Monday, 16 July 2018

परिंदों के दरमियां : पत्रात्मक प्रतिक्रिया-2 / डॉ. कुंकुम गुप्ता

कृति की सफलता उसके पाठकों के संतोष में निहित होती है। 'परिंदों के दरमियां' पर लगातार उत्साहवर्द्धक प्रतिक्रियाएँ मिल रही हैं। अभी-अभी भोपाल निवासी आ. डॉ. कुंकुम गुप्ता की प्रतिक्रिया रजिस्टर्ड डाक से मिली है। आभारी हूँ। प्रस्तुत है उनका कथन :

आदरणीय बंधु
नमस्कार।
कांता राय द्वारा (प्रदत्त) आपकी पुस्तक 'परिंदों के दरमियां' पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ, साथ ही लघुकथा की बारीकियाँ भी सीखने को मिलीं। मेरे मन में जो प्रश्न थे, उनके उत्तर भी अन्य प्रश्नकर्ताओं के प्रश्न में समाहित थे जिनका उत्तर आपकी पुस्तक पढ़कर मिल गया।
डॉ॰ कुंकुम गुप्ता
        मेरी, भोपाल की बहिनों के प्रश्न और उनकी लघुकथाओं का उल्लेख करना मेरे लिए गर्व की बात है। कुछ बातें, जो मन को अच्छी लगीं, उनका उल्लेख करना आवश्यक समझती हूँ :
1. विधा की जीवंतता और रचना की कालातीतता के लिए जरूरी है कि हम सिर्फ अनुशासन सीखें, साष्टांग बिछ जाना नहीं।
2. प्रतियोगिता के विषय पर लिखें अवश्य, लेकिन भेजने की आतुरता से बचें।
3. 'बाजारवाद' पर रोहिणी अग्रवाल की टिप्पणी सटीक है।
4. लघुकथाकार पात्रों के परस्पर संवादों, मनोभावों और द्वंद्व के माध्यम से दृश्य निर्माण करता है।
5. कथ्य का संवेदन-बिंदु कागज पर पूर्णता कब पाता है, यह महत्वपूर्ण बात है।
6. मानवीय मूल्यों का संरक्षण साहित्य का मुख्य उद्देश्य है।
7. उच्च-स्तरीय अध्ययन हमारे लेखन में उबाल भी पैदा करता है और एक दिशा भी देता है।
8. लघुकथाकार को संकेत की भाषा, व्यंजना की भाषा स्वयं में अवश्य विकसित करनी चाहिए।
9. अमर्यादित भाषा कोई भी साहित्य-प्रेमी स्वीकार नहीं करता।
10. नयी भावभूमि का चयन करना बेहतर है।
11. लघुकथा इंसटेंट लेखन नहीं है।
       कांता राय, कल्पना भट्ट, लता अग्रवाल, नीना (सिंह) सोलंकी, नयना (आरती)  कानिटकर की लघुकथाएँ शामिल कीं, यह प्रसन्नता की बात है।
        मैं तो इस विधा में नया कदम रख रही हूँ। यह विधा सामयिक एवं प्रभावी लगती है। पुस्तक पढ़कर आपके द्वारा दिये गये उत्तरों से आपकी अध्ययनशीलता तथा विधा के प्रति गहन चिंतन स्पष्ट झलकता है। आगे भी आपसे मार्गदर्शन की अपेक्षा रहेगी। 
     ◆ कुंकुम गुप्ता, भोपाल

Monday, 9 July 2018

परिंदों के दरमियां : बुक शेल्‍फ की शोभा मत बनाइए, पढ़ डालिए, रोज पढ़िए / राजेश उत्साही


राजेश उत्साही


लघुकथा पर केन्द्रित बलराम अग्रवाल जी की पुस्‍तक ‘परिंदों के दरमियां’ अपन को भी प्राप्‍त हो गई है।
बलराम जी ने अपनी पिछली बेंगलूरु यात्रा में मुलाकात के समय किताब की तैयारी का जिक्र किया था। तब वे इसके आवरण को अन्तिम रूप देने में जुटे थे। अब किताब प्रकाशित हो गई है। इन्‍दौर के क्षितिज लघुकथा सम्‍मेलन में इसका विमोचन हो गया है।
