Tuesday 9 December, 2008

जनगाथा दिसम्बर, 2008


मध्यप्रदेश के मुख्यत: जिला इंदौर, उज्जैन, देवास, शाजापुर, रतलाम और राजगढ़ का क्षेत्र मालवा-अंचल कहलाता है। समूचा मालवा-अंचल अपनी सांस्कृतिक, साहित्यिक, कलात्मक और शैल्पिक उच्चता के कारण विश्वभर में अपनी विशिष्ट पहचान रखता है। लघुकथा के क्षेत्र में भी मालवा-अंचल के कथाकारों के अपना विशिष्ट योग दिया है, उसे स्तरीयता प्रदान की है। पिछ्ले दिनों इंदौर के कथाकार श्रीयुत सुरेश शर्मा के संपादन में मालवा-अंचल के कथाकारों की लघुकथाओं का संकलन ‘काली माटी’ प्रकाशित हुआ है, जिसमें शरद जोशी, निरंजन जमींदार, डॉ0 श्यामसुन्दर व्यास, डॉ0 सतीश दुबे, सूर्यकांत नागर, विक्रम सोनी, प्रभु जोशी, प्रतापसिंह सोढ़ी, सतीश राठी, एन0 उन्नी आदि मालवा-अंचल के कुल 57 कथाकारों की 140 से ऊपर लघुकथाएँ संकलित हैं। इस बार प्रस्तुत हैं ‘काली माटी’ में संकलित कुछ महिला कथाकारों की लघुकथाएँ। –बलराम अग्रवाल

