Saturday, 19 January 2019

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-17



[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100 लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल लघुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसकी प्रथम  11 किश्तों का प्रकाशन क्रमश: 17 नवम्वर 2018, 24 नवम्बर 2018, 1 दिसम्बर 20184 दिसम्बर 2018, 8 दिसम्बर 2018, 12 दिसम्बर 2018, 15 दिसम्बर 2018, 17 दिसम्बर 2018, 20 दिसम्बर 2018, 24 दिसम्बर 2018, 27 दिसम्बर 2018, 30 दिसम्बर 2018, 2 जनवरी, 2019, 6 जनवरी 2019, 12 जनवरी 2019 तथा 16 जनवरी 2019 को  जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इसकी सत्रहवीं किश्त है। 
            टिप्पणी बॉक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांकों/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा।  साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो यूनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप  भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बॉक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]

धारावाहिक प्रकाशन की  सत्रहवीं कड़ी में शामिल लघुकथाकारों के नाम और उनकी लघुकथा का शीर्षक…
81  विष्णु प्रभाकर—फर्क
82 शंकर पुणताम्बेकर—प्यासी बुढ़िया
83 शकुन्तला किरण--तार
84 श्याम सुन्दर अग्रवाल—माँ का कमरा
85 श्याम सुन्दर दीप्ति—हद

81

विष्णु प्रभाकर

फर्क
उस दिन उसके मन में इच्छा हुई कि भारत और पाक के बीच की सीमा-रेखा को देखा जाए। जो कभी एक देश था, वह अब दो होकर कैसा लगता है। दो थे, तो दोनों एक-दूसरे के प्रति शंकालु थे। दोनों ओर पहरा था। बीच में कुछ भूमि होती है, जिस पर किसी का अधिकार नहीं होता। दोनों उस पर खड़े हो सकते हैं। वह वहीं खड़ा था, लेकिन अकेला नहीं था—पत्नी थी और थे अठारह सशस्त्र सैनिक और उनका कमांडर भी। दूसरे देश के सैनिकों के सामने वे उसे अकेला कैसे छोड़ सकते थे। इतना ही नहीं, कमांडर ने उसके कान में कहा, “उधर के सैनिक आपको चाय के लिए बुला सकते हैं, जाइएगा नहीं। पता नहीं क्या हो जाए? आपकी पत्नी साथ में है और फिर कल हमने उनके छह तस्कर मार डाले थे।”
उसने उत्तर दिया, “जी नहीं, मैं उधर कैसे जा सकता हूँ?”
और मन ही मन कहा, ‘मुझे आप इतना मूर्ख कैसे समझते हैं? मैं इंसान हूँ, अपने-पराये में भेद करना मैं जानता हूँ। इतना विवेक मुझमें है।’
वह यह सब सोच ही रहा था कि सचमुच उधर के सैनिक वहाँ आ पहुँचे। रोबीले पठान थे। बड़े तपाक से हाथ मिलाया। उस दिन ईद थी, उसने उन्हें मुबारकबाद कहा। बड़ी गर्मजोशी के साथ एक बार फिर हाथ मिलाकर वे बोले, “उधर तशरीफ लाइए। हम लोगों के साथ एक प्याला चाय पीजिए।”
इसका उत्तर उसके पास था। अत्यंत विनम्रता से मुस्कराकर उसने कहा, “बहुत-बहुत शुक्रिया। बड़ी खुशी होती आपके साथ बैठकर, लेकिन मुझे आज ही वापस लौटना है और वक्त बहुत कम है। आज माफी चाहता हूँ।”
इसी प्रकार शिष्टाचार की कुछ और बातें हुईं कि पाकिस्तान की ओर से कुलाँचें भरता हुआ बकरियों का एक दल उनके पास से गुजरा और भारत की सीमा में दाखिल हो गया। एक साथ सबने उनकी ओर देखा। एक क्षण बाद उसने पूछा, “ये आपकी हैं?”
उनमें से एक सैनिक ने गहरी मुस्कराहट के साथ उत्तर दिया, “जी हाँ, जनाब, हमारी हैं। जानवर हैं, फर्क करना नहीं जानते।”

