[रचनात्मक साहित्य से जुड़े व्यवसायिक और गैर-व्यवसायिक पत्र-पत्रिकाएँ विशेषांकों से इतर सामान्य अंकों में लघुकथाएँ भी छापते हैं और तत्संबंधी समीक्षाएँ भी; लेकिन लघुकथा-केंद्रित आलेखों को जगह देने से कतराते हैं।
इधर, 'हंस' के जून 2022 अंक में वरिष्ठ कवि-कथाकार विपिन जैन का लघुकथा केन्द्रित आलोचनात्मक लेख छपा है जिसे 'हंस' की ओर से सकारात्मक पहल समझा जाना चाहिए।
भाई विपिन जैन के सौजन्य से प्राप्त उक्त लेख यहाँ प्रस्तुत है।]
आधुनिक लघुकथा जो अपने शिल्प, कथ्य, कथन और अभिव्यक्ति के रंगों के साथ आठवें दशक में उदित हुई तथा उभरी वह अपने उत्थान काल के आज तक भी कथा पत्रिकाओं में अपनी जगह बनाये हुए है। कहानी के मजबूत किले को भेदकर अपनी जगह बनाने वाली लघुकथा आज कहाँ खड़ी है? 50 साल के सफर को देखना जरूरी लगता है। कहने को आज आज लघुकथा हिन्दी कथा साहित्य की मान्य व स्वीकृत रचनात्मक विधा मानी जा चुकी है। परन्तु अब भी बहुत से लेखक, सम्पादक व आलोचक चाहे इसे गम्भीर विधा न मानने को तैयार नहीं है पर आज के कथा साहित्य में इसके अस्तित्व को पूर्ण रूप से नकार नहीं सकते। यह लघुकथा छोटी कहानी से पृथक् अपना एक स्थान व पहचान बना चुकी है तथा अभिव्यक्ति के नये आयामों को छूआ है। हिन्दी कथा साहित्य के बहुत से कहानीकार जो पहले लघुकथा का उपहास की हवा से उड़ाने का प्रयास करते दिखलाई देते थे, वह अब लघुकथा भी लिखने लगे है चाहे वह इसे कहानी की उपविधा या लघुकहानी ही कह रहे हो । 'छोटी कहानी' आज की लघुकथा से किस प्रकार भिन्न है तथा उसकी प्रवृत्तियाँ, खूबियाँ, कमजोरियाँ क्या है? या लघुकथा लेखन की शास्त्रीय कसौटी क्या है? इस पर विद्वानों, साहित्यवेत्ताओं व लेखकों के अलग-अलग विचार आये हैं बहुत से लेखों के जरिये सामने आये है। कुछ विवाद भी हैं। लघुकथा की रचना-प्रक्रिया, आकार-प्रकार, शिल्प शैली और कथ्य को लेकर विभिन्न मतों का होना गलत नहीं है। एक अपेक्षाकृत नयी विधा को लेकर मत भिन्नता तो सहज है पर इस पर अभी निर्णयात्मक व अधिकारिक रूप से कुछ भी नहीं कहा जा सकता। रचनात्मकता में मत विभिन्नता होना जरूरी है। कुछ पत्रिकाएं जो लघुकथा रही है उनमें प्रारम्भ से अब तक एक ओर जहां गम्भीर एवं रचनात्मक लघु कथाएं सामने आ रही है साथ ही साथ सतही लेखन भी लघुकथा में उभर रहा है। लघुकथा कहां तक आगे बढ़ी है या अभी भी वहीं खड़ी है। अभी भी उसमें चोर सिपाही का खेल चल रहा है। हर विधा रचनात्मकता के जरिये उत्थान का रास्ता तय करती है। जिसमें पाठक वर्ग और सम्पादकों की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। लघुकथाएं पिछले दशकों से लिखी जा रही है। लघुकथाकारों के निजी व सम्पादित संग्रह प्रकाशित हुए हैं। उसके