लघुकथा लेखन और अध्‍ययन करने वालों के लिए यह एक नायाब किरताब बनी है, इसमें कोई शक नहीं है। इसे पढ़ते हुए मुझे बार-बार डॉ.भोलानाथ तिवारी की पुस्‍तक ‘अच्‍छी हिन्‍दी- कैसे बोलें,कैसे लिखें’ याद आती रही। यह पुस्‍तक पिछले पच्‍चीस वर्षों से सन्‍दर्भ के लिए मेरी टेबिल पर हर वक्‍त सामने रखी होती है। बलराम जी ‘परिंदों के दरमियां’ भी लघुकथा के सन्‍दर्भ में इसी श्रेणी की पुस्‍तक है। इस क्रम में अशोक भाटिया जी कीपरिंदे पूछते हैं’ को भी रखा जाना चाहिए।
परिंदों के दरमियां’ के अन्‍दर के पृष्‍ठों पर तो महत्‍वपूर्ण बातें हैं ही। पर मेरा मत है कि केवल लघुकथा लेखक ही नहीं, बल्कि हर तरह का साहित्‍य रचने वालों के लिए सबसे महत्‍वपूर्ण बात किताब के फ्लैप पर ही दी गई है।
वह इस तरह है —
‘‘साहित्‍य सदा ही ‘स्‍वांत: सुखाय’ होता है, कोई माने या न माने। हाँ, इतना जरूर है कि लेखक का ‘अंत:करण’ जितना व्‍यापक होगा, रचनाशीलता भी उतनी ही व्‍यापक होगी, स्‍वमेय ही ‘परहिताय’ बनेगी। लेखक का ‘अंत:करण’ जितना संकुचित होगा, रचनाशीलता भी उतनी ही संकुचित रहेगी। कुछ रचनाएँ बाहरी तौर पर जितनी आकर्षक होती हैं, भीतरी तौर पर उतनी ही घातक हो सकती हैं। कुल मिलाकर, स्‍वयं की दृष्टि से स्‍वयं के लिए लिखिए, यह मानते हुए कि आप एक मानवीय इकाई हैं, न कि साम्‍प्रदायिक। यही मानते हुए स्‍वयं की दृष्टि से स्‍वयं के लिए लिखिए, किसी दूसरे के लिए नहीं। दूसरी बात, ’विचार’ में पैनापन और ‘दृष्टि’ में प्रगतिशीलता को पनपाइए। जड़ों से जुड़ने या जुड़ा रहने के मुहावरे को हमने परम्‍परा और रीति-रिवाजों से चिपके रहना मान लिया है, जबकि उनसे चिपके रहना अनेक बार ‘जड़ता’ का ही द्योतक बन जाता है।’’
बलराम जी के इस कथन पर गम्‍भीरता से ध्‍यान दिया जाना चाहिए। लघुकथा लेखकों को तो मेरी सलाह है कि हर बार नई लघुकथा लिखने से पहले एक बार इस कथन को अवश्‍य ही याद कर लें, पढ़ लें। अच्‍छा होगा कि इसका एक पोस्‍टर बनाकर अपने अध्‍ययन कक्ष में लगा लें। वैसे बार-बार पढ़ने पर कुछ समय बाद यह आपके मस्तिष्‍क में ही अंकित हो जाएगा। वैसे जरूरत इस बात की भी है कि इसे ज्‍यों का त्‍यों न मान लें। इसे परत-दर-परत खोलकर भी देखें।
परिंदों के दरमियां’ में 37 लोगों द्वारा पूछे गए सवालों के उत्‍तर हैं। उन उत्‍तरों में 38 लघुकथाओं का सन्‍दर्भ है।
पूछे गए सवाल ज्‍यादातर आम सवाल ही हैं। वे अशोक भाटिया जी की पुस्‍तक में भी थे। अशोक जी ने भी अपनी पुस्‍तक में उत्‍तरों को समझाने के लिए लघुकथाओं और अन्‍य सन्‍दर्भों का उपयोग किया है। ‘परिंदों के दरमियां’ में इसका उपयोग और बेहतर ढंग से किया गया है।
जब-तब यह बात उठती रहती है कि लेखन के साथ-साथ अध्‍ययन भी जरूरी है। और केवल लघुकथाओं का अध्‍ययन नहीं, सभी तरह का, उससे इतर भी। ‘परिंदों के दरमियां’ में बलराम जी ने रघुवीर सहाय, राजेन्‍द्र यादव,नरेन्‍द्र कोहली के विस्‍तृत लेखों और दिनेश कुमार तथा रोहिणी अग्रवाल की संक्षिप्‍त टिप्‍पणियों का उपयोग किया है। मेरी सलाह है कि तीनों लेखों को बहुत ध्‍यान से पढ़ा जाना चाहिए, केवल सरसरी निगाह से नहीं। इनमें कई सारी काम की ही नहीं, विमर्श की बातें भी हैं।
