Saturday 21 June, 2008

लघुकथा की रचना-प्रक्रिया / बलराम अग्रवाल

(पिछले अंक से जारी)

लघुकथा का उद्देश्य पाठक को किसी उथली और सतही कहानी की तरह सिर्फ रंजित, रोमांचित या प्रभावित कर देना मात्र नहीं है। पारम्परिक बोधकथा, नीतिकथा, भावकथा की तरह पाठक के हृदय को पिघलाना या उसकी आत्मा को झकझोरना भी इसका उद्देश्य नहीं है...और हास-परिहास या चुटकुला तो यह है ही नहीं। इसका लेखक सामान्यत: संवेदित/भावविभोर होकर…जौली मूड(Jolly mood)में आकर नहीं, बल्कि परिस्थितियों से आन्दोलित होकर कथा-लेखन में प्रवृत्त होता है। इसलिए लघुकथा-लेखन के माध्यम से उसका उद्देश्य पाठक की चेतना को आन्दोलित करना है। न सिर्फ कहानी से, बल्कि बोधकथा, नीतिकथा, भावकथा, चुटकुला आदि से लघुकथा की भिन्नता का यह तीसरा बिन्दु है।
परन्तु, पाठक की चेतना को आन्दोलित करने से भी आगे कोई लघुकथा-लेखक यदि पाठक को दिशा-निर्देशित करना ‘लघुकथा’ का ‘हेतु’ समझता है तो जरूरी नहीं कि लघुकथा उसे सिर्फ सकारात्मक दिशा ही दे। प्रत्येक सामाजिक अपनी प्रकृति, परिवेश और सामर्थ्य,—इन तीन भावों से प्रभावित रहता है और—नकारात्मक या सकारात्मक—इन्हीं भावों के अनुरूप दिशा-निर्देश ग्रहण करता है। यों भी, लघुकथा में ‘निदान’(डाइग्नोस) किया जाता है, ‘सुझाव’(ट्रीटमेंट) नहीं दिया जाता, क्योंकि ट्रीटमेंट दिये जाने के कुछ विशेष खतरे हैं जिनमें से एक है—लघुकथा में लेखक के स्वयं उपस्थित हो जाने/होते रहने का खतरा तथा दूसरा है—लघुकथा का उसके लेखक के किसी सिद्धान्त-विशेष की ओर घूम जाने का खतरा। ये दोनों खतरे ध्यातव्य हैं क्योंकि सिद्धान्त-विशेष के तहत दिए गए ट्रीटमेंट और तज्जनित परिसीमन के कारण ही अनेक लघुकथाएँ शिल्प और शैली की दृष्टि से पुष्ट होने के बावजूद, समसामयिक साहित्य में मान्य नहीं हैं। अत: लघुकथा के लेखक को हेतु-रचना के माध्यम से उन्मुक्त चिन्तन-मनन की दिशा में पाठक की चेतना को आन्दोलित करना होगा।
शिल्प की दृष्टि से लघुकथा किसी गद्य-गीत जैसी सुगठित होनी चाहिए। शाब्दिक अतिरिक्तता या वैचारिक दोहराव उसे कमजोर कर सकते हैं। लघुकथा की वास्तविक शक्ति वास्तव में उसके व्यंग्य-प्रधान या गाम्भीर्य-प्रधान होने में न होकर उसके सांकेतिक होने निहित है। यहाँ यह समझ लेना भी आवश्यक है कि ‘सांकेतिकता’ लघुकथा का अनिवार्य गुण अवश्य है, परन्तु इसे बहुत क्लिष्ट या गूढ़ न होकर सहज रहना चाहिए। यों भी, लघुकथा में उसका कोई भी गुण, सिद्धान्त या दर्शन बहुत क्लिष्ट या गूढ़ न होकर सहज ही समाविष्ट होना चाहिए। सहज समावेश से तात्पर्य बलात्-आरोपण से लघुकथा को बचाए रखना भी है।
