बरास्ता ‘परिंदों के दरमियां’
बलराम अग्रवाल
जी की पुस्तक ‘परिंदों के दरमियां’ लघुकथा के नवोदित
रचनाकारों के साथ ऑन लाइन लम्बी बातचीत के फलस्वरूप सामने आई है। नवोदित रचनाकारों
ने अपनी जिज्ञासाओं के समाधान इस वार्ता में पाए हैं। बलराम अग्रवाल ने सभी
प्रश्नकर्ताओं के उत्तर देते हुए उन्हें कुछ लघुकथाओं को पढ़ने के लिए
भी कहा। पुस्तक में वे कथाएँ वार्ता संदर्भ के रूप में भी दी गईं हैं और अलग
अध्याय के रूप में भी। इस पुस्तक के तीसरे अध्याय में उन्होंने इक्कीसवीं सदी के
नवोदित रचनाकारों की बाइस लघुकथाएँ दी हैं। इन लघुकथाओं से गुजरते हुए ऐसा लगा कि
कुछ ही पन्नों में सिमटी ये लघुकथाएँ मात्र लघु ही नहीं बल्कि अपने आप में इतना
बड़ा विस्तार लिए हुए हैं कि इनमें एक लम्बी कहानी, बड़े उपन्यास का पूरा कैनवास
छिपा हुआ है। आज का युवा अथवा नवोदित रचनाकार इतना मेच्योर हो गया है कि वह समाज
की हर हलचल को बड़ी बारीकी से देख-समझकर अपने शब्दों में उसी समाज को लौटा रहा है
कि देख लो, ये रहा तुम्हारा चेहरा। इन बाइस लघुकथाओं में सोच के विभिन्न धरातल
हैं। कहन के अपने-अपने अंदाज हैं। आरम्भ की लघुकथा को लें तो वह प्रतीकात्मक रूप
से कही गई है। ‘अलमारी’(अनघा जोगलेकर), चीजें रखने की एक खास जगह। अधिकतर
कपड़े। मुख्य पात्रा अपनी माँ पर चीखती है कि अलमारी में कुछ भी रखने की जगह नहीं
है। वह तुनक मिज़ाज़ हो गई है। उसमें सहनशीलता और विकल्प सोचने का अभाव हो गया है।
काम करती माँ कहती आती है कि जब से उसका वैवाहिक सम्बंध विच्छेद हुआ है तब से ही
यह हुआ है। पूछती है और बताती है कि हमें समय-समय पर अलमारी की पुरानी चीजों को
निकालकर नई के लिए जगह बनाते रहना चाहिए। बात इतनी-सी ही नहीं है। यह अक्सर हो
जाता है। जीवन में मानव एक सुख की प्राप्ति के लिए सारे ताम-झाम करता है। उसमें जब
असफलता आती है तो क्षोभ का पैदा हो जाना स्वाभाविक है। वैवाहिक जीवन भी ऐसा ही है।
टूटने पर यह खयाल नहीं रहता कि क्या कारण और क्या महत्वाकांक्षाएँ थीं।
बस यह एहसास कि यह इन-उन कारणों से हुआ और कहीं यह स्पेस ही नहीं कि वह विचार करें
कि कहीं कुछ गलत तो नहीं हो गया। अलमारी का ठसाठस भरा होना चाहनाओं और महत्वाकांक्षाओं
का भरा होना भी है। सब-कुछ वैसा ही हो, जैसा वे चाहते हैं; जब नहीं मिलता तो असफलता का अपना ही
अंतःआक्रोश, अपना कच्चा घर बनाने लगता है और जरा-सी अन्य कचोट से परोक्ष में वह
दुःख दीवार पर उखड़े प्लस्तर-सा उभर आता है। कथा में माँ का विकल्प सुझाना कि
समय-समय पर पुरानी चीजों की छँटाई करते रहना चाहिए, इंगित करता है कि यही स्थिति
विचारों की भी है। पुराने विचारों को स्थानापन्न कर परिस्थितियों को नए रूप में
देखा जाए तो स्वजीवन निर्णयों के पश्चात्ताप और तत्स्वरूप उभरे आक्रोश के लिए कोई
गुंजाइश ही नहीं रहती। यह जीवन का सार भी है।
उपमा शर्मा की लघुकथा ‘गिद्ध’ के
कथ्यरूप अंतर्वस्तु की ओर न जाकर यदि कथासार की ओर देखें तो यह समाज का वह चेहरा
है जिसे प्रायः हम देखते हैं और नकार देते हैं। समय के बदलाव और भीतर तक घुस आए
बाजार ने आदमी को इतना संवेदनहीन बना दिया है कि किसी स्वजन के अंतिम समय में भी हम
व्यापारिक व्यवहार से नहीं चूकते। मृतक के साथ सहानुभूति की बजाए उसके धन-सम्पदा
की ओर दृष्टि गड़ाए ही नहीं रहते, शवयात्रा से पहले ही उसे प्राप्त कर
लेना चाहते हैं। इस डर की ऊहापोह कि कहीं कोई दूसरा हकदार या अन्य सब कुछ न हथिया
