मुझे
लगता है कि डॉ॰ हरिश्चन्द्र वर्मा के साक्षात्कार पर जो बहस इन दिनों फेसबुक पर चल रही है, वह उनकी बातों को पढ़े और
समझे बिना चल रही है। 'पढ़े और
समझे' बिना की जाने वाली ऐसी बहस को ही ‘चिल्ल-पौं’ कहा जाता है। मेरी नजर में लघुकथा इन दिनों बहुत स्वस्थ तरीके से अग्रसर है; लेकिन विवेक और धैर्य, इन दो की कमी लघुकथा के चिंतकों में रही तो यह विधा एक बार पुन: रुग्णावस्था में जा सकती है। मैं इस साक्षात्कार
में डॉ॰ वर्मा की कुछ मुख्य बातों पर आपका ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश कर रहा हूँ। साथ ही, अधिक मनन की दृष्टि से उस पूरे साक्षात्कार की फोटो-प्रति उक्त पुस्तक के संपादक मुकेश शर्मा के सौजन्य से प्रस्तुत भी कर रहा हूँ। अगर वाकई बहस में उतरना है तो इसे पहले पढ़िए, फिर इसके सकारात्मक बिंदुओं पर बात कीजिए। —बलराम अग्रवाल

ऊपर कही दोनों बातें क्या सही नहीं हैं? क्या खरी-खरी सुनने का माद्दा वाकई हम में है? नहीं है, इसीलिए समीक्षक को हम तिरछी नजर से देखने के अभ्यस्त हैं।
उन्होंने आगे कहा है—‘लेखकों की असहिष्णुता
ने खरी समीक्षा को पनपने नहीं दिया। अब, सही को सही और गलत को गलत कहने वाले
समीक्षक नहीं रहे।’ मेरा मानना है कि अकाल ‘सही को सही’ कहने वालों का नहीं
पड़ता, ‘गलत को गलत’ कहने वालों का पड़ता है और उसका बहुत बड़ा कारण वही, ‘खरी
समीक्षा के प्रति असहिष्णुता’ ही रहता है। हमारी ‘सम्यक् समलोचना दृष्टि’ भी या तो इस
असहिष्णुता के चलते ही खोती चली जाती है; या फिर कुछ तुच्छ स्वार्थों के कारण।
उनके इन
शब्दों पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ‘साहित्यिक रचनाधर्मिता की क्षयोन्मुखता का
मूल कारण समीक्षा की मौत ही है’।
2- आप
देखिए कि ‘आज इतनी लघुकथाएँ क्यों लिखी जा रही हैं?’ जैसा 2018 में किया जाने वाला
सवाल 1993 में भी किया गया था! लेकिन इसके
जवाब में डॉ॰ हरिश्चन्द्र वर्मा के जवाब के इस हिस्से से, कि ‘जो व्यक्ति कहानी
नहीं लिख सकते थे, उन्होंने साहित्यकार कहलाने का शॉर्ट-कट खोजा—लघुकथा के रूप
में।’ सहमत नहीं हुआ जा सकता। क्या कहानी-लेखन उपन्यास-लेखन का शॉर्ट-कट है? यदि नहीं, तो लघुकथा-लेखन कहानी-लेखन का शॉर्ट-कट कैसे है? हालाँकि ‘वैसे यदि साहित्यिक ईमानदारी और निष्ठा से लघुकथा
लेखन भी किया जाय तो कोई बुरी बात नहीं है’ कहकर अपनी बात को वे सँभाल गये हैं। इस उत्तर में उनकी ‘किन्तु लेखकों और लघुकथाओं
की इतनी भीड़ है कि उसमें से अच्छी, पाँच-सात प्रतिशत रचनाओं का चयन ही दुष्कर है’
सरीखी कुछ बातों से सहमति हो सकती है; लेकिन ‘लघुकथाकारों को अपने लघुत्व
(हीनताग्रंथि) का बोध इतने तीखेपन से बींध रहा है कि मान-प्रतिष्ठा के पीछे वे
जितने ललक और लपक रहे हैं, उतना कोई और नहीं।’ से मेरी सौ प्रतिशत असहमति है।
डॉ॰ वर्मा अगर जीवित होते तो उनसे पूछा अवश्य जाता कि कौन-सी विधा है जिसमें
ललकने-लपकने वाले लोगों की कमी है और जिसमें हीनताग्रंथि से ग्रसित लोग नहीं हैं?
