Tuesday, 21 July 2009

रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथाएँ

-->स बार जनगाथा में प्रस्तुत हैं समकालीन हिन्दी लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षर श्रीयुत रामेश्वर काम्बोज हिमांशु की लघुकथाएँ। हिमांशु जी लघुकथा की प्रेमचंदीय-परम्परा के वाहक हैं। इनकी लघुकथाओं में समाज और परिवार से लुप्तप्राय सद्भाव और पारस्परिक सहयोग की भावना व विश्वास की पुनर्स्थापना पर बल दिया जाता है और मूलत: यही इनकी लघुकथाओं का केन्द्रीय स्वर प्रतीत होता है। लेकिन उन्होंने खलनायक के नटवर तथा विक्षिप्त के स्वामी अजयानन्द जैसे, समाज में छल और छ्द्म से परिपूर्ण चरित्रों को भी उजागर करने के दायित्व का भी निर्वाह किया है। हिमांशु जी ने अन्य विधाओं को भी अपना रचनात्मक योगदान किया है।
बलराम अग्रवाल
॥1॥ खलनायक
नटवर ने लड़खड़ाते हुए किसी तरह मंच का रास्ता तय किया। लड़खड़ाकर पथिकजी के पैरों में गिर पड़ा–“आप मेरे पिता समान हैं। आपके आशीर्वाद के बिना मैं अध्यक्ष नहीं बन सकता। थोड़ी देर पहले ऊलजलूल बातें कहकर मैंने अपने कुछ विरोधियों को नाराज़ कर दिया है। वे गोष्ठी का बहिष्कार करके वापस जा चुके हैं। अब सिर्फ़ दो-तीन लोग मेरा विरोध कर सकते हैं, पर मौज़ूद लोगों में ऐसा कोई नहीं है जो आपकी बात टाल दे।
रातभर तुम मुझे गालियाँ देते रहे हो, अब चिरौरी कर रहे हो!पथिक जी ने कड़े स्वर में कहा।
मेरे जैसे लोगों की गालियों पर आपको ज्यादा ध्यान नहीं देना चाहिए। कौओं के कोसने से ढोर नहीं मरा करते।नटवर लड़खड़ाती आवाज़ में बोला।
तुमको विमल ने इस कार्यक्रम के लिए जो दो सौ रुपए दिए थे, वे कहाँ गए?” पथिक जी ने नटवर को फटकारा।
नटवर पने होठों पर उँगली रखकर चुप रहने का संकेत करते हुए फुसफसाया–“रात उन पैसों की शराब पी ली थी।’’ पथिकजी के पैरों को फिर हाथ लगाते हुए बोला–“अब ऐसा नहीं होगा। अब मैं सच्चे मन से साहित्य-सेवा करूँगा।
वह सेवा तुम कर ही रहे हो। साहित्य के नाम पर गालियों की वमन प्राय: करते रहते हो। कहीं ऐसा न हो कि किसी दिन तुम स्वयं एक भद्दी गाली बनकर रह जाओ। तुम्हीं अध्यक्ष बनो या कोई और बने, इससे हमें कोई मतलब नहीं।’’ कहकर पथिकजी उठ खड़े हुए और चलने के लिए मंच से उतर आए।
चलो इस बुढ़ऊ का भी पता साफ हुआ।नटवर ने एकएक शब्द चबाते हुए गर्दन हिलाई और एक भद्दीसी गाली हवा में उछाल दी।
॥2॥ विक्षिप्त
स्वामी अजयानन्द का प्रवचन हो रहा था। श्रोतागण मंत्रमुग्ध होकर सुन रहे थे–“मनुष्य का चोला न जाने कितनी योनियों में चक्कर काटकर मिला है। परमात्मा का दिया हुआ यह शरीर परोपकार में ही लगाना चाहिए। जैसा भोजन होगा, वैसा ही हमारा मन होगा। तामसिक पदार्थों से हमें दूर रहना चाहिए। हाथी जैसा जानवर शाकाहारी होता है जिसके बल का कोई ठिकाना नहीं। सुरापान और मांसाहार करने वाले लोगों के समान अधम इस धरती पर कोई नहीं। ऐसे लोग रौरव नरक का कष्ट भोगते हैं। सात्विक व्यक्ति सपने में भी पर-नारी का चिन्तन नहीं करते। ऐसे व्यक्तियों के परिवार में नारियों की पूजा होती है। उनके घर में देवता वास करते हैं।
स्वामीजी बोल ही रहे थे कि कोने में बैठा एक श्रोता अपने को नियंत्रित कर सका। वह आग्नेय नेत्रों से घूरता हुआ स्वामीजी के निकट पहुँचा–“क्यों भाई मेलाराम, ये गेरुआ बाना पहनकर क्या नाटक रचा रखा है? तुमने दिल्ली में शराब की दुकान का ठेका अब तक ले रखा है। अपनी साध्वी पत्नी विमला को तुमने मिट्टी का तेल छिड़ककर जला दिया था। यही है नारी की पूजा! रही बात पर-नारी की, अपनी पुत्रवधू को भी तुम रखैल बनाकर रखे हुए हो।
स्वामीजी की आँखों में तनिक भयमिश्रित क्रोध झलका। पर वे तुरन्त ही सँभल गए–“लगता है बच्चा तुम्हे कोई भ्रम हुआ है। तुम्हें मानसिक रोग भी हो सकता है। प्रभु पर आस्था रखो, तुम शीघ्र स्वस्थ हो जाओगे।
मुझे कुछ नहीं हुआ। मैं राजे हूँ, जिसके साथ तुम पढ़ते थे। कहो तो तुम्हारी जाँघ का वह निशान भी दिखा दूँ, जो तुम्हारे साले द्वारा गोली मारने से हुआ था।
भक्तगण ब‍र्रे की तरह चारों तरफ एकत्र हो गए। स्वामीजी मुस्करा रहे थे–“भक्तो, यह कोई विक्षिप्त व्यक्ति है। बेचारे को ईश्वर ने क्या सजा दी है! इसकी सोचने की शक्ति ही चली गई।
