Thursday, 31 January 2019

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-21

इस धारावाहिक प्रस्तुति की अंतिम कड़ी

[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100+ लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल लघुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसकी प्रथम  11 किश्तों का प्रकाशन क्रमश: 17 नवम्वर 2018, 24 नवम्बर 2018, 1 दिसम्बर 2018,  4 दिसम्बर 2018, 8 दिसम्बर 2018, 12 दिसम्बर 2018, 15 दिसम्बर 2018, 17 दिसम्बर 2018, 20 दिसम्बर 2018, 24 दिसम्बर 2018, 27 दिसम्बर 2018, 30 दिसम्बर 2018, 2 जनवरी, 2019, 6 जनवरी 2019, 12 जनवरी 2019, 16 जनवरी 2019, 19 जनवरी 2019, 22 जनवरी 2019, 26 जनवरी 2019 तथा 29 जनवरी 2019 को  जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इसकी इक्कीसवीं किश्त है। 
            टिप्पणी बॉक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांकों/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा।  साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो यूनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप  भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बॉक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]
धारावाहिक प्रकाशन की  इक्कीसवीं कड़ी में शामिल लघुकथाकारों के नाम और उनकी लघुकथा का शीर्षक…
101  सूर्यकांत नागर—फल
102  हरनाम शर्मा—अब नाहीं
103  हरिशंकर परसाई—जाति
104  हसन जमाल—प्रत्याक्रमण
   105  हेमंत राणा—दो टिकट

101
  
सूर्यकान्त नागर
 
फल
“अम्माजी ने सुबह से कुछ नहीं खाया है, इन्हें भी कुछ दो।” लम्बी यात्रा के सहयात्री के नाते मैंने अपनी चिन्ता व्यक्त की।
“माँ सफर में अन्न ग्रहण नहीं करती,” बेटे ने बताया।
“कुछ फल-वल ही खरीद दो।” मैंने सुझाया। पता नहीं, बेटे ने सुना भी या नहीं, अथवा सुनकर भी अनसुना कर दिया। अगले स्टेशन पर ट्रेन रुकी तो अम्मा का नन्हा पोता अंगूरवाले को देख अंगूरों के लिए मचल उठा। हारकर पिता ने बेटे की इच्छा पूरी कर दी।
“बेटे, कुछ अंगूर दादी को भी दो।” पिता ने कहा, लेकिन लाडला इसके लिए तैयार नहीं हुआ। माँ-बाप ने डाँटा भी, मगर उस डाँट में प्यार इस तरह लिपटा था कि नन्हे पर कोई असर नहीं हुआ।
कुछ देर बाद “दस के तीन”, “दस के तीन” कहता हुआ सन्तरे बेचने वाला आया तो मुझसे फिर रहा न गया, “अम्माजी के लिए सन्तरे ही खरीद लो।” मैंने अपनी ओर से खरीदने की पहल इसलिए नहीं की कि अपमान मानकर पिता यह न कह बैठे—हमें भिखारी समझ रखा है क्या? बेटे ने कुछ देर विचार किया, फिर माँ से कहा, “अम्मा, जरा दस रुपए देना, मेरे पास छुट्टा नहीं है।”
“अम्मा ने कहा, “रहने दे बेटा, ऐसा भी क्या जरूरी है।”
बेटे ने जिद की तो अम्मा ने गाँठ से निकाल दस का नोट बेटे के हाथ पर धर दिया, लेकिन इस बार भी नन्हे ने सन्तरे की थैली झपट ली, बोला, “मैं किछी को छन्तरे नई दूँगा। अकेले खाऊँगा।”
बाप ने जोर-जबरदस्ती की तो नन्हा जोर-जोर से रोने लगा, हाथ-पैर पटकने लगा। छीना-झपटी में उसने पापा का मुँह भी नोच लिया। दादी अम्मा ने कहा, “रहने दे बेटा! नन्हा खा लेगा तो समझूँगी, मैंने खा लिया।”
नन्हे का पेट भर गया तो एक सन्तरा पापा की ओर बढ़ाते हुए कहा, “पापा, ये तुम खा लो।”
“दादी को दो बेटा!” पापा ने समझाना चाहा, पर नन्हा राजी नहीं हुआ। दादी निरीह भाव से यह सब देख रही थी। आखिर उसने कहा, “आज दे रहा है तो खा ले बेटा, पता नहीं, कल कैसा फल मिले।”

