने उपन्यास 'अपूर्ण कथा' के अध्याय  सुनाए थे जिसे पढ़ते हुए वे जार-जार रोते थे। यह उपन्यास उनके जीवन की दारुण-कथा थी।

    उन्होंने मुझे बलराम के साथ देखकर कहा था कि तुम दोनों हमशक्ल लग रहे हो। यह बात किसी ने नहीं इंगित की थी। फिर तो हम एक-दूसरे को आईने में देखने लग गये थे। हम हमशक्ल भले  ही कुछ कम हों, लेकिन हम दोनों में विचारों की साम्यता जरूर थी। बलराम में अब भी मस्ती बनी हुई है। कुछ साल पहले जब वह फैजाबाद आया था तो यह बात तसदीक हुई। उसके कील–काँटे दुरुस्त थे। 

    कई बार बलराम को गाजियाबाद में देखकर कई लोगों ने मुझसे कहा–आपको गाजियाबाद में देखा है; जबकि मैं उस दिन गाजियाबाद नहीं गया था। अगर हम कुछ नहीं बनते तो अपनी हमशक्ल के कारण जासूसी फिल्मों में चरित्र अभिनेता तो बन ही जाते। फिल्मों में  हमशक्ल बनाये जाते हैं हम तो रूबरू हमशक्ल थे। समय के साथ हमारी शक्ल बदलती जा रही है, हमारे गेट-अप भी बदल गये हैं। वक्त की धूल आईने पर पड़ चुकी है। हमारे चेहरे धुंधले हो चुके है लेकिन एक समय में हम हमशक्ल थे। यह बात बहुत दिलचस्प है।










स्वप्निल श्रीवास्तव 

510 – अवधपुरी कालोनी – अमानीगंज 

फैजाबाद – 224001 

मोबाइल 9415332326


(बाएँ से) स्वप्निल श्रीवास्तव,  बलराम अग्रवाल, जगदीश कश्यप (फोटो:1978)



लघुकथा का विराट मिशन : मधुदीप / बी. एल. आच्छा

[मधुदीप ने जब 'पड़ाव और पड़ताल' के 1988 में प्रकाशित प्रथम संस्करण का पुनर्मुद्रण 2013 में किया था, तब निश्चित रूप से स्वयं उन्हें भी यह अनुमान नहीं था कि उन्होंने लघुकथा उन्नयन के एक अनोखे पायदान पर कदम रख दिया है। लघुकथा-साहित्य के प्रकाशन क्षेत्र में वह नि:संदेह एक बड़ी लकीर खींच गये हैं। उनके उक्त योगदान को रेखांकित करता महत्वपूर्ण आलेख 'वीणा' के नवीनतम जुलाई 2022 अंक में सुप्रतिष्ठित साहित्यकार श्रीयुत् बी. एल. आच्छा जी का प्रकाशित हुआ है। प्रस्तुत है वह आलेख]

लघुकथा के ऐतिहासिक  प्रकाशक : मधुदीप 
मधुदीप
हमारे बीच नहीं रहे ! यह साधारण वाक्य नहीं है। एक गहरा उत्ताप इस 'बीच' में समाया है। यह उत्ताप एक मित्र के जाने का नहीं है। एक लेखक के अलविदा होने का नहीं है। यह कुछ खाने और पाने मात्र का नहीं है। एक समूचा मिशन है, लघुकथा विधा के विकास का। लघुकथा की ऐतिहासिकता की पहचान का। हिन्दी लघुकथा के लगभग डेढ़ सौ लघुकथाकारों की शीर्ष रचनाओं की पहचान का। समीक्षकों की सैद्धांतिक व्यावहारिक राह का। नये लघुकथाकारों के श्रेष्ठतर को प्रकाशित और पुरस्कृत करने का। संतान विहीनता के शून्य में इतनी बड़ी बिरादरी को समाहित करते हुए लघुकथा को बेटी की तरह समावेशी पोषण देने का।
        मधुदीप से मेरा परिचय एक दशक से पहले
का नहीं है। 'पड़ाव और पड़ताल' के चौथे खंड में अशोक भाटिया की ग्यारह लघुकथाओं पर समीक्षात्मक आलेख के लिए भगीरथ जी का फोन आया। मैंने लिखकर भिजवा दिया। इसके बाद तो सिलसिला थमा ही नहीं। मधुदीप ने लघुकथा के सृजन और समीक्षा की हिमालयी श्रृंखला खड़ी कर दी, पड़ाव और पड़ताल के तब तक के पच्चीस खंडों में। मैंने पच्चीस खंडों की समीक्षा के लिए वीणा के संपादक राकेश शर्मा जी से सहमति चाही। संयोग से दो किश्तों में बहुत विस्तार के साथ समीक्षा का प्रकाशन हुआ। संयोग यह भी कि 'लघुकथा कलश' के संपादक योगराज प्रभाकर  जी ने भी उसे प्रकाशित किया। हिन्दी में किसी विधा पर इतने बड़े आकार में, इतने लेखकों और उनकी दो हजार लघुकथाओं का आयोजन देखने में नहीं आया। अलबत्ता चयन की अपनी कसौटी पर जितने लघुकथाकारों को लिया, उससे कई गुना लघुकथाकारों की रचनाओं का प्रकाशन न करने की विवशता को भी व्यक्त करना पड़ा।
       