उपस्थित समुदाय क्रुद्ध हो उठा। स्वामीजी ने हाथ उठाकर सबको मना किया। तब भी सबने लातों और घूँसों से उसको अधमरा करके बाहर सड़क के किनारे फेंक दिया।
॥3 पिघलती हुई बर्फ़
वे दोनों इतनी ऊँची आवाज़ों में बोलने लगे, जैसे अभी एकदूसरे का खून कर देंगे।
मैं अब इस घर में एक पल नहीं रहूँगी।पत्नी चीखी–“बहुत रह चुकी इस नरक में! क्रोध से उसके नथुने फड़क रहे थे, टाँगें काँप रही थी। आँखों से आँसू बहने लगे थे।
यह निर्णय तुम्हें बहुत पहले कर लेना था, अल्पना!पति ने घाव पर नमक छिड़का।
अभी कौनसी देर हो गई है!
जो देर हो गई है, मैं उसका प्रायश्चित कर लूँगा।वह एकएक शब्द चबाकर बोला।
“....
उसने सिगरेट सुलगाई। पैर मेज पर टिकाए। धुएँ के छल्ले अल्पना की ओर उड़ाकर लापरवाही से घूरने लगा।
तुमने कहा था न कि मेज पर पाँव टिकाकर नहीं बैठूँगा।अल्पना ने आग्नेय दृष्टि से पति की ओर घूरा।
कहा था।और उसने पैर नीचे उतार लिए।
और सिगरेट! इतनी खाँसी उठती है फिर भी सिगरेट पीने से बाज नहीं आते।वह आगे बढ़कर पति के मुँह से सिगरेट झपटने को हुई तो उसने स्वयं ही सिगरेट जूते के नीचे मसल दी।
और कुछ!वह गुर्राया।
हाँहाँ जोजो भी मन में हो, तुम भी कह डालो।वह अपने कपड़े अटैची में ठूँसती जा रही थी और सुबक रही थी।
वह एकटक देखता रहा। चुपचाप। उसके होंठ कुछ कहने को फड़कने लगे।
क्या तुम मुझे कुछ भी नहीं कह सकते?” वह भरभरा उठी। शिकायती लहजे में बोली–“मैंने मेज से पाँव हटाने के लिए कहा, आपने हटा लिए। मैंने सिगरेट पीने से मना किया, आपने सिगरेट जूते के नीचे मसल दी।
किसी की सुनो तो कोई कुछ कहे भी। तुमने सुनना सीखा ही नहीं। मैं कहकर और तूफान खड़ा करूँ?”
ठीक है। मैं जा रही हूँ।वह भरे गले से बोली और पल्लू से आँखें पोंछने लगीं।
इतनी आसानी से जाने दूँगा तुम्हें?” पति ने आगे बढ़कर अटैची उसके हाथ से छीन ली–‘‘जाओ खाना बनाओ, जल्दी। मुझे बहुत भूख लगी है।
अल्पना गीली आँखों से मुस्कराई और रसोईघर में चली गई।
॥4॥ अपनेअपने सन्दर्भ
इस भयंक ठंड में भी वेद बाबू दूध वाले के यहाँ मुझसे पहले बैठे मिले। मंकी कैप से झाँकते उनके चेहरे पर हर दिन की तरह धूपसी मुस्कान बिखरी थी।
लौटते समय वेदबाबू को सीने में दर्द महसूस होने लगा। वे मेरे कंधे, पर हाथ मारकर बोले–“जानते हो, यह कैसा दर्द है?” मेरे उत्तर की प्रतीक्षा किए बिना मद्धिम स्वर में बोले–“यह दर्देदिल है। यह दर्द या तो मुझ जैसे बूढ़ों को होता है या तुम जैसे जवानों को।
मैं मुस्करा दिया।
धीरेधीरे उनका दर्द बढ़ने लगा।
मैं आपको घर तक पहुँचा देता हूँ।मोड़ पर पहुँचकर मैंने आग्रह किया–“आज आपकी तबियत ठीक नहीं लग रही है।
तुम क्यों तकलीफ करते हो? मैं चला जाऊँगा। मेरे साथ तुम कहाँ तक चलोगे? अपने वारण्ट पर चित्रगुप्त के साइन होने भर की देर है।वेद बाबू ने हँसकर मुझको रोकना चाहा।
मेरा हाथ पकड़कर आते हुए वेदबाबू को देखकर उनकी पत्नी चौंकी–“लगता है आपकी तबियत और अधिक बिगड़ गई है? मैंने दूध लाने के लिए रोका था न?”
मुझे कुछ नहीं हुआ। यह वर्मा जिद कर बैठा कि बच्चों की तरह मेरा हाथ पकड़कर चलो। मैंने इनकी बात मान ली।वे हँसे।
उनकी पत्नी ने आगे बढ़कर उन्हें ईज़ी चेयर पर बिठा दिया। दवाई देते हुए आहत स्वर में कहा–“रातरातभर बेटों के बारे में सोचते रहते हो। जब कोई बेटा हमको पास ही नहीं रखना चाहता तो हम क्या करें। जान दे दें ऐसी औलाद के लिए? कहते हैंमकान छोटा है। आप लोगों को दिक्कत होगी। दिल्ली में ढंग के मकान बिना मोटी रकम दिए किराए पर मिलते ही नहीं।
वेदबाबू ने चुप रहने का संकेत किया–“उन्हें क्यों दोष देती हो भागवान! थोड़ीसी साँसें रह गई हैं, किसी तरह पूरी हो ही जाएँगी…कहतेकहते हठात् दो आँसू उनकी बरौनियों में आकर उलझ गए।
॥5॥ टुकड़खोर
अभय खापीकर कमर सीधी करने के लिए लेटा ही था कि घर के कोने पर एक कुत्ता ज़ोरज़ोर से भौंकने लगा। उसने खिड़की से उस पर कंकड़ दे मारा। चोट खाकर कूँकूँ करता हुआ कुत्ता वहाँ से भाग खड़ा हुआ।
