Tuesday 26 October, 2010

उन्नीसवाँ अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन, पंचकुला(हरियाणा)

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पंचकुला(हरियाणा) में दिनांक 23 अक्टूबर, 2010 को लघुकथा सम्मेलन संपन्न हुआ है। प्रेषित प्रपत्र के अनुसारसम्मेलन के पहले सत्र में भाई भगीरथ परिहार का लेख लघुकथा के आईने में बालमन तथा डॉ अनूप सिंह मिन्नी कहानी(पंजाबी में लघुकथा के लिए यही नाम स्वीकार किया गया है) की पुख्तगी के बरक्स साऊ दिन शीर्षक अपनी पुस्तक पर आलेख पढ़ा। इन दोनों ही लेखों पर डॉ अशोक भाटिया, सुभाष नीरव और डॉ मक्खन सिंह के साथ मुझे भी चर्चा करने वालों में शामिल किया गया था। मेरा दुर्भाग्य कि इन दिनों मुझे बंगलौर आ जाना पड़ा और मैं सम्मेलन का हिस्सा न बन पाया। सम्मेलन के दूसरे सत्र में कुछ लघुकथाओं का पाठ उपस्थित लघुकथा-लेखकों द्वारा किया जाना तय था। इन लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रेषित सामग्री से श्रेष्ठता के आधार पर मिन्नी संस्था के कर्णधार श्रीयुत श्यामसुन्दर अग्रवाल व डॉ श्यामसुन्दर दीप्ति द्वारा हुआ। भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल ने बताया था कि इस सम्मेलन के जुए का कुछ बोझ भाई रतन चंद 'रत्नेश' के कन्धों पर भी टिकाया गया है, काफी लघुकथाएँ उनके सौजन्य से भी प्राप्त हुई हैं। भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल ने कुछ लघुकथाएँ इस आशय के साथ मुझे अग्रिम मेल की थीं कि मैं उन्हें पढ़ लूँ और यथानुसार अपनी टिप्पणी उन पर तैयार कर लूँ। चयनित लघुकथा का पाठ मिन्नी की परम्परा के अनुसार उसके लेखक द्वारा ही किया जाना होता है। पढ़ी जाने वाली लघुकथाओं पर चर्चा के लिए प्रपत्र में डॉ अनूप सिंह, डॉ कुलदीप सिंह दीप, डॉ अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, निरंजन बोहा के साथ मेरा भी नाम शामिल है। मैं सदेह पंचकुला सम्मेलन में अनुपस्थित रहा लेकिन मेरी मानसिक उपस्थिति वहाँ बनी रही। सम्मेलन की सफलता के साथ-साथ मैं भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल द्वारा प्रेषित लघुकथाओं में से कुछ को अपनी टिप्पणी सहित जनगाथा के अक्टूबर 2010 अंक में दे रहा हूँ और इस तरह अपनी उपस्थिति वहाँ दर्ज़ कर रहा हूँ।
21 अक्टूबर की शाम एक एसएमएस इस आशय का आया था कि गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में 23 अक्तूबर 2010 को लघुकथा सम्मेलन है। इस बारे में किसी भी प्रकार की अन्य चर्चा न करके मैं उक्त सम्मेलन की भी सफलता की कामना हृदय से करता हूँ।
नोट: इस समूची सामग्री को 23 अक्टूबर, 2010 की सुबह ही पोस्ट कर दिया गया था, लेकिन कुछ मित्रों के सुझावों को ध्यान में रखते हुए इसे विभक्त करके पोस्ट कर रहा हूँ। उपर्युक्त वक्तव्य भी इसीलिए संपादित हो गया है। सभी लघुकथाओं में जो अंश लाल रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ मूल लघुकथा से उन अंशों को हटाने की सलाह है तथा जो अंश हरे रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ उन अंशों को मूल लघुकथा में जोड़ने की सलाह हैबलराम अग्रवाल


॥लघुकथाएँ॥
॥1॥ वे दोनों/डॉ. शशि प्रभा
घर से भाग कर शादी कर ली थी उसने। पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। पड़ोस की दुकान पर काम करने वाला राजेश उसे भा गया था। दिन-रात उसके ख्यालों में खोई रहती। पढ़ने-लिखने में मन नहीं लगता था। राजेश भी उसका दीवाना हो गया था। आखिर, एक-दूसरे के प्रेम में पागल दोनों घर से भाग खड़े हुए और दूसरे शहर में जाकर मंदिर में शादी कर ली।
राजेश अभी काम पर नहीं लगा था। घर से भागते समय जो गहना, पैसा वह लाई थी, उसी से काम चल रहा था। आज दोनों मस्ती में घूमने आ गए थे। उसे चौथा महीना लग रहा था। राजेश ने प्यार से उसके पेट पर हाथ लगाते हुए पूछा, तुम्हें लड़की चाहिए या लड़का?
उस प्यार को अंदर तक उतारते और अपनी प्यार भरी नज़र से राजेश को नहलाते हुए उसने प्रतिप्रश्न किया, तुम्हें क्या चाहिए?
कुछ भी,अचानक नज़रें सामने टकराईं, एक दूसरी लड़की–फूला हुआ पेट, मैं अभी आया,कहकर हड़बड़ी में राजेश पार्क से बाहर निकल गया।
दूसरी लड़की ने पास आकर पूछा, वह तुम्हारा कौन था?
मेरा पति।
वह मेरा भी पति है।
और वे दोनों एक-दूसरी के पेट को देख रही थीं।-0-
संपर्क : 2532, सैक्टर-40-सी, चंडीगढ़

