Saturday, 13 June 2020

दो शब्द असंतुष्टों से / अशोक भाटिया

डॉ. अशोक भाटिया 
पिछले एक-डेढ़ साल से हिंदी लघुकथा के क्षेत्र में कुछ तीखे आक्षेप लगाए जाते रहे हैं, विशेष रूप से गुटबाजी और ठेकेदारी का आक्षेप लगता रहा है और इससे काफी हद तक सहमति भी व्यक्त होती रही है। ऐसा भी नहीं कि ये आरोप बिलकुल निराधार ही हैं। इस विकृति के चलते आलोचना / समीक्षा के क्षेत्र में कमजोरियां साफ़ देखी जा सकती हैं, जहाँ कुछ नाम अनिवार्यतः शामिल होंगे ही,तो कुछ नाम अनिवार्यतः शामिल नहीं होंगे; लेकिन ऐसे लेख कम ही हैं, और फिर, वे तत्काल ही काल-कवलित भी हो जाते हैं। इसी प्रकार संपादन के क्षेत्र में थोड़ा-बहुत सॉफ्ट कॉर्नर या कुछ नामों से परहेज़ से इनकार नहीं किया जा सकता है। लेकिन इस राइ के सामने के पहाड़ को देखना भी जरूरी है। 
श्रेष्ठ रचना किसी के भी द्वारा लिखी गई हो, वह अपना लोहा मनवा ही लेती है। सन् 1981 में प्रबोध कुमार गोविल की 'मां' लघुकथा एकदम उभरकर सामने आई और अब तक बीसियों जगह स्थान पा चुकी है। बलराम की 'बहू का सवाल' और मालती बसंत की 'अदला-बदली' लघुकथाओं में उठाये सवालों का जवाब आज भी हमारे समाज के पास नहीं है। सन् 2000 में चैतन्य त्रिवेदी की 'खुलता बंद घर' उनके संग्रह में आई, जिसे मैंने 'पैंसठ हिंदी लघुकथाएँ' (2001) पुस्तक में अपने 40 पृष्ठ के लेख के अंत में, और फिर 2005 में 'निर्वाचित लघुकथाएँ' में शामिल किया। तब से अब तक यह रचना अपनी श्रेष्ठ रचनात्मकता के कारण बीसियों जगह उद्धृत हो चुकी है। अब, इधर की लघुकथाओं पर आइए। कोई ढाई साल पहले पंचकूला के मिन्नी कहानी सम्मलेन में स्नेह गोस्वामी की लघुकथा 'जो कहा नहीं गया' की हम सबने मुक्त कंठ से प्रशंसा की थी। तब लेखिका को कोई नहीं जानता था। पिछले दिनों अन्तरा करवड़े की 'अबोला' लघुकथा अपनी टटकी भाषा-शैली के कारण चर्चा में रही। इसी के आसपास छवि निगम की लघुकथा 'लिहाफ' ने बहुत जरूरी विषय और शानदार निर्वाह के कारण उचित ही खूब प्रशंसा बटोरी। और हाल ही में संध्या तिवारी की रचना 'अँधेरा उबालना है' ने अपनी श्रेष्ठता के कारण सबका ध्यान खींचा है। आरोप लगाने वाले क्या बतायेंगे कि इनमें से कौन-सी लघुकथा गुटबाजी की वजह से चर्चित हुई? इधर के वर्षों में आई ऐसी कई श्रेष्ठ रचनाओं के नाम गिनाए जा सकते हैं, पर यहाँ स्थान की सीमा है |
