माँ वाग्देवी के मंदिर में आराधक के रूप में लघुकथा-रचना के विविध कलमकार लघुकथा विषयक समस्त उपयोगी विचारों से केन्द्रीभूत होकर या तो लघुकथा लिख रहें हैं या लघुकथाओं पर लघुकथाओं की दशा, दिशा और संभावनाओं को लेकर महत आलेख लिख रहें हैं अथवा फिर विभिन्न लघुकथाकारों की लघुकथाओं को समेकित कर उनपर समीक्षापरक विचारों का अभिप्रेषण कर रहे हैं ।
कोविड-19 नाम का असुर रोज़-ब-रोज़ नृशंस होकर आधुनिक शती में साँस ले रहे विशद मानव समुदाय को अपना ग्रास बना रहा है। इस हिंसक और प्रहारक से बचे रहने का एकमात्र रामबाण कवच घर में बने रहने का यानी 'स्टे एट होम' को अमल में लाना व्यवहारिक अर्थ में बताया गया है। लिहाज़ा हम सब घरों में हैं और स्वावलंबी जीवन जी रहे हैं।
बाज़ारवाद से हटकर हम सब एक ही तरह का समभाव जीवन जी रहे हैं ! यह कालखण्ड घरों में ही संन्यासी की भाँति जीने का है।
घरों में रहते हुए जीवन को बचाने का यह संक्रमण काल है। संक्रमण अर्थात् पहले रूप को बदलकर दूसरे रूप में आने का है। इस दूसरे रूप में आने की प्रक्रिया में हम अपने भीतर की स्वानुभूतियों को मथकर ऐसी सृजनात्मक शक्ति को आत्मानुशासन के बल पर पैदा कर लें ताकि हम मेधावी होकर रचनात्मकता का उत्स तैयार कर सकें ।
हमारे हाथों में आजकल के दुर्दिनों के बावजूद स्वर्णिम समय आया है। लिहाज़ा हम संकल्परत बनकर इस समय का सदुपयोग हमारी वांछित विधा लघुकथा में प्रविष्ट होकर उसकी रचना-प्रक्रिया को समझने में या समझकर उसे किसी अन्वेषी की तरह विवेचित करने में कोई पुस्तकनुमा नोट्स लिखना शुरू कर दें ।
आजकल ' सोशल मीडिया ' पर नार्थ , ईस्ट , वेस्ट , साउथ गो कि हर ओर से लघुकथाओं की बाढ़ - सी आई हुई हैं । सोशल मिडिया पर लघुकथाओं का यह चर्वण-काल है । सोशल मीडिया के ज़रिए लघुकथा के नए लेखक के साथ नए पाठक भी लघुकथा की ' अकादमी ' में प्रवेश ले रहें हैं।
गौरतलब है कि नए-पुराने गोया कि हर क़द-काठी के लघुकथाकार सोशल मीडिया पर सक्रिय हैं।
अब जो महत्वपूर्ण बात मैं यहाँ रखने जा रहा हूँ , वह यह कि इस समय सोशल मीडिया पर ज़्यादातर लघुकथाएँ कोविड-19का प्रत्यक्ष असर लेकर लिखी जाने वाली होकर आ रहीं हैं । इन लघुकथाओं में मानवीय संवेदना, निराश और हताश जीवन की विवेचना, आर्थिक संकट, मृत्युबोध, जीवन की निस्सारता, मज़दूरों का पलायन, मानवता के रक्षण में डॉक्टरों , नर्सों , पुलिसकर्मियों, समाजसेवियों , और दानदाताओं की भूमिकाओं के स्वर बड़ी तीव्रता के साथ मुखरित हो रहें हैं। दरअसल आज की इन्हीं विवेचनाओं से संपादित लघुकथाएं हीं कल की लघुकथाएँ
बनेंगीं । अतः ज़रूरी है कि इस आसन्न संकट की घड़ियों में यथार्थ के पटल पर लिखीं जा रहीं लघुकथाओं का 'ऐतिहासिक कलेक्शन' किया जाना जरूरी है , ताकि आने वाले काल खंड में समान अर्थ देने वाली लघुकथाओं का विशद संचय हमारे पास हो ।
