वरिष्ठ
लघुकथाकार भगीरथ द्वारा चुनी 100 समकालीन लघुकथाओं के धारावाहिक प्रकाशन की पहली कड़ी
[रमेश
जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से
मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में
लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100 लघुकथाएँ चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध
पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल ‘लघुकथा : मैदान से
वितान की ओर’ नाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों
के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इनमें से 5 लघुकथाओं को प्रत्येक रविवार ‘जनगाथा’
ब्लाग पर प्रस्तुत किया जाएगा। यह उस कार्य की पहली किश्त है।
इन लघुकथाओं पर आपकी बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का स्वागत रहेगा।
साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए
था, तो युनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगा—बलराम
अग्रवाल]
हींग लगी ना फिटकरी
“सुनती हो री ए तारा…ऽ…! अरी कहाँ बैठी साग
बीनार री है?”
“हाँ…s...आ…s…s…री सुमित्रा भैन।”
“मोहल्ले में के हो रिया है खबर है
तुझे भी..”
“ना…s… क्या हुआ रे…s…?”
“तूने सुना नी के? कौसल्या की चौथी लाड़ो
कल ब्याही गई!”
“हाय-राम! दो महीने पहले तो मंजु
ब्याह दी थी!!”
“गजब है तारा; उनकी माया, अपनी समझ
से परे है। हे भगवान! दफ्तर में और लोगन की छोरी भी नौकरी करन जावै हैं; पर
गिरधारी और कौसल्या ने तो सारी सरम बेच दी है। छोरियों की खातिर… नू कहूँ—कौसल्या
तो छोरियों को आग लगावन में बढ़ावा देती दीक्खे। न जाने कहाँ–कहाँ के लफंगे-लौंडे
पल्ले बंधे फिरे हैं। छोरियाँ अंट-संट धंधे करै हैं... नहीं तो सालभर में चार-चार
ब्याह आज कौन कर सकै है?”
सुमित्रा की आवाज सुन लीला, धरमी, शकुन्तला
सब आ गईं।
“क्या कहा? रीटा भी लग गई किनारे??”
लीला बोली।
“हूँss भाड़ में गई ससुरी, आप सो आप ब्याह, ना छोरे के कुल का पता ना बाप दादा का
...जाने कौन जात... भरी बिरादरी में नाक जो कट गई गिरधारी की ...कौण इज्जतदार घराना
ऐसी छोरियों को बहू बणावै। राम राम ...चुल्लू भर पानी में ..”
“अरे मोहल्लेभर की छोरियों के लिए
तैस है भैन, तैस...” सुमित्रा फिर बोली। लाजो ने आँखें तरेरी।
“ना ssरे! मुन्नी को देखो”, सुमित्रा बोली, “नौकरी करन जावै है ...एकदम दुधिया
सदी में लिपटी लिपटाई .सामने आते जाते मजाल है इंधे-उन्धे देख तो ले ...उसका बाप
तो कच्ची कु चबा जावै..बखत बौत खराब है ... बेट्टी राखणा बौत मुश्किल है ...”
“हाँ
री, ये तो तूने सई कई री ..चलूँ ss मेरी मुन्नी
आ गई होगी .हम भी कै दीवा बत्ती के टैम इन नरकीले कीड़ों की बात ले बैठे.”
माँ
का तमतमाया चेहरा देख दालान में बैठी मुन्नी बोली,”क्या हुआ अम्मा? बड़ी गुस्से में
हो।”
दो
जोरदार घूँसे मुन्नी की पीठ पर जमाकर वह भड़क उठी ...हुआ तेरा सिर. सात बरस नौकरी
करते बीतण लागै..हरामजादी, तुझे कोई ब्याहवण लैवा छोरा ना मिला ,जो दिन रात बाप का
मगज खावै..उनने एक घड़ी कु चैन नहीं . क्यूँ री ? किसी निपूती ने तेरी खातर छोरा नी
जणा के? देख, कौसल्या की चारों ब्याही गई. जिसने की सरम ..उसके फूटते करम . सुण ले
मुन्नी, ख़बरदार जो कल से सफ़ेद धोती पैरी ...तू भी बणवा ले बेलबाटम ...लम्बी सि
चोटी करके जरा यूँ घुम्मा फिर कर ... न्यू तो मिलेगा ई तुझे ब्याहण खातर जो राज्जी
होगा .वारी कौसल्या तारा भाग...! तुझे तो हिंग लगी ना फिटकरी .. तें रंग भी
चौक्खो “
संपर्क
: बी-138, अंबेडकर नगर, अलवर-301001 (राजस्थान)
मो-:9414017289
2-
अंतरा करवड़े
मानसिक व्यभिचार
अपने अकाउंट से लॉग आउट होते हुए रीटा पसीना-पसीना होने लगी। कौन हो सकता है ये परफेक्ट गाय?