102
 
हरनाम शर्मा 

अब नाहीं
“भगवन कसम मनै नेम है साहब इब मैं यो काम कत्तई नीं करता. कुछ नीं करता. बस कपड़ों पे प्रेस कर गुजर करूँ.”                
“.....” नए दरोगा की आँखें संवादहीन न थीं.
“माई-बाप कदी वर्दी प्रेस करवानी हो तो लेता आऊँगा बस यों ही काम आ सकूँ इब तो मैं.”
“हरामजादे,झूठ तुम्हारे खून में समाया रहेगा जन्मभर .तेरा रिकोर्ड बोल रहा है साले तू अफीम चरस गांजा सारी चीजें बेचता है. मुझे आज इस थाने में पन्दरवां  दिन  हो गया एक बार भी नहीं आया!”
“साहब जब धन्धा छोड़ दिया तो के करूँ आ कै .जब कमाई थी तो थाने की चौथ न्यारी सबसे पहले जावै  थी आपैई. थाने नै मेरे से कोई शिकायत नीं थी. इब बताओ...”
“हाँ-हाँ बताऊंगा। भूतनी के, अपना धन्धा छोडकर हमारा धन्धा चौपट करवा दो। जरा बताइयो, मैंने तेरा क्या बिगाड़ा है। तेरा धन्धा तब ही बंद हुआ, जब मैं इस थाने में आया। साले तुम लातों के भूत बातों से नहीं मानते। एकाध बार कचैहरी के चक्कर कटवा दूँगा तो सारा धन्धा ख़ूब चल पडेगा, बोल ससुरे... ”                      
“के करूँ साहब, बात यों नहीं है।”
“और क्या है कल से कोई बात नहीं सुनूँगा। चौथ थाने में पहुँच जानी चाहिए हफ्ते बाद समझे धन्धा चालू करो या मरो।”      
“साहब साठ से ऊपर हो गया पोरस थक गे अब नहीं होगा।”
“अरे ससुरे बूढ़े,  भोतई कर्मठोक है तू तो। अरे भई, तेरी कोई औलाद तो होगी।”
“जी, छोरी थी; ब्याह दी।”
“और घरवाली।” बुढिया को इंगित कर नए साहब ने पूछा।                                   
“ना जी, यो तो निरी गऊ है जी। इसने कदी भी मेरे धंधे में साथ नहीं दिया।”
“बस देख लो; और मैं कुछ नहीं सुनना चाहता।  हमें भी आखिर कुछ चाहिए पिछले कागजों का पेटा भरने के लिए। कुछ धन्धा करो, म्हारा भी कुछ हो। समझे!”  आँखें तरेरकर दरोगा गुर्राया। बूढ़े के इंकार करने से पूर्व ही डंडा तन चुका था, मगर जर्जर हाथों ने उस डंडे को हवा में ही थाम लिया।  

