Friday 16 May, 2008

जनगाथा मई 2008


लघुकथा की रचना-प्रक्रिया
बलराम अग्रवाल
(पिछले अंक से जारी)


यह कहना कि उपन्यास और कहानी से लघुकथा की भिन्नता कथानक के स्तर पर होती है—सरासर भ्रामक हो तब भी प्रशंसनीय ही माना जाएगा क्योंकि इसमें भिन्नता के सूत्र को पकड़ लेने का प्रयास परिलक्षित होता है। परन्तु, यह भिन्नता के मूल से भटका हुआ वक्तव्य है। पहली बात तो यह कि उपन्यास से लघुकथा की भिन्नता के बिन्दु तलाश करने की चेष्टा ही अपने आप में विडम्बनापूर्ण मूर्खता है, क्योंकि उपन्यास में कथा के विस्तार का फलक, कहानी और लघुकथा दोनों में, कथा के विस्तार-फलक से पूरी तरह भिन्न होता है। दूसरी बात यह कि कथा-साहित्य की विधाओं में (आकार की दृष्टि से भी) जितना भ्रम कहानी और लघुकथा के बीच उत्पन्न होता है, उतना उपन्यास और लघुकथा या उपन्यास और (सामान्य लम्बाई की) कहानी के बीच नहीं। उपन्यास और कहानी के बीच भ्रम की स्थिति लम्बी-कहानी तथा उपन्यासिका को लेकर तो गाहे-बगाहे उत्पन्न होती रहती है, सामान्यतः नहीं। बिल्कुल वैसे, जैसे छोटी कहानी और (अपेक्षाकृत लम्बे आकार की) लघुकथा के बीच वर्तमान में बनी हुई है। हालाँकि प्रस्तुतिकरण के कुछ बिन्दुओं पर कड़ी नजर डालें तो यह भ्रम ज्यादा टिकता नहीं है। एक मुख्य बात, जो अब तक देखने में आई है, वह है—लघुकथा और कहानी, दोनों के कथानकों का अपने समापन अथवा अन्त की ओर भिन्न गति से बढ़ना। कहानी का कथानक अक्सर किसी उपालम्ब के सहारे समापन की ओर बढ़ता है, जबकि लघुकथा का कथानक बिना किसी अवलम्ब या उपालम्ब के। लघुकथा का कथानक स्वयं ही अपना अवलम्ब होता है तथा कहानी की तुलना में अधिक त्वरण वाला होता है। कह सकते हैं कि समापन की ओर बढ़ते कथानक के मामले में गतिज-ऊर्जा की दृष्टि से कहानी की तुलना में लघुकथा अधिक स्वाबलम्बी कथा-रचना है। कहानी से लघुकथा की भिन्नता का इसे एक-और बिन्दु माना जा सकता है।
आज, जिस समाज में हम रहते हैं, उसमें सूचनाओं को प्राप्त और प्रदान करने के माध्यम और साधन सभी के पास लगभग समान हैं—पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टीवी, टेलीफोन, इंटरनेट, बाजार और संगति। इसलिए यह अवश्य माना जा सकता है कि लघुकथा में दो या अधिक लेखक एक ही घटना को अपने लेखन का आधार बना सकते हैं। परन्तु, उन सबकी संवेदनाएँ भी उस घटना से समान रूप में ही प्रभावित होंगी और निष्कर्षतः भी वे समान रचनाएँ ही लिखेंगे—यह असंभव है। कथानक की बात हम छोड़ भी दें तो वस्तु और निष्कर्ष के स्तर पर समान लघुकथाएँ भिन्न शीर्षकों के रहते भी अमौलिक तथा किसी पूर्व-प्रकाशित रचना से प्रभावित ही कही जायेंगी।