कुछ क्षण बाद वह चादर ओढ़कर लेटा ही था कि कुत्ते की आवाज़ और तेज हो गई। लगा, जैसे वह उसके सिर पर ही भौंक रहा है। वह भुनभुनाया, “दफ्तर में साहब नहीं चैन लेने देते। रात के नौ बजे जाकर पिण्ड छोड़ा, वह भी सुबह जल्दी आने की मीठी हिदायत के साथ। आज दिनभर फाइलों में आँखें टाँकनी पड़ीं। उल्टेसीधे काम करें साहब, सब शिकायतों के जवाब तैयार करे वह। टरकाते भी नहीं बनता। न जाने साहब का माथा कब गरम हो जाए? कब उसे रूखीसूखी सीट पर पटक दे? इस दफ्तर में क्लर्की करना कुत्ता घसीटी से भी बदतर है। हरदम जीजी कहते हुए मुँह सूख जाता है। मेडिकल क्लेम में अड़ंगे लगने का खटका न होता तो मजा चखा देता खूसट को।
भौंकने की आवाज़ रात के गहराते सन्नाटे को चाकू की तरह चीरने लगी। वह झुँझलाकर उठा–“हरामजादे, तेरी खबर लेनी पड़ेगी।
उसने दरवाज़ा खोला। दरवाज़ा खुलने की आवाज़ सुनकर कुत्ता भौंकतेभौंकते बेहाल हो उठा। वह डण्डा उड़ाने लगा तो पत्नी ने टोका, “आज क्या हो गया है आपको? अगर यह कुत्ता रातभर भौंकता रहा तो आप रातभर डण्डा लेकर इसके पीछे दौड़ते रहेंगे क्या?”
बिना डण्डा खाए यह चुप होने वाला नहीं।वह झल्लाया।
आप रुकिए।कहकर पत्नी उठी और कटोरदान से एक रोटी निकाल लाई। अत्अत् की आवाज़ लगाकर पत्नी ने रोटी गली में फेंक दी।
कुत्ते ने लपककर रोटी उठाई। एक बार पीछे मुड़कर देखा और तीर की तरह दूसरी गली में तेजी से मुड़ गया।
॥6 स्नेह की डोर
हेमराज और दिनों की तरह आज भी अपने पिता खेमराज से झगड़ रहा थ। उसका कहना था–“पड़ोसी हमारी बैलगाड़ी माँगकर ले जाते हैं। कभी पहिया तोड़ लाते हैं, कभी जूआ। भरपाई कौन करे?”
अभी मैं जिन्दा हूँ। तू खुद को घर का मुखिया मत समझ। मैं जिन लोगों के बीच रह रहा हूँ, उनको कैसे मना कर दूँ। आखिरकार मेरी कुछ इज्ज़त है। तू है कि हर जगह मेरी पगड़ी उछालने पर तुला रहता है।
ठाली बैठे हुक्का गुड़गुड़ाने के सिवा कौनसा काम करते हो? मैं कुछ काम करूँ तो उल्टे उसमें टाँग ज़रूर अड़ा देते हो। खेत में खाद की ज़रूरत हो तो कहोगे कि खाद में सारी कमाई झोंक रहा हूँ। कुछ करूँ तो मुसीबत, न करूँ तो मुसीबत।
मैं इस घर से ही चला जाता हूँ।खेमराज ने कहा।
हाँहाँ ठीक है। हेमराज ने माथा पकड़ लिया–“जाओ, जहाँ जी चाहे।
ठीक है, जा रहा हूँ। लौटकर इस घर में पैर नहीं रखूँगा।’’ खेमराज चादर कांधे पर डालकर चल दिया। हेमराज की पत्नी ठगीसी ससुर और पति की चखचख सुन रही थी। तीन वर्षीया बेटी रमा उसका आंचल पकड़े सहमी खड़ी थी। उसने पूछा–“माँ, बाबा कहाँ जा रहे हैं?”
तुम्हारे बाबा रूठ गए हैं। बहुत दूर जा रहे हैं बेटी। तुम रोक लो।
रमा ने बाबा की अंगुली पकड़ ली–“बाबा, ना जाओ।खेमराज कुछ नहीं बोले तो वह सुबकने लगी–‘‘ना जाओ बाबा। मुझे कहानी कौन सुनाएगा? झूला कौन झुलाएगा?”
उसका सुबकना बंद नहीं हुआ। खेमराज ठिठक गया। उसके पाँव आगे नहीं बढ़ पा रहे थे। हेमराज ने लम्बी साँस ली–“ठीक है। तुम्हारी बात ही ऊपर रही बापू। इस बच्ची की बात मान लो। लोग मुझ पर थूकेंगे कि मैंने बाप को घर से निकाल दिया।
खेमराज पोती का हाथ पकड़कर चौपाल में लौट आए–“ठीक है, तू कहती है, तो नहीं जाएँगे। चले जाएँगे तो तुझे कहानी कौन सुनाएगा?” कहते हुए खेमराज की आँखें डबडबा आई।। रमा ने एक बार बाबा की आँखों में देखा और खरगोश की तरह उनकी गोद में दुबक गई।
॥7॥ पागल
कई सौ लोगों का हुजूम। लाठी, भाले और गंडासों से लैस। गलीमुहल्लों में आग लगी हुई है। कुछ घरों से अब सिर्फ धुआँ उठ रहा है। लाशों के जलने से भयावह दुर्गन्ध वातावरण में फैल रही है। भीड़ उत्तेजक नारे लगाती हुई आगे बढ़ी।
नुक्कड़ पर एक पागल बैठा था। उसे देखकर भीड़ में से एक युवक निकला–“मारो इस हरामी का।और उसने भाला पागल की तरफ उठाया।
भीड़ की अगुआई करने वाले पहलवान ने टोका–“अरेरे इसे मत मार देना। यह तो वही पागल है जो कभीकभी मस्जिद की सीढि़यों पर बैठा रहता है।युवक रुक गया तथा बिना कुछ कहे उसी भीड़ में खो गया।
कुछ ही देर बाद दूसरा दल आ धमका। कुछ लोग हाथ में नंगी तलवारें लिए हुए थे, कुछ लोग डण्डे। आसपास से बचाओबचाओकी चीत्कारें डर पैदा कर रही थीं। आगेआगे चलने वाले युवक ने कहा–“अरे महेश, इसे ऊपर पहुँचा दो।
पागल खिलखिलाकर हँस पड़ा। महेश ने ऊँचे स्वर में कहा–“इसे छोड़ दीजिए दादा। यह तो वही पागल है जो कभीकभार लक्ष्मी मन्दिर के सामने बैठा रहता है।
दंगाइयों की भीड़ बढ़ गई। पागल पुन: खिलखिलाकर हँस पड़ा।

