Sunday, 17 September 2023

लघुकथा को लेकर कुछ बातें / डॉ. सुरेश वशिष्ठ

डॉ. सुरेश वशिष्ठ वरिष्ठ साहित्यकार हैं। कहानी, लघु-कहानी, लघुकथा, नाटक, नुक्कड़ नाटक, एकांकी, आलोचना आदि साहित्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है। गत लगभग एक सप्ताह से मधुमेह के कारण अस्पताल में हैं। आज उनसे बहुत-सी बातें हुईं। स्वस्थ हो जाने के बाद मैंने उन बातों को लिख भेजने का अनुरोध किया तो उन्होंने आज इस टिप्पणी के साथ यह लेख भेज दिया कि यह अभी फाइनल नहीं है। बहरहाल, उनकी अनुमति के बिना मैं इसी रूप में ‘जनगाथा’  और लघुकथा-साहित्य के पाठकों के समक्ष इसे रख रहा हूँ।

डॉ. सुरेश वशिष्ठ
लघुकथा में कथा के अंश का रहना अनिवार्य है। सहज और स्वाभाविक रूप से कथा आगे बढ़े और रोचक परिवेश बनाती हुई कोई सीख देती जाए, यह जरुरी है। सामान्य रूप से लघुकथा में विचार प्रभावी रहता है। विचार और कथा दोनों का आभास पाठक को होता रहे, तभी उसकी सार्थकता है। गोल-गोल घुमाकर वार्तालाप को रख देना ही लघुकथा नहीं। लेखक व्यंग्य छोड़कर रह जाता है, वह भी ठीक नहीं। महसूस हो कि वह छोटी, रोचक और व्यंग्य रचना के साथ बुद्धि पर कटाक्ष करती है। उसमें निहित विचार चोट दे रहा है। लघुकथा का यह ढंग पाठक को परिवेश बदलने के लिए बाध्य करता है। उसे जागने, उठने के लिए विवश करता है। कथ्य में जो कहा गया, वैसा तो हुआ है और उसे वैसा नहीं होना चाहिए था। अब इसे बदलने के लिए आवाज दी जानी चाहिए। यह यथार्थ का सत्य-रूप है, इसे पढ़ने पर ह्रदय मचल उठा है। यही लघुकथा का सार्थक पहलू है।

        आज लघुकथा अपने जिस रूप में हमारे सामने है,उसने  यहाँ तक आने में अनेक करवटें बदली हैं। उसके कथ्य-रूप की चर्चाएँ अस्सी के दशक में शुरू हुई। उन दिनों, आम इंसान का जीना दूभर हो रहा था। भारत ही नहीं, पूरे विश्व में अराजकता का आलम था। आदमी का अस्तित्व खंडित हो रहा था। लोगों में अपने हक के लिए बेसब्री थी। साहित्य पर विसंगत दृष्टि प्रभावी थी। नाटक, कहानी और अन्य विधाओं में परिवर्तन लाजमी हो चला था। नाटक या कहानी के माध्यम से आदमी का जुझारू स्वरूप सामने आने लगा था। डॉयलॉग मुखर हो रहे थे। उसी परिवेश से लघुकथा बाहर आई।

         इमरजेंसी से पूर्व युद्ध के गौरिल्ला सैनिकों की तरह साहित्य में भी ऐसे पात्र खुलकर बोलने लगे थे। कहानी अपने छोटे रूप में यथार्थ को उकेरने लगी थी। पत्र-पत्रिकाओं में आपसी संबंध, मुखर विरोध या छुपा हुआ परिवेश सधे हुए डॉयलॉग के साथ उलीचा जाने लगा था। मंटो, खलिल जिब्रान और ब्रेख्त की धारदार लघु कहानियाँ व्यक्ति मन को प्रभावित करने लगी थी। अंतर्मन और बुद्धि ने करवट बदली और लेखन की दिशा परिवर्तित हुई। नुक्कड़ नाटक और लघुकथा उसी दौरान की देन है।