मधुदीप अकेले के लिए जीनेवाले प्राणी नहीं थे। हाँ, यह जरूर है कि पड़ाव और पडताल कें कुछ खंडों का संपादन अन्य मित्रों ने किया। मगर  अधिकतर का चयन और संपादन स्वयं मधुदीप का। इस चयन में समीक्षकों की तलाश। दिवंगत लघुकथाकारों के संकलनों की तलाश।उनके साक्षात्कारों-आलेखों का धरोहर के रूप में समायोजन। आरंभिक पंद्रह खंडों में छह-छह लघुकथाकारों की ग्यारह-ग्यारह रचनाएँ। और प्रत्येक की समीक्षा। बाद के इन खंडों में एकल लघुकथाकारों की 66-66 लघुकथाओं पर तीन-चार समीक्षकों के विस्तृत आलेख। मगर संपादकीय में न अपना मतवाद, न वैचारिक आग्रह। एक खुली छूट स्वयं के लिए, रचनाओं के चयन की। और खुली छूट समीक्षकों के अपने नजरिए की। इसीलिए मधुदीप इन सबके साथ खड़े हैं, सबके साथ है, विधा के संजीवन के लिए। लघुकथा की नयी पीढ़ी को प्रोत्साहित करने के लिए।
     
मधुदीप अस्पताल में जाँच करवाने भर्ती होते रहे। घर में करनेवाला भी कौन ? एक कर्मचारी सुधीर और लेखक मित्र कुमार नरेन्द्र। पर इसकी तुलना में अस्पताल में ही उन्होंने ऐसी आत्मीयता पैदा करली कि डॉक्टर और परिचारकों का परिवार ही उनके लेखन से जुड़ गया। अस्पताल से ही अंत-अंत की दो तीन पुस्तकें प्रेस में जाती रहीं। कभी लगता है कि इस अकेले प्राणी को सालभर में ही इतने आघात लगे हों, उसकी हृदय-लिपि कितनी वायब्रेट होती होगी। पत्नी को कैन्सर और बिछुड़ने का आघात। माँ की मृत्यु। भाई का अंतिम संस्कार। बेहद सूना घर और खुद को कैन्सर। यह कैसी जीवट-लिपि है, जो लगातार जूझते हुए भी प्रेस, प्रूफ,पुस्तक, मित्र-संवाद और भविष्य की योजनाओं से मुक्त होती ही नहीं थी।
   