‘लघुकथा’ में संवादों की स्थिति क्या हो? उन्हें होना चाहिए या नहीं? होना चाहिए तो किस अनुशासन के साथ और नहीं तो क्यों? ये सवाल वैसे ही अनर्गल हैं जैसे कि इसके आकार या इसकी शब्द-संख्या के निर्धारण को लेकर अक्सर सामने आते रहते हैं। वस्तुत: लघुकथा ‘लिखी’ या ‘कही जाती’ प्रतीत न होकर ‘घटित होती’ प्रतीत होनी चाहिए। लघुकथा की रचना-प्रक्रिया का मैं समझता हूँ कि यह प्रमुख सूत्र है। क्रियाशीलता, कृतित्व, चरित्र, परिस्थिति और परिवेश के साथ स्वयं उसके पात्रों को पाठक के सम्मुख होना चाहिए न कि उसके लेखक को। लघुकथा में ‘लेखकविहीनता’ की डा0 कमलकिशोर गोयनका इसी रूप में व्याख्या करते हैं। लघुकथा में संवाद और तत्संबंधी अनुशासन के बारे में एक जिज्ञासा को मैं अवश्य यहाँ प्रकट करना चाहूँगा। यह कि लघुकथा में संवादों को ‘कथोपकथन’ या ‘कथनोपकथन’ कहने का आधार क्या है? कथोपकथन यानी कथ+उपकथन तथा कथनोपकथन यानी कथन+उपकथन। अगर विवेकपूर्वक विचार किया जाए तो ‘कथन’ के उत्तर में बोले जाने वाले संवाद को ‘उपकथन’ नहीं बल्कि ‘प्रतिकथन’ कहा जाना चाहिए, क्योंकि कथा में उसका आस्तित्व किसी भी दृष्टि से ‘उप’ नहीं होता। फिर, आवश्यक नहीं कि प्रत्येक ‘कथन’ का उपकथन हो ही। कोई पात्र परिस्थिति-विशेष में किसी पात्र के ‘कथन’ का जवाब अपनी उस चुप्पी से दे सकता है जो उसके ‘प्रतिकथन’ या ‘उपकथन’ की तुलना में कहीं अधिक स्फोटक सिद्ध हो। इसलिए लघुकथा में संवाद के लिए ‘कथन प्रति कथन’ तथा ‘कथनाकथन’ व ‘कथाकथ’ यानी कथन+अकथन व कथ+अकथ शब्द भी बनते हैं। संवाद कैसे हों? इस बारे में मेरी धारणा है कि वे लघुकथा की भाषा में सहजग्राह्य और मन्तव्य को स्पष्ट करने वाले होने चाहिएँ। वे पाठक की चेतना को उद्वेलन और कथानक को अग्रसर गति दे पाने में सक्षम होने चाहिएँ।
अपनी समेकित इकाई में लघुकथा को गद्य-गीत जैसी सुस्पष्ट, सुगठित व भावपूर्ण; कविता जैसी तीक्ष्ण, सांकेतिक, गतिमय और लयबद्ध तथा कथा की ग्राह्य शीर्ष विधाओं—कहानी व उपन्यास—जैसी सम्प्रेषणीय और प्रभावपूर्ण होना चाहिए।
प्रत्येक कहानी में एक ‘सत्व’ होता है और हम इसे ‘कहानी की आत्मा’ कहते हैं। अपनी पुस्तक ‘परिहासिनी’ के इंट्रो में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इसे ‘चीज’ कहा है। ‘लघुकथा’ ‘कहानी की आत्मा’ है, उसका ‘सत्व’ है, ‘चीज’ है। घटना की प्रस्तुति को विस्तार देने की तुलना में कथाकार को जब ‘वस्तु’ का सम्प्रेषण अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होता है तब रचना का विस्तार उसके लिए गौण हो जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि ‘लघुकथा’ केवल आकारगत, शिल्पगत, शैलीगत और प्रभावगत ही नहीं, शब्दगत और सम्प्रेषणगत भी सौष्ठव को प्राप्त कथा-रचना है। कहानी और लघुकथा के बीच अन्तर को उनके कथानकों के समापन की ओर बढ़ने में दृष्टिगोचर त्वरणों में अन्तर की माप के द्वारा स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है।