लें। इस कथा में बुआ मृतका के अंतिम शृंगार हेतु उसकी बड़ी बेटी यानी अपनी भतीजी से
मृतका की नई साड़ी लाने को कहती है। भतीजी अपनी बड़ी भाभी को चाबी देती है। और बड़ी
से छोटी बहू यह कह ले लेती है कि उसे पता है कि सासु माँ चीजों को कहाँ रखती हैं।
उसे पता नहीं है, मगर सास की अलमारी को देखने का मौका वह नहीं गँवाना चाहती और एक
पुरानी साड़ी लेकर आ जाती है। बुआ साड़ी देख कहती है कि वह साड़ी लाए जो इसने विगत
समय शादी के समय पहनी थी। बहनें और बहुएँ भीतर जाती हैं। सोचती हैं कि बुआ कहीं, मृतका
के मुँह में सोने की बड़ी तार ही न डाल दें। इसलिए उन्हें चूड़ियाँ निकाल लेनी
चाहिए। कुंवारी ननद के सवाल पर वे कहती हैं कि बाद में आधा-आधा बाँट लेंगी। उसी
समय बुआ को बाहर कुछ शोर सुनाई देता है। वह पूछती है। उसे बताया जाता है कि यह तो
कौवों की काँव-काँव है। वह कहती भी है कि आजकल ये वहीं चले आते हैं जहाँ कोई जानवर
मरा होता है। वह समझ रही हैं कि भीतर क्या चल रहा है। अपने भीतर उठे आक्रोश को वह
मुहावरे में व्यंजना के साथ प्रकट करती है। कोई समझता है कोई नहीं। जो समझता है उस
समय चुप रहता है। यह एक आम मानवीय प्रकृति होती है।
यह लघुकथा गिद्धों के प्रतीक के रूप
में उस मानवीय अवस्थिति के बारे में इंगित करती है जो प्रायः धनलोलुप होते हैं।
छोटी बहू भीतर साड़ी लेने इसलिए भी जाती है कि वह देखें तो सही कि सासू की अलमारी
में क्या-क्या है? उनमें संवेदना की कोई टीस नहीं होती। उन्हें तो
बस अपना स्वार्थ और प्राप्ति हेतु लपकने के प्रयास ही दिखते हैं। ये सही मायनों में
गिद्ध ही तो हैं जो उसे नोंचने को तत्पर हैं। शवयात्रा उधर गई और इधर सबसे पहले
उसकी भौतिक चीजों का सफाया। ठीक वैसे ही, जैसे चर्मकार द्वारा मृत जानवर की खाल
निकालते हीं गिद्ध उस पर टूट पड़ते हैं। मानवीय दुर्व्यवहार की पराकाष्ठा।
शीर्षक सही है। यहाँ कथा के प्रकटीकरण
में एक विरोधाभास प्रतीत होता है। पहला, कौव्वों की आवाज़ की ओर ध्यान जाना। घर के
बाहर बेशक ऐसी आवाज़ें आती भी हों, तो भी उस ओर ध्यान नहीं जाता, न
ही चर्चा होती है। उस समय तो एकाग्रता यह होती है कि शव को श्मशान ले जाने की
तैयारी जितने जल्दी हो सके, की जाए। दूसरे, जब कोई मरता है तो उसकी इस यात्रा हेतु
तैयारी के समय गाँव, बेड़, मुहल्ला आदि के लोग और निकटवर्ती
रिश्तेदार भी उपस्थित होते हैं। उनके सामने ऐसी हरकतें प्रायः नहीं होती। हाँ,
शवयात्रा के बाद घर की सफाई से पहले ही ऐसा संभव हो सकता है। तीसरे, जब आदमी मरता
है तो उसके मुँह में सोने आदि की तार के स्थान पर सुनार से लाई पंचरत्न की पुड़िया, तुलसी
के पत्ते और
गंगाजल भी कुछ इलाकों में डाला जाता है। गिद्धों की बात यदि शवयात्रा के बाद आँगन
में कहीं जाती तो ज्यादा सटीक और समयानुकूल होती। सब सुनते और गुनते भी। बोलने
वाले हरकतें नोट करते रहते हैं और समय पर ही उत्तर देते हैं। यह कथा की ताकत है कि
पूरा कथ्य पाठक को सोचने, समझने के लिए प्रेरित करेगा। लघुकथा हो या अन्य
रचना किसी भी वाक्य, कथ्य या मुहावरे का सायास प्रयोग खटक पैदा करता
है।
‘जानवर’ (कनक के हरलालका)
आदमी के जानवर में तब्दील होने की कथा है। दबंग विधायक गाँव की महिला सरपंच जो
आरक्षित वर्ग से आई है को धमकाता है। अपने बदमाश बेटे की हरकत को सही ठहराते उसके
बारे में बताता है कि जवान छोरे खुले साँड की तरह होते हैं। कुछ भी कर सकते हैं।