उत्‍तरों को पुष्‍ट करने के लिए विभिन्‍न लेखकों की लघुकथाएँ दी गई हैं। लघुकथाओं की खूबियों के बारे में भी बताया गया है। लेकिन कुछ जगहों पर शायद थोड़े और खुलासे की जरूरत मुझे महसूस हुई।
जैसे लेखकीय दायित्‍वबोध की चर्चा करते हुए तीन लघुकथाओं के उदाहरण दिए गए हैं। जिन दो रचनाओं के बारे में यह कहा गया है वे लेखकीय दायित्‍यबोध की कमी से ग्रसित हैं, उन पर और अधिक चर्चा की जरूरत थी। केवल रचनाएँ पढ़ने भर से ही यह बात समझ नहीं आती है। अव्‍वल तो जिसमें लेखकीय दायित्‍व निभाने की बात है, उसमें भी।
लघुकथा (अपनी या किसी अन्‍य की भी) की समीक्षा कैसे की जाए, उसके क्‍या मानक हैं या हों। इन सब पर सवालों के उत्‍तरों के बीच-बीच में तमाम सूत्र हैं। जैसे कि –
• ‘सैल्‍फ ऐसेस्‍मेंट’ यानी ‘आत्‍म अवलोकन’...‘आत्‍म निरीक्षण’ से बड़ा न कोई अन्‍य आलोचक हो सकता है न गुरु।
जो रचनाकार स्‍व-आलोचना और स्‍व-समीक्षा के मार्ग से गुजरने का अभ्‍यस्‍त नहीं है,परिपक्‍वता की मंजिल तक उसका पहुँचना संदिग्‍ध हो सकता है; साथ ही, बाह्य-आलोचना और बाह्य-समीक्षा को समझने व सहने का विवेक उसमें नहीं पनप सकेगा,ऐसा मेरा (बलराम जी का) मानना है।
अपनी खुद की रचना को उत्‍कृष्‍ट बनाने के लिए उसे यथेष्‍ट अन्‍तरालों के बाद बार-बार पढ़ना और सम्‍पादित करना चाहिए।
• ‘बयान’ का नहीं लेखन का ‘सपाट’ होना कमजोरी है।
लघुकथा का मूल उद्देश्‍य उद्बोधन और उत्‍प्रेरण है। वह अगर दुखांत से आता है तो उसी से आने देना चाहिए।
लघुकथा लेखक सिर्फ इशारा करता है,व्‍याख्‍या नहीं।
अपने अन्‍दर बैठे आलोचक पर विश्‍वास करें। उसे समय-समय पर सही खुराक देते रहें ताकि वह स्‍वस्‍थ्‍य बना रहे।
लघुकथा पूर्ण होने में उतना ही समय लगता है, जितने में लेखक स्‍वयं आश्‍वस्‍त हो।
जिसे हम ‘घटना’ कहते हैं, उसके सच से कई बार अपरिचित होते हैं।
संकेत को लिखना ही नहीं,समझना भी कला है; और इस कला से सिर्फ लेखक को ही नहीं,पाठक और समीक्षक/ आलोचक को भी परिचित रहना चाहिए, स्‍वयं में इसका विकास करना चाहिए।
समीक्षा बौद्धिक कर्म है, बिलकुल वैसे जैसे सृजन मनो-बौद्धिक कर्म है। समीक्षा की कसौटी नि:संदेह विवेक है, मन की भूमिका उसमें गौण रहनी चाहिए।
व्‍यक्तिगत सम्‍बन्‍धों के निर्वहन के बावजूद समीक्षा को पाद-पूजा के स्‍तर तक गिर नहीं जाना चाहिए। यही बात व्‍यक्तिगत द्वेष की भावना पर भी लागू होती है।
लघुकथा लेखन में सबसे पहली चीज नि:संदेह ‘मूल्‍य’ ही है। और तथ्‍य से भी बड़ी बात है कथ्‍य की विश्‍वसनीयता।
आज के समीक्षक को इतना अधिक सैद्धांतिक और शास्‍त्रीय होने की आवश्‍यकता नहीं है। आज की लघुकथा ही यर्थाथवादी है तो उसके आलोचक को भी व्‍यवहारवादी ही होना श्रेयस्‍कर है।
