विमर्श के बहाने लघुकथा की जाँच-पड़ताल
बद्री सिंह भाटिया |
एक समय था, जब विचार-वडांदरा के लिए कोई बैठक, फोन, काफी
हाऊस की मेज, किसी पार्क की बेंच या राह चलते बतियाना
उपयुक्त माने जाते थे। जब से सोशल मीडिया अपने ताम-झाम के साथ समाज में आया है, सार्थक
संवाद के लिए किसी साक्षात आयोजन की बजाए आभासी आयोजन से विचार-विमर्श के लिए एक
खुला मंच मिला है जहाँ अपनी बात कहने के लिए किसी बारी की नहीं अपितु बीच में चार
पंक्तियाँ लिख देने मात्र से मंतव्य प्रकट कर सकते हैं और उसी तरह समय रहते उत्तर
भी प्राप्त कर सकते हैं।
ऐसा ही एक संवाद ‘लघुकथा के परिंदे’ समूह के तत्वावधान में
घंटों ऑन लाइन चला यह सार्थक संवाद लघुकथा के नवोदित और संभावनाशील रचनाकारों और
सुप्रसिद्ध वरिष्ठ लघुकथाकार बलराम अग्रवाल के मध्य हुआ। बलराम अग्रवाल जी ने
रचनाशीलता के सम्बंध में किए अनेक सवालों के प्रतिव्यक्ति सहजता से विस्तृत उत्तर
दिए। इस संवाद को उन्होंने कालांतर में पुस्तकाकार रूप दिया है—‘परिंदों के दरमियां’।
‘परिंदों
के दरमियां’ पुस्तक तीन अध्यायों में विभक्त है—‘सवाल-दर-सवाल’, ‘समीक्षक की कसौटी’
और ‘21वीं
सदी की 22 लघुकथाएँ’।
‘सवाल दर सवाल’ में विभिन्न जिज्ञासुओं के अनेक सवाल सामने
आए। एक सवाल नयना आरती कानिटकर, अनघा जोगलेकर ने
किया कि रचना में कई बार हम क्षण विशेष को उठाकर घटना को रचना में फ्लैश-बैक में
उठाकर विवरण देते हैं। क्या वह क्षण विशेष भूतकाल का नहीं हो सकता। इसी क्षण विशेष
को लेकर कांता राय ने भी सवाल किया है कि क्या पात्र द्वारा सोचने की प्रक्रिय को
‘क्षण-विशेष’ में घटनाक्रम का घटित होना’ मान सकते हैं।
बलराम अग्रवाल ने इस प्रश्न के उत्तर में कहा है कि रचनाकारों
को यह समझना जरूरी है कि लघुकथा में ‘क्षण’ सिर्फ समय की इकाई को ही नहीं कहते।
संवेदना की एकान्विति को भी ‘क्षण’ कहते हैं। यानि रचना के पात्र को एक भावभूमि से
दूसरी में प्रवेश नहीं करना चाहिए। लघुकथा में पात्र के चरित्र पर कथाकार का ध्यान
केंद्रित रहना चाहिए। यह भी कि रचना में अभिव्यक्त विचार जिस कालखण्ड को समेट रहे
हैं क्या वे उस कथा की अंतर्वस्तु के अनुरूप उस क्षण को रच पा रहे हैं या नहीं। इस
संदर्भ में उन्होंने रधुवीर सहाय के आलेख और स्नेह गोस्वामी की लघुकथा ‘वह, जो
नहीं कहा गया’ को उद्धृत किया है। इस क्षण विशेष को अनघा जोगलेकर ने भी स्पष्ट
किया है कि फ्लैश बैक उस क्षण से इस क्षण को जोड़ने का ऐसा टूल है जो कथा प्रस्तुति
के प्रवाह को बनाए रचाने में सहायक होता है।
कथानक को लेकर भी कुछ रचनाकारों ने सवाल किए हैं। इनमें
अनघा जोगलेकर, सविता गुप्ता, सीमा
भाटिया आदि हैं। अनघा पूछती है कि कैसा कथानक चुनना चाहिए। इस प्रश्न का बलराम अग्रवाल यूँ उत्तर देते
हैं कि साहित्य सदा स्वांतः सुखाय होता है। कोई माने या न माने। लेखक का अंतःकरण
जितना व्यापक होगा, रचनाशलता उतनी ही सशक्त होगी। कथानक
रचनाकार के आस-पास बिखरे होते हैं। बस उसकी ग्राह्य क्षमता ही है जो रचना बनाती
है। इस प्रश्न में आगे जोड़ते हुए सविता गुप्ता पूछती है कि माना हमें अपने आस-पास
या समाज की नब्ज टटोलते कथानक लेने चाहिए मगर हमारे पास तो दहेज, बलात्कार, धार्मिक उन्माद आदि ज्यादा परिलक्षित होते
हैं। इन पुराने पड़े विषयों पर ही मोहर क्यों?