सरपंच ने विनम्रता से कहा कि साँड तो जानवर होता है उसकी जगह तो जंगल में हानी
चाहिए है। विधायक अपने गुण्डों के बल पर फिर धमकाता है और उसके मान पर चोट करता
रहता है। जब सारे विकल्प निष्फल होते हैं तो सरपंच कहती है कि ऐसा जानवर जो किसी
तरह के उपाय से भी न ठीक हो सके तो उसे गोली मार देनी चाहिए। यह एक दबंग व्यक्ति
के लिए एक महिला सरपंच का दबंग उत्तर था। जाहिर है समाज में आज भी एक तबका यह सोच
कर बढ़ रहा है कि उसका कोई कुछ नहीं बिगाड़ सकता। मगर अब समय आ गया है कि लोगों के
भीतर बढ़ रही जागरूकता और साहस के कारण उन दुष्ट विचारों पर नकेल कसी जाए और समाज
में बराबरी से जिया जाए। इसी प्रकार की दबंग और कुटिल प्रवृत्ति की एक और कथा
कल्पना भट्ट की ‘पार्षद वाली गली’ है। इसमें भी एक नेता ने एक सफाई कर्मी की
अस्मिता की रक्षा के लिए उठाई आवाज़ को दबाने की कोशिश की है। दरोगा के माध्यम से
उसके सफाई कार्य क्षेत्र को अपने क्षेत्र में स्थानांतरित करने का आदेश दिलवाया
है। क्योंकि विगत दिन उसने उसके चौकीदार को गलत हरकत करने पर चप्पल जो मारी थी। वह
सम्भवतया बदला लेना चाहता हो या सबक सिखाने की कोशिश में धमकाना चाहता हो, मगर
स्वाभिमान वाली उसने दरोगा को बता दिया कि वह उसकी प्रकृति के बारे में खूब जानता
है। यानी सहन नहीं करेगी वह कोई भी गलत हरकत। हमारी व्यवस्था की दिक्कत यह है कि
वह समानता की बात तो करती है। कानून भी बनाए हुए हैं परंतु इस सबके बावजूद किन्हीं
शक्तिशाली प्रभावों के फलस्वरूप वर्तमान में भी आदमी सुरक्षित नहीं है।
पूरा समाज सम्बंधों और रिश्तों के महीन
धागों से बंधा पड़ा है। रिश्तों की डोर के प्रकटीकरण में अनिता ललित की लघुकथा ‘हक’
मानवीय सोच के रूप और संलग्नता को प्रकट करती है। पिता अपने देर से आए बेटे से
मात्र इतना कहते हैं कि देर कर दी तो वह चिढ़ जाता है कि वह क्षोभित उत्तर देता हैं
कि ‘वह कोई बच्चा नहीं कि खो जाएगा...’ पिता का अपनी संतान से गहरा प्यार होता है।
वह छोटा हो या बड़ा। एक चिंता रहती है। वह उसे अपने सामने या उसकी आहट अथवा
अवस्थिति के बारे में संज्ञान में रहना चाहता है। यही स्थिति माँ की भी होती है।
इस कथा में पिता की संलग्नता को वर्णित किया गया है। पिता के पूछने पर तल्ख उत्तर
से पिता भीतर ही भीतर आहत हो जाता है। बेटा भीतर से कपड़े बदलकर जब आता है तो अपने
बेटे का घ्यान आता है। वह पत्नी से पूछता है कि बेटा यानि बुजुर्ग का पोता अभी तक
घर क्यों नहीं आया? बड़बड़ाता है कि उसे अस्पताल में ऐसा कितना काम
है तो अपने ही सवाल पर झेंप जाता है। उसे एहसास हो जाता है कि जैसी मानोइच्छा उसकी
अपने बेटे के बारे में है वैसी ही उसके पिता को भी है। अपने व्यवहार पर गलती का
एहसास होने से वह अपनी झेंप मिटाने वह पिता के पास चारपाई पर बैठ पत्नी से चाय की
माँग करता है। ऐसे समय में पिता और पत्नी का मुस्कुराना स्वभाविक है। यह सम्बंधों
का गोरखधंधा है और आदमी की समझ कि कौन कैसे, किससे, किस
तरह जुड़ा है। यदि कथा के अंत अथवा परिणति के बारे या फिर निचोड़ के बारे में सोचें
तो शीर्षक उतना फिट नहीं बैठता जितना इस कथा की संवेदना है। शीर्षक प्रायः जटिल
कार्य होता है। इसके लिए विचार कर ही निर्णय लेना होता है। यदि मैं सुझाऊँ तो इस
कथा का शीर्षक ‘किस मुँह से’ या ‘अपने ही शब्दों में’ या कोई और भी हो सकता है, जिससे
संतान प्रेम परिलक्षित हो या हुई वार्ता का सराँश निकले। शीर्षक यद्यपि रचनाकार का