103
 
हरिशंकर परसाईं
 
जाति          
कारखाना खुला। कर्मचारियों के लिए बस्ती बन गई। ठाकुरपुरा से ठाकुर साहब और ब्राह्मणपुरा से पण्डितजी  कारखाने में काम करने लगे और पास-पास के ब्लॉक में रहने लगे। ठाकुर साहब का लड़का और पण्डितजी की लड़की दोनों जवान थे। उनमें पहचान हुई, पहचान इतनी बढ़ी कि वे शादी करने को तैयार हो गए। 
जब प्रस्ताव उठा, तो पण्डितजी ने कहा, “ऐसा कभी हो सकता है… ब्राह्मण की लडकी ठाकुर से शादी करे। जाति चली जाएगी।’’
ठाकुर साहब ने कहा कि ऐसा हो नहीं सकता परजाति में शादी कारण से हमारी जाति चली जाएगी।
किसी ने उन्हें समझाया कि लड़के–लडकी बड़े हैं, पढ़े–लिखे हैं, समझदार है। उन्हें शादी कर लेने दो। अगर उनकी शादी नहीं हुई तो भी वे चोरी-छिपे मिलेंगे; और तब जो उनका सम्बन्ध होगा वह तो व्यभिचार कहा जाएगा।
इस पर ठाकुर साहब और पण्डितजी ने कहा, “होने दो।  व्यभिचार से जाति नहीं जाती है। शादी से जाती है।

104

हसन जमाल

प्रत्याक्रमण
आक्रमण बलात्कार के लिए ही था।
युवती आक्रमणकारी के चंगुर में असहाय पक्षी की तरह फड़फड़ा रही थी। निजता का रास्ता न था। आक्रमणकारी दाँत भींचकर आँखों की पुतलियों को असामान्य ढंग से बाहर निकालकर नई देखी हुई फिल्म के अनुसार युवती के काबू में न आ सकने वाले चंचल हाथ-पैरों के बाँधने की ताबड़-तोड़ कोशिश कर रहा था। इस कोशिश में उसका सारा शरीर पसीने में नहा गया। बुरी तरह हाँफने लगा था वह। उसकी लस्त-पस्त देख युवती ने पहली बार प्रतिरोध को रोका। हाथ-पैर ढीले छोड़ दिए। एक हल्की-सी मुस्कान के साथ उसने निहायत मुलायम आवाज में आक्रमणकारी को सम्बोधित किया, ‘‘क्या सारा बल तुम इसी काम में लगा दोगे?’’
         स्विच बंद करते ही मशीन जिस तरह स्थिर हो जाती है, आक्रमणकारी जड़वत् हो गया। एक सकते का आमतारी हो गया उस पर। भौंचक्का-सा वह हाथ-आए शिकार को बेबसी से देखने लगा। लगा, सचमुच उसमें बल नहीं रहा।
         और इसी दरमियान अस्त-व्यस्त कपड़ों को सँभालती हुई युवती उसके चंगुल से निकल भागी। आक्रमणकारी प्रत्याक्रमण की चोट तलाशने लगा, लेकिन चोट का निशान कहीं नहीं था।
                                                           
