Sunday 27 July, 2008

जनगाथा जुलाई 2008




जनगाथा का यह जुलाई 08 अंक कतिपय तकनीकी खामियों और इंटरनेट संबंधी मेरी अकुशलताओं के चलते काफी देरी से प्रकाशित हो पा रहा है, क्षमाप्रार्थी हूँ। लघुकथा की रचना-प्रकिया पर इस अंक में प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार भगीरथ का महत्वपूर्ण लेख तथा वरिष्ठ कवि, विचारक व अनुवादक अनिल जनविजय की विचारोत्तेजक टिप्पणी।
—बलराम अग्रवाल

लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया का स्वरूप
भगीरथ
नीति एवं बोध कथाएँ जीवन के उत्कट अनुभव को सीधे-सीधे व्यक्त करने की बजाय उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न विचार को रूपक कथाओं के माध्यम से व्यक्त करती हैं। (जबकि) समकालीन लघुकथाएँ अधिकांशतः अनुभव के बाह्य विस्तार में न जाकर अनुभवात्मक संवेदनाओं की पैनी अभिव्यक्ति करती हैं। अतः इन दो प्रकार की रचनाओं की सृजन-प्रक्रिया भी अलग-अलग है।
स्थिति, मनःस्थिति, वार्तालाप, व्यंग्य, मूड, पात्र आदि संबंधी वे अनुभव जो लघु कलेवर एवं कथारूप में व्यक्त हो सकने की संभावना रखते हैं, साथ ही, रचना की संपूर्णता का आभास देते हों, उन्हें लघुकथाकार अपनी सृजनशील कल्पना, विचारधारा, अन्तर्दृष्टि एवं जीवनानुभव की व्यापकता से लघुकथा में अभिव्यक्ति देता है।
जो लघुकथाएँ विचार के स्तर पर रूपायित होती हैं, उनके लिए कथाकार घटना, कथानक, रूपक या फेंटेसी की खोज करता है। प्रस्तुत खोज में अनुभव की व्यापकता के साथ ही सृजनशील कल्पना की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह खोज विधागत सीमाओं के भीतर ही होती है।
जब रचना एक तरह से मस्तिष्क में मेच्योर हो जाती है और संवेदनाओं के आवेग जब कथाकार के मानस को झकझोरने लगते हैं, तब रचना के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इस प्रक्रिया के दौरान रचना परिवर्तित होती है। भाषा-शिल्प पर बार-बार मेहनत से भी रचना में बदलाव आता है। यह बदलाव निरंतर रचना के रूप को निखारता है। यह भी संभव है कि मूल कथा ही परिवर्तित हो जाये।
लघुकथा संयमी विधा है। इसके लिए कथाकार को अनावश्यक छपे शब्दों का मोह छोड.ना पड.ता है। लघुता एवं अभिव्यक्ति के पैनेपन को प्राप्त करने के लिए शब्द, प्रतीक, बिंब, लोकोक्ति एवं मुहावरों ज्युडीशियस सलेक्शन(Judicious Selection) करता है और उसे कोहरेन्ट(Coherent) रूप में प्रस्तुत करता है। लघुकथा में कहीं बिखराव का एहसास होते ही लघुकथाकार एक बार फिर कलम उठाता है। अक्सर लघुकथा को आरम्भ करने में काफी कठिनाई होती है। आरंभ बार-बार बदल सकता है क्योंकि कुछ ही वाक्यों में लघुकथा को एक तनावपूर्ण चरमस्थिति तक पहुँचाना होता है। चरमस्थिति पर रचना का फैलाव होता है और वहीं अप्रत्याशित ही, रचना एक झटके से अन्त तक पहुँच जाती है। इससे रचनाकार कथा को प्रभावशाली और संप्रेषणीय बना देता है।
अनेक लघुकथाओं में अन्त अधिक चिन्तन और मेहनत माँगता है, क्योंकि पूरी रचना का अर्थ अन्त में ही स्पष्ट होता है। ऐसा प्रमुखतः धारदार व्यंग्य(हास्य-व्यंग्य नहीं) एवं वार्तालाप शैली में लिखी गई लघुकथाओं में होता है। संवादों को छोटा, चुस्त, स्पष्ट एवं पैना करने में कथाकार की सृजनशक्ति और मानसिक श्रम विशेष महत्व रखते हैं।