अधिकार है फिर भी यह आकर्षक और ऐसा होना चाहिए ताकि पाठक यह सोचें कि वह इस रचना
को क्यों पढ़ें? बलराम अग्रवाल जी ने शीर्षक के बारे में इसी
पुस्तक में ओम प्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’ की जिज्ञासा का शमन करते हुए कहा है कि
शीर्षक कथा के प्रति जिज्ञासा उत्पन्न करने वाला होना चाहिए। (पृष्ठ 64)
सम्बंधों के विभिन्न धागों की बुनत में
बुनी कथाएँ अहसास (कुणाल शर्मा), स्वयंसिद्धा (जानकी बिष्ट वाही), तुम
बुद्ध नहीं (पूनम डोगरा), मन की तृप्ति(रुपेंद्र राज) हैं जो बड़ी
सूक्ष्मता से समाज में आदमी के विभिन्न रूपों का प्रकटीकरण कर अपने रचनात्मक
निर्वाह में सफल हुई हैं। ‘अहसास’ में मानवीय व्यवहार के बेतोल को सूक्ष्म
संवेदनाओं के साथ प्रकट किया गया है। समाज में प्रायः यह धारणा बनी हुई है कि
बहुएँ सास-ससुर की सेवा नहीं करती। आम तौर पर यह धारणा निर्मूल भी नहीं है। विमला
नामक सास के बहू-बेटा उसे शहर ले आए और आपरेशन के बाद खूब सेवा की। विमला की बहन
भी उसे देखने आई। शंका जाहिर कर गई कि उसे शहर नहीं आना चाहिए था। कामकाजी होने के
कारण अब ये दोनों तेरी सेवा नहीं करेंगे। वह चकित रह जाती है जब बहू-बेटे ने उसका
बिस्तर ही अपने कमरे में लगा दिया ताकि उसे जब भी जरूरत हो तो वह उन्हें कह सके।
एकदिन उसे शौच की हाजत होती है तो अपने बारे में सोचने लगती है। कहीं वह बिस्तर
गीला न कर दे।ं बेटा-बहू तो गहरी नींद में है। क्यों जगाऊँ? हाजत
के दबाव में उसे अपनी सास का ध्यान भी आता है जब उसने उसे ऐसे ही गीला रहने दिया
था। वह सिहर जाती है। कहीं उसके साथ भी ऐसा न हो। परेशानी में उठने की हिलडुल करती
है तो बेटा जाग जाता है और उसे शौच ले जाता है। तभी बहू भी उठती है और उसे बताया
कि उसने दफ्तर से छुट्टी ले ली है।
कथा में नीहित संदेश है कि बेशक हम
सक्ष्म है मगर जो आज है वे कल नहीं रहेंगे। इसलिए उस अक्षमता को देख अपनी अवस्था
का स्मरण कर अपने कार्य निष्पादन करने चाहिए। बच्चा और बूढ़ा लगभग एकसा ही होते
हैं। टहल माँगते हैं। यह एक स्वस्थ समाज के निमार्ण की कामना की कथा है। और यह
अहसास हो जाए तो एक स्वस्थ समाज का निर्माण होगा।
‘स्वयंसिद्धा’ एक
अच्छी लघुकथा है मगर लगता है कहीं एक संदेश मात्र के लिए ही बुनी गई है। आरम्भ जिस
जिज्ञासा से होता है अंत व्यवहारिक और औपचारिकता की बनिस्पत उक्ताहट से हुआ।
रिश्तों में बेशक कई भीतरी द्वंद्व उभरते हों मगर निभाते समय थोड़ी सी औपचारिकता
बरती ही जाती है। खैर! कथा में एक मुबई से
आया व्यक्ति अपने चचेरे भाई से मिलने उसके आग्रह पर घर आता है। अपने बच्चों की
पढ़ाई और श्रेष्ठता का बखान कर रहा होता है कि भाई की बेटी घास पात लेकर आती है।
प्रणाम के आदान-प्रदान के बाद उसके ब्याह की बात करता है। तभी भाई कहता है कि यह
सभी कार्यों में दक्ष है। अभी बी.एस.सी कर रही है। कहती है कि तो क्या हुआ जो उनके
पास डाक्टरी, इंजीनियरी की पढ़ाई के लिए पैसा नहीं है। उसका लक्ष्य आई.ए.एस बनने का
है। छोटी भी चारा लेकर आती ही होगी। इससे भाई अपने साथ तुलना कर मन ही मन तिलमिला
जाता है और बैठ नहीं पाता। कहीं भीतर यह छटपटाहट कि वह तो चचेरे भाई को छोटा दिखा
रहा था मगर नहीं ऐसा नहीं हो सका। वह उठकर चला जाता है। इस कथा में आदमी के झूठे
दर्प को तोड़ा गया है। कथा की प्रभावन्विति से लगता है कि इसमें सहजता नहीं है। एक
बड़ा अंतः प्रसंग भी है। कि इतना सब एक बात कहने मात्र को ही रचना हुई है। यहाँ यदि