किसी भी माध्यम से प्राप्त समाचार मनुष्य के बाह्य-जगत का लेखा है, अन्तःजगत का नहीं। इसलिए अनेक बार कथात्मक प्रस्तुति के रहते भी, समाचार-लेखक समाचार ही प्रस्तुत कर पाता है, लघुकथा नहीं। समाचारों के माध्यम से अगर अपनी संवेदनाओं को कथारूप दिया जा सकता होता तो प्रभावशाली लघुकथा-लेखकों की कम-से-कम एक ऐसी जमात जरूर हमारे पास होती जिसने(अखबारी समाचारों के आधार पर) बहुत-सी देशी-विदेशी समस्याओं के सर्वमान्य समाधान प्रस्तुत करती या आदमी के संवेदन-तन्तुओं को जगाती कितनी ही लघुकथाएँ लिख मारी होतीं। समाचार ही अगर संवेदनाओं के मानक वाहक होते तो टीवी, अखबार आदि ‘लघुकथा’ के मुकाबले कम-से-कम इस अर्थ में तो प्रभावशाली माने ही जाते कि समाचार को इनमें से कुछ में हम एक घटना को रूप में जीवन्त घटित होते देखते-सुनते हैं। लेकिन हमारी सुप्त या कहें कि मृत संवेदन-ग्रंथियों का यह हाल है बताने की शायद जरूरत नहीं है कि ‘भोपाल गैस काण्ड’ में मारे गए और पीड़ित लोगों के बारे में टीवी रिव्यू हो या किसी और काण्ड में सताए-मारे गए लोगों के बारे में, टीवी रिव्यू देखते समय हमारे हँसी-ठट्ठों और खान-पान में कोई बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता। उधर खून-खराबा, लाशें और रोते-बिलखते स्त्री-पुरुष-बच्चे दिखाई दे रहे हैं; इधर डाइनिंग-टेबल पर फ्रूट-क्रीम के कप से उठकर चम्मच हमारे मुँह की ओर घूम रही होती है। समाचारों और संवेदनाओं के बीच वर्तमान में यह रिश्ता हमारे सामने है। जब तक कोई लेखक समाज से रू-ब-रू नहीं होगा, संवाद का कोई भी माध्यम उसकी संवेदना को जगाए नहीं रख सकता। साहित्य अगर समाज का दर्पण है तो सिर्फ इसलिए कि उसका रचयिता समाज के अन्तर्विरोधों को उसके बीच अपनी उपस्थिति बनाकर झेलता-महसूसता है, न कि समाचार माध्यमों द्वारा फेंके गये टुकड़ों को लपक-लपक कर संवेदनाओं की जुगाली करता फिरता है।
लेखक का धर्म है कि वह अन्त:जगत से जुड़े। जितना गहरा वह पैठेगा, उतना ही गहरा वह प्रस्तुत करेगा। अन्त:जगत से जुड़े बिना बाहर की हर यात्रा व्यर्थ और निरर्थक है। अन्त:जगत से जुड़ाव ही आदमी को सामान्य की तुलना में विशेष बनाता और सिद्ध करता है। यही वह विशेष कारण है जिसके चलते ‘लेखक’ विशेषणधारी व्यक्ति केवल सुन या देखकर ‘अन्य’ की संवेदनाओं के साथ अपनी संवेदनाओं को जोड़कर उन्हें उनकी सम्पूर्णता में पा लेता है। लेकिन इसको ‘साधना’ न तो इतना आसान है और न ही आम। इसलिए जब तक यह सध न जाए, तब तक समाज से सीधे संवाद निर्विवादित है। हाँ, लेखक के तौर पर किसी को अल्पायु एवं रुग्ण जीवन भी स्वीकार्य हो तो समाचारों को माध्यम बनाकर कुछ काल तक बाह्यजगत में विचरण का सुख भोग लेना कोई बुरी बात नहीं है।...(शेष आगामी अंक में)