समय के साथ चलते मालवांचल के लघुकथाकार
सूर्यकांत नागर

मालवा की शस्य-श्यामल भूमि अत्यन्त उर्वरा है। यहाँ गेहूँ, गन्ना, चना बहुतायत से उपजता है तो प्रतिभाएँ भी समान रूप से जन्म लेती हैं। एक समय था जब मालवा की शामें ठण्डी और रातें सुहावनी होती थीं। प्रकृति के साथ खिलवाड़ ने इस भू-भाग के मिजाज बदल दिए हैं। अब तो हालत यह है कि—‘रात गनीमत थी लोग कहते हैं, सुबह भी बदनाम हो रही है अब।’ मौसम के मिजाज भले ही बदल गए हों, मालवी व्यक्ति के संस्कार अभी भी पूरी तरह नहीं बदले हैं। बहुत कुछ बचा है, जिस पर गर्व किया जा सकता है। आज भी यहाँ मनुष्य के व्यवहार में नरमी और शालीनता है, आचरण में भद्रता है, उदारता है। संस्कृति की छाप हमें मालवी लोक-गीतों और लोक-कथाओं में स्पष्ट दिखाई देती है। यही क्रम हमें बाद की कथा-कहानियों में भी दृष्टिगत होता है। वस्तुत: अपने मूल-संस्कारों, वृत्तियों से मुक्त हो पाना आसान नहीं है। यही कारण है कि अंचल के साहित्यिक में यहाँ की माटी की सौंधी सुगंध मौजूद है। मानवीय मूल्य और पड़ौसी से प्रेम की गुहार आज भी यहाँ है। एक परिवार की बेटी पूरे गाँव की बेटी है। हाँ, समय के अनुसार सामाजिक जागरूकता का परिचय भी मालवावासियों ने दिया है और वे समय के साथ कदम से कदम मिलाकर चले हैं।
आधुनिक संदर्भ में भले न हो, मालवा-क्षेत्र में लोक और बोध-कथाओं के रूप में लघुकथाओं का अस्तित्व रहा है। लघुकथा का आदि-ग्रंथ सन 1802-1803 में रचा गया। बताया जाता है कि ‘हिंदी स्टोरी टेलर’ में 108 लघुकथाएँ थीं। वर्ष 1894 में ‘बैताल पच्चीसी’ का प्रकाशन इंदौर से ही हुआ था। मालवी में भी लघुकथाएँ लिखी गईं। निरंजन जमींदार, बालमुकुंद गर्ग, सतीश दुबे, ललिता रावल आदि की मालवी लघुकथाएँ लोकप्रिय हुईं। अगस्त, 1945 के ‘वीणा’ के अंक में डा0 श्यामसुन्दर व्यास की लघुकथा ‘ध्वनि प्रतिध्वनि’ प्रकाशित हुई थी। उल्लेखनीय है कि उस समय व्यासजी की आयु मात्र अठारह वर्ष थी। तब से व्यासजी द्वारा लघुकथा-लेखन मृत्युपर्यंत जारी रहा। मालवा-क्षेत्र में लघुकथा को जीवित रखने में डा0 व्यास का विशेष योगदान रहा। उनकी लघुकथाएँ प्राय: प्रतीकात्मक होती हैं और उनमें व्यंग्य की एक अन्तरधारा की भाँति प्रवाहित होता रहता है। ‘काँकर- पाथर’ पुस्तक में उनकी 51 लघुकथाएँ हैं। व्यासजी की कुछ प्रमुख लघुकथाएँ हैं—गाल पर उभरे निशान, ठण्डी आग, आजाद प्रहरी, खूँटा और चारा आदि। व्यासजी के अनुसार,‘लघुकथा जीवन के महाकाव्य का एक छोटा-सा छन्द है।’ रामचन्द्र श्रीवास्तव ‘चन्द्र’ ने भी लघुकथाएँ लिखीं, जो ‘वीणा’ में प्रकाशित हुईं। सन 1928 में लिखी उनकी लघुकथा ‘बेबी’ काफी चर्चित रही। यह उल्लेख असंगत नहीं होगा कि पड़ोसी निमाड़ ने भी मालवा को लघुकथा-लेखन के लिए प्रेरित किया। स्व0 माखनलाल चतुर्वेदी की ‘बिल्ली और बुखार’, जिसे हिंदी की प्रथम लघुकथा कहा गया है तथा स्व0 रामनारायण उपाध्याय द्वारा लिखित और सन 1940 में ‘वीणा’ में प्रकाशित उनकी लघुकथाएँ ‘आटा’ और ‘सीमेंट’ इस कथन की पुष्टि करती हैं।
हिंदी लघुकथा-लेखन में नए दौर की शुरुआत तब हुई, जब कमलेश्वर ने ‘सारिका’ में लघुकथाओं का प्रकाशन प्रारम्भ किया। उस दौर में मुख्यत: व्यवस्था पर चोट करती व्यंग्य-प्रधान लघुकथाएँ लिखी जाती रहीं। लेकिन आठवें दशक के उत्तरार्द्ध में व्यंग्यात्मक सत्ता वाली लघुकथाओं के स्थान पर मानवीय संवेदना और मनोवैज्ञानिक धरातल वाली लघुकथाएँ लिखी जाने लगीं। सीधे व्यंग्य-युक्त कथाओं के स्थान पर करुणा-सिक्त व्यंग्य का प्रयोग होने लगा। यह जरूरी भी था, क्योंकि केवल राजनीतिक विसंगतियाँ ही सब-कुछ नहीं हैं। जीवन के विविध पक्षों को, जीवन के सत्य को और मानवीय मूल्यों को उकेरा जाना भी उतना ही जरूरी है। इस बदलाव की प्रतिध्वनि मालवा-क्षेत्र में भी और इंदौर में भी सुनाई देने लगी। इसका बीड़ा उठाया ‘वीणा’ ने तथा डा0 सतीश दुबे और विक्रम सोनी के संपादन में प्रकाशित ‘लघु आघात’ ने। वर्ष 1974 में ही