वह अपनी भीतरी कुलबुलाहट को दबा औपचारिकता निभाता उठता तो कथा के सम्प्रेषण पर
प्रतिकूल प्रभाव नहीं पड़ता। शीर्षक फिर यह साबित नहीं करता कि वह स्वयंसिद्धा है।
स्वयंसिद्धा के लिए केवल बेटी के ही संघर्ष की जीत का वर्णन होना चाहिए था।
‘तुम बुद्ध नहीं’ में भी एक गलती के बाद
पश्चाताप और स्त्री स्वाभिमान को दर्शाने की भरपूर कोशिश की गई है। अरेंज्ड मैरिज
में पूर्व सम्बंधों के चलते पत्नी का परित्याग करना और फिर लौट कर भूल को माफ करने
का प्रस्ताव इस कथा का मूल विषय है। आदमी अपने कहे के बारे में नहीं सोचता कि उसके
वचन का दूसरे पर क्या प्रभाव पड़ेगा। एक नव विवाहिता के लिए कितना कष्टदायक होगा जब
पति कहे कि उसके प्रति उसके मन में कोई फीलिंग नहीं पनप रही। कि वह किसी और से
प्रेम करता है। उसके उदर में बीज डाल महीने में ही उसका परित्याग कर देता है। और
जब एहसास होता है और उधर से ठेस लगती है तो देर हो चुकी होती है। वह लौटता है
मनुहार करता है मगर तब वह जान जाती है कि उसकी क्या मंशा है। कथ्य के निष्पादन में
प्रवाह है। मगर इस कथा में यदि पति के वापस लौटने के कारण का उल्लेख किया जाता और
उसके पश्चाताप की पीड़ा को भी दर्शाया जाता तो और बात होती। शीर्षक महात्मा बुद्ध
के आखिर में यशोधरा के पास लौटने की मानसिकता से लिया गया है मगर यहाँ का पात्र उस
तरह का नहीं है। फिर भी शीर्षक जिज्ञासा तो बनाता ही है।
प्रेम में स्वार्थपरतता भी समाज का एक
महत्वपूर्ण
कार्य है। बहुत से प्रेमी दो नाव में सवार होते हैं। ‘लकीरें’ (उषा अग्रवाल) की
लघुकथा में दो प्रेमी हाथ की लकीरों को देख बतिया रहे हैं। पुरुष कहता है कि उसके
हाथ में शादी की ही लकीर है जबकि प्रेमिका के हाथ में दो लकीरें हैं। एक शादी की
और दूसरी प्रेम की। यानी शादी के बाद भी वह उसके साथ प्रेम करती रहेगी। लड़की उसकी
कुत्सित मंशा समझ पेन से उन लकीरों को मिला देती है। एहसास कराती है कि वह जो सोच
रहा है, वह गलत है। प्रेम निश्छल होना चाहिए एकांगी नहीं। प्रत्येक युवती प्रेम की
परिणति चाहती है। सौदेबाजी नहीं।
लता अग्रवाल की लघुकथा ‘गमक’ मानवीय
सम्बंधों और अपेक्षाओं के दृष्टिगत बदलते परिवेश को प्रकट करती कथा है। पिता ने
बच्चे को पढ़ाया और जब उसकी नौकरी विदेश में लग जाती है तो वह खुश हो बेटे की इच्छा
के विरुद्ध भी विदेश भेज देता है। उसे घर की जिम्मेवारियाँ बताई जाती हैं। जैसे
उसकी पढ़ाई के लिए लिया कर्ज निपटान, बेटी की शादी आदि। बेटा जब वापस लौटता
है तो चाहता है कि माता-पिता से वैसा ही प्यार मिले जैसा पहले मिलता था । गाँव की
चौपाल वाले चाचा से वैसे ही कहानियाँ सुने। मगर सब तिरोहित हो जाता है जब घर में
उसे एक खास मेहमान का सा बर्ताव मिलता है और चाचा से कहानी सुनने की बजाए उल्टे
उससे ही विदेश के अनुभव सुनाने को कहा जाता हे। उसे लगता है कि उनका वह अपना सा
अपनत्व कहीं गायब हो गया है। वह गमक अब नहीं है। और जिस गमक को वह रिश्तों में खोज
रहा है वह उसे शहर के अपने उस चर्मकार से मिलती है जो उसके जूते पालिश किया करता
था और उससे जफ्फी मार कर मिलता है।
परोक्ष में यह भी कि आज माता-पिता और
बच्चे सब जो कुछ भी परवरिश कर रहे हैं या पा रहे हैं उसके पीछे पैसा ही है, एक
निवेश है। यह गहरे से सोचें तो ये आज की ही नहीं भारतीय समाज की कालांतर से चली आ
रही परिपाटी भी है। पिता के बाद पुत्र को ही तो सारा घर सम्भालना होता है। वह