-->
रामेश्वर काम्बोज हिमांशु : संक्षिप्त परिच
जन्म: 19 मार्च,1949
शिक्षा: एम ए-हिन्दी (मेरठ विश्वविद्यालय से प्रथम श्रेणी में) , बी एड
प्रकाशित रचनाएँ: 'माटी, पानी और हवा', 'अंजुरी भर आसीस', 'कुकडूँ कूँ', 'हुआ सवेरा' (कविता संग्रह), 'धरती के आंसू','दीपा','दूसरा सवेरा' (लघु उपन्यास), 'असभ्य नगर'(लघुकथा संग्रह),खूँटी पर टँगी आत्मा( व्यंग्य संग्रह) अनेक संकलनों में लघुकथाएँ संकलित तथा गुजराती, पंजाबी, उर्दू एवं नेपाली में अनूदित।
सम्पादन:आयोजन एवं www.laghukatha.com (लघुकथा की एकमात्र वेब साइट), http://patang-ki-udan.blogspot.com (बच्चों के लिए ब्लॉगर)
वेब साइट पर प्रकाशन: चनाकार ,अनुभूति, अभिव्यक्ति,हिन्दी नेस्ट,साहित्य कुंज ,लेखनी,इर्द-गिर्द ,इन्द्र धनुष आदि ।
प्रसारण: आकाशवाणी गुवाहाटी ,रामपुर, नज़ीबाबाद ,अम्बिकापुर एवं जबलपुर से ।
निर्देशन: केन्द्रीय विद्यालय संगठन में हिन्दी कार्य शालाओं में विभिन्न स्तरों पर संसाधक(छह बार) ,निदेशक (छह बार) एवं : केन्द्रीय विद्यालय संगठन के ओरियण्टेशन के फ़ैकल्टी मेम्बर के रूप में कार्य
सेवा: 7 वर्षों तक उत्तरप्रदेश के विद्यालयों तथा 32 वर्षों तक केन्द्रीय विद्यालय संगठन में कार्य । केन्द्रीय विद्यालय के प्राचार्य पद से सेवा-निवृत्त।
संपर्क: 37 बी /2 रोहिणी सैक्टर 17,नई दिल्ली-110089
मोबाइल: 09313727493

