बचपन में कहानी, उपन्यास पढ़ने का बहुत शौक था। तभी मेरे मन में कहानीकार बनने की इच्छा जाग्रत हुई थी। मैंने 1980 यानी उन्नीस वर्ष की उम्र में एक कहानी लिखी थी, जिसे इंदौर के एक प्रतिष्ठित समाचार पत्र में प्रकाशनार्थ भेजी थी। जब एक महीने बाद भी कहानी प्रकाशित नहीं हुई, तब मैं एक दिन समाचार पत्र के दफ्तर जा पहुँचा और साहित्य संपादक से कहानी के प्रकाशन के बारे में पूछा। तब उन्होंने मुझसे कहा, 'बेटा! पहले तुम पंद्रह सौ कहानी पढ़ो, फिर लिखना।' मैं उनका जवाब सुनकर, मायूस होकर लौट आया और जब यह बात मैंने अपने एक मित्र को बताई, तो उसने मुझे सुझाव दिया कि तुम पहले बच्चों के लिए छोटी-छोटी कहानियां लिखो, फिर बड़ो के लिए लिखना। मित्र के पर मैंने एक हास्य कहानी लिखी जो दिल्ली से प्रकाशित होने वाली बाल पत्रिका 'लोटपोट' में वर्ष 1980 में ही प्रकाशित हुई थी। इसके बाद मैं बाल कहानियों के साथ-साथ ही बाल कविताएं भी लिखने लगा।
लघुकथा लिखने की प्रेरणा मुझे जिन दो लघुकथाओं से मिली थी, उसमें से एक थी 'नपुंसक' जो सारिका • पत्रिका में प्रकाशित हुई थी और दूसरी लघुकथा थी स्व. रामनारायण उपाध्याय जी की 'फूट के बीज' जो नईदुनिया में प्रकाशित हुई थी। 1984 से मैंने लघुकथा लेखन की शुरुआत की थी।
आज के पाठक लघुकथा केवल इसलिए नहीं पढ़ते हैं कि वह आकार में छोटी होती है, वरन इसलिए भी पढ़ते हैं कि उनकी सुप्त चेतना को एकदम जाग्रत कर देती है। इस संदर्भ में वरिष्ठ लघुकथाकार श्री संतोष सुपेकर जी का यह कथन बहुत महत्वपूर्ण है कि 'सुप्त समाज के लिए इंजेक्शन की सुई है लघुकथा, जिसकी थोड़ी सी दवा विशाल स्तर पर जागृति फैला सकती है।'
लघुकथा आज के समय की सबसे लोकप्रिय विधा है। लघुकथा समाज में फैली विसंगतियों, संवेदनाओं से पाठकों को रूबरू करवाती है। मेरा मानना है कि एक सार्थक लघुकथा वह होती है, जो अनुभव, संवेदना के साथ रची जाती है और पाठकों के दिलो-दिमाग को झकझोर कर रख देती है।
वैसे तो मैंने कविताएं, गजलें, व्यंग्य, बाल कहानियां, संस्मरण, समीक्षाएं भी लिखीं हैं और कुछ व्यंग्य चित्र भी बनाये हैं, लेकिन लघुकथा सृजन से जितनी संतुष्टि मुझे मिलती है, उतनी इन विधाओं से नहीं। क्योंकि लघुकथा के माध्यम से मैं जीवन के यथार्थ को बड़ी सहजता सरलता से व्यक्त कर पाता हूं। लघुकथा अभिव्यक्ति का सबसे सशक्त माध्यम है। इसके द्वारा कम शब्दों में बड़ा संदेश दिया जाता है। लघुकथा 'देखन में छोटे लगें, घाव करैं गंभीर' बिहारी के इस दोहे को चरितार्थ करती है।
क्लिष्ट भाषा के बजाय मैं सरल सहज भाषा में लिखता हूं, ताकि आम पाठकों को शब्दकोश में या गूगल पर क्लिष्ट शब्द का अर्थ ढूंढना न पड़े और वे बड़ी आसानी से समझ जायें।
आज काफी संख्या में रोजाना लघुकथाएं लिखीं जा रही हैं, लेकिन उन्हीं लघुकथाओं/लघुकथाकारों को पहचान मिलती है, जिनके कथानक में विविधता होती है, नवीनता होती है, जिसे पढ़कर एक-दो दिन नहीं, वर्षों तक पाठकों के जहन में घूमती रहती है। लघुकथा में संवेदना का होना बहुत जरूरी है। इस संबंध में इंदौर के वरिष्ठ लघुकथाकार श्री सतीश राठी जी ने वर्ष 2018 में हुए क्षितिज साहित्य मंच के अखिल भारतीय लघुकथा सम्मेलन में 'सृजन' विषय पर कहा था कि 'पाठक की आंख का आंसू बने, वही लघुकथा की गुणवत्ता और लोकप्रियता का साक्ष्य है।'
कुछ लघुकथाएं सुधी पाठकों के लिए प्रस्तुत हैं :
टिप
वे महीने में तीन-चार बार परिवार सहित शहर की एक होटल में खाना खाने जाया करते थे। वेटर को टिप में कभी सौ रुपये, तो कभी और ज्यादा देते थे। एक बार पत्नी ने वेटर के जाते ही उनसे पूछा- आप वेटर को पाँच-दस रुपये टिप देने के बजाय, सौ या सौ से ज्यादा रुपये क्यों देतें हैं?'