इसका दूरगामी परिणाम यह होगा कि समान देश-काल वातावरण में लिखी गयी इन लघुकथाओं पर समीक्षा का अनुशासनात्मक मैयार खड़ा किया जा सके। जो अन्ततः लघुकथा की समीक्षा के व्यावहारिक मापदंड तय करने में सहायक सिद्ध हो सके।
गौरतलब है कि प्रत्यक्ष तथ्यों को लेकर यथार्थपरक लघुकथाएँ लिखी जाती हैं तो ऐसी लघुकथाओं के प्रणयन में वस्तुगत पारदर्शिता का आना स्वमेव है। अर्थात् जब लघुकथा में कथा प्रमुख हो जाती है , तब उसके अभिलेखन में कोई कल्पनाप्रसूत आवरण अपना महत्व जमाने में बेअसर सिद्ध हो जाता है । इसी अवस्था में लघुकथा न तो लेखक के पाण्डित्य से आवेष्टित होती है न किन्हीं अनावश्यक प्रसंगों का हस्तक्षेप उसको अर्थहीन बना पाता है। यहाँ यह बात भी महत्वपूर्ण हो जाती है कि ऐसी लघुकथाओं की विरचना में शिल्प का आगमन भी संतुलित कदमों में होता है। ऐसा नहीं कि शिल्प की सजधज इतनी असरकारक हो जाती है कि जिसकी छाया में लघुकथा का कथ्य छुप कर रह जाये !
जब लघुकथा में कथ्य प्रमुख हो जाता है तब कथ्य को चरितार्थ करने में भाषा का अभिनय संकेत प्रधान हो जाता है। सांकेतिक भाषा के अनुप्रयोग से लघुकथा में विचारशक्ति का प्राधान्य दिखाई देने लगता है, जिससे लघुकथा कथा की दृष्टि से हल्की-फुल्की न रहकर वज़नदार प्रतीत होती है।
कोविड-19 के कुप्रभाव सेजीवन की मोहलत माँग रही मानव जाति का भौतिक स्थिति से निरन्तर होता मोहभंग ही आज जितना वाचाल होकर दिखाई दे रहा है , इसी अवस्था में लघुकथा के बीज तत्व खासुलखास रूप में उभरकर आ रहें हैं ; इसी अवस्था को आज के लघुकथाकार पकड़ पाने में उत्सुक नज़र आ रहे हैं । यह निश्चितता इन दिनों में आ रहीं लघुकथाओं को देखकर मिल रहीं हैं।
कोरोना महामारी से बचाव का एकमात्र चारा फिलवक्त घरों में बनें रहना ही है ! घरों में रह रहे हर परिवार के सदस्यों के बीच होने वाली बातों में हर दूसरी बात
कोरोना महामारी को लेकर होना स्वाभाविक ही है । घर-घर में होने वाली बातों का ज़्यादातर ज्वलन्त विषय कोरोना ही है। कोरोना सन्दर्भित आये दिन की इन बातों में ऐसे कई विचारणीय कथ्य सामने आतें हैं, जो अपनी पृष्ठभूमि से कोरोना के दुखदायी परिणामों की लम्बी फहरिस्त सुनाते मिलते हैं ! परिवार के इन्हीं सदस्यों की आपसी चर्चाओं के बीच से उन तत्वों को आसानी से पकड़ा जा सकता है, जो तत्व सृजन कार्य के लिए एक बड़ा आधार बन सकते हैं । मसलन, 'समाज में कई सिरफिरे लोगों द्वारा लॉक डाऊन का भलीभाँति पालन न किया जाना', 'कई लोगों द्वारा खुद के संक्रमित होने की बात को छुपाना', 'घर में अनावश्यक रूप में राशन सामग्री का स्टोर करना', आदि, आदि ।
इन्हीं बातों के गौरतलब सिरे पकड़कर रचनात्मकता की अंतर्वस्तु (content ) को पाया जा सकता है , फिर उस अवयव के बूते प्रासङ्गिक रचना को आकार दिया जा सकता है ।