सतीश दुबे की 34 लघुकथाओं का संग्रह ‘सिसकता उजास’ भी आ गया था। इनमें कुछ लघुकथाएँ अपेक्षाकृत लम्बी थीं, लेकिन वे लघुकथा के ढाँचे में ही समाहित थीं। दुबेजी को यह श्रेय भी प्राप्त है कि वर्ष 1978 में उन्होंने सर्वप्रथम मालवी में लघुकथा लिखी और सन 1981 में पहली बार उनकी लघुकथा का मंचन भी हुआ। उनकी प्रमुख लघुकथाएँ हैं—रीढ़, कम्प्रोमाइज, बरकत, वादा, शक आदि। इसके बाद नए विचार, नए विषय और नए शिल्प के साथ लघुकथाएँ आने लगीं, हालाँकि आधुनिक-लघुकथा का वह शैशव-काल ही था। घिसे-पिटे विषयों पर प्राय: सामान्य-सी लघुकथाएँ लिखी जा रही थीं, लेकिन पहला धमाका तब हुआ जब रतलाम से रमेश जैन और भगीरथ के संपादन में ‘गुफाओं से मैदान की ओर’ प्रकाशित और चर्चित हुआ। इस संकलन की चर्चा आज भी सर्वत्र होती है। वर्ष 1976 में ‘वीणा’ के रजत जयन्ती अंक में कई नामधारी लेखकों की लघुकथाएँ छपीं। इसी वर्ष सतीश दुबे और सूर्यकांत नागर के संपादन में ‘प्रतिनिधि लघुकथाएँ’ नामक संकलन प्रकाशित हुआ जिसमें अधिकांश लेखक इंदौर और उसके आसपास के क्षेत्र के थे।
यह तथ्य कम महत्वपूर्ण नहीं है कि मालवा में जन्मे, बढ़े-पढ़े प्रख्यात व्यंग्यकार शरद जोशी ने भी कुछ लघुकथाएँ लिखी थीं। उनकी लघुकथाओं में व्यंग्य एक ‘अण्डर-करण्ट’ की तरह रहता है। उनकी मैं भगीरथ हूँ, कुत्ता, चौथा बंदर आदि लघुकथाएँ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। वैसे लघुकथाएँ कहानीकार-चित्रकार प्रभु जोशी ने भी लिखीं, लेकिन जब बाद में उन्होंने कहानियाँ लिखना बंद कर दिया तो लघुकथाओं के लिए भी कोई गुंजाइश नहीं छोड़ी। ‘प्रजातंत्र’ उनकी यादगार लघुकथा है।
विक्रम सोनी, जो इन दिनों मौन हैं और लगता है जैसे सन्यासाश्रम में चले गये हैं, को आज भी गोष्ठियों, सेमिनारों और संकलनों में सम्मान के साथ याद किया जाता है। दरअसल, उनका योगदान है ही इतना महत्वपूर्ण। उन्होंने सन 1981 से प्रारम्भ आगामी सात वर्षों तक ‘लघु आघात’ का संपादन-प्रकाशन इंदौर से किया और लघुकथा के प्रचार-प्रसार में महती भूमिका निभाई। यही नहीं, उन्होंने मानचित्र(1983), छोटे-छोटे सबूत(1984), पत्थर से पत्थर तक, दरख्त तथा लावा(1987) जैसे अखिल भारतीय स्तर के लघुकथा-संकलनों का संपादन भी किया। ‘लघु आघात’ और ‘प्रतिनिधि लघुकथाएँ’ के माध्यम से जो एक नया नाम उभरा, वह है—वेद हिमांशु। वह आज भी लघुकथा के प्रति समर्पित हैं। उन्होंने राजेन्द्र निरन्तर को साथ लेकर ‘स्याह हाशिए’ लघुकथा-संकलन का संपादन किया। इसमें लगभग 50 क्षेत्रीय लघुकथाकारों की कथाएँ संकलित हैं। फिलवक्त वह शाजापुर में हैं।
दिसम्बर 1981 इसलिए याद किया जाएगा, क्योंकि इस माह में साहित्यिक पत्रिका ‘वीणा’ का लघुकथा विषेशांक प्रकाशित हुआ था, जिसमें अनेक प्रतिष्ठित एवं नवोदित लघुकथाकारों की लघुकथाएँ छपी थीं। इसमें जहाँ एक ओर विष्णु प्रभाकर, रामनारायण उपाध्याय, रमेश बतरा, कमल चोपड़ा, बलराम, कमलेश भारतीय, मनीषराय यादव जैसे प्रतिष्ठित एवं स्थापित रचनाकारों की लघुकथाएँ थीं, वहीं क्षेत्रीय-स्तर पर डा0 श्यामसुन्दर व्यास, राजेन्द्र कुमार शर्मा, चन्द्रशेखर दुबे, सुरेश शर्मा, निरंजन जमींदार, वसंत निरगुणे, वेद हिमांशु, महेश भंडारी, अर्जुन चौहान आदि की लघुकथाएँ भी शामिल थीं। लघुकथा-विधा के विविध पक्षों पर विचारोत्तेजक आलेख भी थे। इस दौरान धार के देवीप्रकाश हेमन्त ने भी कुछ अच्छी लघुकथाएँ लिखीं।
एक और लघुकथाकार, जिनके नामोल्लेख के बिना यह विवरण अधूरा ही माना जाएगा, वह हैं इंदौर के स्व0 राजेन्द्र कुमार शर्मा। गलत ट्रेन, बाँध, धन्धा, दो नम्बर आदि उनकी यादगार लघुकथाएँ हैं। ‘गलत ट्रेन’ लघुकथा की तारीफ तो कथाकार बलराम ने एकाधिक बार की है। राजेन्द्र कुमार ने ही ‘स्वदेश’ समाचार-पत्र में मालवा-क्षेत्र के अनेक लघुकथाकारों को लेकर लघुकथा-केन्द्रित एक परिशिष्ट निकाला था। राजेन्द्र की असामयिक मृत्यु लघुकथा-विधा की एक बड़ी क्षति है।… (शेष आगामी अंक में)