अनुभवजगत का नंगा साक्षात्कार
अनिल जनविजय
आज साहित्य में लघुकथा की विधागत स्वतन्त्रता को लेकर जो बहस चल रही है, वह बेमानी है। लघुकथा के अस्तित्व पर कोई भी प्रश्नचिह्न लगाना अपनी नासमझी का परिचय देना है। आज कहानी और कविता से भी ज्यादा संख्या में लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं और छपकर सामने आ रही हैं। ये लघुकथाएँ जीवन के हर पहलू को छूती हैं। आज की जिन्दगी का छोटे से छोटा हर क्षण लघुकथाओं ने पकडा है। सबसे बडी बात तो यह है कि लघुकथा कविता और कहानी दोनों को अपने में समेटकर उभरी है। इसमें मनुष्य की इच्छाओं, स्वप्नों और उनकी यातनाओं का अन्तर्सम्बन्ध भी है और समकालीन बोध के प्रति नैतिक प्रतिबद्धता भी। लघुकथाओं ने प्रखर जनवादी चेतना को अपने सर्जनात्मक संघर्ष के द्वारा एक गम्भीर कलात्मक आधार प्रदान किया है। इनमें मनुष्य की यातनाओं के व्यापक संसार के साथ-साथ उसके प्रतिरोध की बात भी है और इस प्रतिरोध में आज के आदमी का आक्रोश भी झलकता है।
लघुकथा मनुष्य के अनुभव और अनुभव के प्रति सोचने की प्रक्रिया से उपजी है। इनके लेखक स्थितियों और घटनाओं पर पहले सोचते हैं। इसलिए, इनमें एक ठोस और समझ में आने वाला संसार होता है जो पाठक को अनुभव-जगत का नंगा साक्षात्कार कराता है। इस तरह लघुकथा कम्प्रेशन, इन्सपायरेशन, सिंसियरिटी, सेंसेबिलिटी, आब्जेक्टिविटी और इन्वाल्वमेंट की संरचना है, जिसे पढ़ने के बाद पाठक स्थितियों पर विचार करने को मजबूर हो जाता है। यही, लघुकथा की अपनी विशेषता है।


जगमगाहट
रूप देवगुण
वह दो बार नौकरी छोड़ चुकी थी। कारण एक ही था—बास की वासनात्मक दृष्टि! लेकिन नौकरी करना उसकी मजबूरी थी। घर की आर्थिक दशा शोचनीय थी। आखिर उसने एक दूसरे दफ्तर में नौकरी कर ली।
पहले दिन ही उसे उसके बास ने अपने केबिन में काफी देर तक बिठाए रखा और इधर-उधर की बातें करता रहा। अब की बार उसने सोच लिया था—वह नौकरी नहीं छोड़ेगी, बल्कि मुकाबला करेगी। कुछ दिन दफ्तर में सब ठीक-ठाक चलता रहा, लेकिन एक दिन उसके बास ने उसे अकेले में उस कमरे में आने के लिए कहा जिसमें पुरानी फाइलें पड़ी थीं। उन्हें उन फाइलों की चैकिंग करनी थी। उसे साफ लग रहा था कि आज उसके साथ कुछ गड़बड़ होगी। उस दिन बास सजधज कर आया था।
एक बार तो उसके मन में आया कि वह कह दे कि मैं नहीं जा सकती, किन्तु नौकरी का खयाल रखते हुए वह इंकार न कर सकी। कुछ देर में ही वह तीन कमरे पार करके चौथे कमरे में थी। वह और बास फाइलों कि चैकिंग करने लगे। उसे लगा जैसे उसका बास फाइलों की आड़ में उसे घूरे जा रहा है। उसने सोच लिया था कि ज्यों ही वह उसे छुएगा, वह शोर मचा देगी। दस पन्द्रह मिनट हो गये, लेकिन बास की ओर से कोई हरकत न हुई।
अचानक बिजली गुल हो गयी। वह बास की हरकत हो सकती है—यह सोचते हि वह काँपने लगी। लेकिन तभी उसने सुना…बास हँसते-हँसते कह रहा था, “देखो, तुम्हें अँधेरा अच्छ नहीं लगता होगा। तुम्हारी भाभी को भी अच्छा नहीं लगता। जाओ, तुम बाहर चली जाओ।”
अप्रत्याशित बात को सुनकर वह हैरान हो गयी। बास की पत्नी मेरी भाभी यानी मैं बास की बहन!
सहसा उसे लगा, जैसे कमरे में हजार हजार पावर के कई बल्ब जगमगा उठे हैं।