82          
शंकर पुण्तांबेकर

प्यासी बुढ़िया
“माई, पानी देगी मुझे पीने के लिए?”
“कहीं और से पी ले। मुझे दफ्तर की जल्दी है।”
“तू दरवाजे को ताला मत लगा। मुझ बुढ़िया पर रहम कर। मुझे पानी दे दे। मैं तेरी दुआ मनाती हूँ… तुझे तेरे दफ्तर में तेरा रूप देखकर तरक्की मिले।”
“तू मेरी योग्यता का अपमान कर रही है?”
“बड़ी अभिमानिनी है तू! तेरे नाम लाटरी खुले, मुझे पानी दे दे।”
“कैसे खुले! मैं आदमी को निष्क्रिय और भाग्यवादी बना देने वाली सरकार की  जुआगिरी का टिकट कभी नहीं खरीदती।”
“मुझे पानी दे दे माई। तेरा पति विद्वान न होकर भी विद्वान कहलाए और किसी विश्वविद्यालय का वाइस-चांसलर बने!”
“चल जा! मेरे पति को मूर्ख राजनीतिज्ञों का पिछलग्गू बनाना चाहती है क्या?”
“तेरे पूत खोटे काम करें, औरतों, लोगों पर भारी अत्याचार करें; औरतों के साथ नंगे नाचें तब भी उनका बाल बाँका न हो। बस तू पानी दे दे मुझे।”
“लगता है बड़ी दुनिया देखी है तूने! लेकिन हम लोग जंगली नहीं है ,सभ्य हैं और हमें अपनी इज्जत प्यारी है .जा,कहीं और जाकर पानी पी .'
“तेरा पति बिना संसद के ही प्रधानमंत्री बने। सोच, इससे भी बड़ी दुआ हो सकती है? चल, दरवाजा खोल और मुझे पानी दे .'
“देती हूँ तुझे पानी, पर मेरे पति को दोगला, विश्वासघाती बनने का शाप मत दे।”
         बुढ़िया जब पानी पीकर चली गई तो औरत के मुँह से निकल पड़ा—यह बुढ़िया, बुढ़िया नहीं, हमारी जर्जर व्यवस्था है जो सस्ती दुआएँ फेंककर हमारा पानी पी रही है ...नहीं, पी नहीं रही ...हमारा पानी सोख रही है।

83 
   
शकुन्तला किरण

तार
तार पढते ही वाह सन्न रह गई थी, उसके मस्तिष्क में अनायास तीन वर्ष पुरानी एक धुँधली शाम उभर आयी…
“तनु दी, एक बात कहूँ? नाराज…..तो... ”
“अरे नहीं! यदि हुई भी, तो पिटाई थोड़ी ज्यादा कर दूँगी!”
         “मैं तुम्हें सिर्फ तनु ही कहना… ”
“बेवकूफ! क्या कहा? दीदी शब्द क्या बहुत लंबा-चौड़ा है? अंकल से कहकर कालेपानी की कैद दिलवा… ”
“बस उस कैद में तुम्हें भी साथ रखना चाहूँगा।”
“नालायक, मैं क्यों रहने लगी तेरे साथ? अच्छा चल, बकवास बंद कर। पहले राखी बँधवा ले, शाम होने लगी है।… अभी तुझे भागने की लगेगी।”
“राखी की इच्छा नहीं हो रही।”
“इसलिए कि साड़ी या शर्ट पीस देना पड़ेगा.. कंजूस-मक्खीचूस!”
“अच्छा, एक शर्त पर, पहले एक बात बताओ ..तुमने अपने लिए कोई सपना तो सजाया होगा, मैं उस सपने के राजकुमार से… ”
“शटअप!… मैं ऐसे सपने नहीं देखती।  डैडी जिसे भी पसन्द करेंगे, उसी से मेरा पहला और आखिरी व अन्तिम प्यार…।” उसकी लाज भीनी आँखों में निश्छलता तैर आई थी |
“क्या वह.. मतलब मेरे जैसा ही कोई लड़का नहीं हो सकता?”
“गधे! पता है, मैं तेरी बड़ी बहन हूँ। ऐसी जमकर पिटाई करुँगी कि...”
“फादर के फ्रेंड की लड़की, चाहे छोटी हो या बड़ी, सगी बहन के रिश्ते में नहीं आती|”                                                                                                                     
“आज तूने भंग तो नहीं पी रखी है नील, डैडी को आवाज दूँ?”
“तुम शायद मुझे कभी नहीं समझ सकोगी। इस पिटाई से तो मैं मरने वाला नहीं; पर हाँ, जिन्दगी में कभी यूँ ही मरा, तो उसकी जिम्मेवार तुम, सिर्फ तुम रहोगी|”                                                                                                             
‘नहीं…ऽ…नहीं!’ तनु पागल-सी चीख पड़ी। उसने पति के हाथ से छीनकर तार के टुकड़े-टुकड़े कर दिये, जिसमें नील के मित्र ने लिखा था—‘कम सून, नील एक्सपायर्ड!’ 