माता-पिता की पूँजी होता है। अपने आरम्भिक शिक्षा अथवा वयस्कता के पड़ाव के बाद उसे
धनोपार्जन के लिए भेजा जाता है। परोक्ष में वह धन ही तो है। बाजारवाद को प्रकट
करती एक और लघुकथा तात्कालिक समय के बरक्स रची गई है।
‘मिट्टी का दीपक’
(क्षमा सिसौदिया) विगत में हुई नोटबंदी की प्रभावन्विति के कारण आम आदमी और ग्राहक
को पेश आ रही कठिनाई को रेखांकित करती कथा है। एक ग्राहक अपने स्वभावानुसार वर्ष
में एक बार लगने वाले बाजार मे दीपावली के लिए दिए बेच रहे कुम्भकार से भाव करता
है और उसके रेट को महंगा बताता है। गाँव से दिए बेचने आया वह कटाक्ष करता है कि आप
लोग 5रू
किलो का प्याज 40 रू तो खरीद लेते हो उसे महंगा नहीं कहते और हमारे माल को मंहगा
बताते हो। वह आगे चलता है और कुछ और खरीदता है तो दो हजार का नोट देता है। उसका यह
नोट हास्यस्पद बनता है जब छुट्टा नहीं मिलता। दुकानदार कहता है बाबू जी सौ का नोट
दो। वह जाने लगता है तो दीए वाला दुकानदार कहता है कि दिया ले जाओ और वहाँ जला
देना जहाँ से सरकार मन की बात करती है। उसके मन में क्षोभ है कि किस तरह उनका व्यवसाय, जीवनयापन
नोटबंदी के कारण कठिन हुआ है। क्षोभ से मन की बात पर किया यह कटाक्ष एक छोटे आहत
व्यक्ति का है। उसके पास प्रतिरोध के लिए ताकत नहीं है मंच नहीं है। जहाँ समय मिला
अपना आक्रोश प्रकट कर दिया। कथा की चिंता यह भी है कि वास्तव में नोटबंदी से किसका
लाभ हुआ? नहीं पता। क्या लाभ हुआ दो हजार के नोट चलाने का? कहीं
उसका छुट्टा ही नहीं मिलता। नोटबंदी पर विभिन्न रचनाकारों ने अपने-अपने कथ्य और
अनुभव से रचनाएँ रची हैं। वास्तव में इससे आम जनता को लाभ के स्थान पर भारी कष्ट
का सामना करना पडा और ये भारी भरकम राशि का नोट तो मुसीबत आज भी है।
चिरकाल से चली आ रही समस्या वर्तमान
में भी उसी विकराल रूप में सामने है। स्मार्ट सीटी, माल, कोई
सीमेट प्लांट, कोई अन्य खनिज पदार्थों का खनन, नया
शहर,
हवाई अड्डा आदि विकास के साथ सड़क, बिजली हेतु डैम
आदि अनेक पहलु हैं जिनके लिए किसानों की जमीन का अधिग्रहण किया जाता है। इस
अधिग्रहण की पीड़ा को कविता के माध्यम से संगीता गांधी ने ‘भयभीत परम्परा’ में अपना
वर्ण्य विषय बनाया है। बेशक अधिग्रहण के बाद किसानों को पैसा मिलता है मगर यह पैसा
कितना टिक पाता है। उन्हें वह जमीन नहीं मिल पाती जो उसके पास होती है। पैसे पर
जाने कितनों की नज़र होती है। और वह जल्दी नष्ट हो जाता है तब उगती है शहर के बाहर
नयी झुग्गियाँ और कर जाते हैं किसान आत्म हत्या। एक नया गरीब वर्ग तैयार होता हे।
विकास का एक रूप विनाश भी होता है जिसे सरकार नही किसान ही जानता है।
‘गर्ल फ्रेंड’ अपनी
तरह की लघुकथा है। बुढ़ापे में जब अकेलापन सताता है तब वह उस रिक्तता को भरने के
लिए विकल्प ढूँढता है। इस कथा में पत्नी के न रहने पर अपने अकेलपन को बाँटने के
लिए वह अपनी कामवाली की बच्ची को पाता है। उसके साथ खेलता है और प्रसन्न रहता है।
एकदिन घर से बाहर यह कह जाने लगा कि उसे अपनी नई गर्ल फ्रेंड से मिलना है और उसके
जन्मदिन पर उसे साइकिल देनी है तो बेटा-बहू चकित कुछ और सोच बूढ़े की हरकत को देखना
चाहते हैं। उसका पीछा करते हैं। तभी पाते हैं कि वह उस लड़की को साइकिल चलाना सिखा
रहे हैं। दरअसल बड़ी उम्र में पति-पत्नी में से एक के न रहने पर जो खालीपन आता है
उसे भरने की जरूरत होती है। बच्चे निश्छल होते हैं। उनके साथ वक्त कट जाता है।
इस संयोजन में धनक (निधि शुक्ला), धूएँ