रचना विधान, शास्त्रीय अवधारणा को लेकर पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं। कई महत्वपूर्ण पुस्तकें इस सन्दर्भ में देखी जा सकती हैं। लघुकथाओं ने अपनी उपलब्धियाँ पाठ्यक्रमों में सम्मिलित होकर दर्ज की है। बहुत सी पत्रिकाओं ने लघुकथाओं के विशेषांक निकाले है। छोटी पत्रिकाओं ने गम्भीरता से लघुकथाओं को अपनी पत्रिका में जगह दी है। व्यवसायिक पत्रिकाओं का भी योगदान कमतर नहीं है। स्थापित कहानीकारों ने भी लघुकथाएं लिखी है। राजेन्द्र यादव न लिखने का कारण होते हुए भी पाँच लघुकथाएं छपवाते हैं। कई पत्रिकाओं ने प्रतियोगिता से लघुकथा का उभारा है। नई पीढ़ी भी इससे जुड़ी है। एक विराट परम्परा पीछे खड़ी है। उसकी पहचान के बिन्दु छोटी कहानी से अलग है। लघुकथा की यात्रा के आंकलन की जरूरत नहीं समझी गयी। भाषान्तरण से लघुकथा अन्य भाषाओं में गई तथा हिन्दी में आई। लघुकथा के पीछे शायद यह मानसिकता काम करती है कि यह दोयम दर्जे का लेखन है। कहानीकारों और कवियों की तरह लघुकथाकारों को कवर पर नहीं उभारा जाता। सबके अपने-अपने खेमे हो गये हैं। अपनी-अपनी बुलावन अपनी-अपनी चलावन यही खेल चल रहा है।लेखन से ही रचना विधा का स्वरूप ग्रहरण करती है। लघुकथा लेखन में दो प्रकार के लेखक सक्रिय है। एक तो वे हैं जो सिर्फ लघुकथाएं और उससे जुड़े लेख या समीक्षा आदि के लेखन में जुटे हुए है। ऐसे लेखक अपने को लघुकथाकार ही कहलाना पसंद करते है। दूसरे वो लेखक हैं जो अन्य विधाओं पर कलम चलाने के साथ लघुकथाएं भी लिख रहे हैं लघुकथा लेखन में घटना - विवरण, दृष्टांत, संवाद, चुटकुला जैसी सतही चीजें भी बहुतायत से लिखी गयी है। कुछ लेखकों ने एक पंक्ति के जुमले में आज की विसंगतियों, त्रासद स्थितियों, दहेज की समस्या या पुलिस व व्यवस्था, विरोध, मूल्यों के विघटन को भरकर लघुकथाएं कहीं है संवादात्मक शैली को या एक-दो पंक्ति की व्यंगोक्ति भी लघुकथा के रूप में प्रकट हुई है। हास्य व व्यंग्य लघुकथा का प्रमुख स्वर बनकर भी उभरा।
छोटी कहानियों के शिल्प व शैली में लिखी गयी लघुकथाएं भी बहुत सी है। मात्र 'संवाद' में कही गयी लघुकथाएं भी लेखकों ने लिखी है।
'लघुकथा' की वर्तमान स्थिति उसकी रचनात्मक प्रवृत्तियों, उसकी बनावट, कथ्य तत्वों, शिल्प, शैली व रचनाविधान के बारे में अनेकों लेखकों, सम्पादकों व कथा साहित्य समीक्षकों और विद्वानों ने अपना मत विस्तार से प्रकट किया है। यहाँ मैं लेखकीय प्रवृत्तियों को उद्धृत न करते हुए कुछ पत्रिकाओं से अलग दृष्टियों से की ऐसी पंक्तियाँ ले रहा हूँ जो लघुकथा सृजनात्मक पर प्रकाश डालती हों या परिभाषित करती हों।