टिप्पणी : इसे सामयिक विषय की उद्बोधक लघुकथा कहा जा सकता है। फर्स्ट साइट लव और इन्स्टेंट मेरेज की हानियों की तरफ यह लघुकथा अत्यन्त मजबूती के साथ संकेत करती है। आज का समय असीम चारित्रिक गिरावट का समय है और इसमें भावुक हृदय लोगों विशेषत: स्त्रियों के लिए बहुत ही कम स्पेस है। माना कि स्त्री को स्वतंत्र होना चाहिए, लेकिन यह लघुकथा बताती है कि उससे भी अधिक आवश्यकता इस बात की है कि उसे व्यावहारिक होना चाहिए…छले जाने से बचने के गुर और सावधानियाँ आने चाहिएँ। यह लघुकथा उस ओर उसे एक सार्थक गुर प्रदान करती है।
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को लाल दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर तथा जिन्हें हरा दिखाया गया है, उन्हें जोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)



॥2॥ जंग/डॉ. राजेन्द्र कुमार कनौजिया
सीमा पर दोनों ओर की सेनाएँ डटी हैं। अभी थोड़ी देर से गोलीबारी बंद है। एक ओर सौनिकों में से एक ने अपनी बंदूक वहीँ पास के पेड़ से टिका दी, थोड़ी चैन की साँस लेते हैं…
क्यों करते हैं ये जंग? क्या मिलेगा उनको और क्या पायेगा वो? वही दो वक्त की रोटी। धत्!–उसने आसपास देखा, पास के खेतों में सरसों के फूल निकले हैं। एक जंगली फूल भी खिला है। एक तितली न जाने कहाँ से आई है और मंडराने लगी है। बंदूक की नली के आसपास शायद कुछ लगा है। तितली खूबसूरत है। गहरे चटक पीले फूल में लाल तितली। बिल्कुल उसकी नन्हीं बेटी जैसी।
कितना अच्छा हो, अगर जंग खत्म हो और वह घर जाए।
वह आसमान की तरफ अपलक देखता रहा।
अचानक ‘साँय़’ से एक गोली सीमा के उस पार से चली और वह बाल-बाल बच गया।
तुरंत उसने भी पोजीशन ले ली और गोलियाँ दाग दी थीं।
थोड़ी देर बाद गोलीबारी बंद हो गई थी। वह सैनिक वहीं ढ़ेर हो गया था। बंदूक वहीं पड़ी थी। उससे निकलता धुआँ शांत हो गया था।
तितली अब भी उस पर मँडरा रही थी।-0-
संपर्क : म.न.-7, आफ्टा डुप्लैक्स,गोल्डन सिटी, मुंडी खरड़ (पंजाब)

टिप्पणी : इस लघुकथा की जितनी प्रशंसा की जाय, कम है। इसलिए नहीं कि यह जंग की मानसिकता के खिलाफ कुछ कहना चाहती है, बल्कि इसलिए कि समकालीन लघुकथा में प्रकृति को कथानक का हिस्सा बनाने की जो दूरी पनप चुकी है, यह उस दूरी को पाटने की पहल करती-सी दिखाई देती है। सारा घटनाचक्र बिना किसी ऐसे तनाव के जो कथाकार को अपने उद्देश्य की ओर जाने की शीघ्रता के कारण रचना में नजर आने लगता है, आगे बढ़ता है और समापन को प्राप्त होता है। एक विशेष बात जो मैं कहना चाहूँगा वो यह कि समस्त लघुकथाओं में हमें स्थूलत: नहीं उतर जाना चाहिए। लघुकथा एक विशेष कथा-विधा है। संकेत इसका महत्वपूर्ण अवयव है। कुछ सक्षम लघुकथाएँ मानवीय वृत्तियों को मानव-पात्रों के रूप में प्रस्तुत करती हैं और सामान्य घटनाचक्र की तुलना में कुछ असामान्य घटित होने की छूट पाना उनका अधिकार होता है। नि:संदेह श्रेष्ठ रचनाएँ सामान्य पाठक और सुधी आलोचक दोनों को समान रूप से प्रभावित करती हैं; लेकिन मेरा मानना है कि प्रत्येक लघुकथा को सामान्य पाठक की दृष्टि आकलित कर ले, यह सम्भव नहीं है। कुछ लघुकथाओं को आकलित करने का दायित्व आलोचकों को निभाना पड़ता है। उनके द्वारा आकलित होने के बाद ही वे सामान्य पाठक के उपयोग की श्रेष्ठ रचना सिद्ध हो पाती हैं।