और अंत में एक लघुकथा  बलराम अग्रवाल की ओर से…

105

हेमंत राणा

दो टिकट
जाड़ो के दिन थे, वर्मा जी बालकोनी में बैठे अखबार पढ़ रहे थे। रिटायरमेंट के बाद, ज़िदगी इतनी बोर ना थी। लेकिन जब से पत्नी साथ छोड़कर गई, एक-एक पल काटना मुश्किल हो गया। अब तो अखबार ही उनका साथी था। तभी अंदर से उनके पोते ने आवाज लगाई, “दादा जी, टेबिल पर आप का फ़ोन बज रहा है…”
वर्मा जी ने वहीं बैठे-बैठे कहा, “देख तो, क्या नाम लिखा आ रहा है?”
“कोई आर जी लिखा आ रहा है…”
“उन्ही का फ़ोन है, जिनकी बेटी की शादी में तू मेरे साथ गया था।” वर्मा जी ने पोते के हाथ से फ़ोन लेते हुए कहा।
“हाँ बोलो ऋचा, कैसी हो?”
“मै ठीक हूँ, तुम कैसे हो?”
“बस अब तो बची खुची जिंदगी गुजारनी ही, सो गुजार रहे है। फ़ोन कैसे किया, कुछ काम था क्या?”
“हाँ, घर से भागना था।”
“इस सत्तर साल की उम्र में, किसके साथ भाग रही हो?”
“तुम्हारे साथ।”
“मेरे साथ भागना होता तो उस बीस साल की उम्र में भाग जातीं। तब तुम आई नहीं और मै सुबह से शाम तक हाथ में ट्रेन के दो टिकट लिए रेलवे स्टेशन पर खड़ा रहा।”
“हाँ, तब नही आ सकी।… फिर शादी, उसके बाद बच्चे। बस उसी में रम के रह गई। गुप्ता जी मेरे लिए यह मकान और बेटी की जिम्मेदारी छोड़ कर गये थे। बेटी अपने घर चली गई और यह मकान मैंने एक संस्था को लाइब्रेरी खोलने के लिए दे दिया, अपने लिए एक कमरा रखा है।"
"यह तो तुमने अच्छा किया। अब इतने बड़े मकान का अकेली करोगी भी क्या?"
"एक बस तीर्थ यात्रा के लिए जा रही है। उसी में दो टिकट बुक कराये हैं। आ जरूर जाना। कहीं ऐसा ना हो, इस बार मैं दो टिकट लिए खड़ी रहूँ।”
“तीर्थ यात्रा पर, अपने दीवाने के साथ भागकर जाओगी। भगवान बहुत पाप देंगे।” इस बार वर्मा जी की आवाज में एक खनक थी।
“अरे कोई पाप-वाप नहीं देंगे। पहले भी तो हम मन्दिर में कौन-सा पूजा करने जाते थे।” अब ऋचा की आवाज भी, वर्मा जी की आवाज के साथ खनखना रही थी।

Tuesday, 29 January 2019

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-20

[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100+ लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल लघुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसकी प्रथम  11 किश्तों का प्रकाशन क्रमश: 17 नवम्वर 2018, 24 नवम्बर 2018, 1 दिसम्बर 2018,  4 दिसम्बर 2018, 8 दिसम्बर 2018, 12 दिसम्बर 2018, 15 दिसम्बर 2018, 17 दिसम्बर 2018, 20 दिसम्बर 2018, 24 दिसम्बर 2018, 27 दिसम्बर 2018, 30 दिसम्बर 2018, 2 जनवरी, 2019, 6 जनवरी 2019, 12 जनवरी 2019, 16 जनवरी 2019, 19 जनवरी 2019, 22 जनवरी 2019 तथा 26 जनवरी 2019 को  जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इसकी बीसवीं किश्त है। 
            टिप्पणी बॉक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांकों/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा।  साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो यूनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप  भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बॉक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]
धारावाहिक प्रकाशन की  बीसवीं कड़ी में शामिल लघुकथाकारों के नाम और उनकी लघुकथा का शीर्षक…

96  सुभाष नीरव—कमरा
97  सुधा अरोड़ा—बड़ी हत्या, छोटी हत्या
98  सुकेश साहनी—कम्प्यूटर
99  सुरेन्द्र मंथन—राजनीति
100  सुरेश शर्मा—राजा नंगा है
96    