उसकी कुछ बातों पर ही¸ आवाज के अंदाज पर ही
उसे अपना मान बैठा है। कुछ क्षणों के लिये उसके मस्तिष्क में नीली सपनीली आँखों
वाला एक गोरा चिट्टा¸ गठीला युवक अलग-अलग कोणों से आता-जाता
रहा। अनजाने ही रीटा के चेहरे पर मुस्कान आती रही।
और फिर अचानक वो
परफेक्ट गाय¸ अभिषेक में बदल
गया। अभिषेक¸ उसका मंगेतर!
अपने मन में विचारों
का तूफान लिये वह घर पहुँची। अपने कमरे की शरण ली। अभिषेक¸ उसका मंगेतर¸ दूसरे शहर में
नौकरी करता है। ऑफिस में काम करते वक्त ऑनलाईन रहता है। रीटा उसी से वॉईस चैट करने
के लिये कैफे गई थी। उसके लिये अभिषेक ने मैंसेज छोड़ रखा था। वह एक घण्टे के लिये
मीटींग में व्यस्त था और ऑनलाईन होते हुए भी उससे संपर्क नहीं कर सकता था।
तभी रीटा के मैंसेंजर पर एक अनजान संदेश उभरा।
"हैलो स्वीटी!"
"हैलो स्वीटी!"
यही था परफेक्ट गाय!
रीटा का लॉगिन नेम था स्वीट सॅन्योरीटा। और फिर थोड़ी बहुत पूछताछ के बाद उसने
रीटा को वॉईस चैट के लिये राजी कर लिया। उसकी बातचीत¸ आवाज¸ लहजे की तारीफें करता
हुआ वह दस मिनट में ही दिल¸ इश्क¸ प्यार¸
मुहब्बत तक पहुँचते हुए उसे प्रेम प्रस्ताव देने पर उतर आया।
बिना देखे सोचे
उत्पन्न हुए इस प्रेमी के लिये रीटा तैयार नहीं थी। कई बार उसने लॉगआऊट होने का
सोचा लेकिन सहेली मोना के वाक्य याद आने लगे। "यदि कोई पीछे पड़ा ही है तो
थोड़े बहुत मजे ले लेने में क्या हर्ज है?"
और रीटा बह चली थी। उस वक्त उसके मन से अभिषेक जाने कहाँ गायब हो
गया था। लेकिन जब यह परफेक्ट गाय उसका शहर¸ नाम¸ पता¸ फोन नंबर पूछकर घर आने की जिद पर अड़ गया तब
रीटा को होश आया। ये क्या कर रही थी वो?
किसी तरीके से बहाने
बाजी करते हुए उससे छुटकारा पाया और अब अपने कमरे में बुत सी बनी बैठी थी।
उसी समय घर के सामने
से जय जयकार की आवाजों के साथ ही एक स्वामीजी की पालकी निकालने लगी। रीटा ने ध्यान
से देखा। ये वही स्वामीजी थे जो कहने को तो ब्रम्हचारी थे लेकिन सदा औरतों की ओर
ही ध्यान लगाए रखते। कॉलेज के दिनों में इनके कितने ही किस्से मशहूर थे।
इन्हीं किस्सों को
सुनते सुनाते एक दिन रीटा की माँ के मुँह से निकला था¸ "सब कुछ मन¸ वचन¸
कर्म से हो तो ठीक है। फिर चाहे ब्रम्हचर्य हो या गृहस्थी।"
रीटा का मन उसे
अपराधी की भाँति कटघरे में खड़ा कर रहा था। वो स्वयं क्या कर रही थी?
भले ही अभिषेक को कभी
कुछ मालूम नहीं होगा... लेकिन मन में बात तो आई ना?
दूसरे ही दिन उसने
अभिषेक को मेल किया—‘मैंने अपना लॉगिन नेम ‘स्वीट सैन्योरीटा’ से बदलकर ‘रीटा अभिषेक’
कर लिया है।’
संपर्क
: ‘अनुध्वनि’, 117, श्रीनगर एक्सटेंशन, इन्दौर-452018 (म॰प्र॰)
मो-:9752540202
पाठ
इंग्लैंड का एक भव्य शहर। प्रतिष्ठित अंग्रेज परिवार का हेनरी।
उम्र अगले क्रिसमिस पर आठ वर्ष। स्कूल से लौटते ही वह माँ के पास पहुँचकर उससे
बोला, “मम्मी, कल मैंने अपने एक
दोस्त को खाने पर बुलाया है।”
“सच ! तुम तो बड़े सोशल होते जा रहे हो।”
“ठीक है न माँ?”