एक परिचयात्मक टिप्प्णी हिन्दी लघुकथा : सोच के नये आयामडा0 सतीश दुबे

हिन्दी कथा-साहित्य के बीच लघुकथा ने हर दृष्टि से आज जो विशिष्ट स्थान प्राप्त है, उसका श्रेय अस्सी के दशक में युवा-रचनाकारों द्वारा किये गये विभिन्न सृजनात्मक प्रयासों को दिया जाना चाहिए।
आन्दोलन का आकार लिये इन प्रयासों की पृष्ठभूमि में ‘सारिका’ के माध्यम से कमलेश्वर जी की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस बहु-प्रसारित व्यावसायिक पत्रिका में लघुकथाएँ, उससे सम्बन्धित आलेख, चर्चा-गोष्ठियाँ, रपट जैसी सामग्री प्रकाशित होने के कारण बहुल-पाठक-वर्ग ने लघुकथा की शक्ति को पहचाना। सहमति-असहमति के उभरे स्वरों ने अनेक तेज-तर्रार युवा-समीक्षकों को मुखरित किया। रचना-प्रक्रिया, विधागत मान्यता, लेखन-प्रकाशन जैसे विभिन्न मुद्दों पर साहित्यिक-चेतना का प्रतिध्वनित माहौल नये-पुराने रचनाकारों का ध्यान लघुकथा की ओर आकृष्ट करने लगा।
इसे अजीब विरोधाभास या संयोग ही माना जाना चाहिए कि उसी दशक के दौरान लघुकथा को लेकर बहस-मुबाहिसों की इस हलचल से परे एक ऐसा कार्य हो रहा था जिसने इस विधा में सृजन के सकारात्मक पक्ष की मिसाल ही कायम नहीं की, प्रत्युत भविष्य में बनने वाली लघुकथा-इमारत को जाँचने-परखने, उसका आकलन करने का ठोस आधार भी प्रदान किया। यह कार्य था—राजस्थान के अजमेर जिले की निवासी शकुन्तला किरण द्वारा जयपुर विश्वविद्यालय से आठवें दशक की ‘हिन्दी लघुकथा’ पर केन्द्रित शोध-कार्य। किसी भी भारतीय अथवा विदेशी विश्वविद्यालय द्वारा लघुकथा को केन्द्र में रखकर शोध-हेतु पंजीकृत तथा शोधोपरांत सम्मानोपाधि(पी-एच0 डी0) प्राप्त ‘हिन्दी लघुकथा’ पहली कृति है।
डा0 शकुन ने शोध-दृष्टि और सूक्ष्म अध्ययन को चिंतन का आधार बनाकर सटीक तथ्यात्मक टिप्पणियों के माध्यम से लघुकथा-लेखन की सामाजिक सरोकारों के वृहद फलक पर साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में पैरवी की है।
पाँच अध्यायों में, तकरीबन तीन सौ पृष्ठों पर विदुषी शोधार्थी ने आठवें दशक की तमाम ऐसी सृजनात्मक गतिविधियों को सोच के नये आयाम दिये हैं, जो लघुकथा की पहचान और उसके उज्ज्वल पक्ष को उजागर करने के लिए साहित्यिक-जगत में जारी थे।
हिन्दी लघुकथा की रचनात्मक-पड़ताल के लिये डा0 शकुन के दृष्टि-पटल पर देश ही नहीं, विदेश की परम्परा भी बीज-रूप में विद्यमान रही है। और इसीलिए, खलील जिब्रान का उल्लेख करते हुए वह उन प्रसंगों को विशेष रूप से रेखांकित करती हैं जो लघुकथा के रचनात्मक-तेवर की वजह से तात्कालिक-व्यवस्था के लिए खतरनाक साबित हुए।