हम लघुकथा-लेखकों को उन्मुक्तता और उच्छृंखलता के मध्य अंतर को भली-भाँति जान लेना चाहिए। मन के भावों का अनुशासनहीन, उद्दंडतापूर्वक प्रदर्शन उच्छृंखलता कहलाता है। विदेशी शासन से मुक्ति ने हमें उन्मुक्तता दी है, परन्तु आज वाणी व भाव-स्वातंत्र्य के अधिकारों को पाकर हम अक्सर ही उच्छृंखल व्यवहार करते नजर आ जाते हैं। अति आवश्यक है कि वाणी व भाव के प्रकटीकरण पर हम अनुशासन-विशेष का अंकुश रखें। अनुशासन से अग्रसारण का निश्चय होता है।
लघुकथा के अगर कुछ अनुशासन हैं तो उनके प्रति लेखकों की आबद्धता और प्रतिबद्धता भी अपेक्षित है ही। परन्तु, इन सब अनुशासनों को प्रस्तुत कर देने के बाद इसी लेख के इस अन्तिम पैरा में इन आबद्धताओं व प्रतिबद्धताओं को मैं लघुकथा-लेखन की चौहद्दियाँ या गणितीय-सूत्र बताकर इनके नकार का आह्वान करूँ तो निश्चय ही आप मुझे बेहद भ्रमित व्यक्तित्व मानेंगे; परन्तु लघुकथा ने आज तक वाकई इतने सोपान तय कर लिए हैं कि हर सोपान पर वह पिछले सोपान के अनुशासनों को भंग करती प्रतीत होती है। बुद्धिमान, शूर और प्रगतिगामी लोग सदैव ही पुराने अनुशासन को तोड़ते और नये को जोड़ते आये हैं। यही प्रगति की रूपरेखा है। हिंदी लघुकथा ने अब तक यही किया है और यही वह अब भी कर रही है। यही कारण है कि लघुकथा आज मानव-जीवन के किसी क्षण-विशेष का ही नहीं, उसके किसी पक्ष-विशेष का भी चित्रण करने में पूर्ण सक्षम है। वस्तुत: समकालीन हिंदी लघुकथा उद्वेलन और आन्दोलन से जनित भावों की उन्मुक्त, सम्प्रेषणीय एवं प्रभावकारी कथात्मक प्रस्तुति है। यह उत्तरोत्तर विकासशील विधा है। आज, इस लेख में जो अनुशासन इसकी रचना-प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए किखे गये हैं, वे ही कल को पिछले सोपान के अनुशासन कहे जा सकते हैं। बहरहाल, पिछले समस्त अनुशासनों को भंग करके भी विधाएँ अनुशासनबद्ध ही रहती हैं।
एक बात और, नवीन अनुशासनों के निर्माण और प्रस्तुति का अधिकार उसी को मिल सकता है जो विधा के पक्ष में(स्वयं द्वारा प्रस्तुत) पूर्व अनुशासनों को भंग कर सकने की क्षमता रखता हो; लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं कि वह एक अनुशासन को प्रस्तुत करता और फिर तोड़ता रहकर नित नये भ्रम पैदा करता रहे।
‘हिंदी लघुकथा’ की लेखिका डा0 शकुन्तला किरण : संक्षिप्त परीचय