लघुकथा वही सार्थक और सामयिक होती है जिसमें समय की धड़कनें सुनाई देती हैं ।
फेसबुक की वाल पर आजकल ऐसी ही लघुकथाएं आ रहीं हैं , जो या तो कोरोना की मार से प्रताड़ित है अथवा जो संक्रमण से पैदा बुख़ार से ग्रसित है । इसी अन्तःवस्तु से आलोड़ित लघुकथाएं हीं आज की मांग भी है और लघुकथा-लेखन के तारतम्य में यूँ कहें कि एक लेटेस्ट फैशन भी है।
मौजूदा कोरोना संक्रमण से प्रभावित जीवन में झांककर ही वस्तु-सत्य को बड़ी आसानी से पकड़ा जा सकता है क्योंकि आज जो घटित हो रहा है, उसको जानने का इतिहास भिन्न - भिन्न हो सकता है लेकिन उसको समझने का भूगोल वैश्विक धरातल पर एक जैसा ही है ।
यह पहली बार दिखाई पड़ रक्ष है कि दुनिया के तमाम मुल्कों में कोरोना को लेकर एक सरीखा डरावना अँधेरा पसरा हुआ है।
कहने का मतलब यही कि आज संक्रमित-परिवेश से जुड़कर जो भी लघुकथाएं लिखीं जायेंगीं , वे लघुकथाएं किसी एक स्थान विशेष की न रहकर वैश्विक मानीं जायेंगी । इस तरह यदि आज कोविड-19 से उत्पन्न हालातों को तरज़ीह देते हुए जो लघुकथाएं पटल पर आतीं हैं , उन लघुकथाओं पर विश्व साहित्य होने का ठप्पा अवश्यमेव है।
साहित्य का अद्यतन अध्ययन करने की दिशा में 'आपातकाल' की अवधि को केंद्र में रखकर साहित्य के अध्ययन के आधार', आपातकाल के पूर्व का सहित्य' और 'आपातकाल के बाद का साहित्य' को विश्लेषित कर निर्धारित करते हैं। और ऐसा कर वे साहित्य के सिलसिलेवार अध्ययन की ऐतिहासिक दृष्टि की संरचना करते हैं।' और 'आपातकाल के बाद का साहित्य' को विश्लेषित कर निर्धारित करते हैं। और ऐसा कर वे साहित्य के सिलसिलेवार अध्ययन की ऐतिहासिक दृष्टि की संरचना करते हैं ।
ज्ञातव्य है कि भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 24 मार्च 2020 को भारत में 21 दिन का 'लॉक डाउन' ( lock down ) अमल में लाये जाने का व्यावहारिक अर्थ में अनुपालन करने का ठोस संदेश दिया था । परिस्थितिवसात इसे आगे और आगे बढ़ाया गया। लॉक डाउन के इन फोर्टी-प्ल्स दिनों की अवधि में साहित्य की अन्यान्य विधाओं की तुलना में लघुकथालेखन का बेजोड़ कार्य हुआ है और हो रहा है। इस सिलसिले में मेरा यक़ीन है कि लॉक डाउन खुलने के बाद लघुकथाकारों के लघुकथा-संकलन धड़ल्ले से प्रकाशित होकर सामने आयेंगे! (कोई शक़?, बिला शक़ ! )
ज्ञातव्य है कि भारत के प्रधानमंत्री श्री नरेन्द्र मोदी जी ने 24 मार्च 2020 को भारत में 21 दिन का 'लॉक डाउन' ( lock down ) अमल में लाये जाने का व्यावहारिक अर्थ में अनुपालन करने का ठोस संदेश दिया था । परिस्थितिवसात इसे आगे और आगे बढ़ाया गया। लॉक डाउन के इन फोर्टी-प्लस दिनों की अवधि में साहित्य की अन्यान्य विधाओं की तुलना में लघुकथालेखन का बेजोड़ कार्य हुआ है और हो रहा है। इस सिलसिले में मेरा यक़ीन है कि लॉक डाउन खुलने के बाद लघुकथाकारों के लघुकथा-संकलन धड़ल्ले से प्रकाशित होकर सामने आयेंगे!