सृजन-कर्म की यदि तटस्‍थ भाव से समीक्षा/आलोचना की गई हो तो सम्‍बन्धित लेखक ही नहीं, उसके आजू-बाजू वाले,यहाँ तक कि अन्‍य समीक्षक और आलोचक भी बहुत-कुछ सीख जाते हैं। सुधार की प्रक्रिया हमेशा ग्रहण करने की नीयत से जुड़ी होती है। ग्रहण करने की नीयत न हो, और रचनाकार अथवा समीक्षक/आलोचक स्‍वयं को दूसरों की तुलना में बेहतर और अधिक जानकार अथवा नि:कृष्‍ट और निर्बुद्ध मानकर चलता रहे तो सुधार की गुंजाइश लेशमात्र भी नहीं बनती है।
परिंदों के दरमियां’ मेंसमीक्षक की कसौटी’ पर बलराम अग्रवाल जी से डॉ. लता अग्रवाल की सारगर्भित बातचीत भी है। लघुकथा की समीक्षा में रुचि रखने वालों को इसे अवश्‍य ही पढ़ना चाहिए।
किताब के अन्‍त में 21 वीं सदी की 22 लघुकथाएँ भी दी गई हैं। उनके आरम्‍भ में ही दी गई टिप्‍पणी इस बात की ओर इशारा करती है कि उसमें हर स्‍तर की लघुकथाएँ हैं। एक मजेदार अवलोकन मैंने यह किया कि 22 में केवल 4 पुरुष लेखक ही इसमें हैं।
तो अगर आपके पास ‘परिंदों के दरमियां’ है तो उसे केवल अपनी बुक शेल्‍फ की शोभा मत बनाइए, पढ़ डालिए, रोज पढि़ए। जिनके पास नहीं है, उन्‍हें मेरी सलाह है कि वे इसे तुरन्‍त हासिल करें।
Rajesh utsahi : Editor(Hindi),Teachers of India Portal,
Azim Premji University, Pixal Park,
B-Block PES Institute of Technology South Campus,
Electronics City, Hosur Road (Beside NICE Road),
 BANGLORE 560 100
Mo * 09731788446

Tuesday, 3 July 2018

डॉ॰ हरिश्चन्द्र वर्मा और उनकी लघुकथा-समीक्षा दृष्टि / बलराम अग्रवाल


मुझे लगता है कि डॉ॰ हरिश्चन्द्र वर्मा के साक्षात्कार पर जो बहस इन दिनों फेसबुक पर चल रही है, वह उनकी बातों को पढ़े और समझे बिना चल रही है। 'पढ़े और समझे' बिना की जाने वाली ऐसी बहस को ही ‘चिल्ल-पौं’ कहा जाता है। मेरी नजर में लघुकथा इन दिनों बहुत स्वस्थ तरीके से अग्रसर है; लेकिन विवेक और धैर्य, इन दो की कमी  लघुकथा के चिंतकों में रही तो यह विधा एक बार पुन: रुग्णावस्था में जा सकती है। मैं इस साक्षात्कार में डॉ॰ वर्मा की कुछ मुख्य बातों पर आपका ध्यान आकृष्ट करने की कोशिश कर रहा हूँ। साथ ही, अधिक मनन की दृष्टि से उस पूरे साक्षात्कार की फोटो-प्रति उक्त पुस्तक के संपादक मुकेश शर्मा के सौजन्य से प्रस्तुत भी कर रहा हूँ। अगर वाकई बहस में उतरना है तो इसे  पहले पढ़िए, फिर इसके सकारात्मक बिंदुओं पर बात कीजिए। बलराम अग्रवाल
1-  'लघुकथा की वर्तमान स्थिति' संबंधी इस साक्षात्कार के पहले सवाल के जवाब में वर्मा जी ने कहा है—'लघुकथा की वर्तमान स्थिति (यह साक्षात्कार 1993 में प्रकाशित हुआ है--बलराम अग्रवाल) संतोषजनक नहीं है; उसके दो कारण हैं—(1) खरे समीक्षकों की उपेक्षा-भावना, और (2) दम्भ और महत्वाकांक्षा के मनोरोग से ग्रस्त  अधिकतर लघुकथाकारों की खरी समीक्षा के प्रति असहिष्णुता।'
ऊपर कही दोनों बातें क्या सही नहीं हैं? क्या खरी-खरी सुनने का माद्दा वाकई हम में है? नहीं है, इसीलिए समीक्षक को हम तिरछी नजर से देखने के अभ्यस्त हैं। 