बहू का सवाल
बलराम
रम्मू काका काफी देर से घर लौटे तो काकी ने जरा तेज आवाज में पूछा,“कहाँ चलेगे
रहब? तुमका घर केरि तनकब चिन्ता-फिकिर नाइ रहति हय।” तो कोट की जेब से हाथ निकालते हुए रम्मू काका ने विलम्ब का कारण बताया,“जरा जोतिसी जी के घर चलेगे रहन। बहू के बारे मा पूछय का रहस।”
रम्मू काका का जवाब सुनकर काकी का चेहरा खिल उठा—सूरज निकल आने पर खिल गये सूरजमुखी के फूल की तरह्। तब आशा-भरे स्वर में काकी ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की,“का बताओ हइनि?”
चारपाई पर बैठते हुए रम्मू काका ने कंपुआइन भाभी को भी अपने पास बुला लिया और बड़े धीरज से समझाते हुए उन्हें बताया, “शादी के आठ साल लग तुम्हरी कोख पर सनीचर देउता क्यार असरु रहो। जोतिसी जी बतावत रहयं। हवन-पूजन कराय कय अब सनीचर देउता का सांत करि दायहयं। तुम्हयं तब आठ संतानन क्यार जोग हय। अगले मंगल का हवन-पूजन होई। हम जोतिसी जी ते कहि आए हनि।” रम्मू काका एक ही साँस में सारी बात कह गये।
कंपुआइन भाभी और भैया चार दिन की छुट्टी पर कानपुर से गाँव आये थे और सोमवार को उन्हें कानपूर जाना था।
रम्मू काका की बात काटते हुए कंपुआइन भाभी ने कहा, “हमने बड़े-बड़े डाक्टरों से चेक-अप करवाया है और मैं कभी भी माँ नहीं बन सकूँगी।”
कंपुआइन भाभी का जवाब सुनकर रम्मू काका सकते में आ गये और अपेक्षाकृत तेज आवाज में बोले, “तब फिर हम अगले साल बबुआ केरि दुसरि सादी करि देव्। अबहिन ओखेरि उमरहय का हय!”
उनकी बात सुनते ही कंपुआइन भाभी को क्रोध आ गया तो उन्होंने बात उगल दी,“कमी मेरी कोख में नहीं, आपके बबुआ के शरीर में है। मैं तो माँ बन सकती हूँ, पर वे बाप नहीं बन सकते। और अब, यह जानने के बाद आप क्या मुझे शादी करने की अनुमति दे सकते हैं?”