॥3॥ ठसक/आचार्य भगवान देव ‘चैतन्य’
पत्नी के देहांत के बाद गांव को अलविदा कहकर राम प्रकाश अपने पुत्र और पुत्र-वधू के पास शहर ही में आ गया था। हालांकि जीवनभर उसका साधु-स्वभाव ही रहा था, मगर अब बढ़ती आयु के साथ-साथ वह और-भी अधिक सहज और सरल हो गया था। जो मिला, जैसा मिला पहन लिया। जब मिला, जैसा मिला चुपचाप खा लिया। फिर भी बहू कुछ-न-कुछ कहने-सुनने को निकाल ही लिया करती थी।
एक दिन दोपहर का भोजन करके राम प्रकाश धूप में लेटा हुआ था। थोड़ी देर बाद उसका बेटा रमेश आकर भोजन करने लगा तो पहला कौर मुंह में डालते ही वह अपनी पत्नी पर क्रोधित होकर बोला,नाजो, तुम्हें इतने दिन खाना बनाते हो गए, मगर अब तक भी अंदाजा नहीं हुआ कि दाल या सब्जी में कितना नमक डालना है…
ज्यादा हो गया क्या…?
ज्यादा? मुझे तो लगता है कि तुमने दो बार नमक डाल दिया है। लो मुझसे ऐसा खाना नहीं खाया जाता…।रमेश गुस्से में आकर उठ गया और वाश-बेसन पर हाथ धोने लगा।
नाजो राम प्रकाश की ओर देखते हुए तुनक कर बोली,अब मैं भी क्या करूँ, यहाँ तो कोई इतना तक बताने वाला भी नहीं है कि नमक कम है या ज्यादा। चुपचाप खाकर टांगें पसार लेते हैं।
राम प्रकाश समझ गया कि बहू यह सब उसे ही सुना रही है, मगर अपने स्वभाव के अनुसार वह चुपचाप लेटा रहा। जब वह रात का भोजन करने लगा तो उसे दाल में नमक कुछ कम लगा। उसे दिन वाली घटना याद आ गई, इसलिए बोला, बेटी, मुझे दाल में नमक कुछ कम लग रहा है। मेरा तो कुछ नहीं, मगर रमेश आकर…
अच्छा अब चुप भी रहो…बहू तुनक पड़ी, जैसा मिले चुपचाप खा लिया करो। कुछ लोगों को कुछ-न-कुछ कहने की ठसक होती ही है…
राम प्रकाश हाथ धोकर चुपचाप अपने कमरे में चला गया। -0-
संपर्क : महादेव, सुन्दर नगर-174401 (हि,प्र.)

टिप्पणी : सामान्य पाठक की दृष्टि से देखा जाय तो ठसक में आधुनिक परिवार में बुजुर्गों की दुर्दशा को तो आसानी से चिह्नित किया ही जा सकता है, लेकिन मेरी दृष्टि में यह विभिन्न मानसिकताओं के, मनोवृत्तियों के चित्रण की कथा अधिक है। प्रत्येक मनुष्य में दो प्रवृत्तियाँ स्वाभाविक रूप से पायी जाती हैंपहली, सफलता का श्रेय लूटने की। इसका उदाहरण है राम वनवास के उपरान्त अयोध्या लौटे भरत से कैकेयी का यह कहना कि—‘तात बात मैं सकल सँवारी। अर्थात् राम को निष्कासित करके मैंने अकेले अपने दम पर तुम्हारे राजा बनने का मार्ग प्रशस्त कर दिया है। और दूसरी असफलता का आरोपण करने की।  इसका उदाहरण भी कैकेई ही है। भरत को राजा बनाने का श्रेय जिस अभिमान के साथ वह लूटती है उसी के साथ दशरथ की मृत्यु का कारण बनने का आरोप वह ईश्वर पर मँढ़ देती है—‘छुक काज बिधि बीच बिगारेउ। अत: ठसक दो व्यक्तियों के स्वभाव चित्रण की लघुकथा है। यद्यपि लेखक ने सिद्धांत-विशेष को ध्यान में रखकर चरित्रो को नहीं रचा है, तथापि इसमें पुत्र-वधू और राम प्रकाश के चरित्रों को मनोविश्लेषण के सिद्धांतों के आधार पर विश्लेषित करके देखने की आवश्यकता है।

उन्नीसवाँ अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन, पंचकुला(हरियाणा)/ शेष रचनाएँ

॥4॥ क्या हम भी…/सुशील ‘हसरत’ नरेलवी
कितनी बार कहा है कि जब कमरे में नहीं बैठना हो तो कमरे से बाहर आते समय ‘लाईट’ व पंखे को बंद कर दिया करो। लेकिन मेरी सुनता कौन है? लो अब भुगतो! पूरा 2850/- रुपये का बिजली का बिल आया है, अबकी बार।श्रीमती शर्मा ने बिल अपने पति महोदय को पकड़ाते हुए कहा।
शर्मा जी बिल को देखते हुए बोले, बुब्बू की माँ, पंखे व लाईटें बंद करने से कुछ नहीं होगा। आज ही मैं वो जो प्रकाश का साला है ना बिजली के दफ्तर में, उसके पास जाता हूँ। ले लेगा पाँच-सात सौ रुपये, लेकिन मीटर का ऐसा इंतज़ाम कर देगा कि बिल आगे से आधे से भी कम आएगा।
किंतु पापा, यह तो चोरी हुई न!बातें सुन रहे उनके चौदह वर्षीय बेटे बुब्बू ने कहा।
चोरी क्यों बेटे? सभी तो ऐसा करते हैं!
सभी तो बहुत कुछ करते हैं पापा। क्या हम भी…? वो प्रताप अंकल का बेटा दीप्ति को लेकर…सुना है न आपने पापा…!
पापा ने बेटे की आँखों में घूर कर देखना चाहा, मगर साहस नहीं कर सके। अगले ही पल उनकी नज़रें नीची हो गईं। वे इतना ही कह पाए, वो देख! अंदर वाले कमरे में कोई नहीं है और पंखा चल रहा है। जा, जाकर बंद कर दे!-0-
संपर्क : 1461-बी, सैक्टर 37-बी, चंडीगढ़-160 036
                                              