'इन बेचारों को तनख्वाह बहुत कम मिलती है।' उन्होंने जवाब दिया।
‘आपको कैसे पता कि इनको तनख्वाह कम मिलती है?'
'क्योंकि बेरोजगारी के दिनों में मैंने भी कुछ महीने वेटर का काम किया था।'
बोहनी
एक गरीब-से दिखने वाले वृद्ध से जनरल कोच में
एक पुलिस वाले ने पूछा- 'टिकट दिखाओ।'
'नहीं है साहब...'
'तो चलो थाने...' इतना कहकर पुलिस वाले ने उस वृद्ध की बाँह पकड़ी और कोच के एक कोने में ले गया, जहां पर कोई नहीं था। फिर बांह छोड़ते हुए धीमी आवाज में बोला--'लाओ दो सौ रुपये निकालो, नहीं तो थाने चलना पड़ेगा।'
'साब... दो सौ रुपये नहीं है।'
"ठीक है... सौ रुपये निकालो।'
'साब... सौ रुपये भी नहीं है।'
'अबे कुछ तो होगा? वही दे दे।' पुलिस वाले ने खीझकर कहा।
बुजुर्ग ने अपने हाथ में पकड़ी छड़ी एक तरफ रखते हुए, अपने कुरते की जेब में हाथ डालकर एक पांच रुपये का सिक्का निकालकर पुलिस वाले को देते हुए कहा- 'लो साब....'
पुलिस वाले ने जब पांच रुपये का सिक्का देखा, तो वह गुस्से में भर उठा और बोला- 'अबे स्साले... भिखारी समझ रखा है क्या?'
वह बुजुर्ग डरता हुआ बोला--'नहीं साब... भिखारी तो मैं हूं... अभी हाल ही में डिब्बे में भीख मांगने आया था कि आपने मुझे पकड़ लिया। थोड़ी देर बाद पकड़ते तो शायद मैं आपको दो सौ रुपये दे देता। अभी तो मेरी बोहनी भी नहीं हुई है। ये पांच रुपये का सिक्का तो कल का बचा हुआ है। इसे आप रख लो, आपकी बोहनी हो जाएगी।'
जंगल की ओर
शहर की एक कॉलोनी में लगे मोबाइल टॉवर के पास, नीम के पेड़ पर बैठा एक चिड़ा अचानक धरती पर आ गिरा और थोड़ी देर तड़पने के बाद उसने दम तोड़ दिया। तभी एक चिड़िया अपने दो नन्हे बच्चों के साथ वहां आई और चिड़ा को मृत पड़ा देखकर विलाप करने लगी। दोनों नन्हे बच्चे भी अपनी माँ को रोता देखकर, जोर-जोर से रोने लगे। कुछ देर बाद उन में से एक बच्चे ने अपनी माँ से सिसकते हुए पूछा--'माँ! पिताजी को क्या हो गया है, और आप रो क्यों रही हैं?'