लम्बे अरसे तक निरन्तर जद्दोजहद के बाद साहित्य-जगत में अपना विधागत मुकाम हासिल करने में लघुकथा भले ही अब कामयाब हो सकी हो, किन्तु डा0 शकुन्तला किरण आठवें दशक में उपलब्ध साहित्य के साक्ष्य में एक पारखी शोधार्थी के नाते ऐसी स्थापना को बहुत पहले शब्द दे चुकी थीं---“आठवें दशक में उदित आधुनिक हिन्दी लघुकथा ने अपनी विशिष्टताओं, क्षमताओं एवं उपयोगिताओं के कारण अभिव्यक्ति के एक नये व प्रभावशाली माध्यम के रूप में अपनी स्वतन्त्र पहचान दी…।”
प्रस्तुत आलोचनात्मक कृति विषय के प्रति न्याय ही नहीं शोध के समर्पण और निष्ठा का आदर्श भी प्रस्तुत करती है। साहित्य की विधा-विशेष पर किए जाने वाले अन्य कार्यों की अपेक्षा यह कार्य विशिष्ट दर्जा हासिल करने का हकदार इसलिए भी है कि इसमें शोध-सामग्री संकलन के प्रयास एकाकी की अपेक्षा बहुआयामी तथा समाज-वैज्ञानिक हैं।
आठवें दशक जैसे अति-महत्वपूर्ण कालखण्ड-विशेष पर केन्द्रित होने के कारण यह कृति लघुकथा की विधागत अंतरकथाओं एवं आलोचना-दृष्टि के संदर्भ में रामायण-महाभारत के प्रसंगों की तरह कालातीत साबित होगी,ऐसा मेरा विश्वास है।
लघुकथाएँ
धरम की बातविमल किशोर
अंगूरी तो बस यही समझती थी कि उसका आदमी कल्लू जब भी शराब पीकर आता है, उसे मारता-पीटता है। बल्कि, अब तो वह यह समझने लगी थी कि कल्लू को जब भी उसे पीटना होता है, तभी वह शराब पीकर आता है, अन्यथा नहीं।
मुहल्ले में नयी आयी रामकली को यह बात कुछ अजीब-सी और आतंकित करती-सी लगी। उस दिन उसने अंगूरी के चीखने-चिल्लाने की आवाज सुनी तो अपनी पड़ोसन चंपा के पास गयी। चंपा ने कल्लू को एक लम्बी-सी गाली देते हुए जो कुछ कहा उसका आशय रामकली को यही समझ में आया कि यह तो हमेशा ही होता आया है –कोई कहाँ तक बीच-बचाव करे……और वह वहाँ से चली आयी; लेकिन ध्यान उसका अंगूरी की ओर ही लगा रहा।
अंगूरी चीखती-चिल्लाती बेबस, कल्लू को गालियाँ दे रही थी, उसकी मौत भगवान से माँग रही थी। सुन-सुन कर रामकली भी चाह रही थी कि यह हत्यारा मर जाये और बेचारी की जान बचे।
चार दिन बाद महालक्ष्मी का व्रत आया। मुहल्ले की सभी स्त्रियों ने अपने पति और पुत्रों की दीर्घायु के लिए व्रत किया। रात को अंगूरी पूजा करने रामकली के घर आयी। पूजा करते समय रामकली ने लक्ष्मीजी की मूर्ति के सामने माथा टेकते हुए अपने पुत्र और पति के कल्याण एवं लम्बी आयु की कामना की।
अंगूरी ने भी ऐसा ही किया तो रामकली ने आश्चर्य से पूछा,”अभी उस दिन तो तू मना रही थी कि लल्लू के कक्का अभी मर जायें और आज…”
अंगूरी ने बीच में ही टोकते हुए कहा,”ऐसी बात मत कहो बाई…वा और बात हती… जा धरम की बात है…करम में वोई बदो है, धरम में जे है…”