टिप्पणी : कथ्य के स्तर पर इसे साधारण आदर्शवादी लघुकथा कहा जा सकता है। इसमें एक तथ्यात्मक त्रुटि भी है जिसके कारण इसका घटनात्मक परिवेश आज नहीं तो कल कमजोर…या यह भी कह सकते हैं कि अव्यावहारिक सिद्ध हो जाना निश्चित है। बिजली के मीटर अब अत्याधुनिक इलेक्ट्रॉनिक तकनीक से युक्त हैं। महानगरों में तो उनकी मॉनीटरिंग की भी व्यवस्था है। घरेलू या व्यावसायिक किसी भी प्रकार के मीटर के साथ की गई छेड़छाड़ मॉनीटर में दर्ज हो जाती है। यही नहीं, अब मीटर-रीडिंग भी इलेक्ट्रॉनिक उपकरण से दर्ज होती है अर्थात् मानवीय हस्तक्षेप अब उतना आसान नहीं रहा जितना पहले कभी था। इस लघुकथा में उल्लेखनीय बिन्दु यही है कि जो सब करते हैं वही करना हमारे लिए भी कितना उचित अथवा अनुचित है? इस तथ्य को नई पीढ़ी भी समझ रही है। और न केवल समझ रही है, बल्कि पूर्व-पीढ़ी को समझा भी रही है। अत: इस बिन्दु तक लघुकथा को लाने के लिए कथाकार ने जिस तथ्य को चुना है, उसकी कमजोरी अथवा अल्पकालिकता को ध्यान में रखते हुए किसी अन्य दीर्घकालिक एवं शाश्वत तथ्य को चुनकर इसे रिवाइज़ कर लेना चाहिए। सभी लघुकथाओं में जो अंश लाल रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ मूल लघुकथा से उन अंशों को हटाने की सलाह है तथा जो अंश हरे रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ उन अंशों को मूल लघुकथा में जोड़ने की सलाह हैबलराम अग्रवाल
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को लाल दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)


॥5॥ अपंग मसीहा/डॉ. राम कुमार घोटड़
बहुत देर इंतजार के बाद, पति-पत्नी ने बच्चे की अंगुली पकड़े सड़क पार करने की कोशिश की। जल्दबाजी व भागमभाग की स्थिति में बच्चे की अंगुली छूट गई। बच्चा  वह भयभीत-सा सड़क के बीच बस के तेज होर्न की आवाज से घबराकर रोने लगा। इतने में ही न जाने कहाँ से लंगड़ाकर भागता हुआ एक युवक आया और उसने बच्चे को एक ओर धक्का देकर हटा दिया। बच्चा तो बच गया, लेकिन वह स्वयं न बच सका। बस उसकी टाँगों को कुचलती हुई आगे जाकर रुक गई। बस की सवारियाँ और आसपास की भीड़, इस हादसे को देखकर उस युवक के आसपास इकट्ठी हो गई।
 युवक के चेहरे पर दर्द की बजाय मुस्कराहट थी। वह कहने लगा, साथियो, चिंता की कोई बात नहीं। मैं स्वस्थ हूँ, ये मेरी टाँगें ही गई हैं। वर्षों पहले जब मैं छोटा था, इसी तरह सड़क पार करते समय मेरी टाँगें कुचली गईं थी। मैं तो बच गया, लेकिन मेरी टाँगें इतनी बुरी तरह कुचली गईं कि काटनी पड़ीं। तब से मैं ये नकली टाँगें लगाकर चला-फिरा करता हूँ। आज जो कुचली हैं वो ये नकली टाँगें हैं, फिर लग जायेंगी; लेकिन मुझे खुशी है कि आज एक बच्चा अपंग होने से बच गया।
उस युवक के चेहरे पर आत्म संतुष्टि के भाव थे।-0-
संपर्क : द्वारा मुरारका मैडीकल स्टोर,  सादुलपुर-331 023 (जिला:चुरू), राजस्थान

टिप्पणी : यह एक मनोवैज्ञानिक तथ्य है कि शरीर के किसी भी अंग को प्राकृतिक कारण से अथवा किसी दुर्घटनावश खो देने की पीड़ा उम्रभर व्यक्ति को सालती है और वह इस सकारात्मक सोच के साथ जीता है कि किसी अन्य को ऐसे शारीरिक कष्ट से नहीं गुजरने देना है। मनोविज्ञान कहता है कि इसी मानसिकता के चलते शारीरिक रूप से कमजोर बच्चे चिकित्सा व्यवसाय की ओर उन्मुख होते हैं। रचना में शैल्पिक दृष्टि से कुछ कमजोरियाँ हैं जिन्हें दूर किया जाना चाहिए।
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को लाल दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर तथा जिन्हें हरा दिखाया गया है, उन्हें जोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)