श्री अवधनारायण मुद्गल ने लघुकथा के इतिहास से जुड़ाव सम्बन्ध में कहा है, "इसके इतिहास को यदि जोड़ना ही है तो आज की कहानियों और उपन्यासों के इतिहास से जोड़ा जा सकता है, तब यह मानना जरूरी हो जायेगा कि लघुकथा समूची कथाधारा की उपधारा है और इसे मुख्य कथाधारा के उसी रूप से अलग किया जा सकता है। जब हम उपन्यास को नही, कहानी को नहरें और लघुकथाओं को उपनहरें मान लें। इन उपनहरों का अपना अस्तित्व और महत्व है। "
श्री विष्णु प्रभाकर, जिन्होंने लघुकथाएं भी लिखी हैं, उनका मत है--'लघुकथा किसी न किसी रूप में अनादि काल से चल रही है, प्राचीन काल में ऋषियों ने कुछ दृष्टांत लिखे थे, जिन्हें सर्वसाधारण भी समझ सकें। इसी प्रकार यदि दृष्टांतों को आज की भाषा में लिखा जाये तो अच्छी लघुकथाएं बन सकती है। मुझे कोई आपत्ति नहीं कि अगर इसे अलग से विधा मान लिया जाये।" लघुकथा युग की मांग है। यह कहना कि लघुकथा सन् पिचहत्तर में ही शुरू हुई, एक दम्भ है हम उसे इसका विकसित रूप कह सकते है।
बलराम द्वारा सम्पादित 'भारतय लघुकथा कोष' की भूमिका में उनका लिखना है, 'लघुकथा की रचना-प्रक्रिया पर अभी ज्यादा विचारविमर्श नहीं हुआ है। और यहाँ का काफी धाँधली नजर आ रही है, फिर भी बोध, नीति, प्रतीक लोककथा या लतीफों से तो लघुकथा का अलगाव स्पष्ट है ही इसलिए अब यह कोशिश होनी चाहिए कि इन सब पूर्ववर्ती विधाओं से लघुकथा को मुक्त किया जाये। लोक, नीति, बोधकथा के विशाल साये लघुकथा के रूप को विकृत कर सकते हैं और अवरुद्ध भी । '
श्री हरिशंकर परसाई जिन्होंने सामाजिक विसंगतियों व रूढ़ियों को व्यंग लघुकथा में ढालकर दर्शाया है उनका एक साक्षात्कार में कहना है, "पंचतंत्र, हितोपदेश आदि में लघुबोध कथाएं हैं पश्चिम में आस्कर बाइल्ट की लघुकथाएं है। लेबनान के खलील जिब्रान की लघुकथाएं है। इन सबका मिला-जुला प्रभाव भारतीय लोककथा पर है। " "लघुकथाओं में चरम बिन्दु का महत्व है यह अन्त में आना चाहिए। लघुकथा छोटी, प्रभावशील और विचार करने को बाध्य करने वाली रचना होनी चाहिए। "
कमल किशोर गोयनका ने माधव राव सप्रे की 1901 में प्रकाशित कहानी 'एक टोकरी भर मिट्टी' को पहली लघुकथा कहा है, लघुकथा समीक्षा के बारे में उनका कहना है, "लघुकथा आज खूब लिखी जा रही है लेकिन इसे प्रतिष्ठित समीक्षकों ने अभी तक अछूत माना हुआ है। साहित्य की विधाओं पर जिन्होंने पोथे लिखे है, शोध किया है। " बलराम लघुकथा को सन् उन्नीस सौ में माखनलाल चतुर्वेदी की लिखी लघुकथा 'बिल्ली और बुखार' से जोड़ते हैं।
यहाँ एक विरोधाभास भी है। बलराम जिस संग्रह परम्परा से लघुकथा को जोड़ने की बात करते वह लोककथा, कहानी, नीतिकथा और बोधकथाओं के प्रभाव या छाया से मुक्त नहीं है।