बीती सदी के आठवें दशक के मध्य में, समकालीन हिंदी लघुकथा जिन दिनों अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए जूझ रही थी; जिन दिनों समकालीन तेवर की न तो लघुकथाएँ ही यथेष्ट-संख्या में उपलब्ध थीं और न ही तत्संबंधी आलोचनापरक लेख आदि अन्य सामग्री; राजस्थान के अजमेर शहर की निवासी सुश्री शकुन्तला किरण उन दिनों इस विधा में रचनात्मक लेखन के साथ-साथ शोध के स्तर पर भी सक्रिय थीं। देश-विदेश के किसी भी विश्वविद्यालय द्वारा ‘हिंदी लघुकथा’ पर शोध हेतु पंजीकृत, तदुपरांत शोध-उपाधि(पी-एच0 डी0) से अलंकृत वह पहली शख्सियत हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध समकालीन हिंदी लघुकथा की रचनाशीलता व आलोचनापरकता दोनों ही पर अनेक कोणों से एकदम मौलिक चिंतन-दृष्टि प्रस्तुत करने वाली हिंदी की पहली कृति है। इस सबके बावजूद ‘हिंदी लघुकथा का इतिहास-पुरुष’(संदर्भत: महिला) बनने की आपाधापी में वह कभी शामिल नहीं हुईं। हिंदी लघुकथा के तत्कालीन आपाधापी-भरे मसीहाई माहौल से हटकर अपनी रचनात्मक शक्ति का सदुपयोग उन्होंने उससे अलग विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक संगठनों व समितियों में अपनी सक्रियता को बढ़ाकर किया। पहले वह राजस्थान प्रदेश भाजपा कार्य-समिति की सदस्या नामांकित हुईं, तदुपरांत लगभग एक दशक तक राजस्थान महिला मोर्चा की उपाध्यक्षा जैसा महत्वपूर्ण पदभार सँभालने में सफल रहीं। वह नगर परिषद, अजमेर की पार्षद भी निर्वाचित हुईं और वहाँ ‘भूमि एवं भवन निर्माण समिति’ के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया।
बहु-आयामी व्यक्तित्व की धनी सुश्री(डा0) शकुन्तला किरण को परिचितों के बीच ‘शकुन’ नाम से पुकारा जाता है। लेखन की ओर उनका रुझान बचपन से ही रहा है। उनकी पहली रचना ‘माँ की ममता’ शीर्षक कहानी थी जो अजमेर से प्रकाशित उनकी स्कूल-पत्रिका ‘प्रभा’ में तब प्रकाशित हुई थी जब वह मात्र पाँचवी कक्षा की छात्रा थीं। बाद में, ‘प्रज्ञा’ नामक साहित्यिक पत्रिका की वह संपादक भी रहीं। स्कूल व कालेज के दिनों में वह विभिन्न नाटकों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लगातार सक्रिय बनी रहीं। यह सक्रियता बाद में भी अनेक वर्षों तक बनी रही।
अब तक दो सौ से अधिक लेख,कहानियाँ, लघुकथाएँ, कविताएँ/गीत/गजल आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, विशेषांकों, संकलनों व कोशों में प्रकाशित हो चुकी हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से वह मूलत: सूफी विचारभूमि वाले ‘उवैसिया’ सम्प्रदाय से जुड़ी हैं। उनका मानना है कि सृष्टि में आध्यात्मिक-शक्ति से बढ़कर मनुष्य के पास दूसरी कोई शक्ति नहीं है।
सम्प्रति : मित्तल हास्पिटल, पुष्कर रोड, अजमेर(राजस्थान) की निदेशिका हैं।
लघुकथाएँ
शंकाएखलाक अहमद जेई
एकाएक घोड़ा रुक गया। अरे!…यह तो जालिमसिंह है। वही जालिमसिंह दरोगा, जिसकी आवाज से सारा शहर थरथराता है। जालिमसिंह ने देखा—एक सिपाही किसी को डाँट रहा था।
“क्या बात है?”
सिपाही घूमा और एक जोरदार सैल्यूट मारकर बोला, “सर, रात के एक बजने वाले हैं; पर यह बुड्ढा अभी तक खट-खट कर रहा है। अगर चोर कहीं सेंध लगायें तो सुनाई भी न दे।”
जालिमसिंह ने देखा कि एक टूटी-फूटी छोटी-सी दुकान में लालटेन जल रही थी। दीवार पर इधर-उधर कई लकड़ी की वस्तुएँ बनी टगी थीं तथा जमीन पर भी कोई अधबनी वस्तु पड़ी थी।
उसने बुड्ढे पर नजर डाली। एक दुबला-पतला-सा शरीर, मैले-फटे कपड़े में लिपटा, हाथ जोड़े खड़ा था। दारोगा ने महसूस किया कि बुड्ढे के शरीर में बार-बार डर की ठंडी लहर उठ रही है। उसने दुकान के अंदर से नजरें हटा लीं।
“जिस जगह कोई जाग रहा हो, वहाँ क्या चोरी हो सकती है?” जालिमसिंह ने पूछा।
“सर.…” सिपाही की आवाज गले में ही अटककर रह गयी।
“अगर कोई गरीब मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट पालना भी चाहे, तो तुम लोग नहीं करने दोगे…जाओ अपना काम करो, आइंदा ऐसी गलती मत करना।”
उधर बुड्ढा जालिमसिंह को ऐसे देख रहा था, जैसे पहली बार देखा हो।
“बाबा, आप काम कीजिए।” जालिमसिंह ने बड़ी ही शालीनता से कहा तो बुड्ढा भी बेहिचक पूछ बैठा,“साहेब, का आप पुलिस अफसर ना हो?”

