#और मैं नाम लिख देता हूं
दीवाली से एक सप्ताह पहले अहोई माता का त्योहार आता है ।
दादी मां एक निर्देशिका की तरह मेरे पास बैठ जातीं । और मैं अलग अलग रंगों में अहोई माता का चित्र रंग डालता । फिर दादी मां एक कलम लेकर मेरे पास आतीं और नाम लिखवाने लगतीं । वे बुआ का नाम लिखने को कहतीं ।
मैं सवाल करता - दादी, बुआ तो जालंधर रहती है ।
- तो क्या हुआ ? है तो इसी घर की बेटी ।
फिर वे चाचा का नाम बोलतीं । मैं फिर बाल सुलभ स्वभाव से कह देता - दादी... चाचा तो...
- हां , हां । चाचा तेरे मद्रास में हैं ।
- अरे बुद्धू । वे इसी घर में तो लौटेंगे । छुट्टियों में जब आएंगे तब अहोई माता के पास अपना नाम नहीं देखेंगे ? अहोई माता बनाते ही इसलिए हैं कि सबका मंगल , सबका भला मांगते हैं । इसी बहाने दूर दराज बैठे बच्चों को माएं याद कर लेती हैं ।
बरसों बीत गए । इस बात को । अब दादी मां रही नहीं ।
जब अहोई बनाता हूं तब सिर्फ अपने ही नहीं सब भाइयों के नाम लिखता हूं । हालांकि वे अलग अलग होकर दूर दराज शहरों में बसे हुए हैं । कभी आते जाते भी नहीं । फिर भी दीवाली पर एक उम्मीद बनी रहती है कि वे आएंगे।
...और मैं नाम लिख देता हूं ।
#परदेसी पाखी
-ऐ भाई साहब, जरा हमार चिट्ठिया लिख देवें...
-हां , लाओ , कहो , क्या लिखूं ?
-लिखें कि अबकि दीवाली पे भी घर नाहिं आ पाएंगे ।
-हूं । आगे बोलो ।
-आगे लिखें कि हमार तबीयत कछु ठीक नाहिं रहत । इहां का पौन-पानी सूट नाहिं किया ।
-बाबू साहब । इसे काट देवें ।
-क्यों ?
-जोरू पढ़ि के उदास होइ जावेगी।
- और क्या लिखूं ?
- दीवाली त्यौहार की बाबत रुपिया पैसे का बंदोबस्त करि मनीआर्डर भेज दिया है । बच्चों को मिठाई पटाखे ले देना और साड़ी पुरानी से ही काम चलाना । नयी साड़ी के लिए जुगत करि रह्या हूं ।
-हूं ।
-काम धंधा मिल जाता है । थोड़ा बहुत लोगन से पहिचान बढ़ गयी है । बड़के को इदर ई बुला लूंगा । दोनों काम पे लग गये तो तुम सबको ले आऊंगा । दूसरों के खेतों में मजूरी से बेपत होने का डर रहता है । अखबार सुनि के भय उपजता है । इहां चार घरों का चौका बर्तन नजरों के सामने तो होगा । नाहिं लिखना बाबूजी । अच्छा नाहिं लगत है ।
-क्यों ?
-जोरू ने क्या सुख भोगा ?
- और तुमने ?
- ऐसे ई कट जाएगी जिंदगानी हमार । लिख दें सब राजी खुशी । थोडा लिखा बहुत समझना । सबको राम राम । सबका अपना मटरू। पढने वाले को सलाम बोलना ।
#चौराहे का दीया
दंगों से भरा अखबार मेरे हाथ में है पर नजरें खबरों से कहीं दूर अतीत में खोई हुई हैं ।
इधर मुंह से लार टपकती उधर दादी मां के आदेश जान खाए रहते । दीवाली के दिन सुबह से घर में लाए गये मिठाई के डिब्बे और फलों के टोकरे मानों हमें चिढ़ा रहे होते । शाम तक उनकी महक हमें तड़पा डालतीं । पर दादी मां हमारा उत्साह सोख डालतीं, यह कहते हुए कि पूजा से पहले कुछ नहीं मिलेगा । चाहे रोओ, चाहे हंसो ।
हम जीभ पर ताले लगाए पूजा का इंतजार करते पर पूजा खत्म होते ही दादी मां एक थाली में मिट्टी के कई दीयों में सरसों का तेल डालकर जब हमें समझाने लगती - यह दीया मंदिर में जलाना है , यह दीया गुरुद्वारे में और एक दीया चौराहे पर...
और हम ऊब जाते । ठीक है , ठीक है कहकर जाने की जल्दबाजी मचाने लगते । हमें लौट कर आने वाले फल , मिठाइयां लुभा ललचा रहे होते । तिस पर दादी मां की व्याख्याएं खत्म होने का नाम न लेतीं । वे किसी जिद्दी ,प्रश्न सनकी अध्यापिका की तरह हमसे प्रश्न पर प्रश्न करतीं कहने लगतीं - सिर्फ दीये जलाने से क्या होगा ? समझ में भी आया कुछ ?
हम नालायक बच्चों की तरह हार मान लेते । और आग्रह करते - दादी मां । आप ही बताइए ।
- ये दीये इसलिए जलाए जाते हैं ताकि मंदिर, मस्जिद और गुरुद्वारे से एक सी रोशनी , एक सा ज्ञान हासिल कर सको। सभी धर्मों में विश्वास रखो ।
- और चौराहे का दीया किसलिए , दादी मां ?
हम खीज कर पूछ लेते । उस दीये को जलाना हमें बेकार का सिरदर्द लगता । जरा सी हवा के झोंके से ही तो बुझ जाएगा । कोई ठोकर मार कर तोड़ डालेगा ।
दादी मां जरा विचलित न होतीं । मुस्कुराती हुई समझाती...
- मेरे प्यारे बच्चो । चौराहे का दीया सबसे ज्यादा जरूरी है। इससे भटकने वाले मुसाफिरों को मंजिल मिल सकती है। मंदिर गुरुद्वारे को जोड़ने वाली एक ही ज्योति की पहचान भी ।
तब हमे बच्चे थे और उन अर्थों को ग्रहण करने में असमर्थ। नगर आज हमें उसी चौराहे के दीये की खोजकर रहे हैं , जो हमें इस घोर अंधकार में भी रास्ता दिखा दे ।
मोबाइल : 9416047075
No comments:
Post a Comment