इस प्रश्न पर बलराम अग्रवाल एक विज्ञापन का उदाहरण देते हुए
कहते हैं कि अक्सर यह विज्ञापन कि ‘दीवारें बोल उठेंगी’ की तर्ज पर नवीनता को
स्वीकार किया जा सकता है। वाल्मीकि जी ने रामायण लिखी। कितने समय बाद तुलसीदास जी
ने भी रामचरितमानस लिखा उपरांत राधेश्याम कथावाचक ने भी और विगत समय में नरेंद्र
कोहली ने भी। यह उस कथानक की नवीनता है भाव भंगिमाएँ और स्थापनाएं है जो पाठक को
नया देती है। सीमा भाटिया ने कथानक को लेकर एक और शंका व्यक्त की है कि सोशल
मीडिया के दृष्टिगत एक ही समय में विभिन्न रचनाकार समान विषयों पर रचना कर रहे
होते हैं। ऐसे में नवीन विषयों का चयन कैसे किया जाए? इस शंका का समाधान करते हुए बलराम अग्रवाल
ने बताया है कि यह प्रभाव तो है मगर कई बार पूर्व पठित चीजें मस्तिष्क में गहरे
चली जातीं हैं। कई बार पूर्व-रचित कोई साहित्य पढ़ा ही नहीं होता इसलिए मिलते-जुलते
भावों अथवा भाषा की अभिव्यक्ति कर बैठता है। यहीं से नवीन विषय भी सामने आते
जाएँगे। उन्होंने अपने कथन की स्पष्टता के लिए कुछ रचनाकारों की रचनाओं का भी
उल्लेख किया है।
कुछ रचनाकारों ने यह सवाल उठाया कि रचना कैसी हो। सत्य घटना पर या
निजी जिंदगी पर। इनमें चैतन्य चौहान, शेख शहजाद उस्मानी, सीमा
त्यागी आदि है। कांता राय ने भी इस विषय पर पूछा कि सत्य घटनाओं का चित्रण और
लघुकथा में अंतर क्या है। बलराम अग्रवाल ने इस जटिल प्रश्न का उत्तर देते हुए कहा है
कि जो घटना घटित हुई है क्या हम उसके पूर्ण सत्य से वाकिफ हैं। घटना
में सत्य, यथार्थ और लेखकीय दायित्व तलाशने की कोशिश
होनी चाहिए। लेखक को कथावाचक की बजाए एक द्रष्टा, भोक्ता, पात्र
के रूप में देखना चाहिए तभी वह अच्छी रचना कर सकता है।
लघुकथा की शैली को लेकर भी कुछ परिंदों अथवा जिज्ञासुओं ने
सवाल किए हैं। इनमें राजेश शॉ, शेख शहजाद उस्मानी, सुनीता
वर्मा, जानकी वाही, क्षमा
सिसौदिया आदि ने विभिन्न पक्षों को उठाया हे। एक प्रश्न यह है कि रचना को भूमिका
विहीन रखने का क्या तरीका है? कि मिश्रित शैली की लघुकथा में प्रतीकात्मक कटाक्षपूर्ण बात
बाखूबी उभर आती है। क्या विवरणात्मक शैली में केवल वर्णन ही होना चाहिए… कि लघुकथा
में काव्य का मिश्रण किया जा सकता है… कि दृश्य चित्रण की उपयोगिता क्या है… कि
क्या शैली का अनुकरण करना चाहिए।
शैली को लेकर इन विभिन्न प्रश्नों का उŸार देते हुए बलराम
अग्रवाल ने लिखा है कि यदि रचना को भूमिका विहीन रखना है तो वह संवाद से शुरू होनी
चाहिए। जहाँ तक मिश्रित शैली की बात है उसमें ये दोनों होते हैं यानि विवरण भी और
संवाद भी। रचना में दृश्य-चित्रण पात्रों के परस्पर संवादों, मनोभावों
और द्वंद्व के माध्यम से उभरना चाहिए। लघुकथा में काव्य का प्रयोग इतना सार्थक
नहीं होता। फिर भी रचनाकार को चाहिए कि वह रचना की कथाभूमि के अनुसार अपनी शैली का
निर्माण करें।
प्रत्येक रचनाकार चाहता है कि उसकी रचना की स्वस्थ समीक्षा
हो। इस संवाद शृंखला में कुछ परिंदों ने सवाल उठाए हैं, जिनका
बलराम अग्रवाल ने समुचित प्रत्युत्तर दिया है। पहला सवाल यह कि आज समीक्षकों का
