Thursday 8 March, 2018

हिंदी लघुकथा और आलोचना के ढोंग - ढठुरे / डॉ.पुरुषोतम दुबे


चित्र ; बलराम अग्रवाल
डॉ॰ पुरुषोत्तम दुबे
हिंदी लघुकथा के तारतम्य में आलोचना के पक्ष को लेकर अपने मन में बड़ी वैचारिक उथल-पुथल का अनुभव कर रहा हूँ। सोचता हूँ, लघुकथा पर आलोचनाएँ तो आ रही हैं, मगर ज्यादातर आलोचनाएँ बेसिर-पैर  वाली दिखाई देती हैं। सोचिए, ऐसी भी आलोचना किस काम की, जो आलोचना के नाम पर आलोचना तो है, बाकी आलोचना में ऐसे तथ्यों की कमी है, जिन पर शोध प्रकट दृष्टि डालकर उन बिन्दुओं की पड़ताल की जा सके, जिनके सहारे से लघुकथा की आलोचना के मूल्य खोजे जा सकें।
मेरे साथ अक्सर यह घटता रहा है कि जब कभी मैं किसी लघुकथाकार की लघुकथाओं पर लिखी गई आलोचना पढ़ता हूं ,और इत्तफाकन उस लघुकथाकार की लघुकथाएँ भी पढता हूँ, तब मुझे तदविषयक की हुई  आलोचना के स्वरूप पर तरस आता है, 'भई, यह आलोचना हुई कि लघुकथाकार से तथाकथित आलोचक द्वारा दोस्ती का
निर्वहन-शर्म-संकोच-डर!
ऐसे में समझ नहीं पड़ता कि लघुकथाकार की लघुकथा बड़ी है कि लघुकथाकार के आगे आलोचक का कद छोटा है? मुखड़ा भाँपकर तिलक लगाने की बात लघुकथा के वुजूद को धक्का पहुँचा रही है । इस आधार पर आलोचक यह समझ ले कि वह आलोचना में पारंगत है तो यह अपने हाथ से अपनी पीठ थपथपाने जैसा होगा!
वर्तमान में लघुकथा लेखन में जिस ढंग की रचनात्मक टूट-फूट देखने को मिल रही है और जिस प्रकार से लघुकथा -लेखन-कार्य बेलगाम होता जा रहा है, इसकी वजह यही है कि लघुकथा के पास निष्ठुर आलोचना का सर्वमान्य पारदर्शी दर्पण नहीं है।
मैं मानता हूँ, किसी बँधे-बँधाए पर चलकर कोई मौलिक सृजन सम्भव नहीं हो सकता; लेकिन इसका आशय यह कदापि नहीं कि रचनात्मकता रसूख तोड़कर कोई रचना की जाय; और रचित-रचना के पक्ष में नया प्रयोग के ऐलान का फतवा जारी कर उस रचना को आलोचकों के प्रहारों से सुरक्षा की मांद में छुपा लिया जाये !
प्रयोगों के नाम पर लघुकथा लेखन का जो गैरजिम्मेदाराना चस्का सामने आ रहा है, उस चस्के की हठधर्मिता लघुकथा लेखन के सही मायने को खारिज करती दिशाहीन दिशा में लघुकथा के मौजूदा अस्तित्व को सुपुर्द-ए-खाक कर देगी ।
तकरीबन तीन हजार से अधिक लघुकथाओं को पढ़ चुकने का अथक माद्दा, लघुकथा विषयक मेरी दिलचस्पी का निर्भीक गवाह है, ताहम भी मैं लघुकथा की आलोचना के सिलसिले में अपना अनुभव थोपना नहीं चाहता हूँ। मगर लघुकथा के एक जागरूक पाठक के नाते लघुकथा के पक्ष में खड़े होकर लघुकथा की मान-प्रतिष्ठा पर बेबाकी से बोल तो सकता हूँ।
वर्तमान में लघुकथा पर चारों ओर से अपने-अपने अनुभवों की भट्टी से पकाकर चर्चाएँ सामने आ रही हैं, गोकि लगने लगा है कि एक गहरा असंतोष लघुकथाओं के तारतम्य में पसरा हुआ है जो लघुकथा के तरण-तारण का सवाल बनकर लघुकथा के प्रति हमदर्दी रखने वालों की छाती पर मूँग दल रहा है । अतएव आज सभी इस बात के लिए आतुर प्रतीत हैं कि 'बस लघुकथा का वुजूद येन-केन-प्रकारेण बचा रहे।
सवाल लघुकथा की आलोचना को मुखर करने बाबत था । लघुकथा के प्रति आलोचना की मुखरता का यह तिलिस्म मात्र 'खुलजा सिम सिम' जैसे मिथकीय उवाच से संभव नहीं हो सकेगा प्रत्युत् लघुकथा के हितग्राहियों को
सलाह-मशविरा के लिए एक जाज़म पर आना होगा । लघुकथा - लेखन समान रूप से हिन्दी और हिंदीतर प्रान्तों से आ रहा है, फलतः लघुकथा और लघुकथा -आलोचना पर बहस-मुबाहिसा का दायरा बढ़ा हुआ है यानी लघुकथा और लघुकथा -आलोचना पर ' टाॅस ' करने सरीखी स्थिति कदापि नहीं है।
अब यह भी मिथ्या बात होगी कि आज जब लघुकथाएँ ढेरों से लिखी जा रही हैं, फिर लघुकथा पर आलोचना का सवाल क्योंकर ?
ऐसे सवाल का जवाब भी यही है कि लघुकथा - लेखन में लघुकथाकारों की आश्चर्यजनक रूप से बढ़ती भीड़ और तादाद में लघुकथा की आमद लघुकथा पर एक जरूरी आलोचना की दरकार की मुन्तजिर है। मैं यह भी नहीं कहता हूं कि लघुकथा पर आलोचना के मापदंड लघुकथा - लेखन प्रतियोगिता पर अंकुश लगाने में अपनी कारगुजारी से लघुकथा की आमद को ही रोक देंगे; प्रत्युत् मेरे कहने का मतलब यह है कि लघुकथा पर  आलोचना के तेवर की ग्राह्यता जितनी बढ़ेगी, लघुकथा का लेखन सौष्ठव सटीक और विश्वसनीय भूमिका में दिखाई देने लगेगा ।
लघुकथा की बेहतरी के लिए एक मशविरा यह भी देना चाहता हूँ कि आने वाले समय में जिसके जो भी लघुकथा - संकलन आएँ, अपने संकलन के प्रस्तोता अपने संकलनों की बतौर भूमिका में अपने चिंतन से पगाए गए अपनी जारी होने वाली लघुकथाओं के तारतम्य में आलोचना के कतिपय बिन्दु पर विचार - प्रेषण अवश्य करें।
गो कि उसका लघुकथा - लेखन उसके लघुकथा लेखन के तई किन-किन बिन्दुओं पर समीक्षकों का ध्यान चाहता है , उसकी समीक्षकों से इस ढंग की आग्रहशीलता ही समीक्षा का जरूरी मापदंड पैदा करने की पहल करेंगी ।मतलब यह है कि लघुकथाकार समझता है कि उसने अपनी लिखी लघुकथा में एक पृथक प्रकार का कथ्य उठाया है ,जो लघुकथा का 'प्लाट' भी कहा जा सकता है,उसके द्वारा अपेक्षित लघुकथा की बिन्दुवार आलोचना बहुत संभव है लघुकथा लेखन विषयक आवश्यक मापदंड का मसौदा तैयार करने में हाजिर मिलेगी ।
साहित्यिक विधाएँ अनेक हैं, बावजूद इसके नानाविध विधाओं की आलोचना का रूप बहुतेरे आलोचनात्मक कथ्यों के मुआमलों में यकसां मिलेगा । बात अलबत्ता पेंचदार है, लेकिन इस मुद्दे पर गहन मनन के बाद एक जगह पर आकर मतैक्य का होना निश्चित सिद्ध होगा ।
                                                         --'शशीपुष्प', 74 जे / ए, स्कीम नंबर 71, इन्दौर / मोबाइल 9329581414