( कोई शक़? , बिला शक़ ! )
अध्ययन औऱ लेखन तात्कालीन रूप में सामयिक तो होता ही है लेकिन हर अवधि का
' समकाल ' जब घटनाओं के अनेकानेक चक्रव्यूह में प्रविष्ट होता है तब हर समय की प्रासंगिकता ' कल ,आज औऱ कल ' में ढलती हुईं अंततः इतिहास में आरूढ़ हो जाती है। परिवर्तित साहित्य का यही स्थापन्न एक न एक दिन साहित्येतिहास की निधि बन जाता है । इसी संचित साहित्यिक निधि का अनुसन्धान अनुसन्धाता
करते हैं। ऐसे में अध्ययन का वही रूप घटित होकर आगे आता है , जो आपातकालीन साहित्य के प्राविधिक अध्ययन करने के अर्थ में घटित हुआ है।
बिलाशक़ लॉक डाउन की इस अविस्मरणीय अवधि में लिखीं गईं लघुकथाएं एक दिन अवश्य शोधकर्ताओं को शोध-कार्य की दिशा आमन्त्रित करेंगीं।
गौरतलब बात यह कि प्रायः नवीन शोधार्थी नए-नए विषयों की तरफ आकर्षित होते हैं । कोविड-19 की अवधि के भीतर विरचित हुआ लघुकथा-सन्दर्भित
साहित्य शोधार्थियों के आगे नए विषय का आभास बनकर उभरेगा। साथ ही शोधार्थियों को ऐसे विषय स्वयम के समय में लिखे होकर शोध-कार्य की सुलभता के लिये ग्राह्य भी सिद्ध होंगें।
लॉक डाउन का विपरीत समय चल रहा है । इस दुरूह परिस्थिति में अलबत्ता छूट-पुट समाचार पत्र पाठकों के अनुरंजन के लिये नियमित रूप में लघुकथाओं का प्रकाशन कर रहें हैं परंतु सिर्फ़ और सिर्फ लघुकथाएं आधारित पत्रिकाओं का आगमन लगभग-लगभग रुका हुआ है ! लघुकथा की पत्रिकाएँ इस कारण से बीमार होकर , सामग्री सञ्चित होने के बावजूद सुस्त पड़ीं हैं , कि प्रकाशकों के यहाँ ताले लटके पड़े हैं , ताहम भी जैसे-तैसे पत्रिकाएँ छप भी जाये तो डॉक द्वारा उनके वितरण की व्यवस्था सहज नहीं है । कोरोना के बिच्छू ने वहाँ भी डंक मार रखा है ।
बहरहाल , समय साक्षी रहेगा , उन आने वाली घड़ियों में ,
जिन घड़ियों में परिस्थितियां सामान्य हो जायेंगीं और जिन घड़ियों में लॉक डाउन खुल जायेगा , तब उन घड़ियों में कोरोना से संक्रमित लोगों की जीवन औऱ मृत्यु लीलाओं पर आधारित वे बहु संख्यक लघुकथाएँ पटल पर आयेंगीं जिनका अभिलेखन लॉक डाउन की अँधेरी गुफ़ाओं में बैठकर बतौर एकाकी साधना के निमित्त लघुकथाकारों के सृजित कीं हैं ।
अभी कोरोना संक्रमण का समय बीता नहीं है । कोरोना संक्रमण का भूत मानव जाति के जीवन और प्राणों को लील जाने में बुभुक्षु बना हुआ है । यानी मानव जाति के ऊपर कच्चे धागे से बंधी नंगी तलवार की तरह लटका हुआ है । सब ओर ' त्राहि - त्राहि ' मची हुई है । कोरोना रूपी काले शैतान की यही भगदड़ मानव जाति को रौंद रही है। चारों औऱ आर्त्तनाद सुनाई पड़ रहा है , जिसको सबसे क़रीब से यदि कोई सुन पा रहा है तो केवल आज का दृष्टि-,सम्पन्न लघुकथाकार !