सुभाष नीरव

कमरा
पिताजी, क्यों न आपके रहने का इंतजाम ऊपर बरसाती में कर दिया जाये?” हरिबाबू ने वृद्ध पिता से कहा।
देखिये न, बच्चों की बोर्ड की परीक्षा सिर पर है। बड़े कमरे में शोर-शराबे के कारण वे पढ़ नहीं पाते। हमने सोचा, कुछ दिनों के लिए यह कमरा उन्हें दे दें।बहू ने समझाने का प्रयत्न किया।
मगर बेटा, मुझसे रोज़ ऊपर-नीचे चढ़ना-उतरना कहाँ हो पायेगा? पिता ने चारपाई पर लेटे-लेटे कहा।
आपको चढ़ने-उतरने की क्या ज़रूरत है! ऊपर ही हम आपको खाना-पीना सब पहुँचा दिया करेंगे। और शौच-गुसलखाना भी ऊपर ही है। आपको कोई दिक्कत नहीं होगी।बेटे ने कहा।
और सुबह-शाम घूमने के लिए चौड़ी खुली छत है।बहू ने अपनी बात जोड़ी।
पिता जी मान गये। उसी दिन उनका बोरिया-बिस्तर ऊपर बरसाती में लगा दिया गया।
अगले ही दिन, हरिबाबू ने पत्नी से कहा, “मेरे दफ्तर में एक नया क्लर्क आया है। उसे एक कमरा चाहिए किराये पर। तीन हज़ार तक देने को तैयार है। मालूम करना, मोहल्ले में अगर कोई
तीन हज़ार रुपये!” पत्नी सोचते हुए बोली, “क्यों न उसे हम अपना छोटा वाला कमरा दे दें?”
वह जो पिताजी से खाली करवाया है?” हरिबाबू सोचते हुए बोले, “वह तो बच्चों की पढ़ाई के लिए
अजी, बच्चों का क्या है!” पत्नी बोली, “जैसे अब तक पढ़ते आ रहे हैं, वैसे अब भी पढ़ लेंगे। उन्हें लग से कमरा देने की क्या जरूरत है?”
अगले दिन वह कमरा किराये पर चढ़ गया।

97 

सुधा अरोड़ा
 
बड़ी हत्या , छोटी हत्या
माँ की कोख से बाहर आते ही, जैसे ही नवजात बच्चे के रोने की आवाज आई , सास ने दाई का मुँह देखा और एक ओर को सिर हिलाया जैसे पूछती हो—“क्या हुआ? खबर अच्छी या बुरी।
दाई ने सिर झुका लिया—छोरी।
अब दाई ने सिर को हल्का-सा झटका दे, आँख के इशारे से पूछा—“काय करुँ?”
सास ने चिलम सरकाई और बँधी मुट्टी के अँगूठे को नीचे झटके से फेंककर मुट्ठी खोलकर हथेली से बुहारने का इशारा कर दिया—“दाब दे!”
दाई फिर भी खड़ी रही । हिली नहीं ।
सास ने दबी लेकिन तीखी आवाज में कहा—सुण्यो कोनी? ज्जा इब!”
दाई ने मायूसी दिखाई—“भोर से दो को साफ कर आई । ये तीज्जी है, पाप लागसी।
सास की आँख में अँगारे कौंधे—“जैसा बोला, कर । बीस बरस पाल-पोस के आधा घर बाँधके देवेंगे, फिर भी सासरे दाण दहेज में सौ नुक्स निकालेंगे और आधा टिन मिट्टी का तेल डाल के फूँक आएँगे। उस मोठे जंजाल से यो छोटो गुनाह भलो।
दाई बेमन से भीतर चल दी । कुछ पलों के बाद बच्चे के रोने का स्वर बन्द हो गया ।
बाहर निकलकर दाई जाते-जाते बोली—“बीनणी णे बोल आईमरी छोरी जणमी ! बीनणी ने सुण्यो तो गहरी मोठी थकी साँस लेके चद्दर ताण ली ।
सास के हाथ से दाई ने नोट लेकर मुट्ठी में दाबे और टेंट में खोंसते नोटों का हल्का वजन मापते बोली—“बस्स?”
सास ने माथे की त्यौरियाँ सीधी कर कहा—“तेरे भाग में आधे दिन में तीन छोरियों को तारने का जोग लिख्यो था, तो इसमें मेरा क्या दोष?”
सास ने उँगली आसमान की ओर उठाकर कहा—“सिरजनहार णे पूछ। छोरे गढ़ाई का साँचा कहीं रख के भूल गया क्या?”
…… और पानदान खोलकर मुँह में पान की गिलौरी गाल के एक कोने में दबा ली।