अरेखित त्रिकोण
उदय प्रकाश

-कुत्ते, कमीने… बाप से मुँह बड़ाता है! इसी दिन के लिए क्या तुझे पाल-पोस कर बड़ा किया था?
-चुप रह तू, बाप होने का हक जताता है, पर बाप की जिम्मेदारियाँ निभानी आती हैं तुझे? जितना तूने मुझ पर खर्च किया है, उससे दुगुना तुझे कमा-कमा कर खिला चुका हूँ मैं, समझा!
-क्यों बे बूढ़े, मौत आयी है क्या तेरी, जो अपने बेटे से जबान लड़ा रहा है।--–पुत्र का एक हितैषी बोला।
-स्साले, कमीने, हमको उपदेश देता है! हरामी की औलाद!!---कहते हुए अगले ही क्षण पिता-पुत्र दोनों उसकी छाती पर सवार थे।



अंधेःखुदा के बंदेरमेश बतरा

-इस आदमी को क्यों नहीं चढ़ने दे रहे आप…इसे भी तो जाना है।
-यह तो कहीं भी चढ़ जायेगा। रह भी गया तो अगली गाड़ी से आ जायेगा। मगर तुम्हें तकलीफ होगी।
-मुझ पर इतना तरस क्यों खा रहे हैं आप?
-तुम अंधे जो हो…अपाहिज।
-मैं ही क्यों, आप भी तो अपाहिज हैं।
-सूरदास, भगवान ने आँखें नहीं दीं, कम-से-कम जुबान का तो सही इस्तेमाल कर… मीठा बोलना सीख।
-आपको तो भगवान ने सब-कुछ दिया है; पर क्या दुनिया का कोई भी काम ऐसा नहीं जो आप नहीं कर सकते?
-बहुत-से काम हैं।
-फिर उन कामों को लेकर तो आप भी अपाहिज ही हुए। और तो और, भगवान ने आपको आँखें दी हैं और आप उनका भी सही इस्तेमाल नहीं कर रहे।
-यह तो फिलोसफर लगता है।
-कैसे भई कैसे?
-आपकी आँखें यह नहीं देख रहीं कि दो आदमी हैं और आपका इंसानी फर्ज है कि आपकी तरह वे भी अपनी मंजिल पर पहुँच जायें, बल्कि आपकी आँखें अंधे और सुजाखे को देख रही हैं। जो आदमी होकर आदमी को नहीं पहचानता, उससे ज्यादा अपाहिज कोई नहीं होता।
-अच्छा-अच्छा, भाषण मत दे। चढ़ना है तो चढ़ गाड़ी में, वरना भाड़ में जा…हमें क्या पड़ी है!
-मुझे मालूम था, आप यही कहेंगे। आपकी तकलीफ मैं समझता हूँ…आप एक अंधे को गाड़ी पर चढ़ाकर पुण्य कमाना चाहते थे, किन्तु धर्मराज की बही में आपके नाम एक पुण्य चढ़ता-चढ़ता रह गया।
-पुण्य कमाने के लिए एक तू ही रह गया है बे?…मैं तो इसलिए कह रहा था कि अंधे बेचारों की हालत तो दो-तीन साल के बच्चों से भी बुरी हुई रहती है।
-वाह! दो-तीन साल का बच्चा इस तरह गाड़ी पकड़ सकता है क्या?
-बच्चा भला क्या गाड़ी पकड़ेगा अपने आप!
-मैं अकेला आया हूँ स्टेशन पर…कोई लाया नहीं मुझे।
-पुलिस से बचकर भाग रहा होगा…आजकल खूब ठुकाई कर रही है तुम्हारी।
-अजी, अपना हक माँगने गये थे, भीख माँगने नहीं…लाठी पड़ गयी तो क्या हुआ। आप जाइए तो आप पर भी पड़ सकती हैं लाठियाँ तो।
-हम तो कैसे भी बचाव कर सकते हैं अपना…मगर तुम…!
-देख लीजिए, जीता-जागता खड़ा है यह अविनाश कुमार आपके सामने।
उस आदमी के पास कोई जवाब नहीं बन पड़ा। गाड़ी, जो सीटी दे चुकी थी, अब चल पड़ी। अविनाश कुमार ने लपककर डंडा पकड़ते हुए अपने पाँव फुटबोर्ड पर जमा दिए। लोग उसका हाथ थामकर उसे डब्बे के अंदर लेने की कोशिश करने लगे…और अविनाश कुमार बड़ी मजबूती-से डंडा थामे कहता रहा—इंसान को सँभालना इंसान का फर्ज है…इस नाते मैं आपकी तारीफ करता हूँ…पर मुझे अंधा समझकर मुझ पर दया मत कीजिए…मुझे अपने लायक बनने दीजिए…अंधा हो चुका…मोहताज नहीं होना चाहता…!
गाड़ी तेज होती चली जा रही थी।