    ऐसे आरोप लगाने वालों में कुछ खुद ही गुटबाजी में लिप्त हैं, तो कुछ संपादक के सामने रचना शामिल करने के लिए मिन्नतें करते देखे गए हैं। दरअसल श्रेष्ठ रचना को देर-सबेर उभरने से कोई नहीं रोक सकता और आप विश्वास रखें कि अच्छे संपादक स्वयं ही अच्छी रचनाओं की तलाश में रहते हैं। मैं किसी संपादक का पक्ष नहीं ले रहा, लेकिन ज़रा कभी लघुकथा डॉट कॉम, संरचना, दृष्टि, लघुकथा-कलश; और यही क्यों, क्षितिज और लघुकथा-वृत्त आदि के संपादकों से पूछें तो सही कि उनको पुरानी लघुकथाएँ और अन्य सामग्री देने की जरूरत क्यों पड़ती है। उनकी जद्दोजहद को सिर्फ 'बधाई' देकर हम नहीं जान सकते। हम लघुकथा की लोकप्रियता का डंका खूब बजाते हैं, लेकिन आज तक लघुकथा की एक भी मासिक पत्रिका क्यों नहीं निकल सकी ? कहानी की 'हंस', 'कथादेश' जैसी मासिक पत्रिकाएं हैं, हमारे पास त्रैमासिक भी नहीं! कब तक उन्हीं पुरानी रचनाओं को छापते-छपवाते रहेंगे? कुछ लेखक तो एक लघुकथा से ही लघुकथा-साहित्य की वैतरणी पार करने की आस लगाए बैठे हैं। 
अब तो किसी पत्रिका का 'अप्रकाशित लघुकथाएं विशेषांक'  भी आना चाहिए। लगे हाथ थोड़ी और बात कर ली जाए...
क्या संग्रहों की संख्या भी श्रेष्ठता की कसौटी होती है? प्रसिद्ध कवि अज्ञेय ने मुक्तिबोध को 'पहले सप्तक' में स्थान दिया था, जबकि 'तीसरा सप्तक' (1959) छपने तक भी मुक्तिबोध की कोई कविता-पुस्तक प्रकाश में नहीं आई थी। लघुकथा में संग्रहों / पुरस्कारों-सम्मानों / अपने पर हुए रिसर्च ही नहीं, लिखी गई भूमिकाओं की भी लिस्टें बनाकर एक औरा बनाए बैठे हैं कई लघुकथाकार; जबकि जरूरत श्रेष्ठ रचनाओं की है। रही बात आलेखों में चुने हुए नाम देने की, तो लघुकथा-लेखक तो पाँच हजार से ज्यादा होंगे। क्या किसी आलेख में सबका ज़िक्र संभव है? है, तो करके दिखाएँ आरोप लगाने वाले। सिर्फ सूची नहीं, ज़िक्र। मैं अपने आलेखों में सारा जोर लगाकर 158 की संख्या कभी पार नहीं कर पाया। एक बार कहानी, उपन्यास और कविता पर चुनिन्दा लेख पढ़ लें, तो पता लग जाएगा कि कितनों का ज़िक्र हो पाता है। 
आखिरी बात--लघुकथा बहुत पुरानी न सही, पर एकदम नई विधा भी नहीं रही। किसी भी विधा में नए रचनाकारों को सामने आने के लिए कुछ असाधारण योगदान देना होता है। पिछले दिनों कहानी में एक सशक्त लेखिका किरण सिंह उभरकर आई हैं। इनके पहले कहानी-संग्रह 'यीशु की कीलें' की कोई एक कहानी पढ़ें, तो मालूम होगा कि समकालीन कहानीकारों में उनका नाम लेना क्यों अनिवार्य हो गया है। आखिर श्रेष्ठ रचना और श्रेष्ठ आलोचना ही बचेगी। कभी-कभार कोई बहुत ऐतिहासिक सम्पादित पुस्तक भी। तो जिन्हें शिकायत है कि चुने हुए नामों पर ही चर्चा होती है, वे आलोचना / समीक्षा में आकर इस शिकायत को दूर करें। मन में कुछ करने की धुन सवार हो तो लघुकथा पर केन्द्रित मासिक पत्रिका प्रारंभ करें। कर्म तो श्रीकृष्ण को भी करना पड़ता है।
                  मोबाइल : +919416152100

2 comments:

सतीश राठी said...

महत्वपूर्ण एवं ईमानदार आलेख

Rakesh said...

सार्थक लेख