अस्पताल पहुंचने से पहले मुझे फोन किया। ऑपरेशन के लिए जा रहा हूं। महीना भर तो ठीक होने में लगेगा। कीमोथेरेपी के उपचार तो करवाता रहा। मगर ऑपरेशन की बात और है। अभी पड़ाव और पड़ताल के तैंतीसवें खंड के प्रूफ अच्छी तरह देख नहीं पाया। इसलिए भिजवा दिये हैं आपको। पर जब घर लौटूंगा, तभी वापस भेजना। वरना घर पर डाक लेनेवाला तो कोई होगा ही नहीं। अब कितना पिघलाने वाला क्षण है।  जिस हृदय- लिपि से लघुकथा के मिशन को गढ़ रहे थे, ऑपरेशन के दौरान ही भूचाल आ गया। इस आघात ने उनके लघुकथा संग्रह को सामने ला दिया--'समय का पहिया'। और पहिया ऐसा थमा कि जीवन्त मुद्रा में घर भी नहीं लौट पाए। अब भारतेन्दु से लेकर 2020 तक के 132 रचनाकारों की लघुकथाओं की लगभग 18० पृष्ठों की समीक्षा किसे पहुंचाता?लघुकथा का चितेरा पाखी तो आकाशमार्गी हो चला था ।
      संभवतः 2015 में इन्दौर के अहिल्या पुस्तकालय में आयोजित एक गोष्ठी में उनसे पहला साक्षात्कार-संवाद हुआ। लघुकथा पर केन्द्रित इस गोष्ठी मे लघुकथा का पूरा इन्दौरी संप्रदाय हाज़िर। संवाद मेरा भी। समापन के बाद मधुदीप बोले--'आच्छा भाई, अब छोड़ेंगे नहीं। खूब लिखना है।' बस यही पहली और अंतिम प्रत्यक्ष भेंट ।मगर संवाद और विमर्श बने रहे। पच्चीस खंडों के बाद महिला लघुकथाकारों और नवोदित लघुकथाकारों पर संग्रह की तैयारी हो रही थी। एक दिन मैंने भी फेसबुक पर  लिख दिया  कि भारतेन्दु या प्रेमचन्द से लेकर आज तक की श्रेष्ठतम सौ लघुकथाओं का चयन संग्रह के रूप में प्रकाशित हो। और अच्छी सी भूमिका भी, जो कालक्रमिक बदलावों को रेखांकित कर सके। पाँच मिनट बाद ही संदेश आ गया । इस शर्त के साथ स्वीकार कि इसकी पचास पेज की समीक्षात्मक भूमिका लिखेंगे। पड़ाव और पड़ताल का सत्ताईसवाँ खंड इस रूप में ऐतिहासिक बन गया। क्योंकि सन् 1876 से सन् 2000 तक की 66 लघुकथाओं का चयन और रचना केन्द्रित समीक्षा के 85 पृष्ठ प्रकाशित होकर आए। 'हिन्दी की कालजयी लघुकथाएं' पुस्तक में।  इसी का दूसरा भाग सन् 2001 से 2020 तक की 66 लघुकथाएँ प्रूफ बनकर ही आए। भविष्य में इसका प्रकाशन भी संभव हो जाए। कम से कम भारतेन्दु से लेकर सन् 2020 तक की लघुकथाओं का ऐतिहासिक-सा ग्रंथ हिन्दी की धरोहर बन जाए।
      दिल्ली में  मधुदीप नौकरी के दौरान ही लिखते रहे। बाद में दिशा प्रकाशन के निदेशक। एक यात्रा अन्तहीन, उजाले की ओर, और  भोर भई ,पराभव, लौटने तक, कल की बात उनके उपन्यास हैं। छोटा होता आदमी कहानी संग्रह के साथ संपादित कथा संग्रह भी। तनी हुई मुट्ठियां,मेरी तेरी उसकी बात, समय का पहिया के साथ अंतिम समय में 'बिना सिर का धड़' लघुकथा संग्रह भी प्रकाशित हुआ। मगर 'पड़ाव और पड़ताल' के बत्तीस खंडों में उन्होंने लघुकथा को श्रेष्ठतम  चयन के साथ समीक्षात्मक धरातल दिया। वैचारिक विमर्श की चौपाल दी। लघुकथा के ऐतिहासिक आधार को रेखांकित किया। दिवंगत लघुकथाकारों के लिए दीपशिखा बने। समकालीन लघुकथाकारों को समीक्षा की पट्टभूमि के साथ प्रतिष्ठित किया। शीर्ष दस लघुकथाकारों पर स्वतंत्र पुस्तकें प्रकाशित कीं। महिला लघुकथाकारों पर स्वतंत्र पुस्तक।  नवोदित लघुकथाकारों पर स्वतंत्र पुस्तक। दिशा प्रकाशन से नवोदित लघुकथाकार एवं लघुकथा समालोचना  सम्मानों का आयोजन किया। सम्मान-निधि के साथ प्रतिवर्ष एक श्रेष्ठतम लघुकथाकार की पांडुलिपि का प्रकाशन भी। अतीत, वर्तमान और भविष्य की लघुकथा को गढ़ती पीढ़ी को जोड़ना और समीक्षात्मक धरातल पर मूल्यांकित करवाने के प्रयास। असाधारण समर्पण और जीवट का व्यक्तित्व ही कर सकता है। धनराशि का व्ययन भी और प्रकाशन का दायित्व भी।