'हंस' के फरवरी - 95 के अंक के 'सम्पादकीय में प्रतिष्ठित साहित्यकार राजेन्द्र यादव ने लिखा है, “लघुकथा न बड़ी कहानी का सार-संक्षेप है न उसकी रूपरेखा । लघुकथा गजल या दोहे की तरह स्वतंत्र विधा है। यह दूसरी बात है कि बहुत-सी लम्बी कहानियों को खूबसूरत लघुकथा बनाया जा सकता है और बहुत-सी लघुकथाएं संभावनाओं के अनुसंधान में बकायदा कहानी का रूप ले सकती हैं। पंचतंत्र, हितोपदेश, जातक कथाओं, घेरकथाओं, अनंत लोककथाओं से लेकर ईसप, खलील जिब्रान ख्वाजा, नसीरुद्दीन, कन्फुसियस और अब आचार्य रजनीश तक लघुकथाओं की दुनिया का विस्तार कर रहे हैं।" "वस्तुतः फोटोग्राफी की भाषा में लघुकथा एक ऐसा सनैप शाट है जिसे समय के प्रभाव में स्थित कर दिया है। वह समग्र हिस्सा भी है और स्वतंत्र भी । कहानी उसके संदर्भों के साथ ही अर्थसंकेतिक करती है। "
कमल किशोर गोयनका ने लघुकथा को इस प्रकार विश्लेषित किया है, “विधायें अपने समय का सत्य होती है, वे अपने समय की आवश्यकता से जन्म लेती है और उसके अनुरूप ही फलती-फूलती है, मैं इस कारण लघुकथा को अपने समय का सत्य कहता हूँ। "
बलराम अग्रवाल जो लघुकथा लिखने के साथ-साथ उस पर बराबर आलोचनात्मक व विवेचनपूर्ण लेख लिखते रहते हैं, कहते हैं, " 'लघुकथा आकार की दृष्टि से क्योंकि कहानी से बहुत छोटी कथा रचना है, अतः जाहित है कि उसका नेपथ्य कहानी की तुलना में अधिक विस्तृत होगा। लघुकथाकार कथा के मात्र संदर्भित बिन्दुओं पर कल चलाता है शेष को नेपथ्य में रखता है लेकिन लघुकथा को कहानी के नेपथ्य से उसी तरह को-रिलेटेड और को-लिंक्ड रहना चाहिए। जिस प्रकार कहानी का नेपथ्य उपन्या के साथ रहता आया है। वस्तुतः नेपथ्य वह वातायन है जिसे लेखक अपनी रचना में तैयार करता है तथा पाठक को विवश करता है कि वह उसमें झांके तथा रचना के व्यापक संसार को जाने।
रमेश बत्तरा जिन्होंने उल्लेखनीय लघुकथाएं लिखीं तथा पत्रिकाओं व पत्रों के माध्यम से लघुकथा को आगे बढ़ाया। उन्होंने लघुकथा और कहानी को एक दूसरे का पूरक कहा है, “मेरी नजर में लघुकथा का औचित्य कहानी की पूरकता में है और इसलिए महत्वपूर्ण भी है क िजहां आकर कहानी अपना कार्य खत्म करती है। लघुकथा का काम शुरू हो जाता कहानी और लघुकथा अर्न्तधारा एक है।" "लघुकथा घटना नहीं बल्कि उसकी घटनात्मकाता में से प्रस्फुटित विचार है जो यथागत पात्रों के माध्यम से उभरे। लघुकथा की तर्ज पर सहज ढंग से सुलभ भाषा में लिखी जानी चाहिए।
लघुकथा को समर्पित लघुकथा लेखक जगदीश कश्यप लघुकथा का कालतत्व दोष से मुक्त होना आवश्यक मानते हैं। लघुकथा में काल तत्वदोष का वही महत्व है जो चाय बनाने में चाय की पत्ती का होता है। इसी बिन्द को न जानने के कारण अनेक लघुकथा लेखक लघुकथा लिखते-लिखते कथासार गाद्यांश या भावुकता भरा ब्यान लिख जाते है। आगे लिखते हैं- 'मेरे विचार से अच्छी लघुकथाएं वहीं लिख सकता है जिसक कथा जगत की सम्यक् पहचान हो, यही नहीं काव्यात्मक पड़ाव की जानकारी औश्र सारगर्भित अभिव्यक्ति के लिए उसे देशकाल - पात्र की भाषा व शिल्प-विन्यास की समझ हो ।