धूल-धुआँ
पृथ्वीराज अरोड़ा

खेलते-खेलते अचानक बच्चों के हाथ रुक गये। मेरा ध्यान भी टूटा। मैंने पूछा,”क्या हुआ, तुम लोगों ने खेलना क्यों बंद कर दिया?”
उनसे कोई जवाब न मिला तो मैंने निगाहें उठाकर देखा। बच्चों की आँखों का अनुकरण करते हुए मैं सन्न रह गया। अपने अन्दर एक कमजोरी के अहसास को महसूसा। मेरे साठ वर्षीय पिता दूध से भरा बड़ा गिलास गटागट पी रहे थे। मैंने आगे बढ़कर खिड़की बन्द कर दी, मानो अपने अभावों से नजर चुरा ली हो।
बच्चे मेज के इर्द-गिर्द बैठ गये। तीनों बच्चों ने चाय के गिलास जल्दी-जल्दी उठाकर खाली कर दिये और फटाफट बस्ते उठाकर स्कूल जाने लगे। पत्नी की नजर दूध के भरे गिलास पर पड़ी तो चौंक गयी…छोटा तो दूध बिना पिये मानता नहीं… आज दूध छोड़कर चाय कैसे पी गया! उसने जाते-जाते छोटे को डाँटा, “ए, तुमने दूध क्यों नहीं पिया?”
उसने भोला-सा मुँह बना दिया, “बच्चे दूध नहीं पीते।“
“और कौन पीते हैं?”
“बूढ़े पीते हैं।”
“यहाँ कौन बूढ़ा बैठा है। चल, जल्दी-से गिलास खाली कर और जा।”
“नहीं मम्मा, मैं नहीं पियूँगा।”
“कौन पियेगा फिर!”
“तुम पापा को पिला दो, मम्मी।” कहते हुए बच्चा भागकर आगे निकल चुके भाइयों में जा मिला।
क्रियात्मक कामसूत्र
शंकरदयाल सिंह