॥6॥ ससुर/ऊषा मेहता दीपा
अमीर चंद ने अपने बेटे से शिकायत की, तुम्हारी पत्नी ने तो मुझे घर का नौकर समझ लिया है। सुबह से शाम हो जाती है, उसके हुक्म की गुलामी करते-करते। समझा देना उसे, मैं उसके बाप का नौकर नहीं हूँ, ससुर हूँ, ससुर।
बाथरूम में घुसी सविता ने सब सुन लिया था। उसने बड़े संयम से काम लेते हुए, धीरे-धीरे ससुर जी से कोई भी काम लेना बंद कर दिया। अमीर चंद जी को ज़िंदगी उबाऊ और बोझिल लगने लगी। दिन बिताए नहीं बीतता और रात करवट बदलते गुज़रती। नींद का नामोनिशान नहीं रहा। पुरानी यादें सीना छलनी करने लगीं।
वे एक दिन बहू से बोले, बेटी सविता, मैं तो अपंग ही हो गया हूँ। जीवन बोझ-सा बन गया है। बेटी, तुमने तो मुझे घर का आदमी समझना ही छोड़ दिया। सभी काम खुद करने लगी हो। बेटी, मुझे भी घर का सदस्य समझो। मुझे भी कोई काम बताया करो
सविता अवाक-सी ससुर का मुँह ताक रही थी। उसकी जीभ तालु से चिपक गई थी।-0-
 संपर्क : गाँव व डाक: डुगली-176319 जिला: चम्बा (हि.प्र.)

टिप्पणी : भारतीय पुरुषवादी मानसिकता को इस लघुकथा में बहुत ही खूबसूरती के साथ चित्रित किया गया है। भारतीय परिवेश में कन्या का पिता होना महान अपमानजनक घटना हैऐसा महर्षि वाल्मीकि का भी मानना है:सम्मान की इच्छा रखनेवाले सभी लोगों के लिए कन्या का पिता होना दु:ख का ही कारण होता है।* उसके विपरीत वर का पिता होने का अभिमान वर्णन से परे है। इस बात के प्रमाणस्वरूप किसी सद्ग्रंथ की किसी उक्ति को उद्धृत करने की आवश्यकता नहीं है। यह हमारी दिनचर्या में स्वयंसिद्ध है। ससुर लघुकथा का अमीर चन्द ऐसा ही पुरातनपंथी वर का पिता है जो बहू के बाप का नौकर नहीं है। लेकिन बहू समझदारी से काम लेती है और ससुर से संवादहीनता की स्थिति बना लेती है। स्पष्ट है कि अभिमानी पुरुष अपनी उपेक्षा भी सहन नहीं कर पाता है क्योंकि यह उसके लिए सबसे बड़ी सज़ा होती है।
इस लघुकथा के शीर्षक पर पुनर्विचार किया जा सकता है।

·        वाल्मीकि रामायण:उत्तरकाण्ड:नवम् सर्ग:नवाँ श्लोक।

॥7॥ अहमाम द हमाम/जसबीर चावला
राजा निकले तो लोगों की आँखें फटी रह गईं–श्वेत सफ्फाफ लकझक करते वस्त्रों में झंकारते (नारमली इतने बेदाग होते नहीं, राजकीय परिधान)! फिर निकले वज़ीरे खानखाना तो वह भी मुस्कुराते सफेद लुंगी-हवाई शर्ट में! कोई धब्बा नहीं! वजीरे खज़ाना निकले तो अद्भुत छवि प्रस्तुत हुई–दूधिया उल्लू पर मानो सफेद साड़ी में लक्ष्मी! वजीरे खारजा को देख जनता अश्-अश् कर उठी–चमकदार सफेद जहाज से निकल उज्ज्वल भविष्य-से पसरते हवा में डालरों के सफेद बंडल! उच्च शिक्षा के मंत्री तो धवल कमल सदृश पुण्यवान् प्रतापी…
खुसुर-पुसुर होने लगी– कौन कह रहा था, हमाम में सब नंगे हैं? यहाँ तो एक से बढ़कर एक नामी नैतिकता के पहरेदार, भ्रष्टाचार से कोसों दूर, सफेद से सफेदतर! पीछे भी ढाकाई मलमल-से कोमल, धुले कपड़ों में ही निकल रहे हैं, मानवता के पक्षधर!
आखिर चक्कर क्या है? हमारे नेताओं में रातों-रात फेरबदल कैसे हो गया है?
यह हमाम ही है न भई?संतरी से पूछ ही लिया हिम्मत कर किसी अविश्वासी ने।
नहीं यह अहमाम है!
और भी है का? कि यही एक ही हमाम है?
नहीं…नहीं, इसके पीछे द हमाम भी है!संतरी ने खुलासा किया।-0-
संपर्क : 123/1, सैक्टर-55, चंडीगढ़-160 055

टिप्पणी : लघुकथा में क्लिष्टता है। बिम्ब-विधान कुछ क्लिष्ट शब्दों का खुलासा कर दिये जाने पर शायद स्पष्ट हो जाए। आपको याद होगा, ऐसे ही क्लिष्ट बिम्ब-विधान की एक लघुकथा छुरियाँ मैंने डलहौजी सम्मेलन में सुनाई थी और वह इसी आधार पर अंशत: नकारी भी गई थी कि बिम्ब को क्लिष्ट नहीं होना चाहिए। मैं इस विचार से सहमत हूँ।
कुल मिलाकर यह जसवीर चावला की चिर-परिचित शैली में लिखी गई एक व्यंग्य-प्रधान या कहें कि कटाक्ष-प्रधान लघुकथा है।