हाँ, उनकी इस बात से, कि ‘लघुकथा-लेखन की जनतान्त्रिक सरलता ही सबसे बड़ी
दुर्बलता है जो बिना अपेक्षित प्रतिभा और साधना के सभी को साहित्यकार का विरल यश
पाने को प्रेरित करती है’ हमारे अधिकतर साथी अवश्य सहमत होंगे। इस जनतान्त्रिक सरलता के
कारण ही अनेक लघुकथाएँ निर्बाध रूप से चुराई भी जा रही हैं और भ्रष्ट भी की जा रही
हैं।

कोई माने न माने, 1- कलात्मक उत्कर्ष
वाली लघुकथाएँ 1993 में भी थीं (यह अलग बात है कि उन पर आदरणीय वर्मा जी की नजर न
पड़ी हो); और उसके बाद उस स्तर के लेखन में यथेष्ट वृद्धि भी हुई है। 2- अनेक कीर्तिकामी लेखक क्षुब्ध हैं कि आठवें दशक से ही लेखन से जुड़ जाने के बावजूद उनका यथेष्ट नोटिस नहीं लिया जा रहा है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि स्वस्थ आलोचना में नोटिस रचना का लिया जाता है, रचनाकार का नहीं।
वर्मा जी का यह पूरा का पूरा उत्तर उद्धृत करने योग्य है।
इस उत्तर के अंत में कही गयी ‘साहित्यिक गिरोहबंदी से भी
मुक्त होना आवश्यक है’ जैसी उनकी बात एक फार्मूले जैसी है, जिसे आप किसी भी
विधा के लोगों के बीच जब भी जाकर कह देंगे, तभी मंच को हिलाकर रख देंगे, सिर ‘हाँ-हाँ’
कर उठेंगे, तालियाँ बज उठेंगी।
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4-
‘जिन
कीर्तिकामी, प्रचार-प्रवीण, प्रतिभाविहीन लेखकों को किसी खरे समीक्षक की धारदार
समीक्षा रास नहीं आती है, वे उसे नासमझ, पोंगापंथी आदि घोषित करते हैं और उसकी
बोलती बंद कर देते हैं। इसलिए जीवन-मूल्यों की भाँति साहित्य के स्थाई तथा
सर्वमान्य मानदंड मिट गये हैं। आपाधापी का माहौल है।’ वर्मा जी की इस स्थापना से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।
5- ‘सर्जन
की गुणवत्ता से समीक्षा-पक्ष पुष्ट होता है और समीक्षा से सर्जन।… जान-बूझकर
समीक्षा-पक्ष को पुष्ट करने की ललक के मूल में कहीं न कहीं कुछ ऐसा है, जो अपुष्ट
है। उसी की पुष्टि की आवश्यकता है।’ यह ध्यान देने योग्य बात है।
6-
‘लेखकों को लेखकीय
भूमिका ही निभानी चाहिए’ (अन्य नही। इस कथन के तात्पर्य गहरे हैं, उन पर चिंतन-मनन की आवश्यकता है)।
7- और अंत में, अगर
आप 'सरस्वती'
और उसके समय की अन्य पत्रिकाओं में हुए द्विवेदी जी, बख्शी जी, गुलेरी जी आदि तत्कालीन दिग्गजों के पत्र
और लेख आदि पढ़ें तो आपको पता चलेगा कि वे सब भी वही बातें कह रहे थे जो वर्मा जी
ने कही हैं। समीक्षा और आलोचना से सभी संतुष्ट हों, यह संभव
नहीं है। लेकिन तमाम असंतोषों को बंदरिया की तरह छाती से चिपकाए रहना कभी भी श्रेयस्कर
नहीं माना गया। असंतोषों के कारणों पर विचार करके आगे बढ़ते रहने को ही रचनात्मक
माना जाता है। यथार्थ वह नहीं, जो हमें हताशा के गव्हर में धकेलता
है; बल्कि वह है, जो उस गव्हर निकलने
में हमारी मदद करता है। पुनः दोहराता हूँ--आ. वर्मा जी की बात उनके कहने से 50
साल पहले किन्हीं अन्य के मुख से कही जाती रही है और उनके चले जाने
के 50 साल बाद किसी अन्य के मुख से कही जाकर आज की तरह ही
वाह-वाही लूटेगी; क्योंकि 'असंतुष्टों
का' भीड़ बन जाना बहुत आसान है। बावजूद इसके न सही
आलोचना/समीक्षा पहले कभी रुकी थी, न आगे ही कभी इसका अकाल
रहेगा। हाँ, इतना जरूर है कि सही आलोचक पदयात्री हैं,
वे रथों में नहीं निकलते।
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मुकेश शर्मा; संपादक व साक्षात्कर्ता : लघुकथा : रचना और समीक्षा-दृष्टि (प्रथम संस्करण 1993) |
2 comments:
आपकी इस टिप्पणी से सहमति है। मैं भी उनके साक्षात्कार को सामने रखकर इन बातों पर प्रतिक्रिया देना चाहता था। आपने वह काम कर दिया है। लेकिन आपकी यह टिप्पणी भी यही कह रही है कि वर्मा जी की बातों पर ध्यान दिया जाना चाहिए, न कि उसे अतीत की बात कह कर भुला देना चाहिए।
उनकी कई शंकाओं से सहमत हुआ जा सकता है किंतु अब स्थिति कुछ बेहतर होने की ओर अग्रसर है अतः आशान्वित हुआ जा सकता है।
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