कंधा
विपिन जैन
भीड़-भरे डिब्बे में हमने नजरें दौड़ाईं। बैठने की कोई गुंजाइश कहीं नहीं थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि पंजाब की ओर जाने वाली गाड़ी में इतनी भीड़! आतंकवाद तो अभी भी उत्कर्ष पर था। खैर, तराश रखी दाढ़ीवाले एक नौजवान से थोड़ा सरकने का अनुरोध करके मैंने अपनी पत्नी सुधा के बैठने लायक थोड़ी जगह बनवाई और उसे बैठा दिया।
गाड़ी आगे जाने पर वह युवक उठकर ‘टायलेट’ की ओर चला गया। इस बीच पत्नी ने पास बैठाकर मेरे कान में फुसफुसाया,“कहीं यह वही तो नहीं?”
मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
“उसका चेहरा बड़ा डरावना-सा है। अभी लौटते ही धूँ-धूँ न कर दे! कहीं बम छिपाकर न भाग गया हो!!” उसने आगे कहा और अपनी चप्पलें झाँकने के बहाने सीट के नीचे निगाह भी डाल ली।
धीमी आवाज और कठोर मुख-मुद्रा से मैंने उसे डराया,“बेकार की बातें मत करो, चुप बैठी रहो।”
मैं उसके मूर्खतापूर्ण डर के बारे में सोचने लगा: पहले, जब मैं इसको शादी अटैंड करने के लिए मना कर रहा था, तब यह मुझको दब्बू बता रही थी। कह रही थी कि अखबार में आतंक की खबरें पढ़-पढ़कर यहीं बैठे-बैठे भयभीत होते रहना…अरे, घर से निकलोगे तो डर भाग जायेगा…जो होना होगा, हो जायेगा।
“अज्ञानता के अभय से जागरूकता का भय अच्छा रहता है।“ मैंने इससे कहा था।
ट्रेन स्टेशन-दर-स्टेशन दौड़ाती जारही थी। दाढ़ीवाला युवक इस दौरान वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गया था। उसके आ जाने पर सामने की सीटों पर बैठे यात्रियों ने मुझे अपने साथ एडजस्ट कर लिया।
आधा-पौना घंटा सफर निकला होगा कि मैं उनींदा-सा हो आया। तभी मैंने सुधा की ओर
निगाह डाली। वह बेसुध-सी उस युवक के कंधे पर सिर टिकाए नींद में डूब चुकी थी; और वह बेचारा परेशानी के बावजूद अपना कंधा स्थिर रखे हुए था।

मूल्यों के लिए
अशोक लव
—पेट भरा हो, आवश्यकता से अधिक धन हो, पंच-तारा होटलों में बिताने के लिए शामें हों तो गरीब और गरीबी ढोंग नजर आते हैं। समाजवाद लाने और वर्ग-भेद मिटाने वाले शत्रु नजर आते हैं।-विश्वेशर ने कहा।
—ऐसी बातें और कौन करता है़। तुम्हीं बताओ, तुम्हें क्या कमी है? डेढ हजार कमाते हो। अच्छी भली नौकरी करते हो। फिर दूसरों को कोसते रहना क्या उचित है?–राजीव ने तर्क देते हुए कहा।
—डेढ. हजार कमाता हूँ—बस डेढ. हजार। छ्ह तो मकान का भाडा देता हूँ। दो सौ का दूध आता है। तीन सौ का राशन। डेढ सौ के करीब की सब्जी, कपडे.-लत्ते, रिश्तेदारी में सौ मरना-जीना, शादी-ब्याह। बच्चों की फीस। कभी पत्नी बीमार तो कभी बच्चे। मेरी चाय-सिगरेट मत गिन। बता क्या बचा? और तू । क्या किया तूने? और मजे कर रहा है।
—तू जब भी आएगा, बस घर-गृहस्थी का रोना-धोना लेकर बैठ जाएगा। सोचा था, काफ़ी पिलाकर तेरी थकावट दूर कर दूँगा। पर तू फिर वही भाषणबाजी पर उतर आया है।–राजीव ने झुँझलाते हुए कहा।
—मैं जिस जिन्दगी को जी रहा हूँ, तू उसे भाषणबाजी ही कहेगा। रो-पीटकर थर्ड-डिवीजन बी.ए. की और पिताजी की गद्दी पर जा बैठा–मैनेजिंग डायरेक्टर राजेश जोशी। और मैं। तेरे साथ बी.ए. में था। फर्स्ट डिवीजन लाया था। क्या बना। फाइलौं में दुबका क्लर्क। चार दिन मेरे साथ रह ले। तू भी मेरी तरह ही बोलेगा। बोल, रहेगा मेरे साथ?–विश्वेश्वर ने चुनौती-भरे स्वर में कहा।
—देख, तू मेरा दोस्त है। इसलिए सब चुपचाप सुन रहा हूँ। तुझे कहा था, मेरी कम्पनी में आ जा। पर, तू तो आदर्शवादी रहेगा। सिद्धान्तवादी रहेगा। तो फिर भुगत। जिसकी किस्मत में झुग्गी-झोंपडी हों, वह वहीं रहेगा और उम्रभर कुढ.ता रहेगा।–गुस्से में भरा राजीव काफी का अंतिम घूँट तेजी से उतार, मारुति में जा बैठा।
विश्वेश्वर ने बीमार पुत्र की दवाई के लिए रखे दस रुपए के नोट को काँपते हाथ से बैरे की ट्रे में रख दिया।
वेतन मिलने में अभी चार दिन बाकी थे।