दिल्ली से जब गाड़ी चली, तो हम लोग—तीन सवारियाँ—प्रथम श्रेणी के उस डिब्बे में थे—दो महिलाएँ और एक पुरुष-यात्री मैं। गाड़ी छूटने के कुछ ही देर बाद एक महिला-यात्री दूसरे डिब्बे में चली गयी और उसके बाद हम दो ही बच गये। मेरे साथ वाली सहयात्री ने भी कंडक्टर गार्ड के आते ही महिलाओं वाले डब्बे में चले जाने की इच्छा व्यक्त की।
कंडक्टर गार्ड ने ‘सी’ कम्पार्टमेंट मे जगह देने की बात कही, लेकिन अलीगढ़ से। महिला सहयात्री ने अपना आधा सामान ‘सी’ में जा कर रख भी दिया। मैं खामोश सब देखता-सुनता रहा।
‘डीलक्स-गाड़ी’ में 'डायनिंग कार’ की सुविधा रहती है, अतः बेयरा को चाय लाने का आदेश दिया और चाय आने पर स्वाभाविक रूप में अपने सामने बैठी और खोयी संभ्रांत महिला से चाय पीने का आग्रह किया। पहले तो एक-दो बार उन्होंने ‘ना-नो’ की, लेकिन मेरे जोर देने पर वह तैयार हो गयीं। चाय की चुस्की के साथ कुछ बातों का क्रम भी चला और मुझे पता चला कि वह एक आर्मी-आफीसर की पत्नी हैं तथा उन्हें यह पता चला कि मैं संसद सदस्य हूँ। वे कलकत्ता जा रही हैं और मैं पटना जा रहा हूँ।
अलीगढ़ में कंडक्टर-गार्ड ने आकर डब्बा बदलने की बात कही तो उन्होंने अरुचिपूर्ण स्वर में कहा—“आगे देखा जाएगा।”
गाड़ी आगे बढ़ी तो मैंने उनसे कहा—“चेंज ही करना है तो बदल लें। चलिए, मैं आपका सामान वहाँ तक पहुँचा देता हूँ।”
उन्होंने बड़ी संभ्रांत एवं संकोचशील आवाज में कहा—“आपको बुरा नहीं लगेगा?”
“भला मुझे बुरा क्यों लगेगा? आप अकेली हैं, महिला हैं, दूर का सफर है; फिर किसी अपरिचित पुरुष के साथ यात्रा में झिझक स्वाभाविक है। आप डब्बा बदल लें और शांतिपूर्वक सो जायें।”
“सब लोग एक तरह के नहीं होते और अब आप अपरिचित भी नहीं हैं।” एक छोटी-सी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा और अपना सामान लाने चली गयीं।
हम दोनों बहुत देर तक व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन के संबंध में बातें करते रहे। करीब साढ़े आठ बजे रात में गाड़ी टूँडला पहुँची और वहाँ हमारे डब्बे में दो विदेशी—युवक-युवती—आ गये तथा ऊपर की दोनों बर्थों पर कब्जा कर लिया।
दस बजे के करीब मैंने सबों से अनुमति लेकर डब्बे की उजली बत्तियाँ बुझा दीं और दरवाजा भी बंद कर दिया। बारह बजे रात के करीब अपनी संभ्रांत-सहयात्री के खाँसने की आवाज से मेरी नींद टूट गयी और नीले प्रकाश में उनकी आँखों में चमक और बेचैनी तथा हास्य की आभा देखी। उन्होंने अपनी उँगलियों से ऊपर की ओर इशारा किया। मेरी नजर सामने गयी, तो देखा कि वात्स्यायन के कामसूत्र का क्रियात्मक पाठ दोनों विदेशी—युवक-युवती—धड़ल्ले से कर रहे थे।