          उन दिनों, फैक्ट्री के गेटों पर, मलिन बस्तियों में, नगर-गाँव के चौराहों पर धड़ल्ले से नुक्कड़ नाटक खेले जा रहे थे। नाटक में दृश्य को थामकर जो मोड़ लिया जाता और विसंगति को जिस कदर प्रस्तुत किया जाता, निस्संदेह वह चौकाने वाला था। झकझोर देने वाला था। उसी तरह पत्र-पत्रिकाओं में लघु कहानी का जो ढंग विकसित हो रहा था, आगे चलकर उसी ढंग ने लघुकथा को जन्म दिया। अर्थात नुक्कड़ नाटक हो या लघुकथा, दोनों का जन्म एक ही गर्भ से हुआ और वह गर्भ था-- चेतना की नई दृष्टि। यथार्थ परिवेश और रचनात्मक संघ-जाग्रति।

           यह शायद 1984 के आसपास का समय रहा होगा। लेखन में जो रचनात्मक बदलाव हो रहा था, पत्र-पत्रिकाओं ने इसे सहेजकर प्रकाशित करना शुरू किया। उन्हीं दिनों, जानी-मानी पत्रिका 'सारिका' ने भी लघुकथा पर एक विशेषांक निकाला। सारिका के उस अंक में मेरी भी एक लघुकथा 'अनोखा मिलन' जिसे मैंने बाद के दिनों में 'काली छाया' के नाम से पुस्तक में समाहित किया, छपी थी। उसी दौर में असगर वजाहत के 'संवाद' और 'रूहों' के माध्यम से उघाड़े गए सच से पाठक का सामना हुआ। वह लेखन की नई तकनीक और तीखे सवालों से रू-ब-रू हुआ। लिखने का चलन बढा और इजाद के इस रूप में इजाफा होने लगा। लघुकथा को लेकर चर्चाएं तीव्र होने लगीं। असंख्य रचनाकार एक मंच पर एकत्रित होने लगे और लघुकथा के नये आयाम खुलते चले गए।लघुकथा को लेकर भ्रम की स्थिति भी है। लोग उसे परिभाषित भी करने लगे हैं। जिक्र हुआ तो समझ भी विकसित हुई और लघुकथा के प्रति सुदृढ़ विश्वास भी बना। इस विधा के प्रति मेरा दृष्टिकोण सीखने की तरफ ज्यादा गया। इसके तीक्ष्ण प्रहार ने मुझे सहज आकर्षित किया। उसकी गुदगुदी और चुभन सच को बेपर्दा करती है। मैंने असंख्य लघुकथाओं को पढ़ा है। असगर वजाहत के संपर्क में रहने से इसके पक्ष को जाना है। टीम वर्क में डॉयलॉग लिखते समय इसके प्रहार पर नजरें गई हैं। उसके बाद ही लघुकथा लिखने का सिलसिला शुरू हुआ है।

       रंगमंच से हमेशा मेरा जुड़ाव रहा है। ब्रटोल्ट ब्रेख्त पर काम करने के दौरान, ब्रेख्त के रंगकर्म और उनकी लघुकथाओं के तीखे सवालों और कुलबुलाते यथार्थ को जाना है। लेखक उतनी जल्दी नहीं लिख सकता, जितनी जल्दी सरकारें बदल जाती हैं... और सरकारें बदलने का यह सिलसिला बहुत पुराना है। इसी ढंग पर चोट करने का काम लघुकथा करती आई है। मंटो ने जिस मंजर पर कटाक्ष किया, वह मंजर किसने इजाद किया, सहज समझा जा सकता है। अपने समय के सच को कहने और उसके पक्ष में खड़ा रहने का काम लघुकथा का है। यही कारण है कि यह विधा दिनों-दिन अपने क्लेवर को सुदृड़ करती जा रही है।

मैंने अब तक एक सौ पचास से ऊपर लघुकथाएँ लिखी हैं। संवाद शैली में भी और पत्रशैली में भी। रूहों के माध्यम से यथार्थ को अनावृत्त भी किया है।

मोबाइल 96544 04416

3 comments:

Anonymous said...

लघुकथा को गहराई से समझने के लिए डाॅ. सुरेश वशिष्ठ के यह लघु उद्गार यथेष्ट है।

रतन चंद 'रत्नेश' said...

लघुकथा विधा को गहराई से समझने के लिए डाॅ. सुरेश वशिष्ठ का यह लघु उद्गार यथेष्ट है।

Vibha Rashmi said...

डॉक्टर सुरेश वशिष्ठ " लघुकथा चिंतन " करते हुए उनके उद्गार , लघुकथा विधा को समझने की गंभीरता प्रदान करते हैं ।