“हाँ बेटे, बहुत ठीक है। मित्रों का एक-दूसरे के पास
आना-जाना अच्छा रहता है। क्या नाम है तुम्हारे दोस्त का?”
“विलियम।”
“बहुत सुंदर नाम है।”
“वह मेरा बड़ा ही घनिष्ठ है माँ। क्लास में मेरे ही साथ बैठता है।”
“बहुत अच्छा।”
“तो फिर कल उसे ले आऊँ न माँ?”
“हाँ हेनरी, जरूर ले आना।”
हेनरी कमरे में चला गया। कुछ देर बाद उसकी माँ उसके लिए दूध लेकर आई।
हेनरी जब दूध पीने लगा तो उसकी माँ पूछ बैठी, “क्या नाम बताया था अपने मित्र का?”
“विलियम।”
“क्या रंग है विलियम का?”
हेनरी ने दूध पीना छोड़कर अपनी माँ की ओर देखा। कुछ उधेड़बुन में
पड़कर उसने पूछा, “रंग?
मैं कुछ समझा नहीं।”
“मतलब यह कि तुम्हारा मित्र हमारी तरह गोरा है या काला?”
एक क्षण चुप रहकर दूसरे ही क्षण पूरी मासूमियत के साथ हेनरी ने
पूछा, “रंग का प्रश्न जरूरी है क्या माँ?”
“हाँ हेनरी, तभी तो पूछ रही हूँ।”
“बात यह है कि माँ, मैँ उसका रंग देखना तो भूल ही
गया।”
अभिमन्यु अनत ‘मारीशस का प्रेमचंद’ के रूप में प्रतिष्ठित हैं। जन्म:9अगस्त
1937; 4 जून 2018 को निधन।
4- अमर
गोस्वामी
स्त्री
का दर्द
वे दोनों शहर से मजदूरी करके और कुछ जरूरत का सामान खरीद लौट रहे
थे। स्त्री की गोद में बच्चा था। दोनों की उम्र यही 20-25 वर्ष की रही होगी। ऊबड़-खाबड़ और कंकड़ों-भरी
सड़क पर चलते हुए अपने पति के बिवाई-भरे नंगे पैरों को देखकर स्त्री को असुविधा हो
रही थी। वह बोली, “ए, हो दीनू के बाबू!
तुम अपनी पनही जरूर खरीद लेना।”
“हाँ।” पुरुष ने कहा।
वे दोनों सोच रहे थे
कि पनही खरीदना क्या आसान बात है? इतने दिनों से पैसा जोड़कर माह-भर पहले जो जूता उधार लेकर खरीदा था,
उस पर किसी चोर की निगाह पड़ गई। उधार सिर पर था। अब उधार लेकर
खरीदने की भी हैसियत नहीं थी।
फिर जहाँ रोज खाने को रूखा-सूखा जुटाना मुश्किल हो, वहाँ जूता बहुत ऊँची चीज थी, मगर औरत को अपने पाँव में चप्पल और मर्द को नंगे पाँव ऊबड़-खाबड़ पथरीले
रास्ते पर चलते देखकर असुविधा होती थी। वह कई दिन इसी ऊहापोह में रही, कुछ पैसे चोरी से बचाने की कोशिश की, मगर वे बचे
नहीं। उस दिन भी औरत ने कहा, “न हो तो दीनू के बाबू, यह चप्पल पहन लो।”
मर्द हँसा, “जनाना
चप्पल पहनें। इससे तो नंगे पैर अच्छे।”
“ठीक ही कहा, नंगे पैर अच्छे”
बगल से गंगा नदी बहती थी। कगार से चलते हुए औरत मन ही मन बुदबुदाई, “हे गंगा मैया, अगर जुटा सके
तो दोनों को जुटाना, नहीं तो इसे भी रख लो।”
औरत ने अपनी चप्पल छपाक से पानी में फेंक दी। अब औरत को मर्द के
नंगे पाँवों से असुविधा नहीं हो रही थी।
अमर गोस्वामी : जन्म : 28 नवम्बर 1945 निधन : 28 जून 2012
अमर गोस्वामी : जन्म : 28 नवम्बर 1945 निधन : 28 जून 2012
स्कूल
सीरियल
समाप्त होते ही पत्नी ने टीवी ऑफ किया और रात के भोजन के बर्तन समेटती हुई बोली, “आज दीपू ने ख़ूब पानी पी रखा है जल्दी सोने की जिद कर रहा था तो मैंने
दूध भी पिला दिया था| कहीं ऐसा न हो कि यह रात को सोते-सोते
बिस्तर पर पेशाब ही कर दे, आप उसे उठाकर एक बार पेशाब करवा
लें|”
मैंने दीपू को जगाने के लिए आवाजें
दीं “दीपू...ओ दीपू...उठियो बेटा...उठ!” वह कुनमुनाने लगा था मैंने उसे तनिक जोर से हिलाते हुए पुनः आवाज
लगाई “दीपू...उठ खड़ा हो!”