अभाव है। कि अच्छा समीक्षक कैसे बने। बलराम अग्रवाल जी ने समीक्षा के बारे में
समझाते हुए लिखा है कि रचनाकार को स्व-आलोचना और स्व-समीक्षा से गुजरना चाहिए।
बाह्य समीक्षा के दृष्टिगत अपनी रचना को फिर से परखना चाहिए। उनके समर्थन में एक
प्रश्नकर्त्ता कनक के. हरलालका कहती है कि आलोचना और समीक्षा के मार्ग से नहीं
गुजरेंगे तो परिपक्वता की मंजिल तक क्यों कर पहुँचेंगे।
बलराम अग्रवाल बताते हैं कि अच्छा समीक्षक बनने के लिए
कथा-साहित्य की स्तरीय अलोचना और समीक्षा की पुस्तकों का अध्ययन बहुत आवश्यक है।
साथ ही समकालीन लघुकथा की प्रवृत्त और प्रकृति से भी परिचित रहना चाहिए।
समीक्षा की क्या कसौटी हो इस पर लता अग्रवाल और बलराम
अग्रवाल के बीच एक लम्बा संवाद हुआ है। यह इस पुस्तक में एक खण्ड के रूप में भी
आया है। ये प्रश्न अधिकांशतया अकादमिक ज्यादा हैं। फिर भी नए रचनाकारों को अपनी रचना प्रक्रिया
में सहायक सिद्ध होंगे। वार्तालाप में उन्होंने लघुकथा के शिल्प, कथ्य, शैली
से संबंधित भी सवाल किए जिनका उन्होंने तदनुरूप प्रत्युत्तर दिया है।
लघुकथा लेखन में भाषा को लेकर भी बहुत से रचनाकारों ने सवाल
किए है। इनमें उषा भदौरिया पूछती हैं कि किसी गाँव या अन्य जगह से संबंधित विषय पर
लिखने के लिए क्या ग्रामीण अथवा आंचलिक भाषा का ही प्रयोग करना चाहिए। इस पर बलराम
अग्रवाल लिखते हैं कि आँचलिक भाषा का प्रयोग आवश्यकता पड़ने पर ही होना चाहिए। भाषा
अथवा बोली पात्र और समयानुकूल ही हो तो सम्प्रेषण में सुविधा रहती है। रचनाकार को
अमुक भाषा अथवा बोली का स्वयं जानकार होना चाहिए। कुछ रचनाकार अमर्यादित/अश्लील
भाषा का प्रयोग कर लेते हैं इस सवाल के उत्तर में उन्होंने कहा है कि रचना में
भाषा मर्यादा में ही रहे तो उस रचना की पाठकीयता बढ़ती है। लघुकथाकार को सम्प्रेषण
के लिए संकेत, व्यंजना की भाषा को स्वयं विकसित करना
चाहिए।
लघुकथा के परिंदों को अपनी रचना का शीर्षक देने में आ रही
कठिनाइयों पर भी प्रश्न हुए। इनमें सुनील वर्मा पूछते हैं कि बहुत से रचनाकार छोटे
आकार की कहानी लिखकर उसे लघुकथा का नाम दे रहे हैं। ओमप्रकाश क्षत्रिय ‘प्रकाश’
पूछते हैं कि आप शीर्षक का चुनाव कैसे करते हैं। इसी शृंखला में नीता सैनी और वीना
शर्मा पूछती हैं कि क्या किसी दूसरे रचनाकार और उसकी रचना का शीर्षक एक हो सकता है
क्योंकि सारे शीर्षक स्मरण तो रहते नहीं। बलराम बताते हैं कि यह अधिकतर रचना की
कथावस्तु पर निर्भर करता है। शीर्षक ऐसा हो कि पाठक की पढ़ने के लिए जिज्ञासा
उत्पन्न करे। जैसे ‘प्यार के साइड इफेक्ट’। एक से शीर्षक स्वयं और किसी और से मेल
खाते हो सकते हैं। फिर भी यदि रचना कर रहे हैं तो हर रचना का अलग ही शीर्षक होना
चाहिए। उन्होंने क्षमा सिसौदिया के प्रश्न कर समर्थन करते हुए कहा है कि जब
रचनाकार रचना करता है तो उस कथा में शीर्षक का अर्थ आना चाहिए, तभी
वह सही कथा की श्रेणी में आएगी। रचना तात्विक दृष्टि से शीर्षक का प्रतिनिधित्व
करती है।
इस प्रश्नोत्तरी में एक सवाल बहुत ही अहम रहा कि क्या किसी
अन्य रचना से प्रभावित हो लिखा जा सकता है। कि क्या यह चोरी की श्रेणी में नहीं