लघुकथाएँ


छोटा बच्चा
सीमा पाण्डे ‘सुशी’

रिमझिम फुहारें बरसना अभी बस बन्द ही हुई थीं। बगीचे के वृक्षों की पत्तियों पर बूँदें मोती की तरह अटकी हुई थीं। ठण्डी हवा के झोंके, चाय का प्याला, नजर उपन्यास पर तो कभी राह से गुजरने वाले इक्का-दुक्का लोगों पर ठहर जाती।
“ले लो…ऽ…बरसाती…ऽ…छोटे बच्चों की…ऽ…!” मीठी-सी हाँक सुनाई दी। जब देखा, तो चेहरे पर हँसी बिखर गई। बेचने वाला खुद ही एक छोटा-सा बच्चा था। नजरों से नजरें मिलीं और उसके कदम गेट तक आ गये।
“बरसाती चाहिए बच्चों की?” बिल्कुल मुसीबत से उबारने वाला अन्दाज।
“नहीं, जब घर में छोटा बच्चा ही नहीं है तो बरसाती का क्या उपयोग?”
“अच्छा…!” कदम पलटे।
सुनो! तुम क्यों नहीं ओढ़ लेते एक बरसाती? भीग रहे हो।” माथे पर छितरे बाल और चेहरे पर चमकते-लुढ़कते मोती देखकर रहा न गया।
“क्लऽऽच!” ‘बेकार में टाइम खोटी कर दिया’ जैसे कुछ भाव चेहरे पर थे और वातावरण में देर तक गूँजता रहा उसका यह प्रश्न—“मैं कोई छोटा बच्चा हूँ क्या?”

दवा में छिपा दर्द
मीरा जैन


एक हितैषी ने बारह वर्षीय ध्रुव को लगभग डाँटते हुए समझाने की कोशिश की—“क्यों रे धुरवा, लगता है तू कुछ ज्यादा ही समझदार हो गया है? बड़े लोगों की बराबरी करने में तुला है!! पहले अपने शरीर को देख, हड्डियों का ढाँचा हो रहा है। पेट और पीठ चिपककर एक हो गये हैं। खाने के लिए भरपेट भोजन नहीं है, फिर भी इस कड़कड़ाती ठण्ड में तू शायद दूसरों की देखा-देखी दौड़ लगाता है। इतना मत दौड़ा कर, नहीं तो सूख कर काँटा हो जाएगा। स्वस्थ रहने के चक्कर में तू बीमार भी पड़ सकता है, समझा?”
पहले तो ध्रुव चुप रहा, लेकिन हितैषी की समझाइश जब लम्बी होने लगी तब उसने हिचकिचाते हुए मुँह खोला—“बाबूजी, मैं स्वस्थ रहने के लिए ही दौड़ता हूँ, पर दूसरों की देखा-देखी नहीं, बल्कि अपनी इच्छा से। रात की चौकीदारी करने के बाद सुबह पाँच बजे बापू जब घर आते हैं, तब मेरा ओढ़ना-बिछौना उनका हो जाता है। उस वक्त मेरे पास ठण्ड से बचने के लिए दौड़ने के अलावा कोई दूसरा चारा नहीं होता है।”
ध्रुव का स्पष्टीकरण सुन कुछ समय पूर्व हितैषी के चेहरे पर व्याप्त गर्वीलापन अब सिमटकर सिर से पर तक धारण ऊनी वस्त्रों में समाहित हो चुका था।