॥8॥ चप्पल/रतन चंद निर्झर
सुन्दर ट्रेन से अम्बाला जा रहा था। खिड़की के पास डिब्बे में सीट मिल गई। देखते-देखते रेल प्लेटफार्म से आगे चल पड़ी और रेलवे स्टेशन से आगे निकलते ही तीव्रगति से चल पड़ी। उसने गति पकड़ ली। वह खिड़की से सुबह के मनोरम दृश्यों का अवलोकन करता रहा। सुबह-सवेरे की दिनचर्या में लगे, लोग सड़कों पर साइकिलों पर आते-जाते लोगों को देखने में खोया रहा। एक छोटे-से स्टेशन पर गाड़ी दो मिनट के लिए रुकी। गाड़ी में सवार होने वाले मुसाफिरों की धक्कमपेल में उतरने वाले मुसाफिर उलझते रहे थे। तभी सुन्दर की नज़र एक प्रवासी मजदूर पर पड़ी। वह तेजी से धीरे-धीरे सरक रही गाड़ी में चढ़ने का प्रयास कर रहा था। इस प्रयास में उसकी एक चप्पल पटरी के किनारे पड़ी रोड़ी में फिसल गई, पर वह डिब्बे के दरवाजे का हैंडल पकड़ने में कामयाब कहा।
भैया, तुम्हारी एक चप्पल तो उस पार रेल लाइन में रह गई। सुन्दर ने उस प्रवासी मजदूर से कहा।
अपनी फूली सांसों पर काबू पा, हांफते हुए मजदूर ने कहा, चप्पल छूट गई तो क्या हुआ, रेलगाड़ी तो न छूटी। आज यह रेलगाड़ी न मिल पाती तो मैं अपनी माँ की अर्थी को कँधा न दे पाता। कहते-कहते उसका स्वर रुंध गया। -0-
संपर्क : म.न.-210, रोडा, सैक्टर-2, बिलासपुर-174001 (हि.प्र.)

टिप्पणी : चप्पल सांसारिक दायित्व और सांस्कारिक दायित्व के बीच सांस्कारिक दायित्व का चुनाव करने की सार्थक चेतना से युक्त लघुकथा है। आज का समय घोर भौतिकवादी रुझान का समय है। यह अर्थ-प्रधान समय है। इसमें माँ की अर्थी को कंधा देने जाने के लिए चलती ट्रेन में चढ़ने का खतरा मोल वही ले सकता है जो सांस्कृतिक चेतना से युक्त है और भौतिक आवश्यकताओं की पूर्ति की चिन्ता जिसके लिए दोयम है। इस लघुकथा में आदर्शवादिता की बजाय मूल्यपरकता के दर्शन अधिक होते हैं।
(शैल्पिक गठन की दृष्टि से लघुकथा के जिन हिस्सों को लाल दिखाया गया है, उन्हें छोड़कर तथा जिन्हें हरा दिखाया गया है, उन्हें जोड़कर देखने का व्यक्तिगत अनुरोध लेखक से है।)


Friday 22 October, 2010

उन्नीसवें अन्तर्राज्यीय लघुकथा सम्मेलन, पंचकुला(हरियाणा) के अवसर पर विशेष

-->पंचकुला(हरियाणा) में आज 23 अक्टूबर, 2010 को लघुकथा सम्मेलन है। सम्मेलन के पहले सत्र में भाई भगीरथ परिहार का लेख लघुकथा के आईने में बालमन पढ़ा जाना है तथा डॉ अनूप सिंह मिन्नी कहानी(पंजाबी में लघुकथा के लिए यही नाम स्वीकार किया गया है) की पुख्तगी के बरक्स साऊ दिन शीर्षक अपनी पुस्तक पर आलेख पढ़ेंगे। इन दोनों ही लेखों पर डॉ अशोक भाटिया, सुभाष नीरव और डॉ मक्खन सिंह के साथ मुझे भी चर्चा करने वालों में शामिल किया गया था। मेरा दुर्भाग्य कि इन दिनों मुझे बंगलौर आना पड़ा और मैं सम्मेलन का हिस्सा न बन पाया। सम्मेलन के दूसरे सत्र में कुछ लघुकथाओं का पाठ उपस्थित लघुकथा-लेखकों द्वारा किया जाना है। इन लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रेषित सामग्री से श्रेष्ठता के आधार पर मिन्नी संस्था के कर्णधार श्रीयुत श्यामसुन्दर अग्रवाल व डॉ श्यामसुन्दर दीप्ति द्वारा हुआ है। भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल ने बताया था कि इस सम्मेलन के जुए का कुछ बोझ भाई रतन चंद 'रत्नेश' के कन्धों पर भी टिकाया गया है, लघुकथाएँ उनके सौजन्य से भी प्राप्त हुई हैं। भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल ने 14 लघुकथाएँ इस आशय के साथ मुझे अग्रिम मेल की थीं कि मैं उन्हें पढ़ लूँ और यथानुसार अपनी टिप्पणी उन पर तैयार कर लूँ। चयनित लघुकथा का पाठ मिन्नी की परम्परा के अनुसार उसके लेखक द्वारा ही किया जाना है। पढ़ी जाने वाली लघुकथाओं पर चर्चा के लिए प्रपत्र में डॉ अनूप सिंह, डॉ कुलदीप सिंह दीप, डॉ अशोक भाटिया, सुकेश साहनी, निरंजन बोहा के साथ मेरा भी नाम शामिल है। मैं सदेह पंचकुला सम्मेलन में अनुपस्थित रहूँगा लेकिन मेरी मानसिक उपस्थिति वहाँ बनी रहेगी। सम्मेलन की सफलता के साथ-साथ मैं भाई श्यामसुन्दर अग्रवाल द्वारा प्रेषित लघुकथाओं में से कुछ को अपनी टिप्पणी सहित जनगाथा के अक्टूबर 2010 अंक में दे रहा हूँ और इस तरह अपनी उपस्थिति वहाँ दर्ज़ कर रहा हूँ।
21 अक्टूबर की शाम एक एसएमएस इस आशय का आया था कि गाँधी शान्ति प्रतिष्ठान, नई दिल्ली में 23 अक्तूबर 2010 को लघुकथा सम्मेलन है। इस बारे में किसी भी प्रकार की अन्य चर्चा न करके मैं उक्त सम्मेलन की भी सफलता की कामना हृदय से करता हूँ।सभी लघुकथाओं में जो अंश लाल रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ मूल लघुकथा से उन अंशों को हटाने की सलाह है तथा जो अंश हरे रंग से दिखाए हैं, उसका अर्थ उन अंशों को मूल लघुकथा में जोड़ने की सलाह हैबलराम अग्रवालबलराम अग्रवाल