98   

सुकेश साहनी

कम्प्यूटर
पलक झपकते ही वह खूबसूरत युवती र्में तब्दील हो गया। फिर सम्मोहित कर देने वाले नारी स्वर में बोला, “दो संप्रदायों की उग्र भीड़ को शांत करने के लिए पुलिस को हल्का बल प्रयोग करना पड़ा, जिसके कारण बीस लोगों को चोटें आई है। एहतियात के तौर पर शहर के बारह थाना क्षेत्रों में कर्फ़्यू लगा दिया गया है।
भीड़ से तेज भनभनाहट उभरी। नदी-नालों में बह-बहकर आ रहे अधजले शवों को लेकर जनता में भारी रोष व्याप्त्त था।
वह बिजली के बल्ब की तरह दो-तीन बार जला-बुझा, फिर गृहमंत्री के रूप में सामने आकर आवाज़ में मिश्री घोलते हुए बोला, “कृपया अफवाहों पर ध्यान न दें। जहाँ तक नदी-नालों में बहकर आ रहे अधजले शवों का प्रश्न है तो कोई नई बात नहीं है। देश के कुछ भाइयों का मानना है कि अंतिम संस्कार के दौरान अधजले शव को नदी में बहा दिया जाए तो मृतात्मा को मुक्ति मिल जाती है। ये शव को इसी प्रकार के हैं। हम अपने देशवासियों की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करते हैं।

भीड़ से फिर तेज शोर उठा।
वह बिजली की-सी तेजी से देश के सबसे बड़े शाही इमाम के रूप में बदला और बोला, “मैंने दंगाग्रस्त क्षेत्रों का निरीक्षण किया है, सरकार द्वारा किए जा रहे प्रयास सराहनीय हैं, आप शांति बनाए रखें।
भीड़ के एक भाग से अभी भी रोषभरी आवाज़ें उठ रही थीं ।
देखते ही देखते वह देश के सबसे बड़े महंत के रूप में सामने आकर कहने लगा, “मैंने अभी-अभी दंगाग्रस्त क्षेत्रों में रह रहे भाइयों से बातचीत की है। उनको सरकार से कोई शिकायत नहीं है।
भीड़ छँटने लगी थी।
तभी विचित्र बात हुई। राजनीतिक कारणों से सरकार बर्खास्त कर दिए जाने की बात आग की तरह चारों ओर फैल गई थी।
लोग फिर उसके सामने जमा होने लगे। इस बार वह भाई-भाईनामक फीचर फिल्म के रूप में दौड़े जा रहा था।
हमें फिल्म नहीं चाहिए!” भीड़ में से किसी ने कहा।
बर्खास्त सरकार के बारे में बताओ!” कोई दूसरा चिल्लाया।
धर्मस्थल के बारे में बताओ!!” किसी तीसरे ने चिल्लाकर कहा।
वह उनकी चीख-चिल्लाहट की परवाह किए बिना फिल्म के रूप में दौड़ता रहा।
पढ़े-लिखे बेरोजगार युवक गुस्से में भर कर उसकी ओर बढ़ने लगे। किसी ने आगे बढ़कर उसका कान उमेठ दिया। वह अदृश्य हो गया।
खालीखाली, एमटिएमटि… ” अब केवल उसकी खरखराती आवाज़ सुनाई दी।
क्या बकवास है।एक युवक दाँत पीसते हुए चिल्लाया।
डेटा फीड करोडेटा फीड करोडेटा फीड करोडेटा फीड करोडेटा फीड… ” वह किसी टेप की तरह बजने लगा। लोग हैरान थे। उनकी समझ में नहीं आ रहा था कि सरकार के बर्खास्त होते ही उसे क्या हो गया है!
                                                         