8 comments:

ve aurten said...

लघुकथा पर आलोचना स्वस्थ और सार्थक होनी ही चाहिए। फेसबुक पर आ रही टिप्पणी लघुकथा के लिए घातक ही हो गई है।

Kapil shastri said...

लघुकथाओं व उनकी समीक्षाओं को भी कटघरे में खड़े करने की बेबाक,निडर पहल करता आलेख।दरअसल नवांकुर लघुकथाकार शोधपरक समीक्षाओं से वंचित रहे हैं,ऐसे में जो लेखक हैं वही पाठक भी हैं और सभी मुखड़ा देखकर ही तिलक कर रहे हैं या एक दूसरे की पीठ खुजला रहे हैं।कुछ नवांकुरों में से प्रतिभा छांट कर गहन समीक्षा करने की आवश्यकता है जो अधिकांश समीक्षक नहीं कर रहें हैं।उमेश महदोशी जी जैसे कुछ समीक्षक ही हैं जो अपवाद हैं।लघुकथा विधा के विकास के लिए चिंतित होना तो बहुत आसान हैं,चिंता व्यक्त करने से आसान काम शायद कुछ नहीं होता जैसे प्रेमचंद जी ने गोदान में लिखा था कि "किसान से बदला लेना केला काटने से भी आसान है।"बहरहाल लघुकथा विकास के लिए आलोचना की महती भूमिका समझाने वाला आलेख अच्छा लगा।

Usha Bhadauria said...

रचनाओं पर सार्थक, सटीक व बेबाक आलोचना होनी बहुत ज़रूरी है । इससे लेखन में सुधार संभव है ।

Usha Bhadauria said...

रचनाओं पर सार्थक, सटीक व बेबाक आलोचनाओं से लेखन में सुधार अवश्य होता है ।

कृष्ण मनु said...

बढ़िया आलेख। मेरा मानना है,रचनाकार ही अपनी रचना का पहला समीक्षक होता है। लघुकथा संदर्भ में भी यही बात है। अगर लिखते समय वह लेखक बना रहे और पढ़ते समय आलोचक बन जाए तो उसकी लघुकथा को फिर किसी समीक्षा या आलोचना की जरूरत नहीं होगी

rashmi pranay said...

हम सभी विद्यार्थी हैं और आजीवन सीखनें की प्रक्रिया में रहते हैं .अपनें व्यक्तित्व,कार्यक्षेत्र और चहेती विधा के विकास के लिए एक स्वस्थ आलोचना या समालोचना अत्यंत महत्वपूर्ण भूमिका अदा करती हैं .यह नमक की तरह हैं जिसकी संतुलित मात्रा ही स्वाद बढ़ा सकती हैं,निखार सकती हैं .
मैं निजी तौर पर ' निंदक नियरे राखिये ....' सैकड़ो वर्ष पूर्व लिखे गए इस दोहे को आज भी और आगे भी हमेशा ही प्रासंगिक मानती हूँ . और इस पर अमल करनें का प्रयत्न करती हूँ .

बहुत अच्छा ज्ञानवर्धक लेख आदरणीय डॉ. साहब .

सादर
रश्मि प्रणय वागले
इंदौर .

Sandeep tomar said...

बढिया लेख।

Niraj Sharma said...

बहुत सटीक बात कही आपने। बिना कमियाँ जाने लेखन में सुधार व निखार आना असंभव है।