हाथ वाले
महावीर प्रसाद जैन

शो शुरू होने में अभी देर है और इस तरह के खाली समय का उपयोग भी वह सार्थक
ढंग से करता है…यानी फुटपाथ पर बिखरी किताबों के ढेरों को देखना…टटोलना…उसका अनुभव है कि इन फुटपाथी ढेरों में प्राय: बड़ी उम्दा किस्म की किताबें हाथ लग जाती हैं।
उसके कदम उस परिचित दुकान पर जाकर रुक गये। यह बहुत पुरानी फुटपाथी दुकान है और इसके मालिक के दोनों हाथ कटे हुए हैं।
दुकानदार उसे देखकर हल्के-से मुस्कराया और उसने एक तरफ इशारा किया…जिसका मतलब था कि इस ढेर से आपको कुछ न कुछ मिल ही जायेगा। वह किताबें देखने लगा। तभी उसकी बगल में एक युवक आकर खड़ा हो गया। उसने उसे एक नजर देखा…वह युवक भी किताबें छाँटने में लग गया। कुछ देर बाद उसकी नजरें फिर उसी युवक की ओर उठीं, और उसने देखा कि एक किताब को बगल में दबाए वह अभी भी किताबों को उलट-पलट रहा था।
दुकानदार अन्य ग्राहकों को निपटाने में लगा हुआ था, कि वह युवक चल दिया। उसने देखा कि उसकी बगल में पुस्तक दबी है। बिना पैसे दिये…यानी…ऐसे ही…चोरी…और उसके मुँह से निकल पड़ा,“वह तुम्हारी किताब ले गया है…बिना पैसे दिये…!” उसने जाते हुए युवक की ओर इशारा भी किया।
“मुझे मालूम है भैयाजी…”
“यार, बड़े अहमक हो। जब मालूम है तो रोका क्यों नहीं?”
कुछ देर वह चुप रहा और फिर जवाब देते हुए बोला,” चोरी हाथवाले ही तो कर सकते हैं।”

धरमरमेश श्रीवास्तव

जब ट्रेन काशी से कुछ इधर ही थी तो एक भिखमंगा मेरे पास में बैठी एक महिला से कुछ देने के लिए आग्रह कर रहा था। अंत में महिला बिगड़ती हुई बोली,“पैसा क्या पेड़ में फलता है कि तोड़कर लिये हुए चली आ रही हूँ। कुछ करना-धरना है नहीं, भीख माँगने चले आते हैं। भला इन्हें भीख देने से मेरा धरम पूरा हो जायेगा?”
उक्त महिला की डाँट सुनकर बेचारा भिखमंगा आगे बढ़ गया।
कुछ देर बाद जब ट्रेन गंगा नदी का पुल पार करने लगी तो उक्त महिला ने नीचे बह रही गंगा को प्रणाम करते हुए एक अठन्नी उछाल दी। यह देख पास में बैठे एक व्यक्ति से रहा नहीं गया तो सहज भाव से उसने पूछ ही डाला,“बहनजी, इससे आपका धरम पूरा हो गया?”
महिला आँखें तरेरती जरूर रही, बोली कुछ नहीं। गाड़ी गंगा पार हो गयी।