लघुकथाकार का नाम इसलिए ले रहा हूँ क्योंकि वह कथ्य के संक्षिप्त ' प्लॉट ' पर गहन से गहन बात को संक्षिप्त में कह देने का विशाल माद्दा रखता है । वह धनुर्धर धनञ्जय की भाँति मछली नहीं प्रत्युत मछ्ली की मात्र आँख देखता है ।
मेरा मानना है कि साहित्य की अन्यान्य विधाओं की तुलना में लघुकथा ऐसी अनोखी विधा है , जिसको संपादित करने में कथ्य पर सोचना अधिक पड़ता है , लिखना कम । लघुकथा का मान भी इसी में निहित है कि ' उसकी संक्षिप्तता में ही उसके अर्थ के विस्तार की कुँजी लगी होनी चाहिए । ' एक सफल लघुकथाकार के पास यही दक्षता होती है कि वह लघुकथा की संरचना में ' माइक्रो -, मैक्रो ' का सिद्धांत अपनाकर चलता है। फलतः वह लघुता में प्रभुता को भर देता है ।
मौजूदा कोरोना संक्रमण से प्रभावित जीवन में झांककर ही वस्तु-सत्य को बड़ी आसानी से पकड़ा जा सकता है क्योंकि आज जो घटित हो रहा है, उसको जानने का इतिहास भिन्न - भिन्न हो सकता है लेकिन उसको समझने का भगोल वैश्विक धरातल पर एक जैसा ही है ।
यह पहली बार दिखाई पड़ रक्ष है कि दुनिया के तमाम मुल्कों में कोरोना को लेकर एक सरीखा डरावना अँधेरा पसरा हुआ है।
कहने का मतलब यही कि आज संक्रमित - परिवेश से जुड़कर जो भी लघुकथाएं लिखीं जायेंगीं , वे लघुकथाएं किसी एक स्थान विशेष की न रहकर वैश्विक मानीं जायेंगी । इस तरह यदि आज कोविड-19 से उत्पन्न हालातों को तरज़ीह देते हुए जो लघुकथाएं पटल पर आतीं हैं, उन लघुकथाओं पर विश्व साहित्य होने का ठप्पा अवश्यमेव है।
कोविड-19 के ' डार्क शैडो ' के तले चलते हुए जो भी लघुकथाएं लिखीं जायेंगी उन लघुकथाओं में उज्ज्वल एवं स्वस्थ्य चेतना के साथ नवीनता के सोपान भी देखने को मिलेंगे , जिसके कारण लघुकथाएं सर्वथा रूप में चुटकुलों का स्वाद चखाने के मिथ्या दोषारोपण से मुक्त मिलेगी !
डॉ. पुरुषोत्तम दुबे74 जे ,सेक्टर ए , स्कीम न. 71इं, दौर 452009
मो 9329581414
2 comments:
समकालीन लघुकथा लेखन पर एक महत्वपूर्ण आलेख जो समय की दिशा निर्धारित करने की कोशिश में लगा हुआ है बधाई श्री दुबे जी
कोरोना काल मे आत्मविश्लेषण व सृजनात्मक साहित्यिक गतिविधियों के प्रति बढ़ते रुझान और समाज के विभिन्न वर्गों द्वारा कोरोना के प्रति सचेत रहने हुए उससे युद्ध करने जैसी चुनोतियों से रूबरू कराता महत्वपूर्ण आलेख।
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