आएगा। इस प्रश्न का उन्होंने प्रत्युत्तर दिया है कि रचना के बीज पढ़ी हुई रचनाओं
के भीतर से अंकुरित होते हैं। वह उन विचार-बिंदुओं को पकड़ता है और पालता-पोसता है।
अगर घटनाक्रम, परिस्थितियाँ तथा उसकी प्रस्तुति भिन्न है
तो वह चोरी की श्रेणी में नहीं आता। मगर यदि आप उस कथानक को नाम और स्तिथियाँ बदलकर
या यह सोच कि अमुक लेखक तो दूसरी भाषा का है कि वह सुदूर अंचल का है तब उसकी रचना
यथा-तथ्य उठा कर अपने नाम प्रकाशित करवाते हैं तो वह चोरी की श्रेणी में आएगा।
किसी अन्य की रचना के प्रभाव को लेकर अनघा जोगलेकर ने अलग सवाल उठाया है कि लिखने
से पहले अन्य रचनाकारों को पढ़ने पर जोर दिया गया है। ऐसे में किसी एक या दो की
शैली का प्रभाव कथा या कहानी पर पड़ जाए तो क्या करना चाहिए। अग्रवाल जी ने लिखा है
कि पठन पाठन दो तरह का होता है। एक किताब से अलग रहकर। यानी जागरूकता और चैकन्ना
रहते हुए सामाजिक हालात को समझना। दूसरा किताब से बावस्ता होना और जुड़ जाना। आज
कोई शैली नई नहीं रही है। बस वही जिससे आप नहीं गुजरें हंै।
रचनाशीलता में एक प्रश्न शिल्प को लेकर भी आया। सविता
गुप्ता के साथ रूपेंद्र राज जुड़े तो सुप्रसिद्ध लघुकथाकार सुभाष नीरव जो इस वार्ता
को मानिटर कर रहे थे ने भी जोड़ा कि रचना में प्रयोग की क्या सीमाएं और दिशा है।
जबकि अभी मानकों पर ही मतैक्य नहीं है। नए प्रयोग के बारे में भी बात हो। बलराम
अग्रवाल ने लिखा है कि विधा के विकास के लिए प्रयोग और सिर्फ प्रयोग के लिए अथवा
शौक पूरा करने के लिए प्रयोग हो ये दो
बातें हैं। प्रयोग के लिए प्रयोग रचना को कभी शीर्ष पर नहीं पहुँचा सकता। ये कहानी
आंदोलनों में होकर गिर चुके हैं। लघुकथा में मतैक्य न होने के बावजूद भी अराजकता
की स्थिति नहीं है। प्रत्येक साहित्य अपने समय का इतिहास होता है, विशेषकर
कथा-साहित्य। एक इतिहासकार अपने दायित्व निर्वहन में बेईमानी कर सकता है लेकिन
कथाकार नहीं।
इसके इलावा लघुकथा के परिंदों ने लघुकथा के आकार, लघुकथा
के अंत और निष्पादन, रस-निष्पति, कालखण्ड, रचना में संवाद आदि
अनेक प्रश्न पूछे हैं जिनका पुस्तक में विस्तृत विवरण है।
पुस्तक के तीसरे खण्ड में 22 रचनाकारों की लघुकथाएँ भी दी
गईं है। ये कथाएँ अपने में एक अलग विवेचन की माँग करती हैं, जिसे कि मैंने इस
समीक्षा से अलग स्वतंत्र रूप से किया है।
कह सकते हैं कि इस पुस्तक में 38 संदर्भित लघुकथाओं के साथ नई
सदी की 22 लघुकथाएँ भी हैं। यह पुस्तक न केवल नए लघुकथाकारों के लिए ज्ञानवर्द्धक
हैं बल्कि प्रगतिशील और स्थापित रचनाकारों के साथ कहानी के पाठकों और लेखकों के
लिए भी उपयोगी सिद्ध होगी। यह भी कहा जा सकता है कि इस ऑन लाइन संवाद ने एक
सार्थकता का रास्ता प्रशस्त किया है।
समीक्षक संपर्क : बद्री सिंह भाटिया, गांव ग्याणा, डाकखाना मांगू, वाया
दाड़ला घाट, तहसील अर्की जिला सोलन, हि.प्र.
पिन-171102
प्रकाशकः साक्षी प्रकाशन, नवीन
शाहदरा दिल्ली-110032
प्रकाशन वर्ष : 2018; कुल पृष्ठ : 144; मूल्यः रुपए 350/-
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