Friday, 10 July 2009

लघुकथा : कुछ भ्रम कुछ निवारण

इन्द्रप्रस्थ भारतीके जुलाई-दिसम्बर 2008 अंक में (राजकमल प्रकाशन से प्रकाश्य पुस्तकहिन्दी कहानी काइतिहसके एक अंश के रूप में) प्रकाशित डॉ गोपाल राय के लेख के कुछ अंश इस आशय से यहाँ प्रकाशित हैं किपाठक लघुकथा के मद्देनजर कृपया अपनी विस्तृत एवं निर्द्वंद्व राय इन पर प्रेषित करें। बलराम अग्रवाल


उपन्यास और कहानी की भेदक पहचान का एक आधार उनका आकार भी माना जाता है। उपन्यास का आकार ‘बड़ा’ और कहानी का आकार ‘छोटा’ होता है। पर ‘छोटा’ और ‘बड़ा’ शब्द सापेक्ष हैं और उनका कोई निश्चित मापदण्ड नहीं निर्धारित किया जा सकता। ‘छोटी कहानी’ या ‘शॉर्ट स्टोरी’ की एक क्लासिक परिभाषा यह है कि उसे एक बैठक में समाप्त हो जाना चाहिए। एडगर एलन पो के अनुसार कहानी मात्र इतनी लम्बी होनी चाहिए कि वह आधे घण्टे से लेकर दो घण्टे में समाप्त की जा सके। पर ‘एक बैठक’ या ‘आध घण्टे’ से लेकर दो घण्टे में ‘पढ़ जाना’ कहानी के आकार का कोई निश्चित मापदण्ड नहीं हो सकता। कुछ परिभाषाएँ इसकी अधिकतम शब्द संख्या 7500 निर्धारित करती हैं। सामान्य व्यवहार में ‘शॉर्ट स्टोरी’ पद वैसी कथा-रचनाओं को निर्देशित करता है, जिनमें अधिकतम 20000 और न्यूनतम 1000 शब्द हों। एक हजार से कम शब्दों वाली कहानियों को ‘फ्लैश फ़िक्शन’ विधा के अन्तर्गत रखा जाता है और 20000 शब्दों से अधिक आकार वाली कथाओं को ‘नॉवलेट’, ‘नॉवेला’ या ‘नॉवेल’ कहते हैं। यह आकार निर्धारण निर्विवाद हो, ऐसा नहीं कहा जा सकता। हिन्दी में 150 शब्दों से लेकर 10000 शब्दों तक की कहानियों को ‘कहानी’(‘छोटी कहानी’ के अर्थ में) कहा गया है। इधर हिन्दी मेंलघुकथाऔरलम्बी कहानीपद का भी प्रयोग काफी अराजक रूप में होने लगा है। कहानी लेखकों और संपादकों के अनुसार इनकी आकार सीमा अक्सर बदलती रहती है। इस अराजकता को समाप्त करने के लिए कम से कम एक लचीला मानक तो होना ही चाहिए। इस प्रसंग मेंलघुकथाकी शब्द संख्या 150-300, कहानी की शब्द संख्या 1000-3000 और लम्बी कहानी की शब्द संख्या 4000-15000 प्रस्तावित की जा सकती है।लघुकथा’, ‘कहानी’, ‘लम्बी कहानी’, ‘उपन्यासिका’, ‘लघु उपन्यासऔरउपन्यासके बीच की दूरी इतनी लचीली रखी जा सकती है, जिसके बीच ये विधाएँ, आवश्यक होने पर, आवाजाही कर सकें। आकार की दृष्टि सेलघुकथाकोकहानीके क्षेत्र में, ‘कहानीकोलघुकथाऔरलम्बी कहानीके क्षेत्र में औरलम्बी कहानीकोकहानीके क्षेत्र में प्रवेश करने की थोड़ी-बहुत छूट होनी चाहिए। यहलघुकथा’, ‘कहानीऔरलम्बी कहानीजैसे पदों के प्रयोग में अराजकता दूर करने का एक काम-चलाऊ नुस्खा हो सकता है।
आकार कहानी की पहचान का एक आधार जरूर है, पर स्वतन्त्र विधा के रूप में उसकी पहचान की कसौटी उसके काव्य और संरचना में निहित होती है। इसे समझने के लिए अमेरिका और यूरोप में ‘छोटी कहानी’ की अवधारणा और नयी विधा के रूप में उसके विकास के इतिहास पर उड़न-दृष्टि डाल लेना अपेक्षित है।
जिस समय(1929 के आसपास) रामचन्द्र शुक्ल ने ‘हिन्दी साहित्य का इतिहास’ के प्रथम संस्करण में ‘छोटी कहानी’ और उसके पर्याय के रूप में ‘कहानी’ और ‘आधुनिक कहानी’ पदों का प्रयोग किया, उस समय तक अमेरिका और यूरोप में ‘छोटी कहानी’ अपने विकास की कई मंजिलें पार कर चुकी थी। हिन्दी में अभी ‘कथा’ तथाकथित ‘छोटी कहानी’ में रूपान्तरित होने की प्रक्रिया से गुजर रही थी। मूल प्रश्न यह है कि ‘छोटी कहानी’ है क्या? वस्तुत: ‘छोटी कहानी’ को किसी बने-बनाए साँचे में ढली हुई परिभाषा में बाँधना सम्भव नहीं है। …
अधिकतर तो कहानी में दो-एक पात्र ही होते हैं; यदि कथ्य की अनिवार्यता के कारण कुछ अधिक पात्र आते भी हैं तो उनकी कोई स्वतन्त्र भूमिका नहीं होती। ‘कहानी’ के केन्द्रीय पात्र का भी पूरा चरित्र कहानी का विषय नहीं बनता; उसके चरित्र का कोई मार्मिक अंश, कोई करारा संकट, कोई अप्रत्याशित स्थिति, कोई मनोवैज्ञानिक द्वन्द्व ही कहानी का विषय बनता है। प्रो सत्यकाम के अनुसार, ‘कहानी’ में यथार्थ की स्थिति बिजली की चमक की तरह होती है, जहाँ यथार्थ का कोई क्षण उद्भासित हो जाता है।…एडगर एलन पो के अनुसार, ‘कहानी’ अपने को किसी लाजवाब या एकल प्रभाव पर केन्द्रित रखती है और प्रभाव की समता ही उसका प्रमुख लक्ष्य होता है। पो का मानना था कि ‘शॉर्ट स्टोरी’ की निश्चित पहचान उसकी प्रभान्विति है।
पो के बाद यूरोप और अमेरिका में कहानी का जो विकास हुआ है, उसे देखते हुए कोई एकल दृश्य, उपकथा, अनुभव, घटना कार्य, किसी पात्र के चरित्र का अंश-विशेष, किसी दिन की कोई मार्मिक घटना, कोई बैठक, कोई वार्तालाप, कोई मन:कल्पना, कोई मनोवैज्ञानिक क्षण…कुछ भी कहानी का विषय बन सकता है। पर अच्छी कहानी के लिए यह आवश्यक है कि उसमें संवेदना का कोई बिन्दु या क्षण ही प्रस्तुत किया जाए। यदि किसी कहानी में ऐसा नहीं होता तो उसके प्रभाव के बिखर जाने की आशंका होती है।