चिड़िया ने सिसकते हुए बताया--'बेटा! अब तुम्हारे पिता की मृत्यु हो चुकी है।'
'माँ! पिता जी की मृत्यु कैसे हुई?' दूसरे बच्चे ने सिसकते हुए पूछा।
'बेटा! मोबाइल टावर से निकलने वाले रेडिएशन की वजह से।'
'माँ! क्या रेडिएशन से एक दिन हम भी मर जाएंगे?' पहले बच्चे ने मासूमियत से पूछा।
'नहीं बेटा ! इससे पहले कि हम पर भी मोबाइल टॉवर से निकलने वाले रेडिएशन का दुष्प्रभाव पड़े, हम ये शहर छोड़कर ऐसे गांव में जाएंगे, जहां मोबाइल के टावर न हो।'
चिड़िया इतना कहकर चिड़ा को आखरी बार देखकर, फिर अपने दोनों बच्चों को साथ लेकर गांव की तरफ उड़ गई।
गांव में एक पेड़ पर घोंसला बनाकर रहते हुए अभी उसे कुछ ही दिन हुए थे कि एक दिन चिड़िया बहुत ज्यादा बीमार पड़ गई। तब उसके एक बच्चे ने माँ को बीमार देखकर पूछा- 'माँ! आपको क्या हो गया है?'
'बेटा! शहर छोड़कर हम गांव इसलिए आए थे कि यहां हमारी जान को कोई खतरा नहीं होगा, लेकिन हम यहां भी सुरक्षित नहीं हैं।'
‘कैसे माँ? यहां तो मोबाइल टावर भी नहीं है।' एक बच्चे ने पूछा।
'बेटा! यहां गांव में मनुष्य ज्यादा फसल की पैदावार लेने के लालच में साग-सब्जी के खेतों में रासायनिक खाद डाल रहा है और फसलों में अधिक मात्रा में कीटनाशको का छिड़काव भी कर रहा है, जिससे साग सब्जियां जहरीली हो रही है। हम पंछी इसे खाकर बीमार पड़ते है और फिर अपनी जान गवां देते है?'
'माँ! अब हम कहां जाएंगे?' दूसरे बच्चे ने चिंतित होकर पूछा।
'बेटा! मैं तो अब कहीं नहीं जा पाऊंगी। क्योंकि मेरा अंत निकट आ गया है। हां... अब तुम दोनो यहाँ से दूर जंगल में चले जाओ, जहां मनुष्य की छाया नहीं पड़ी हो ।'
नपुंसक
पश्चिमी संस्कृति में रची बसी किरण की शादी, उसके माता-पिता किसी भारतीय लड़के से करना चाहते थे। जब इसी सिलसिले में किरण अपने माता-पिता के साथ अमेरिका से भारत आई और कुछ दिनो बाद जब वह अपनी एक भारतीय सहेली सुधा से मिलने उसके घर गई, तो उसकी सहेली ने उससे पूछा- 'किरण ! मुझे आज तेरी मम्मी ने फोन पर बताया था कि तूने अभिषेक के साथ शादी करने से इंकार कर दिया है। तूने ऐसा क्यों किया? जबकि वह तो बहुत ही अच्छा लड़का है।'
'क्योंकि वह नपुंसक है।'
'नपुंसक है! तुझे कैसे मालूम पड़ा यार कि वह नपुंसक है?'
'क्योंकि मैं उसके साथ चार दिन पहले एक गार्डन में घूमने गई थी, तीन दिन पहले नाइट शो मूवी देखने गई थी और दो दिन पहले ही उसके साथ उसके बेडरूम में एक घंटे तक अकेली भी थी। लेकिन उस शख्स ने मेरे साथ इन तीनों जगहों पर ऐसी कोई हरकत नहीं की कि जिससे मुझे ये पता चल सके कि वह मर्द है।'
'किरण! ये भारत है, तेरा अमेरिका नहीं। भारतीय संस्कृति में शादी से पहले... ।'
मेरा तीर्थ
'सुना है कि तुम तीर्थ पर गये थे?'
'सही सुना है तुमने।'
'कौन से तीर्थ पर गये थे?"
'गांव।'
'गांव! गांव कोई तीर्थ होता है क्या?'
'हां...'
'वो कैसे?'
'क्योंकि वहां मेरे माता-पिता रहते हैं।'
लेखक संपर्क : राम मूरत 'राही', 168- बी, सूर्यदेव नगर, इन्दौर 452009 (म.प्र.)
मो. 9424594873
(वीणा, अक्टूबर 2021 से साभार)
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