99  

सुरेन्द्र मंथन

राजनीति
 एक गंदा नाला था और उस पर एक पुल।  पुल इतना संकरा था कि एक वक्त में एक जना ही गुजर सके। तभी दो बकरियाँ दोनों किनारों पर नमूदार हुईं और रास्ते में टकरा गईं। एक ने कहा, पहले मैं जाऊँगी, तू हट पीछे। 
दूसरी ने कहा, तू नहीं हट सकती।
दोनों में से कोई भी झुकने को तैयार नहीं। तभी, पहली को उपाय सूझा।
देख, ऐसा करते हैं, तू बैठ जा। मैं तेरी पीठ पर पैर रखकर निकल जाऊँगी फिर तू चली जान॥
दूसरी बोली, ‘‘तू नहीं बैठ सकती।
बहस बहुत देर तक चलती रही। अचानक, पहली की आँखों में चमक उभरी। वह बैठ गयी दूसरी ने उसकी पीठ पर पैर रखा ही था कि पहली एकदम खड़ी हो गई। संतुलन बिगडते ही, ऊपरवाली धडाम से नाले में जा गिरी। नीचे वाली मुस्करायी और छाती तानकर पुल पार करने लगी।
                                                           
100  

सुरेश शर्मा

राजा नंगा है
राजा ने अपने मातहतों के बीच एक ज्ञापन प्रकाशित करवायामेरे पूर्वज और मैं प्रत्येक साल खजाने से भारी रकम गरीबों और पिछड़े इलाके के लोगों के कल्यानकारी कार्यों के लिए देते आए हैं। मैं इन इलाकों में जाकर देखना चाहता हूँ कि आप लोगों ने आजतक क्या किया है?’
राजा के मसौदे पर वरिष्ठ मातहतों में खलबली मच गई। सब परेशान, चिन्तित होकर सलाह-मशविरा करने लगे। सोचने लगे, बड़ा सनकी राजा है। आजतक इसके बाप-दादा नहीं गए और ये जाएगा पिछड़े इलाकों में।
राजा नियत किए गए दिन मातहतों के साथ एक गाँव में जा पहुँचा। लोगों को देखकर प्रसन्न हुआ कि सब लोग साफ-स्वच्छ कपड़े पहने हुए हैं। गाँव में पक्की सड़के हैं, बिजली है, स्कूल है। देखकर राजा खुश हुआ कि उसके राज्य में सब खुशहाल हैं।
तभी राजा ने एक आदमी से बड़े अपनत्व भरे शब्दों में पूछा, “आप लोगों को कोई कष्ट हो तो बताईएगा?”
उसने भयभीत नजरों से मातहतों की घूरती हुई आँखों की ओर देखा और सहम गया।
तुम बताओ बाबा! क्या कष्ट है तुम्हें?” राजा ने एक वृद्ध के कन्धे पर हाथ रखकर पूछा।
सरकार, दो-तीन दिन पहले ही ये बिजली के खम्बे लगे हैं बस अब कनकसनमिल जाए तो गाँव रोशन हो जाए, हुजूर !काँपते स्वर में वृद्ध ने कहा तो राजा के माथे पर बल पड़ गए और मातहतों के माथे पर पसीने की बूँदें उभर आईं।
तभी राजा ने एक बुढ़िया से पूछा, “तुम बताओ माँ, तुम क्या चाहती हो?”
ये जो सारे गाँव के लोगों को कपड़े बाँटे गए हैं, सुना है कि आपके जाने के बाद उतरवा लिए जाएँगे। हम बूढ़े-बच्चे तो बिना कपड़ों के रह लेंगे। आदत-सी हो गई है। मगर गाँव की जवान बहू-बेटियों को कपड़े पहने रहने देना मालिक। इतनी ही विनती है, सरकार उन्हें नंगा मत करना।
बुढ़िया की बात सुन राजा द्रवित हो उठा। दुखी स्वर में धीरे-से बोला, “मैं किसी को क्या नंगा करूँगा माँ, मैं तो खुद ही नंगा हो गया हूँ।