फुट नोट:(यह भी उक्त लेख का ही हिस्सा है)
कथालोचन के लगभग छह पद बहुप्रचलित हैं—उपन्यास, लघु उपन्यास, उपन्यासिका, लम्बी कहानी, कहानी औरलघुकथा। पर अब तक इन पदों का सुनिश्चित अर्थनिर्धारण नहीं हो सका है। आकार और प्रकृति दोनों ही दृष्टियों सेइनका सटीक अर्थनिर्धारण बहुत जरूरी है, क्योंकि इसके बिना आलोचना पतवारहीन हो जाती है। पहले उपन्यासपद को ही लें। अक्सर किसी भी पुस्तक रूप में प्रकाशित एकल कथा को, चाहे वह ‘छोटी’ हो या ‘बड़ी’, ‘उपन्यास’ नाम दे देने का रिवाज हो गया है। व्यावसायिक दृष्टि से यह कदाचित लाभप्रद है, इसलिए प्रकाशक ही नहीं, लेखकभी ‘उपन्यास’ पद का दुरुपयोग करने में नहीं हिचकते। इसका इतिहास भी बहुत पुराना है।…यह प्रवृत्ति आज भीजारी है। …पर इससे पाठक ठगे जाते हैं और आलोचक भटक जाते हैं।
उपन्यास का लघुतम आकार क्या हो, इस पर आज तक कोई एक राय नहीं हो पाई है, और कदाचित हो भी नहींसकती। आकार-निर्धारण का सबसे सही माप शब्द-संख्या हो सकती है, पर शब्द-संख्या कहाँ रखी जाए, इसकानिश्चय करना बहुत कठिन है। ई एम फोर्स्टर ने (उपन्यास के लिए) पचास हजार शब्दों का एक विकल्प दिया था, जिसे स्वीकार कर लेने में कोई कठिनाई नहीं जान पड़ती। इसका यह अर्थ नहीं कि इस शब्द-संख्या का अतिक्रमणहो ही नहीं सकता, पर अतिक्रमण की सीमा एक हजार शब्दों के लगभग रहे तो अच्छा हो। आपवादिक स्थितियों मेंयह(पचास हजार शब्द) संख्या और भी कम हो सकती है,…।
…’लघु उपन्यास’ और ‘उपन्यासिका’ पदों का प्रयोग लगभग एक अर्थ में होता है। यह अनावश्यक औरभ्रमोत्पादक है। …’लघु उपन्यास’ उपन्यास की तुलना में कसा हुआ, सुसंबद्ध और एकल विषय या विजन से जुड़ाहुआ होता है। ‘लघु उपन्यास’ की निम्नतम (शब्द) सीमा 30000 निर्धारित की जा सकती है, यद्यपि इसमें भीनमनीयता के लिए स्थान होगा ही।
‘उपन्यासिका’ के लिए मैं अधिकतम शब्द-सीमा 30000 और निम्नतम शब्द-सीमा 20000 (नमनीयता केसाथ) निर्धारित करने का सुझाव दूँगा। प्रकृति की दृष्टि से ‘लघु उपन्यास’ और ‘उपन्यासिका’ में यह अन्तर कियाजा सकता है कि ‘उपन्यासिका’ की कहानी इकहरी होगी और उसमें काल का आयाम तो होगा, पर दिक् का फैलावप्राय: नहीं होगा। वर्णन-विरलता, पात्रों की सीमित संख्या, विचार और चिन्तन में मितव्ययिता तथा मनोवैज्ञानिकगहराई में प्रवेश करने की प्रवृत्ति इसकी पहचान है।
‘कहानी’ और ‘लम्बी कहानी’ की शिनाख्त करने का भी एक आसान नुस्खा निश्चित किया जा सकता है। आकार कीदृष्टि से ‘लम्बी कहानी’ की अधिकतम शब्द-संख्या 15000 और निम्नतम शब्द-संख्या 4000 के आसपास होसकती है। प्रकृति की दृष्टि से कहानी में कथा दिक् और काल के आयाम के विकास के लिए गुंजाइश नहीं होती। एकअच्छी ‘कहानी’ में संवेदना या तनाव का कोई एक क्षण ही चित्रणीय होता है, यद्यपि उसके इर्द-गिर्द किसी एक पात्रया अधिक-से-अधिक दो-तीन पात्रों के बाह्य और मानसिक कार्यकलाप नियोजित किए जा सकते हैं। ‘लम्बीकहानी’ में संवेदना या तनाव का क्षण विस्तारित हो सकता है, कुछ ज्यादा देर तक चल सकता है। यही चीज उसेकहानी’ से अलग करती है। ‘लम्बी कहानी’ में भी कथा का दिक् और काल में विकास सम्भव नहीं होता। आकारकी दृष्टि से कहानी का विस्तार 1000 से 3000 शब्दों के बीच रखा जा सकता है।
‘लघुकथा’ के जो उदाहरण अब तक उपलब्ध हैं, उनसे यह निष्कर्ष निकलता है कि उनका आकार प्राय: 150 शब्दोंसे 300 शब्दों के बीच होता है। कदाचित 500 शब्दों तक भी इसकी सीमा जा सकती है। प्रकृति की दृष्टि सेलघुकथा’ में कोई एक प्रसंग होता है, जिसमें विरोधाभास या संवेदना का कोई मार्मिक क्षण व्यंजित होता है।
‘ ‘