एक और श्रवण
डा0 सतीश दुबे

ममी ने छोटे बेटे को आवाज लगायी और कहा, “बेटे, जरा केमिस्ट के यहाँ से ये दवा ले आओ। मुझे बुखार है। शरीर दर्द कर रहा है।”
पर श्रवण ने इंकार कर दिया और फिर से अपने मित्रों के बीच जाकर खेलने लगा। थोड़ी देर बाद ममी ने फिर आवाज लगायी। वह खीझ गया।
“ममी, ये क्या लगा रखा है! आप जानती नहीं, हमारा गेम चल रहा है।”
“बेटे, इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है। अपने दोस्तों के लिए थोड़ा नाश्ता ले आओ और तुम्हारी कापी-बुक भी तो आनी है…”
श्रवण के चेहरे पर चमक आ गयी। वह प्रफुल्लित होकर बोला,“ओह ममी, आप कितनी अच्छी हैं।…और आपकी दवा भी तो लानी है ना! वह चिट मुझे दे दीजिए।”
“अरे, वह तू रहने दे।”
“नहीं-नहीं, वह भी ले आऊँगा।”
और ममी ने कराहते हुए निराश मन से वह चिट उसे थमा दी।

प्रश्नचिह्न
सत्य शुचि

वह मेरा मकान-मालिक था, इसलिए खामोश रहना ही उचित समझा। यदि उसका मन उस ग्राम्य-बाला के गदराये जिस्म पर अटक भी गया तो इसमें मैं कर भी क्या सकता था! यदि जालीदार खिड़की से सभी कुछ स्वत: ही दिख नहीं रहा होता तो देखता भी नहीं।
मैं ऊपर कमरे में पलंग पर खाना खाकर लेटा ही था। शायद उसे इस चीज का आभास नहीं था। तभी तो उसकी इतनी हिम्मत हो गयी थी। इन दिनों उसकी पत्नी और बच्चे भी घर पर नहीं थे।
दोनों परस्पर उलझ रहे थे। उसने करीब-करीब उसे नग्न-सा कर दिया था। यह जबर्दस्ती का कुकृत्य मेरी आखोँ बालकोनी से देखी जा रही किसी फिल्म की रील-सा गुजरता जा रहा था। लड़की मुक्ति के लिए छटपटा रही थी और असफल होने के साथ लगभग समर्पित-सी होती जा रही थी।
मैं गुस्से में भरा अपनी मुट्ठियों को भींचता-खोलता रहा। मैं बिल्कुल असमर्थ था। चाहता तो दरवाजा खोलकर लड़की की सहायता कर सकता था, पर मेरे सामने एक ही प्रश्न था कि यदि मैं इस मामले में पड़ा तो कल ही यह कमरा खाली करना पड़ेगा; और बड़ी मुश्किल से लगातार एक महीने तक प्रयास करने पर हाथ लगा था यह कमरा। यह भी निकल गया तो?

हूण
संजीव

रंगीले का रंग आज उड़ा हुआ था। उस्ताद से उदासी देखी नहीं जा रही थी। पतली वीरान सड़क पर जीप चलाते हुए उन्होंने कई तरह की कोशिशें कीं; चुटकुले सुनाकर देखा, कत्ल की वारदातें बताकर देखा, बलात्कार का चटख चटखारा छोड़ा, लेकिन रंग नहीं जमा तो नहीं जमा।
उस्ताद की उस्तादी के लिए जबर्दस्त चुनौती आ खड़ी हुई थी। तभी उन्हें सामने साइकिल से आता हुआ वह जोड़ा दिखाई दिया। जीप को धीमा करके उन्होंने एक चतुर शिकारी की तरह उस जोड़े का जायजा लिया। युवक देहाती लग रहा था और अपनी जवान बीवी को पीछे बैठाकर मस्ती में कोई गँवई गीत गुनगुनाता हुआ चल रहा था।
उस्ताद ने जीप को थोड़ा दायें किया और तीव्रता से पुन: बायें उनकी बगल में लाकर ब्रेक कस दिया। युवक घबराकर साइकिल लिए-दिए नीचे जा गिरा ऊँची सड़क से। युवती बड़े अटपटे ढंग से गिर पड़ी और उसके कपरे कुछ उघड़ गये। घबड़ाई हुई वह उठने का उपक्रम करने लगी। देहाती युवक ने उसे सहारा दिया और एक बेबस आक्रोश से जीप की ओर देखा।
तभी रंगीले भिलभिलाकर हँस पड़ा। उसका रोम-रोम आह्लाद से भर उठा। उस्ताद ने हँसने की जुगलबंदी निभाई।
जीप ने भी किरकिराकर ताल दिया और खुशी के हिचकोले खाती डकारती खुरों से धूल उलीचती आगे बढ़ गयी।