मुख्य रूप से कहानी लेखक व लघुकथाकार कथा समीक्षक कथा सम्पादन में योगदान रखने वाले महेश दर्पण का कहना है, "लघुकथा एक ऐसा 'स्लाइस ऑफ लाइफ' है जो कहानी का संक्षिप्त रूप नहीं हो सकता। विषय और काल की जो सीमाएं इस विधा पर लगाने के विचार आते हैं। मैं उनसे कतई सहमत नहीं। मुझे लगता है कि इस विधा पर विचार करने वालों में अब तक ठेकेदारी की प्रवृत्ति अधिक और विधा के रचनात्मक सरोकारों पर विचार करने की नीयत कम रही है। कविता के अधिकाधिक उपादान लघुकथा को विधा के रूप में समर्थ बना सकते हैअन्यथा किसी भी घटना को ब्यान कर देता भर ही लेखन माना जाता रहेगा।'
डा. कमल चोपड़ा जिन्होंने लघुकथा लेखन का कार्य व्यापक रूप से किया है, अपने एक लेख समकालीन लघुकथा संदर्भ में लिखते हैं, "अनुभूति की सूक्ष्मता, गहनता, तीक्ष्णता लघुकथा के लिए आवश्यक सी है; लेकिन लेखकीय दृष्टि या प्रतिभा के अभाव में इन सूक्ष्म और गहन गुणों की अभिव्यक्ति करते समय रचना के सतही अस्पष्ट और अपूर्ण रह जाने का खतरा दूसरी विधाओं के मुकाबले लघुकथा में सर्वाधिक है।"
'लघुकथा के मानदण्ड' नाम के लेख में शंकर पुणतांबेकर जिन्होंने बहुतायत में लघुकथाएं रची हैं। उसमें कहते हैं, "मैं लघुकथा को वास्तव में 'वैचारिक कथागीत' मानता हूँ, गीत पक्ष में लघुकथा का मानदण्ड है। उसकी लघुता, शैली प्रभावान्विति और वैचारिक पक्ष आ जाती है यह कथा जो युग के यथार्थ को प्रस्तुत करती है।"
विक्रम सोनी - "लघुकथाओं से उभरते विचार" नाम के लेख में लिखा हैं, "लघुकथाओं में बोझिलता का दोष यदि है तो केवल इसलिए कि परिवेश का 'ईमानदार चित्रण' के अर्थ कथाकार परिवेश में निहित तथ्यों तथा इन तथ्यों को उजागर करने वाली सूचनओं को ठूंस-ठूंसकर लिख लेते
डॉ० महाराज कृष्ण जैन अपने एक आलेख 'लघुकथा - वर्तमान परिदृश्य' में लिखते है- 'कवित का स्थानापन्न जिस प्रकार क्षणिका से नहीं हो सकता उसी तरह लघुकथा भी कथा का स्थानापन्न नहीं है' आगे वह लघुकथा सीमा व परिदृश्य की ओर संकेत करते है- “लघुकथा संवदेना जागृत करने के बजाय नाटकीयता, विस्मयता, आघात, कथन की भंगिमा, उक्ति वैचित्य आदि का आश्रय लेने को बाध्य है। यही उसकी प्रभाव की सीमा है।
डॉ० बालेन्दुशेखर तिवारी का 'जनगाथा' में प्रकाशित लेख कहना है, 'लघुकथा के आकार शिल्प, कथ्य भाषा जैसे पहलुओं पर कच्ची और अशास्त्रीय दृष्टि ही पर्याप्त नहीं। सम्प्रेषण और तनाव, अनुभव और अभिव्यक्ति, सूत्रात्मकता, शैली और मौलिकता अभिरूचि और संवेदन में जिन नये-नये संदर्भों से आज की समीक्षा का रिश्ता है उन सबके आलोक में लघुकथा की पड़ताल बेहद जरूरी है। " सतीश राज पुष्पकरण जिन्होंने लघुकथा सम्मेलनों का आयोजन, संग्रहों का प्रकाशन व लेखन किया है। उनके विचार में लघुकथा का स्वाभाविक सटीक होना अनिवार्य है।