बाकी सब
प्रज्ञा पाठक

“चल यार! कॉलेज की छुट्टी होने वाली है। लड़कियाँ बाहर निकलेंगी, जरा मजा लेंगे।”
पहले की बात से दूसरा पूर्णत: सहमत था। कॉलेज पहुँचने पर पहले ने दूसरे की ओर तेजी से पलटकर कड़क स्वर में कहा—“बाकी सब तो ठीक है, मगर वह पीले रंग के सूट वाली मेरी बहन है, उसके आसपास भी मत फटकना।”
दूसरे ने भी उसी रुक्षता से पहले को अपनी बहन के प्रति सावधान किया। पुन: दोनों परस्पर सहमत हुए और बाकी सब पर अपना नैसर्गिक अधिकार मानकर मजा लेने में मशगूल हो गए।

ग्रह-शान्ति

चेतना भाटी

फिर वही चीख-पुकार, जैसीकि हमेशा रहती थी उस घर में। चिड़चिड़ापन, तनाव, गुस्सा, जलन, कुढ़न, प्रतिस्पर्धा, बदले की भावना एक-दूसरे से, घर के प्रत्येक सदस्य में।
अभी कुछ ही दिनों पहले बड़ा यज्ञ करवाया था ग्रह-शान्ति के लिए गृह-स्वामी ने और तीर्थ-स्थल पर जाकर भी करवाई थी ग्रह-शान्ति। और अब फिर वही स्थिति! ग्रह-कलह!!
दूर, अन्तरिक्ष में स्थित ग्रह हैरान थे—हमें तो शान्त किया जा रहा है, मगर इनका क्या?

भविष्यफल
लीला रूपायन

श्रीमती सहगल को पता नहीं, वहम था या उनकी दुर्बलता। उन्हें भविष्यफल जानने की बड़ी उत्सुकता रहती थी। कभी पेपर में भविष्यफल देखतीं, कभी किसी हस्तरेखा जानने वाले के पास चली जातीं या उसे घर पर ही बुलवा लेतीं। हर ज्योतिषी को पूरे परिवार की पत्रिका दिखाती रहतीं। उनकी इस आदत के कारण सारा घर परेशान था। पति समझाते—“भगवान का दिया क्या नहीं है हमारे पास। पैसा, इज्जत, अच्छी सन्तानें, घर की इतनी बड़ी कोठी, नौकर-चाकर; और क्या चाहिए तुम्हें? इतने आज्ञाकारी बच्चे पाकर भी जाने तुम और क्या जानना चाहती हो? मन में कोई बात हो तो मुझे बताओ, बच्चों को बताओ। खड़े-खड़े पूरी कर देंगे।”
बड़े भारी मन से वह पति को बतातीं—“कुछ खास नहीं जी, बस यही धड़का लगा रहता है, कहीं किसी बच्चे के साथ कोई अनहोनी न हो जाए। रोज-रोज पेपरों में पढ़-पढ़कर जान निकल जाती है। कहीं अपहरण हो गया, कहीं बलात्कार, कहीं एक्सीडेंट! परिवार में छोटे से लेकर बड़े बाहर आते-जाते रहते हैं। लड़कियाँ भी स्कूल कॉलेज जाती हैं, किसी के साथ कोई…!”
“तो क्या ये हस्तरेखा जानने वाले, जिन्हें बुलाकर घर में बिठा लेती हो, वे तुम्हारी हर समस्या को सुलझा देंगे?” पति की आवाज में गुस्सा होता है।
श्रीमती सहगल बड़ी निश्चितता से बताती,“हाँ जी, जो उपाय बताते हैं, उन्हें पूरा करने से ग्रह टल जाते हैं। देखो न, अपना बंटी पाठ करने से ठीक हो गया था। कैसे मन से पण्डित जी ने सारा पूजा-पाठ किया था।”
“और जो डॉक्टर ने इलाज किया था?”
“मानो या न मानो। ठीक तो पण्डित जी की पूजा से ही हुआ था। जब उठकर भागने लगा था, तब पूजा समाप्त की थी उसने।”
“कौन माथा फोड़े तुम्हारे स्त्री-हठ से।” पति के गुस्से का भी उन पर असर नहीं होता था।
एक दिन उनकी पोती सारा कॉलेज से आई तो देखकर दंग रह गई। दादी एक को नहीं, दो-दो को हाथ दिखा रही हैं। साथ में घर वालों की जन्म-पत्रिका भी लेकर बैठी हैं। वे दोनों, जो सूरत से गुण्डे-मवाली लग रहे थे, दादी को ग्रह-दशा बता-बता कर ठगे जा रहे थे।
“माँ जी, अपना ध्यान रखना…घर में कोई सदस्य आपको नुकसान पहुँचा सकता है।” एक ने कहा।
दूसरा बोला,“बोला न माँ जी, पैसा बुरी चीज है, पैसे की खातिर…।” बाकी बात उसने अधूरी छोड़ दी।
सारा सब-कुछ आराम से सुनती रही। फिर वह चुपके-से उठी और घासलेट की बोतल के साथ माचिस भी ले आई। उनके ऊपर घासलेट उँड़ेलकर बोली,“क्यों महाराज, आज अपना भविष्यफल देखकर नहीं निकले थे घर से कि आपकी मृत्यु एक कन्या के हाथों होने वाली है?” और उसने माचिस की तीली जला ली। दोनों भविष्यफल बताने वाले महाशय अपना झोला छोड़कर सिर पर पैर राखकर भाग गए। सारा की हिम्मत दादी की आँखों पर पड़ा परदा हटा दिया।