चाँदनी
डा0 जाकिर हुसैन
हिमालय की वादियों में स्थित अल्मोड़ा के एक बड़े मियाँ—अब्बू खाँ—अकेले होने के कारण सदा एक-दो बकरियाँ पाले रखते थे। दिनभर उन्हें बड़े प्यार से चराने के बाद रात को घर में बंद कर देते थे। पहाड़ी नस्ल की बकरियाँ बँधे-बँधे घबरा जाती थीं और अवसर पाने पर रस्सी तुड़ाकर पहाड़ में चली जाती थीं। वहाँ एक भेड़िया उन्हें खा जाता था।
जब कई बकरियाँ भाग निकलीं तो अब्बू खाँ ने सोचा कि यदि उन्होंने एक कम-उम्र बकरी ली और उसे पहले से ही अच्छे चारे-दाने की आदत डाल दी तो वह पहाड़ का रुख न करेगी। वे एक नन्हीं-सी सुंदर, बकरी ले आये, चाँदनी नाम रखा और अधिक स्नेह से उसका पोषण करने लगे। उन्होंने चाँदनी को अपने खेत में बाँध दिया जिसे काँटों से घेर दिया गया था और रस्सी भी खूब लम्बी कर दी।
स्वतंत्र प्राणियों का दम खुली चारदीवारी में घुटता है और काँटों से घिरे खेत में भी। एक सुबह जब चाँदनी ने पर्वतों की ओर दृष्टि की तो सुन्दर शिखरों ने उसे पुकारा। उसे उछलने, कूदने और ठोकरें खाने की इच्छा हुई। सो, उसने एक दिन अब्बू खाँ से कहा—“अब्बू मियाँ, मुझे पहाड़ में चला जाने दो।”
अब्बू खाँ बकरियों की भाषा जानते थे। चाँदनी की बात सुनकर उन्होंने छाती पीट ली। फिर, मनाने लगे। बेहतर चारे-दाने की आस दिलायी। भेड़िये का डर बताया। मगर चाँदनी ने कहा— “अल्लाह ने दो सींग दिये हैं, इनसे उसे मारूँगी।”
अब्बू खाँ झुँझलाये। उन्होंने उसे एक कोठरी में बंद कर दिया। मगर वह उसकी खिड़की बंद करना भूल गये और चाँदनी खिड़की फलाँगकर भाग गयी।
पहाड़ पर पहुँचकर चाँदनी की खुशी का ठिकाना कहाँ! उछली, कूदी, फाँदी, फिसली और सँभली! वहाँ उसे बकरियों का एक रेवड़ भी मिला। उसमें एक जवान बकरा पसंद भी आया। लेकिन, वह उसके साथ न गयी। आजादी की आरजू प्रबल थी।
अँधेरा उतर आया। एक ओर से भेड़िये की खूँ-खूँ की आवाज आने लगी, दूसरी ओर से अब्बू खाँ की प्यारभरी पुकार—“लौट आ…लौट आ!”
पलभर को लौटने की इच्छा हुई; पर खूँटा, रस्सी और काँटों का घेर नजरों के सामने घूमने लगे। उसने सोचा—वहाँ की जिन्दगी से यहाँ की मौत अच्छी।
होठों पर जीभ फेरते भेड़िये को देखकर चाँदनी लड़ने को तैयार हो गयी। वह जानती थी कि बकरियाँ भेड़िये को नहीं मार सकतीं। वह तो बस यह चाहती थी कि सामर्थ्यानुसार मुकाबला करे। जीत-हार तो अल्लाह के हाथ है। भेड़िया आगे बढ़ा तो चाँदनी ने भी सींग सम्हाल लिये और वो हमले हुए कि भेड़िये का जी जानता है। तारे एक-एक करके गायब हो गये। चाँदनी ने आखिरी समय में अपना जोर दुगुना कर दिया, लेकिन वह बेदम होकर गिर गयी।
भेड़िये ने उसे दबोच लिया।

महँगाई
राधेलाल ‘नवचक्र’
राज्य में रोज महँगाई बढ़ रही थी। राजा परेशान, जनता तबाह। आखिर राजा के विरुद्ध आवाज उठी, “महँगाई को कम करो, नहीं तो गद्दी छोड़ दो!”
राजा ने इस संबंध में एक चतुर मंत्री से सलाह ली। मंत्री ने कहा, “यह समस्या तो चुटकी बजाते हल हो सकती है, महाराज!”
“कैसे?” महाराज ने पूछा।
“महँगाई कम करने के लिए महँगाई बढ़ानी पड़ेगी।” मंत्री ने कहा।
“यह आप क्या कह रहे है!”
“पहले महँगाई को डेढ़ गुना बढ़ा दिया जाये…”
“फिर?”
“अगले दिन हर चीज की कीमत एक प्रतिशत घटा दी जाये। फिर कुछ दिनों बाद थोड़ी और घटा दी जाये। फिर थोड़ी और…ऐसा करने से जनता समझेगी कि अब कीमतें धीरे-धीरे घट रही हैं; जबकि वह पहली वाली कीमत से थोड़ा ऊपर रहकर स्थिर हो जायेगी। जब-जब महँगाई के विरुद्ध आवाज उठे, आप यही करें।” मंत्री ने गूढ़ बात कही।
तरीका प्रयोग में लाया गया। राजा ने देखा, जनता पहले से खुश थी—खूब खुश!

1 comment:

रूपसिंह चन्देल said...

प्रिय बलराम,

ब्लॉगों की दुनियां में जो कुछ अच्छे ब्लॉग हैं उनमें जनगाथा ने अपनी नयी पहचान बनाई है. तुम्हारा परिश्रम सार्थक हो रहा है. नया अंक बहुत अच्छा है.

चन्देल