खेल-खेल मेंरफीक जाफर

अहमद और अनवर गली में गिल्ली-डंडा खेल रहे थे। खेल-खेल में किसी बात पर लड़ाई हो गई। इत्तफाक की बात कि उस समय अनवर की माँ रहमत बी पानी का घड़ा उठाए वहाँ से गुजर रही थी। जब उसने इन दोनों को लड़ते देखा तो पानी का घड़ा जमीन पर रखकर दोनों को एक-दूसरे से अलग करते हुए एक-एक थप्पड़ रसीद कर दिया। दोनों रोते हुए वहाँ से भाग गये।
रहमत बी खाली घड़ा लिए जब अपने घर से लौट रही थी, तो अहमद की माँ करीमुन रास्ता रोके खड़ी हो गयी। उसका पल्लू थामे अहमद सहमा हुआ खड़ा था। रहमत बी मामले को समझ गयी। वह करीमुन के तेवर देखकर खुद भी तैयार होने लगी। पहले तो उसने घड़े को जमीन पर रखा, फिर साड़ी के पल्ले को कमर पर कस लिया और बोली,“क्या है री, लड़ाई हुई बच्चों में और आ गयी तू लड़ने!…बोल क्या बोलती है?”
सुनकर करीमुन बोलने लगी—“अरे वाह, चोरी की चोरी और उस पर सीनाजोरी? मेरे बच्चे को मारा और उस पर मुझे आँखें दिखाती है! हरामजादी, चीर के रख दूँगी, समझती क्या है!”
अहमद ने सोचा कि अब लड़ाई होने वाली है और साथ में उसकी पिटाई भी। इसलिए वह वहाँ से भाग गया और ये दोनों लड़ने लगीं।
करीमुन ने उसके हाथ से घड़ा छीनकर परे फेंक दिया। रहमत बी को बहुत गुस्सा आया। उसने करीमुन को बालों से पकड़कर उसे जमीन पर गिरा दिया और हाथों-लातों से मारना शुरू कर दिया। करीमुन को मौका मिला तो उसने भी रहमत बी को पीटना शुरू कर दिया। फिर लड़ाई-लड़ाई में करीमुन के हाथ एक पत्थर आ गया, जो उसने रहमत बी के सिर पर दे मारा। रहमत बी के सिर से खून निकलने लगा और वह चीखने-चिल्लाने लगी। मुहल्ले की दूसरी औरतें, जो बहुत देर से खड़ी तमाशा देख रही थीं, करीब आ गयीं। इनमें से कुछ तो रहमत बी की ओर हो गयीं और कुछ करीमुन की ओर। फिर क्या था, अच्छी-खासी जंग छिड़ गयी। इसके बाल उसके हाथ और उसका जिस्म इसकी लात। बहरहाल, उस गली में एक हंगामा खड़ा हो गया। सब बोल रही थीं। कुछ मरदों ने बीच-बचाव करना चाहा, पर वे बेचारे औरतों के हाथों पिट गये। न जाने किसने पुलिस स्टेशन में खबर कर दी कि वहाँ पुलिस वाले भी आ गये। उनके आते ही भीड़ छंट गयी। कुछ औरतें तो भाग गयीं। पुलिस वालों जब हकिकत जाननी चाही तो औरतों ने रहमत और करीमुन को सामने कर दिया। पुलिस वालों ने दो-चार औरतों को गवाह रखा और उन दोनों को लेकर आगे बढ़े।
रास्ते में करीमुन और रहमत बी की नजरें अहमद और अनवर पर पड़ीं। दोनों बच्चे गिल्ली-डंडा खेल रहे थे। दोनों औरतें ठिठककर एक-दूसरे को देखने लगीं। फिर दोनों की पलकें शर्म के बोझ से झुक गयीं।