परिवर्तन
रेखा कारड़ा

“देखो बेटा, कल आपके प्रिंसीपल ने सबके सामने मम्मी और पापा को बेइज्जत किया या नहीं?” रोहित अपने आठ वर्षीय बेटे से कह रहा था।
“जी पापा!” अंकुर का सिर शर्म से झुक गया।
“जानते हो, उन्होंने यह धमकी दी है कि अगर इस साल तुम्हारा रिजल्ट अच्छा नहीं बना तो तुम्हें स्कूल से निकाल देंगे।”
“…”
“बेटे, हम आप पर कितना खर्च करते हैं, आपने कभी सोचा है?”
“…”
“सुबह नींद से उठकर आप रोजाना चाय पीते हैं…”
“…”
“…और नहीं तो एक रुपए की तो होगी!”
“…”
“फिर आप नाश्ता खाते हैं, उस पर कितने खर्च होते हैं?”
“…”
“उसके बाद दिन का खाना, स्कूल जाने-आने का टैक्सी का किराया, स्कूल की फीस, आवश्यक अध्ययन सामग्री, फिर शाम की चाय और रात का भोजन। इसके अलावा भी बेटे, हम अनगिनत खर्च तुम्हारे लिए करते हैं; जैसे, घुमाने ले जाना, पिक्चर ले जाना, नए कपड़े, जूते लाना अथवा खेल-खिलौने आदि…।”
पापा की सारी बातें सुन अंकुर मुँह से कुछ भी नहीं कह पाया।
“लेकिन बेटे, इन सब के बदले हम आपसे चाहते क्या हैं? सिर्फ यही न कि तुम हमारा मान बढ़ा नहीं सकते तो कम-से-कम घटाओ तो नहीं।”
अगले परीक्षा-परिणाम में अंकुर पूरे प्रदेश में प्रथम रहा।

मुखौटा
सुमति देशपाण्डे

आश्रम की सफाई का कार्य बहुत जोर-शोर से चल रहा था।
दीनानाथ जी अपने कमरे में शान्ति से बैठे थे। आश्रम के अधिकारी ने उनके कमरे में झाँका—“चलो, आपका कमरा तो एकदम साफ-सुथरा और व्यवस्थित है। आज सभी से अपने-अपने कमरे साफ करवाने हैं। कल शहर के प्रतिष्ठित माननीय श्रीमान केसरलाल जी आश्रम देखने आ रहे हैं। बड़े दानी हैं वे। साफ-सफाई का बहुत अच्छा ख्याल रहता है उनका। वृद्धों के प्रति उनके मन में बहुत आस्था-आदर है।”
आश्रम के अधिकारी उनकी तारीफ के पुल बाँधे जा रहे थे। वह कह रहे थे,“कल जब वे आएँगे, सब के लिए कम्बल लेकर आ रहे हैं, कल का खाना भी उन्हीं की तरफ से रहेगा। उनके पापा की पसन्द का खाना बनेगा।”
दीनानाथ जी को बातें सुनना असह्य हो रहा था। उन्हें लग रहा था कि जोर-से चिल्ला कर कह दें—“केसरलालजी, और कोई नहीं, मेरा बेटा केशव है।”