 उन्होंने आगे कहा है‘लेखकों की असहिष्णुता ने खरी समीक्षा को पनपने नहीं दिया। अब, सही को सही और गलत को गलत कहने वाले समीक्षक नहीं रहे।’ मेरा मानना है कि अकाल ‘सही को सही’ कहने वालों का नहीं पड़ता, ‘गलत को गलत’ कहने वालों का पड़ता है और उसका बहुत बड़ा कारण वही, ‘खरी समीक्षा के प्रति असहिष्णुता’ ही रहता है। हमारी ‘सम्यक् समलोचना दृष्टि’ भी या तो इस असहिष्णुता के चलते ही खोती चली जाती है; या फिर कुछ तुच्छ स्वार्थों के कारण।
 उनके इन शब्दों पर ध्यान दिया जाना चाहिए कि ‘साहित्यिक रचनाधर्मिता की क्षयोन्मुखता का मूल कारण समीक्षा की मौत ही है’
2-  आप देखिए कि ‘आज इतनी लघुकथाएँ क्यों लिखी जा रही हैं?’ जैसा 2018 में किया जाने वाला सवाल 1993 में भी किया गया था!  लेकिन इसके जवाब में डॉ॰ हरिश्चन्द्र वर्मा के जवाब के इस हिस्से से, कि जो व्यक्ति कहानी नहीं लिख सकते थे, उन्होंने साहित्यकार कहलाने का शॉर्ट-कट खोजा—लघुकथा के रूप में। सहमत नहीं हुआ जा सकता। क्या कहानी-लेखन उपन्यास-लेखन का शॉर्ट-कट है? यदि नहीं, तो लघुकथा-लेखन कहानी-लेखन का शॉर्ट-कट कैसे है? हालाँकि वैसे यदि साहित्यिक ईमानदारी और निष्ठा से लघुकथा लेखन भी किया जाय तो कोई बुरी बात नहीं है’ कहकर अपनी बात को वे सँभाल गये हैं। इस उत्तर में उनकी ‘किन्तु लेखकों और लघुकथाओं की इतनी भीड़ है कि उसमें से अच्छी, पाँच-सात प्रतिशत रचनाओं का चयन ही दुष्कर है सरीखी कुछ बातों से सहमति हो सकती है; लेकिन लघुकथाकारों को अपने लघुत्व (हीनताग्रंथि) का बोध इतने तीखेपन से बींध रहा है कि मान-प्रतिष्ठा के पीछे वे जितने ललक और लपक रहे हैं, उतना कोई और नहीं। से मेरी सौ प्रतिशत असहमति है। डॉ॰ वर्मा अगर जीवित होते तो उनसे पूछा अवश्य जाता कि कौन-सी विधा है जिसमें ललकने-लपकने वाले लोगों की कमी है और जिसमें हीनताग्रंथि से ग्रसित लोग नहीं हैं? हाँ, उनकी इस बात से, कि लघुकथा-लेखन की जनतान्त्रिक सरलता ही सबसे बड़ी दुर्बलता है जो बिना अपेक्षित प्रतिभा और साधना के सभी को साहित्यकार का विरल यश पाने को प्रेरित करती है हमारे अधिकतर साथी  अवश्य सहमत होंगे। इस जनतान्त्रिक सरलता के कारण ही अनेक लघुकथाएँ निर्बाध रूप से चुराई भी जा रही हैं और भ्रष्ट भी की जा रही हैं।
3-  ‘लघुकथा की समस्याएँ और उनके समाधान?’ के जवाब में उन्होंने कहा है—‘जो जितने दुर्बल लेखक हैं, वे दल-बल सहित उतने ही अधिक आत्मप्रचार में हैं और प्रतिभा-पुत्रों को पस्त करने में जुटे हैं। इस आंशिक सत्य से इंकार करना मुमकिन नहीं है। यहाँ एक अद्भुत सूत्र भी उन्होंने हमें दिया है, जिस पर कम से कम समर्थ कथाकारों को तो अवश्य ही ध्यान देना चाहिए। कहा है, यदि लघुकथा के विन्यास को मिनी-कहानी की ओर बढ़ाकर संदर्भ और पात्रों के किंचित जटिल संयोजन के सहारे गूढ़ संवेदनाओं और विशिष्ट भाषिक भंगिमा के साथ व्यक्त किया जाए तो अधकचरे, प्रतिभाहीन, कीर्तिकामी लेखक इस दौड़ में पिछड़कर अलग-थलग पड़ जाएँगे। उनका मानना है, कि ‘इससे लघुकथा की संरचना को कलात्मक उत्कर्ष भी प्राप्त होगा…