     अलबत्ता मधुदीप पर मैंने कुछ लिखा ही नहीं। जबकि सुकेश साहनी, अशोक भाटिया, कमल चोपड़ा, श्यामसुन्दर अग्रवाल पर लंबे आलेख प्रकाशित हुए। पर जब योजना बनी उमेश महादोषी के संपादन में 'मधुदीप : लघुकथा-सृजन के विविध आयाम'।पुस्तक छपकर आई। नील वर्ण के कवर में 728 पृष्ठों का महाग्रंथ। कोई चालीस-पैंतालीस लेखकों के आलेख। शोध- ग्रंथ की तरह विषयों के अलग अलग परिप्रेक्ष्य और पड़ताल । प्रशंसा-अभिनंदन के लिए कोई जगह नहीं। पर इतने लेखकों का यह महाआयोजन मधुदीप के लिए अंतरंग स्नेह और लेखकीय अस्मिता का द्योतक नहीं है? आश्चर्य तो तब भी हुआ, जब उनकी एक पृष्ठ की लघुकथा 'नमितासिंह' पर तीन सौ पृष्ठों की पुस्तक में पचास-साठ लेखकों के समीक्षात्मक आलेख पुस्तकाकार होकर आए।
      मधुदीप जितने 'सृजन के अनेकान्त' के चितेरे हैं, उतने ही लघुकथा की पड़ताल की दिशाओं के भी। इसीलिए वे हिन्दी कहानी के प्रख्यात चरित्रों की तरह हिन्दी लघुकथा के प्रख्यात चरित्रों का विश्लेषणात्मक आयोजन भी करते हैं। पता नहीं, 66 संख्या उनके प्रकाशन के गणित की चौखट बन गयी। इस पुस्तक में भी 66 लघुकथाओं के चरित्रों की परख समीक्षकों द्वारा की गयी है। यही नहीं, एक कथा समीक्षा की आधारभूमि तैयार करने के लिए स्वतंत्र पुस्तक का प्रकाशन किया--'लघुकथा के समीक्षा बिन्दु'। यह कोई शास्त्रीय पुस्तक नहीं। मगर सैध्दांतिक-व्यावहारिक समीक्षा की दिशा-दृष्टि से एक महत्वपूर्ण कदम। कई लेखक हैं, मगर मधुदीप सबके सामने खुला आकाश रखते हैं। संपादकीयों में कोई मतवाद नहीं। बल्कि दृष्टियों के अनेकान्त का खुला मंच ।
   इस सारी अकादमिक-सृजनात्मक प्रकाशन यात्रा के बीच उनका हृदय धड़कता था, जीवन- सहचरी शकुन्त जी के लिए। दैनंदिन रूप से प्रभु राम और सहचरी शकुंत के लिए अलग अलग दो पोस्ट। करुणा से परिपूर्ण भावों का द्रवणांक मित्रों को भी तरल कर देता था। उच्छवासों की यह भाषा एक पुस्तक बन गयी--'लव यू' शीर्षक से। अंग्रेजी अनुवाद भी कल्पना भट्ट ने किया। पढ़कर लगता है कि खिड़की का कांच उच्छवास से वाष्पित हो गया हो !
     लेकिन मधुदीप इस तरलता में ही अपनी भाव-लिपि को लघुकथा में रच लेते थे। उनकी लघुकथा 'हिस्से का दूध' पहली बार 'वीणा' में ही प्रकाशित हुई थी श्यामसुन्दर व्यास जी के संपादकत्व में। आर्थिक विषमताओं की यह कसमसाहट इन रचनाओं में पारिवारिक पृष्ठभूमि का समाजशास्त्र रचती थी। फिर तो वे मातृत्व के  संवेदन, दाम्पत्य के टकराते-बनते रिश्तों, वृद्धावस्था के विस्थापन, जैसे अनेक परिदृश्यों से लघुकथा को बुनते रहे। पर उनकी रचनाओं में रिश्तों का सगुण पक्ष है और मूल्यों की आकांक्षा। विषयों की समकालीनता और प्रयोगधर्मी विन्यास के कारण वे सोशल मीडिया तक भी आए। फेसबुकिया चैट में रिश्तों का बदलता रूप। यथार्थ, मनविज्ञान और समाजशास्त्र की अंदरूनी बनावट बदलते परिदृश्यों में सामाजिक मूल्यों को तलाशती है।  यों कई सारे कोण हैं इन लघुकथाओं के। पर सचेत विन्यास और भाषिक सजगता में तो उनका कौशल है ही। मधुदीप की लघुकथाओं का अंग्रेजी में अनुवाद डॉ हेमंत गेहलोत ने किया है। अन्य भारतीय भाषाओं में भी अनुवाद प्रकाशित हुए।
      अब इतने बड़े विस्तार को संक्षेप में कहने के बावजूद यह लगता नहीं कि मधुदीप हमारे बीच नहीं है। लघुकथा के ऐतिहासिक विकास का एक जीवन्त अध्याय। नयी पीढ़ी के साथ नये परिदृश्यों के रचाव की आकांक्षा। सांस्कृतिक सामाजिक मूल्यों की चिंता। मधुदीप लघुकथा विधा के लिए इतने अपरिहार्य हैं कि किसी भी दिशा में शोध कार्य किया जाए, 'पड़ाव और पड़ताल' में वे हर कहीं नजर आएँगे। मधुदीप लघुकथा के सामूहिक तेवर हैं। उनके इस विराट संपादन की तहों में वे हमेशा झाँकते मिलेंगे। अलबत्ता काया तो विनश्वर है, मगर लघुकथा का मधुदीप जाग्रत शब्दों का सामूहिक स्वर। विनम्र श्रद्धांजलि।














बी. एल. आच्छा
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