॥लघुकथाएँ॥


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॥9॥ मालिक/राम कृष्ण ‘कांगड़िया’
होटल के जूठे बर्तनों को साफ करते-करते उसकी उँगलियाँ कड़कती ठंड में बेजान-सी होती जा रही थीं। वह चाहकर भी अपनी उँगलियों को गति नहीं दे पा रहा था।
मालिक ने गुर्राते हुए कहा, क्यों बे…क्या कर रहा है तू? रात के नौ बजने वाले हैं और अभी तक तुझसे बर्तन ही साफ नहीं हुए! चल जल्दी कर।
साहब! क्या करूँ, पानी इतना ठंडा है कि क्या बताऊँ! उंगलियाँ जाम हो गई हैं। गर्म पानी होता तो जल्दी हो जाता।
बड़ा आया गर्म पानी वाला! अगर इतनी ही ठंड लगती है तो घर में क्यों नहीं बैठता? नौकरी करने की क्या जरूरत है?”  इतना कह वह बड़बड़ाता हुआ अंगीठी की तपिश का आनंद लेने बैठ गया।-0-
संपर्क : गाँव व डाक: भूमती, तहसील: अर्की-173 221 (हि.प्र.)

टिप्पणी : पूँजी के क्रूर चरित्र को दर्शाती एक अच्छी लघुकथा। चरित्र-विकास की दृष्टि से भी यह सधी हुई रचना है। मालिक शीर्षक से भी दमनकर्ता, शोषक अथवा पूँजीपति ही अधिक ध्वनित होता है।


॥10॥ अनजाने में/अनिल कटोच
शाम हो आई थी। अंधेरा अपने पाँव पसारने लग पड़ा था। गाँव को जाने वाली अंतिम बस भी जा चुकी थी। बस स्टाप पर मैं था और एक नवयौवना थी। मेरी समझ में नहीं आ रहा था कि अब क्या किया जाए। ऐसे में ऑटो वाले भी मुँह मांगा दाम लेते हैं।
इतने में एक युवक बाइक पर आया और बोला, मैडम! कहो तो मैं छोड़ आऊँ, जहाँ तुम्हें जाना है?
नवयौवना ने ‘न’ में सिर हिला दिया। बाद में न जाने कितने मनचले आए और कुछ न कुछ कह कर चल दिए।
मैं भी उस नवयौवना के नजदीक चला गया। थोड़े ही समय बाद एक और युवक आया। नवयौवना उस समय किसी से मोबाइल पर बात कर रही थी। युवक ने कहा, मैडम! कहाँ जाना है, मैं छोड़ आता हूँ।
नवयौवना ने मेरी ओर इशारा करते हुए कहा, ठीक है, पहले इन्हें छोड़ आएँ।
मैं भी बिना कोई देरी किए उस युवक के पीछे बैठ गया। रास्ते में देखा वह नवयौवना अपने पिता की बाइक पर बैठी मंद-मंद मुस्कराती हुई जा रही थी।-0-
              संपर्क : टी-2/46, जुगयाल, पठानकोट-145 029 (पंजाब)

टिप्पणी : यद्यपि कथाकार ने यह प्रयत्न किया है कि वह महिला पात्र के प्रति पुरुष पात्रों की मानसिकता को दर्शाए, लेकिन शैल्पिक दृष्टि से इसका निर्वाह कुशलतापूर्वक नहीं कर पाया है। मुख्य-पात्र को यह कैसे पता चला कि नवयौवना अपने पिता की ही बाइक पर बैठी जा रही है?