कोई माने न माने, 1- कलात्मक उत्कर्ष वाली लघुकथाएँ 1993 में भी थीं (यह अलग बात है कि उन पर आदरणीय वर्मा जी की नजर न पड़ी हो); और उसके बाद उस स्तर के लेखन में यथेष्ट वृद्धि भी हुई है। 2- अनेक कीर्तिकामी लेखक क्षुब्ध हैं कि आठवें दशक से ही लेखन से जुड़ जाने के बावजूद उनका यथेष्ट नोटिस नहीं लिया जा रहा है। वे समझ नहीं पा रहे हैं कि स्वस्थ आलोचना में नोटिस रचना का लिया जाता है, रचनाकार का नहीं।
वर्मा जी का यह पूरा का पूरा उत्तर उद्धृत करने योग्य है।
इस उत्तर के अंत में कही गयी साहित्यिक गिरोहबंदी से भी मुक्त होना आवश्यक है जैसी उनकी बात एक फार्मूले जैसी है, जिसे आप किसी भी विधा के लोगों के बीच जब भी जाकर कह देंगे, तभी मंच को हिलाकर रख देंगे, सिर ‘हाँ-हाँ’ कर उठेंगे, तालियाँ बज उठेंगी।
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4-   जिन कीर्तिकामी, प्रचार-प्रवीण, प्रतिभाविहीन लेखकों को किसी खरे समीक्षक की धारदार समीक्षा रास नहीं आती है, वे उसे नासमझ, पोंगापंथी आदि घोषित करते हैं और उसकी बोलती बंद कर देते हैं। इसलिए जीवन-मूल्यों की भाँति साहित्य के स्थाई तथा सर्वमान्य मानदंड मिट गये हैं। आपाधापी का माहौल है।’ वर्मा जी की इस स्थापना से मुँह नहीं मोड़ा जा सकता।
5-  सर्जन की गुणवत्ता से समीक्षा-पक्ष पुष्ट होता है और समीक्षा से सर्जन।… जान-बूझकर समीक्षा-पक्ष को पुष्ट करने की ललक के मूल में कहीं न कहीं कुछ ऐसा है, जो अपुष्ट है। उसी की पुष्टि की आवश्यकता है।’ यह ध्यान देने योग्य बात है।
6-   ‘लेखकों को लेखकीय भूमिका ही निभानी चाहिए (अन्य नही। इस कथन के तात्पर्य गहरे हैं, उन पर चिंतन-मनन की आवश्यकता है)।
7- और अंत में, अगर आप 'सरस्वती' और उसके समय की अन्य पत्रिकाओं में हुए द्विवेदी जी, बख्शी जी, गुलेरी जी आदि तत्कालीन दिग्गजों के पत्र और लेख आदि पढ़ें तो आपको पता चलेगा कि वे सब भी वही बातें कह रहे थे जो वर्मा जी ने कही हैं। समीक्षा और आलोचना से सभी संतुष्ट हों, यह संभव नहीं है। लेकिन तमाम असंतोषों को बंदरिया की तरह छाती से चिपकाए रहना कभी भी श्रेयस्कर नहीं माना गया। असंतोषों के कारणों पर विचार करके आगे बढ़ते रहने को ही रचनात्मक माना जाता है। यथार्थ वह नहीं, जो हमें हताशा के गव्हर में धकेलता है; बल्कि वह है, जो उस गव्हर निकलने में हमारी मदद करता है। पुनः दोहराता हूँ--आ. वर्मा जी की बात उनके कहने से 50 साल पहले किन्हीं अन्य के मुख से कही जाती रही है और उनके चले जाने के 50 साल बाद किसी अन्य के मुख से कही जाकर आज की तरह ही वाह-वाही लूटेगी; क्योंकि 'असंतुष्टों का' भीड़ बन जाना बहुत आसान है। बावजूद इसके न सही आलोचना/समीक्षा पहले कभी रुकी थी, न आगे ही कभी इसका अकाल रहेगा। हाँ, इतना जरूर है कि सही आलोचक पदयात्री हैं, वे रथों में नहीं निकलते।
मुकेश शर्मा; संपादक व साक्षात्कर्ता : लघुकथा : रचना और समीक्षा-दृष्टि (प्रथम संस्करण 1993)