यह
सुनते ही वह तुरंत आँखें मलता हुआ बिस्तर पर ही खड़ा हो गया और अर्धनिद्रावस्था में
ही बोलना शुरू हो गया
“टू वन जा टू...टू टू जा फोर...”
मैं हैरान! पत्नी अवाक्!! मैं उसे थामे खड़ा था| उसे बार-बार पुकार रहा था,
“दीपू... बेटे दीपू! तू घर पर है... स्कूल में नहीं बेटा...”
पत्नी भी बराबर उसे जगाने का प्रयास
करती रही किन्तु वह ‘टू टैन जा ट्वेंटी’ पर ही आकर रुका…!
संपर्क
: 895/12, आजाद नगर, कुरुक्षेत्र-136119 (हरियाणा)
मो-:9355221504
9 comments:
उम्दा लेखन
सभी लघुकथाएं एक से बढ़कर एक हैं। अभिमन्यु अनत जी की लघुकथा रंग भेद पर बहुत महीन दृष्टिकोण रखा है। अंतरा करवड़े जी कई लघुकथा नैतिक मूल्यों के प्रति सचेत करती एक निष्पक्ष दृष्टिकोण है।
बहुत दिनों से अमर गोस्वामी जी के लिए सोच रही थी कि उनकी उम्र क्या होगी? वह कैसे दिखते होंगे! उनकी अब तक कोई चित्र सामने नहीं आयी थी। इस लघुकथा को पहले भी पढ़ चुकी थी। आज फिर से पढ़ना अच्छा लगा। 'पनही'शब्द का जिस तरह से इस्तेमाल हुआ है वह लघुकथा के सौंदर्य को बढ़ा रही। अच्छी लघुकथाएं कई कई बार पढ़ी जानी चाहिए।
अरूण कुमार जी की लघुकथा का कथ्य बच्चों पर शिक्षा का दबाव मानसिक रूप से उसे प्रभावित करता है ---इसको सफलतापूर्वक बुना है।
एक अच्छी खुराक हमें आज यहां मिली है। अगले सप्ताह की लघुकथाओं का इंतजार करेंगे।
सार्थक लघुकथाओं को हम तक पहुंचाने के लिए मनःपूर्वक धन्यवाद
बहुत बढ़िया पांचों लघुकथाएँ उत्कृष्ट ! पहली में दोगलापन, दूसरी में संस्कारों का असर, तीसरी में निश्छल मासूम बचपन, चौथी में पति परमेश्वर की भारतीय मानसिकता, पांचवी में नन्हे फूल से बचपन पर सभ्यता और आधुनिकता जनित पढ़ाई का बोझ। सभी का सफल चित्रांकन ।
सभी लघुकथाएँ एक से बढ़कर एक शानदार हैं।
अंजना अनिल, अभिमन्यु अनंत और अमर गोस्वामी की रचनाएँ निसंदेह अच्छी हैं। पर अंतरा करवड़े की रचना जहॉं एक बार पढ़ने में समझ नहीं आती है, वहीं अरुण कुमार की रचना भी कुछ अधूरी सी है।
एक से बढ़कर एक कथाएँ, उत्तम चुनाव
एक दूसरे से बिल्कुल भिन्न पात्रों पर लिखी गयी छह की छह कथाएँ अति उत्तम
लघुकथा के क्षेत्र में भाई भागीरथ ने कई सारे महत्वपूर्ण काम किए हैं और उसी दिशा में यह एक महत्वपूर्ण काम है जो आगे जाकर मील का पत्थर बनेगा। प्रस्तुत लघुकथाओं में अंजना अनिल अंतरा करवड़े अभिमन्यु अनंत अमर गोस्वामी एवं अरुण कुमार की लघुकथाएं प्रभावित करती हैं। अंजना अनिल की लघु कथाएं पढ़कर चित्रा मुद्गल की लघुकथाएं याद आ जाती हैं
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