॥11॥ ससुराल/डॉ. पूनम गुप्त
दौरे से वापस आया तो बड़े भाई साहब का फोन मिला,तीन दिन हो गए नीरजा आई हुई है। 
आठ महीने पहले ही नीरजा की शादी हुई थी। नीरजा भाई साहब की इकलौती बेटी है। नाम के अनुरूप ही सुंदर और समझदार। पता नहीं वह ससुराल में क्यों खुश नहीं थी। जब भी उससे फोन पर बात करता, वह रो पड़ती।
भाई साहब के घर गया तो नीरजा मेरे गले लगकर रो पड़ी। वह काफी कमज़ोर लग रही थी। ‘मैने वापस नहीं जाना।’ एक ही रट लगा रखी थी उसने। मैने उसे समझाना चाहा तो बोली, सास बात-बात पर ताने देती रहती है। हर काम में टोकती है। मुझसे नहीं सहा जाता अब।
मैने उसे समझाया कि एक-दूसरे को समझने में वक्त लगता है, धीरे-धीरे सब ठीक हो जाएगा।
वहाँ कुछ नहीँ सुधरेगा, चाचाजी! मैं ही चाहे…वह रो पड़ी।
उसका मन बहलाने के लिए मैं उसे बाहर लॉन में ले गया। टहलते हुए उसके साथ इधर-उधर की बातें करने लगा। तभी नीरजा का ध्यान कुछ मुरझाए हुए पौधों की ओर गया। वह बोली, माली काका! जो पौधे आप परसों रोप कर गये थे, वे तो मुरझाए जा रहे हैं। सूख जाएँगे तो बुरे लगेंगे। इन्हें उखाड़कर फेंक दो।
 “नहीं बिटिया, ये सूखेंगे नहीं। ये नर्सरी में पैदा हुए थे, इन्हें वहाँ से उखाड़कर यहाँ लगाया है। नई जगह है, जड़ें जमाने में थोड़ा समय तो लगेगा।
माली की बात सुन नीरजा किसी सोच में डूब गई। थोड़ी देर बाद ही वह ससुराल जाने की तैयारी करने लगी।-0-
संपर्क : 21-ए, रामबाग, पटियाला-147001 (पंजाब)

टिप्पणी : इस लघुकथा का शीर्षक अगर बेटियाँ हो तो कैसा रहे? यह सलाह है, टिप्पणी नहीं। यद्यपि ससुराल भी ठीक ही है, लेकिन सीमित अर्थ में, क्योंकि ससुराल सिर्फ लड़कियों का नहीं होता, लड़कों का भी होता है। जबकि रोपी सिर्फ बेटियाँ जाती हैं, बेटे नहीं।
कुल मिलाकर यह एक मनोवैज्ञानिक सत्य को पुष्ट करती शिक्षाप्रद और सराहनीय लघुकथा है।

॥12॥ लक्ष्मी-पूजन/ अनन्त शर्मा ‘अनन्त’
वह हर दीपावली की रात को लक्ष्मी की मूर्ति के सामने देर तक पूजा करता, परंतु उसकी आर्थिक हालत बद से बदतर होती गई। वह गरीब से और गरीब होता गया। उसके बीवी-बच्चे त्यौहार के दिन भूखे थे। रात के दस बजे थे। लक्ष्मी के आने के स्वागत में लोगों ने घरों के दरवाजे खुले छोड़ रखे थे।
वह एक घर से दूसरे घर गया और उन घरों की सारी नकदी, जवाहरात इकट्ठे कर लाया। सबसे पहले उन्होंने जी-भर कर खाना खाया। फिर लक्ष्मी-पूजन किया। लक्ष्मी ने इस बार उन पर भरपूर कृपा की थी। घर आई लक्ष्मी को वे खोना नहीं चाहते थे, इसलिए घर के सारे दरवाजे उन्होंने बंद कर दिए। -0-
संपर्क : 1142-ए, सैक्टर 41-बी, चंडीगढ़

टिप्पणी : साधारण रचना। कोई टिप्पणी नहीं।


॥13॥ कर्जमुक्त/ अशोक दर्द
एक वक्त था, सेठ करोड़ीमल अपने बहुत बड़े व्यवसाय के कारण अपने बेटे अनूप को समय नहीं दे पाते थे। अतः बेटे को अच्छी शिक्षा भी मिल जाए और व्यवसाय में व्यवधान भी  उत्पन्न न हो, इसलिए उन्होंने बेटे को शहर के महंगे बोर्डिंग स्कूल में दाखिल करवा दिया था। साल बाद छुट्टियाँ पड़ती तो वह नौकर को भेज कर अनूप को घर बुला लेते थे। बेटा छुट्टियाँ बिताता, स्कूल खुलता तो उसे फिर वहीं छोड़ दिया जाता।
अनूप पढ़-लिख कर बहुत बड़ा व्यवसायी बन गया। सेठ करोड़ी मल बूढ़ा हो गया। बापू का अनूप पर बड़ा कर्ज था। उसे अच्छे स्कूल में जो पढ़ाया-लिखाया था। बापू का सारा कारोबार बेटे अनूप ने खूब बढ़ाया-फैलाया। कारोबार में अति व्यस्तता के कारण अब अनूप के पास भी बूढ़े बाप के लिए समय नहीँ था। वह भी बापू को शहर के बढ़िया वृद्धाश्रम में छोड़ आया। फुर्सत में बापू को घर ले जाने का वायदा कर वापिस अपने व्यवसाय में रम गया। वृद्धाश्रम का मोटा खर्च अदा कर वह अपने को कर्जमुक्त महसूस कर रहा था। -0-
संपर्क : प्रवास कुटीर, गाँव व डाकः बनीखेत, तहसील : डलहौजी, जिला : चम्बा-176303
(हि.प्र.)

टिप्पणी : स्तरीय लघुकथा। कहने को इस वस्तु को अनेक कथाकारों ने अपनी लघुकथा का कथानक पहले भी बनाया है लेकिन अशोक दर्द ने इसको प्रस्तुत करने में जिस धैर्य का परिचय दिया है, वह प्रशंसनीय है। यह लघुकथा बिना किसी नारेबाजी के स्थिति के बयान भर के माध्यम से पाठक को आज के माता-पिता की भौतिक-दौड़ और उसके परिणामों की ओर देखने के लिए हमें विवश करती है और अपने उद्देश्य में सफल रहती है।