Tuesday, 16 June 2009

कथाकार विजय की लघुकथाएँ

-->
उपन्यासकार व कहानीकार विजय ने हिन्दी लघुकथाओं की सम्प्रेषण क्षमता से प्रेरित होकर सन् 2004-05 में लघुकथा लिखना प्रारम्भ किया। अब तक उनकी लघुकथाएँ वागर्थ, नया ज्ञानोदय, कथाबिंब, हरिगंधा(लघुकथा-विशेषांक), सनद, संरचना(लघुकथा वार्षिकी) आदि अनेक प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुकी हैं। जनगाथा के जून 2009 अंक में प्रस्तुत हैं उनकी कुछ चर्चित लघुकथाएँ

आदर्श गाँव
कुछ ही दिनों में गाँव का नक्शा बदल गया। लाला की छोटी-सी दुकान जिसमें जरूरत की हर चीज मौजूद रहती थी, बड़े-से डिपार्टमेंटल-स्टोर में बदल गई। निर्मल सिंह का मुख्य सड़क के साथ खड़ा खोखा जहाँ सर्दियों में चाय और पकौड़े थाल में रखे रहते थे व गर्मियों में हंडिया में मथनी से मथकर लस्सी भी पिला दी जाती थी, वहाँ पक्की दुकान बन गई। चाय-कॉफी की मशीन लग गई और कोल्ड-ड्रिंक के क्रेट्स आने लगे। कंपनी फ्रिज भी लगा गई। मैला राम की पान की टोकरी, जिसमें घर की बनी खैनी भी रहती थी, अब एक दुकान में बदल गई। दुकान में जाने कितनी तरह के शीशे लटके रहने लगे। एक बैंक ने भी अपनी छोटी-सी शाखा पंचायत की इमारत में खोल दी थी। सरपंच के दस्तखत करते ही उधार मिल जाता था, आसान किश्तों पर।
किसान और उसके बीवी-बच्चे, जो कभी नीम और कभी बबूल की डालियाँ तोड़कर दातुन कर लेते थे, अब हर महीने टी वी पर विज्ञापन देखकर अपना ब्रश और पेस्ट बदलने लगे। बिजली की सप्लाई अच्छी न होने पर भी कई घरों में वॉशिंग मशीनें आ गईं। एक डेरी खुल गई। आमदनी कुछ ही घरों की बढ़ी, मगर जरूरत हर घर में कुछ ज्यादा ही बढ़ गई। अब लोगों ने मेहमानों को आने पर दूध, मट्ठा देना बंद कर दिया, क्योंकि जरूरतों की आपूर्ति में वे पूरा दूध डेरी पर पहुँचाने लगे थे। अब मेहमान आता तो कोल्ड-ड्रिंक मँगा देते या चाय के साथ पैकिटों में आने वाला नमकीन रख देते।
कई खेत-मजदूरों के परिवार गाँव छोड़कर शहर चले गए क्योंकि जब शहरी की तरह रहना है, तो शहर में रहना ही ठीक रहेगा। वहाँ काम भी पूरे साल रहता है। गाँव में रहकर क्या करेंगे, जब मट्ठा भी किसी घर में न मिले।
चुनाव के समय उस क्षेत्र के एम एल ए ने गाँव को आदर्श गाँव करार देते हुए कहा,यह हमारी सरकार की उदार-नीति की वजह से ही संभव हुआ। अब हमारे ग्रामीण भाइयों को काम के लिए भागना नहीं पड़ता, बैंक उनके द्वार पर पहुँचकर कर्ज देने आता है। इस बार भी अगर हमारी पार्टी को आपने सरकार बनाने का मौका दिया तो आसपास का हर गाँव आदर्श गाँव बन जाएगा।