की लकीर(प्रेरणा गुप्ता), रिश्तों का बसंत(शेख शहज़ाद ‘उस्मानी’), गुब्बारा
(शोभा रस्तोगी), अधूरा-सा (सत्य शर्मा ‘कीर्ति’) लघुकथाएँ
रिश्तों और सम्बंधों के विभिन्न पहलुओं को अभिव्यक्त करती हैं। ‘धनक’ सामाजिक सोच
पर कटाक्ष करती कथा है। लड़के के जन्म और लड़की के जन्म में अंतर को प्रकट करती कि
समाज की यह पुरानी आदतरूपी सोच है कि बहू के उदर से यदि कुछ निकले तो वह बेटा ही
हो। इस कथा में ननद के बेटा होने पर स्वागत की तैयारियाँ हो रही हे। बहू को को
हिदायत दी जाती है कि द्वार पर आते ही बेटे की नज़र उतारनी है। साथ उसके बेटा न
होने का टोहका भी दिया जाता है। यहाँ रचनाकारा ने उस मानसिकता को तोड़ा है कि बेटे
की ही नज़र नहीं उतारी जाती है। बहू ननद के बेटे की नज़र के साथ अपनी दोनों बेटियों
की भी नज़र उतारती है। और सास के टोहके से आहत उसे कहती है कि बेटियाँ भी कहाँ सबके
नसीब में होती है। ऐस में कथा में बहू के इस वाक्य की ताकत और बढ़ जाती यदि आरम्भ
में ननद के बेटा होने की बात के साथ यह कहा जाता कि उसके दूसरा बेटा हुआ है तो यह
बात और ज्यादा प्रभावी होती।
सवाल उठता है कि समाज में यह सोच क्यों
है कि बेटा हो तो हमारे और बेटी हो तो दूसरों के घर। शिक्षा के विस्तार के साथ अभी
भी हमारा समाज इतना शिक्षित नहीं हुआ है कि बेटी पैदा करना पुरूष के शुक्राणुओं
में होता है न कि महिला के। वर्तमान में सरकार की बेटी बचाओ और बेटी पढ़ाओं के
परिदृश्य में यह कथा अहम स्थान रखती है।
फिर भी यह कथा यह सोचने पर मजबूर करती
है कि यदि सब घरों में बेटे ही हुए तो फिर बहू कहाँ से आएगी? इस कथा में भी शीर्षक के साथ खटक लगती
है। आकर्षक है मगर मेल खाता नहीं।
‘धूएँ की लकीर’ (प्रेरणा
गुप्ता) में रचनाकार ने लड़कियों के लिए विवाह ही एकमात्र अंतिम निर्णय को लेकर
अपनी बात कही है। एक कामवाली बाई की लड़की दिव्य एक बबिता नाम अध्यापिका के पास
पढ़ने आती है। क्राफ्ट कार्य में वह इस बार डलिया बनाना चाहती है। अध्यापिका कहती
है कि किस काम की। विगत वर्ष की तरह कुछ काम की चीज बना जो कल तेरे ब्याह के काम
आए। वह विवाह करने के लिए मुकर जाती है। बताती है कि बड़ी बहन के साथ हुए अन्याय को
देख उसका मन नहीं करता। उन्होंने उससे ससुराल में सब कुछ छुड़ा लिया। उसके शौक के
कोई मायने नहीं। वह अपना जीवन अपनी तरह नहीं जी सकती। बबिता उसकी बात सुन सन्न रह
जाती है। कथाकारा ने उस छोटी लड़की के माध्यम से भीतर ही भीतर सुलग रही भावना को
पहुँची ठेस के कारण उठते धूएँ की महीन लकीर देख पाठकवर्ग को अगाह किया है।
‘रिश्तों की वसंत’ कथा में रूढ़िवादी
समाज में व्याप्त मानसिकता कि पुस्तकें पढ़ने से कुछ नहीं मिलेगा। वे नहीं चाहते कि
लेखक बेटे के घर के इलावा बाहर भी कोई और रिश्ते हों।
‘गुब्बारा’ (शोभा
रस्तोगी) में लेखिका ने कुछ अप्रत्याशित परिस्थितियों में आए आक्रोश को अभिव्यक्ति
दी है। अध्यापन के व्यवसाय में देरी से पहुँचना और प्रधानाचार्य की अपेक्षित डाँट
के बाद अतिरिक्त समयबद्ध कार्य मिलने के साथ सहयोगी अध्यापिका के न आने से क्रोध
का पारा चढ़ना स्वाभाविक है। बहुत ऊल-जलूल सोचती है मगर उसका पारा फले गुब्बारे की
तरह फुस्स हो तब शाँत हो जाता है जब वह अपनी क्लास में छुट्टी के बाद रुके दो
बच्चों को खेलते, हंसते देखती है। वे गुदगुदा रहे हैं। उनके
चेहरे पर कोई तनाव नहीं है कि उन्हें लेने कोई अभी तक क्यों नहीं आया। वह मनन करती