हमारे आगे हिन्दुस्तान
डा. सतीश दुबे
शाम के उस चिपचिपे वातावरण में वह अपने मित्र के साथ तफरी करने के इरादे से सड़क नाप रहा था।
उनके आगे एक दम्पति चले जा रहे थे। पुरुष ने खादी का कुरता-पाजामा तथा पैरों में मोटे चप्पल डाल रखे थे, तथा स्त्री एक सामान्य भारतीय महिला लग रही थी। उसकी निगाह जैसे ही दम्पति की ओर गई, उसने कुछ अनुभव किया तथा मित्र से कहा—देखो, हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है।
—क्या मतलब। क्या ये एम.एल.ए., भूतपूर्व मन्त्री, पूँजीपति या नौकरशाह में से कोई हैं... ?
—ऊँ-हूँ...तुमने जो नाम गिनवाये हैं, उनमें से यदि कोई ऐसे घूमे तो उनकी नाक नहीं कट जायेगी...।
—फिर तुमने कैसे कह दिया कि हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है?–मित्र ने तर्क की मुद्रा में आँखें घुमायीं।
—यह तो वो ही बतायेंगे। आओ, मेरे साथ।
वे दोनों कुछ हटकर उनके पीछे-पीछे चलने लगे। उन्होंने सुना, पत्नी पति से कह रही थीः
दोनों बच्चों को कपडे. तो सिलवा ही दो। बाहर जाते हैं तो अच्छा नहीं लगता। कुछ भी खाते हैं तो कोई नहीं देखता, पर कुछ भी पहनते हैं तो सब देखते हैं। इज्जत तो बनाके रखना जरूरी है ना...।
उन्होंने देखा, पत्नी मंद-मंद मुस्करा रहे पति की ओर ताकने लगी है। पति की उस मुस्कराहट में सचमुच हिन्दुस्तान नजर आ रहा था।