84  

श्याम सुन्दर अग्रवाल
 
माँ का कमरा
छोटे-से पुश्तैनी मकान में रह रही बुज़ुर्ग बसंती को दूर शहर में रहते बेटे का पत्र मिला—‘माँ, मेरी तरक्की हो गई है। कंपनी की ओर से मुझे बहुत बड़ी कोठी मिली है, रहने को। अब तो तुम्हें मेरे पास शहर में आकर रहना ही होगा। यहाँ तुम्हें कोई तकलीफ नहीं होगी।’
पड़ोसन रेशमा को पता चला तो वह बोली, “अरी रहने दे शहर जाने को। शहर में बहू-बेटे के पास रहकर बहुत दुर्गति होती है। वह बचनी गई थी न, अब पछता रही है, रोती है। नौकरों वाला कमरा दिया है, रहने को और नौकरानी की तरह ही रखते हैं। न वक्त से रोटी, न चाय। कुत्ते से भी बुरी जून है।”
अगले ही दिन बेटा कार लेकर आ गया। बेटे की ज़िद के आगे बसंती की एक न चली। ‘जो होगा देखा जावेगा’ की सोच के साथ बसंती अपने थोड़े-से सामान के साथ कार में बैठ गई।
लंबे सफर के बाद कार एक बड़ी कोठी के सामने जाकर रुकी।
“एक ज़रूरी काम है माँ, मुझे अभी जाना होगा।” कह, बेटा माँ को नौकर के हवाले कर गया। बहू पहले ही काम पर जा चुकी थी और बच्चे स्कूल।
बसंती कोठी देखने लगी। तीन कमरों में डबल-बैड लगे थे। एक कमरे में बहुत बढ़िया सोफा-सैट था। एक कमरा बहू-बेटे का होगा, दूसरा बच्चों का और तीसरा मेहमानों के लिए, उसने सोचा। पिछवाड़े में नौकरों के लिए बने कमरे भी वह देख आई। कमरे छोटे थे, पर ठीक थे। उसने सोचा, उसकी गुज़र हो जाएगी। बस बहू-बेटा और बच्चे प्यार से बोल लें और दो वक्त की रोटी मिल जाए। उसे और क्या चाहिए।
नौकर ने एक बार उसका सामान बरामदे के साथ वाले कमरे में टिका दिया। कमरा क्या था, स्वर्ग लगता था—डबल-बैड बिछा था, गुसलखाना भी साथ था। टी.वी. भी पड़ा था और टेपरिकार्डर भी। दो कुर्सियां भी पड़ी थीं। बसंती सोचने लगी—‘काश! उसे भी कभी ऐसे कमरे में रहने का मौका मिलता।’ वह डरती-डरती बैड पर लेट गई। बहुत नर्म गद्दे थे। उसे एक लोककथा की नौकरानी की तरह नींद ही न आ जाए और बहू आकर उसे डांटे, सोचकर वह उठ खड़ी हुई।
शाम को जब बेटा घर आया तो बसंती बोली, “बेटा, मेरा सामान मेरे कमरे में रखवा देता।”
बेटा हैरान हुआ, “माँ, तेरा सामान तेरे कमरे में ही तो रखा है नौकर ने।”
बसंती आश्चर्यचकित रह गई, “मेरा कमरा! यह मेरा कमरा!! डबल-बैड वाला…!”
“हाँ माँ, जब दीदी आती है तो तेरे पास सोना ही पसंद करती है। और तेरे पोता-पोती भी सो जाया करेंगे तेरे साथ। तू टी.वी. देख, भजन सुन। कुछ और चाहिए तो बेझिझक बता देना।” उसे आलिंगन में ले बेटे ने कहा तो बसंती की आँखों में आँसू आ गए।

85

श्याम सुन्दर दीप्ति

हद
एक अदालत में मुक़दमा पेश हुआ…
“साहब, वह पाकिस्तानी है। हमारे देश में हद पार करता हुआ पकड़ा गया है।”
“तू इस बारे में कुछ कहना चाहता है।” मजिस्ट्रेट ने पूछा।
“मैंने क्या कहना है, सरकार ! मैं  खेतों में पानी लगाकर बैठा था। हीर के सुरीले बोल मेरे कानों में पड़े। मैं उन्हीं बोलों को सुनाता चला आया। मुझे तो कोई हद नजर नहीं आई।”

3 comments:

मधु जैन said...

बढिया कथायें।

Divya Rakesh sharma said...

एक से बढ़कर एक लघुकथाएं।तार पढकर झटका लगा।सच में नहीं कह सकते कि दूसरे के मन मे क्या है।माँ का कमरा बेहतरीन लघुकथा है।वरना हमेशा बेटे को बुरा ही लिखा जाता है।प्यासी बुढ़िया अपने में अनुपम है।

Niraj Sharma said...

वाहहह। सभी कथाएँ बहुत उम्दा हैं।