लघुकथा के रूप में हमारे समक्ष अभिव्यक्ति का ऐसा माध्यम है, जो कहानी की अपेक्षा बहुकोणीय आयामों को खोलता है। जीवन की बहुत-सी जटिलताओं को, संघर्ष, विचार, भावना, द्वन्द, वैचारिक व्यवस्था विरोध, शोषण, मार्मिक क्षणों तथा जीवन के समयगत सत्य, अर्थ व धर्म, दर्शन व अनेकोनेक पक्षों को हम लघुकथा के जरिये समग्र व सटीक रूप से व्यक्त कर सकते है । लघुकथा में अभिव्यक्ति के लिए हमारे पास एक कालजयी परम्परा भी है। हमें बोधकथाओं, लोककथा, नीति कथाओं तथा पौराणिक कथाओं के साये से बचने की जरूरत नहीं है अपितु लघुकथाकार के अपने कथ्य को अधिक प्रयोगात्मक व प्रभावी अभिव्यक्ति के लिए इसके शिल्प व शैली का सहारा ले सकते है। भाषान्तर से हिन्दी लघुकथा समृद्ध हो रही है । "मेरी समझ में लघुकथा कहानी से इतर एक पूर्ण स्केच है। स्केच चाहे आप पूरा करके पाठक के आगे रख दें या इस स्थिति में छोड़ दें कि आगे पाठक द्वारा बिना प्रयास के उसे महसूस किया जा सके। जो टुकड़ा आप छोड़ दें और पाठक के अन्दर से एक आवाज आए, हां ये टुकड़ा मेरे पास है। आठवें दशक व उसके बाद जो लघुकथाएं प्रकाशित हुई हैं उनकी शैली, रूप भाषा व कथ्य को हम अधिक पीछे नहीं ले जा सकते। सिर्फ छोटे आकार की कथा होने के कारण आधुनिक लघुकथाओं से नहीं जोड़ी जा सकती।
लघुकथा को चार दशकों से उसके किए गए सफर में आंके तो यह देखना जरूरी हो जाता है उसने कहानी से अलग मानव जीवन के कौन-कौन से पहलू छुए तथा कहां-कहां वह कहानी के आगे बढ़ गई है। क्या कहानी के जैसी रम्य और गम्भीर रचना वह बन पाई है। यूँ लिखने भर को लिखी जा रही है, छपने को छप रही है पर अपने ही द्वन्दों और सवालों में उलझी हुई है। उसकी समीक्षात्मक आलोचना तथा आंकलन अभी ओझल है। जो भी कार्य हुआ है, उसको विश्लेषण की दृष्टि से देखा नहीं गया है। लघुकथा में आज भी कहानी के तत्व तलाशे जाते हैं और वही उसका मापदण्ड बना गया है। यूं उपलब्धियाँ बहुत हैं। वैबसाईट पर उपलब्ध है, पर लेखीय विधा के रूप में वह परहेज जैसी चीज क्यूं बनी हुई है। क्यों पत्रिकाओं में फिलर के रूप में नजर आती है। स्वतंत्र मूल्यांकन के दायरे में क्यूं नहीं लिया गया। यहां मेरा मकसद उसकी आलोचना पक्ष की अनदेखी को उभारना है। कुछ पंक्तियाँ है- रंग खिल उठे नये-नये फिर, मैंने था एक रंग बिखेरा। लघुकथा भी अपने रंगों को उकेर कर अपना मूल्यांकन चाहती है।
विपिन जैन
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