प्यासी बुढ़िया
शंकर पुणतांबेकर
—माई, पानी दोगी पीने के लिए।

—कहीं और पी ले, मुझे दफ़्तर की जल्दी है।
—तू दरवाजे को ताला मत लगा। मुझ बूढी पर रहम कर। मैं तेरी दुआ मनाती हूँ...तुझे तेरे दफ्तर में तेरा रूप देखकर बढोत्तरी मिले...।
औरत ने उसे झिड.ककर कहा—तू मेरी योग्यता का अपमान कर रही है?
—बडी अभिमानिनी है तू, तेरे नाम लाटरी खुले...मुझे पानी पिला दे।
—लाटरी कैसे खुलेगी। मैं आदमी को निष्क्रिय और भाग्यवादी बना देने वाली सरकार की जुआगिरी का टिकट कभी नहीं खरीदती।
—मुझे पानी दे माई, तेरा पति विद्वान न होकर भी विद्वान कहलाए...और किसी विश्वविद्यालय का वाइस चांसलर बने।
—चल जा, मेरे पति को मूर्ख राजनीतिग्यों का पिछलग्गू बनाना चाहती है क्या?
—तेरे पूत खोटे काम करें, लोगों पर भारी अत्याचार करें, औरतों के साथ नंगे नाचें, तब भी उनका बाल बाँका न हो। बस, तू पानी पिला दे।
—लगता है, बडी दुनिया देखी है तूने। लेकिन हम लोग जंगली नहीं हैं। सभ्य हैं और हमें अपनी इज्जत प्यारी है। जा, कहीं और जाकर पानी पी।
—तेरा पति बिना संसद के ही प्रधानमंत्री बने। सोच, इससे भी बडी दुआ हो सकती है। चल, दरवाजा खोल और मुझे पानी पिला।
—देती हूँ मैं तुझे पानी...पर मेरे पति को दोगला, विश्वासघाती बनने का शाप मत दे।
बुढिया पानी पीकर चली गयी तो औरत के मुँह से निकल पड़ा—यह बुढिया, बुढिया नहीं, हमारी जर्जर व्यवस्था है जो सस्ती दुआएँ फेंककर हमारा पानी पी रही है...नहीं, पी नहीं रही है बल्कि...हमारा पानी सोख रही है।

कैरियर
शकुन्तला किरण
—सर, आपकी पुस्तकें।
—बैठो। पेपर्स कैसे हुए?
—जी, बहुत अच्छे।
—और नीता, तुम्हारे?
—जी सर, यूँ ही...तीसरा तो बिल्कुल बिगड़ गया।
खैर छोडो, नीता, तुम्हें तो हर चीज का पता है। जरा चाय बना लाओ। और अंशु, सामने वाला बंडल खोलकर जरा नंबरों की टोटलिंग करवा दो। आज ही भेजना है। फिर, बाद में...।

टोटलिंग करते-करते अंशु ने अचानक सिर उठाया तो देखा—सर की नजरें उस पर चिपकी हुई हैं।
—अंशु, तुम साडी मत पहना करो। बैल-बाटम शर्ट में ज्यादा जँचती हो।
—जी सर...।–वह काँप उठी।
—तुम घबरा क्यों रही हो?–सर ने एक चपत थपकी, बिल्कुल करीब आकर।
—नहीं तो।...सर, याद नहीं रहा, मम्मी अस्पताल गयी हैं।...खाना बनाना है घर पर।
—तो चाय पीकर चली जाना।–सर व्यंग्य से मुकराये।
—नहीं सर, फिर कभी।
और वह तेजी से बाहर आ गई। चाय बनाती हुई नीता ने कहा—मुझे एक जरूरी काम याद आ गया है। उठो, घर चलो।
—पर, पर...मुझे तो ऐसी कोई जल्दी नहीं है।...फिर, कापियाँ नहीं जँचवाईं तो सर नाराज हो जायेंगे...। अंशु, रुक ही जाओ तो अच्छा है।
—तुम्हें जाना है तो जाओ, इसे क्यों घसीट रही हो?–अचानक, परदे को चीरती, सर की इस तूफानी डाँट से अंशु चौंक पड़ी और अकेली ही लौट पड़ी।

अब, जब रिजल्ट आया, उसका सारा करियर बिगड़ चुका था और नीता का बन गया था।
वास्तव में, नीता उससे अधिक समझदार थी।

3 comments:

सुभाष नीरव said...

बहुत सुन्दर बन पड़ा है "जनगाथा" का यह अंक। इसी प्रकार लगे रहो, शुरूआती दिक्कतें कभी स्थायी नहीं होतीं। बधाई !

शैलेश भारतवासी said...

बलराम जी,

अच्छा प्रयास है। कुछ साजो-सजावट पर भी ध्यान दें। मदद ही ज़रूरत हो तो संपर्क करें।

हिन्द-युग्म

Ashk said...

balram bhai
apka blog mil hee gaya. meri laghukatha "mulyon ke liye " chhapne ke liye dhanyavaad!
mera blog dekhen

http://ashoklavmohayal.blogspot.com

abhee blogs kee abc seekh raha hoon.
*ashok_lav1@yahoo.co.in