है और अपने बारे में सोचती है। सोचती है कि उससे तो ये बच्चे अच्छे है जिनमें इतना
सब्र है। सहनशीलता है। अपने गुस्से को तिरोहित होता देख वह अपने घर पर लंच में आए
पति को देरी का कारण बता फोन करती है और दो चपाती अपने लिए बनाने को भी हंस कर
कहती है। स्कूलों में विशेषकर निजी में अध्यापकों पर बहुत दबाव होता है। अनेक काम
एकसे ही लिए जाते हैं। इसलिए यह आवश्यक है कि अपनी अवस्थिति को समझ मन में उमड़े
आक्रोश के दबाव को कम रखा जाए और तनाव से बचा जाए। कथा का मकसद प्रसन्नता को अपने
भीतर खोजने को प्रेरित करना भी है।
‘अधूरा सा’ कथा
इस संयोजन की 22वीं कथा है। कथा में उम्रदराजी के दुःख और सुख का वर्णन
मिलता है। पहले जीवन में मलाल कि वह अपने को घर में कम वेतन का नौकर समझती थी जो
हर समय खटती रहती थी। अपने लिए कोई समय ही नहीं। समय के बदलाव में पति के टूअर का
काम और बच्चों का विदेश चले जाना हुआ तो घर खाली। अब समय ही समय किसी का कुछ नहीं
करना मगर यह भी किस काम का? जिस काम की वह अभ्यस्त थी वह तो अब है
ही नहीं। वह महसूस करती है और तब स्वयं को अधूरा सा समझती है। वह सोचती है औेर
विकल्प निकालती है। अपने व्यवहार को सरंजाम देने के लिए एक काम चुनती है कि घर में
स्वयं बिखराव पैदा करो और उसी पर अपनी चिढ़ने, गुस्सा होने और
चीखने के स्वभाव को प्रकट करो। अपने बारे में सोचने को विवश करती कथा।
इस संयोजन में ‘उमड़ते आँसू’ (नयना ‘आरती’
कनिटकर) की लघुकथा एक लम्बी कहानी का छोटा-सा हिस्सा लगती है। किसी उपक्रम में बहन
पकौड़े बना रही है। भाई को स्वाद से पत्नी की याद आ जाती है। बहन महसूस करती है कि
भाई भाभी को नहीं भूला है। वह चाहती है कि भाई अपने अवसाद से बाहर आए। मगर यह
मात्र सोचना ही है। जिन अच्छी परिस्थितियों में आदमी जीता है उनके छिन जाने से वह
उनसे बाहर नहीं आ पाता। ‘रोजी-रोटी’ (नीना सिंह सोलंकी) में शेख चिल्ली की नई कथा
परिलक्षित होती है। मगर इसकी भावभूमि अलग है। यहाँ एक मजदूर सिर पर रोशनी का हाँडा
लिए बारात में चल रहा है। नाचने का शौक है। पर उस समय वह अपने काम में व्यस्त है।
कुछ अमीर शोहदे बेताले से नाच रहे हैं। वह भी उनके साथ मन ही मन नाचने लगता है और
उसी में उसका हाँडा गिर जाता है। उसे वे लोग मारते पीटते है। दर्द से वह चेतना में
आता है और स्वयं को उसी तरह पाता है। सिर पर रोशनी का हाँडा उसी तरह है। कथा की
चिंता है कि मजदूर कब अपने मन की कर सका है?
‘परिंदों के
दरमियां’ पुस्तक में संयोजित ये बाइस लघुकथाएँ जीवन के अलग-अलग परिदृश्य प्रस्तुत
कर पाठक को मानव प्रकृति, मानसिकता, कार्यव्यवहार, विकास
के कार्यों से आम जनजीवन पर पड़ रहे प्रभावों का सूक्ष्म लेखा-जोखा प्रस्तुत कर कम
समय में मनन करने को प्रेरित करती हैं। यह भी कि ये रचनाएँ 21वीं सदी
में उभरे रचनाकारों की अभिव्यक्ति हैं। वे समय की सिला पर पाँव रख कर आगे बढ़ समाज
की हीक पर उसका चेहरा उतारने को आतुर हैं। यह भी, कि इतना कुछ होने पर भी मानवीय
सोच में कोई ज्यादा अंतर नहीं आया है; बेशक समाज में शिक्षा का स्तर बहुत बढ़ा है।
समीक्षक का पता—बद्री सिंह भाटिया, गांव
ग्याणा, डाकखाना मांगू, तहसील
अर्की,
जिला सोलन-171102, हि.प्र.
पुस्तकः परिंदों के दरमियां; लेखकः बलराम अग्रवाल
3 comments:
बहुत विस्तृत , सुन्दर समीक्षा।
बहुत बढिया समीक्षा कथाओं की।
सभी बाइस लघुकथाओं की गहन,सारगर्भित,बेहतरीन समीक्षा।
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