इंसाफ
गाँव में पानी की कमी नहीं थी। लोग खुशहाल थे। बड़े टोले में ब्राह्मण, बनिये और ठाकुर रहते थे। छोटे टोले में दूसरी जातियों के लोग रहते थे। गाँव का मुखिया सूरज प्रताप सिंह न्यायप्रिय व्यक्ति था। पंचायत दूध का दूध और पानी का पानी कर देती थी। सूरज प्रताप सिंह का लड़का चन्द्र प्रताप सिंह उनकी कमजोरी था। इकलौते बेटे से बेहद प्यार करते थे।
एक दिन चन्द्र प्रताप सिंह छोटे टोले में वारदात कर आया। रोती-कलपती नारायणी ने घर जाकर माँ से शिकायत की। माँ ने बेटे मल्लू को बताया और लाठी उठाते मल्लू ने सल्लू, अपने पिता को। मल्लू लाठी से सजा देना चाहता था और सल्लू चाहता था कि दण्ड पंचायत दे।
सल्लू की शिकायत पर पंचायत बैठी। सरपंच के पूछने पर चन्द्र प्रताप सिंह ने अपना अपना कुबूल कर लिया। पिता होते हुए भी सरपंच ने सजा सुना दीगाँव के लोगों के सामने पचास कोड़े! लोग वाह-वाह करने लगे।
तभी नारायणी सामने आ खड़ी हुई—“मेरा क्या होगा?
सल्लू रो पड़ा—“कौन ब्याहेगा अपना बेटा मेरी बेटी से?
सरपंच ने कहाबहुत-से लोग गरीब हैं तुम्हारी जात में। मैं विवाह करने वाले को बड़ी रकम दूँगा। दौड़-दौड़ कर ब्याह करने वाले आयेंगे।
नहीं, मेरा विवाह अपने बेटे से कर दो। उसी ने मेरे साथ कुकर्म किया है। उसी को निभानी होगी मेरे साथ जिन्दगी!
सरपंच और पंच अवाक-से देखते रहे, मगर बड़े टोले वालों ने लाठियाँ उठा लीं। छोटी जात की लड़की से विवाह! असम्भव।
छोटे टोले वालों ने भी लाठियाँ उठा लींजो काम आदमी औरत के साथ विवाह के बाद करता है, वह काम नारायणी के साथ विवाह से पहले क्यों किया चन्द्र प्रताप सिंह ने?
इस गलती का मुआवजा दे रहे हैं सरपंच!
बड़े टोले और छोटे टोले में बहस चलती रही। नारायणी समझ गई कि चाहे लाठियाँ चल जाएँ, लोग कट मरें, मगर जाति को लेकर कभी भी इंसाफ सच्चाई के करीब नहीं पहुँच सकता है। वह वहाँ से हट गई।
बहस के बीच पास ही के कुएँ से छपाक् का शोर उठा। काफी कोशिश के बाद कुएँ से जो लाश निकली, वह नारायणी की थी।

स्वा
दो देशों में युद्ध छिड़ा हुआ था। एक पहाड़ी पर अचानक उन देशों के सिपाही आमने-सामने हो गए। दोनों, दुश्मन सिपाही से बचने के लिए पेड़ की ओट में आकर बंदूकें दागने, मगर कुछ हुआ नहीं। तभी एक पेड़ के पीछे से आवाज आई—“गोलियों से बच गया, पर अब तू बचेगा नहीं। तुझे मारकर देश का एक दुश्मन तो खत्म होगा ही।
दूसरे पेड़ के पीछे से भी वैसे ही कटु शब्द उभरे—“तुझे मारकर मुझे पुण्य ही नहीं, पुरस्कार भी मिलेगा कमीने।
और दोनों तरफ से हैंड-ग्रेनेड उछाल दिए गए। दोनों ही के शरीर फट गए। पेड़ों पर बैठे दो गिद्ध किचकिचाकर किलक उठे—“मजा आ गया! दोनों दुश्मन थे तो उनके मांस का स्वाद भी अलग-अलग होगा।
गिद्धों ने एक-एक लाश का मांस नोंचकर खाया। फिर लाशें बदलकर खाईं। एक ने दूसरे से पूछा—“तुझे फर्क लगा?
नहीं तो।
मुझे भी नहीं लगा!

ऐसा होता ही है
त्रकार ने एक बूढ़े रईस अरब द्वारा नाबालिग हिन्दुस्तानी लड़की से विवाह का भंडाफोड़ कर दिया। लड़की नारी-निकेतन भेज दी गई, मगर पुलिस बूढ़े अरब को नहीं पकड़ सकी। वह अपनी एम्बेसी पहुँच गया और एम्बेसी ने उसे देश भेज दिया।
पत्रकार को सम्मानित करना था, इसलिए बड़ी सभा का आयोजन सरकार द्वारा हुआ जिसमें जनता बुलाई गई थी। समारोह चल ही रहा था कि एक आदमी ने खबर दीपास की बिल्डिंग के चार नौजवानों ने एक दस वर्षीय लड़की से बलात्कार कर उसे मारकर सड़क पर फेंक दिया।
पुलिस आ गई। लड़की पूरी तरह मरी नहीं थी। अंतिम साँसें लेते हुए उसने चारों के नाम बता दिये।
खबर पत्रकार ने भी सुनी। किसी ने पूछा—“आप लिखेंगे?
क्या फायदा। ऐसा तो रोज होता रहता है।

भूत-1
हर के विशाल मनकामेश्वर देवालय में रोज ही पट बंद हो जाने के बाद दर्शनार्थी भूतों का ताँता लग जाता। एक दिन भूत भोलासिंह ने रुद्रप्रताप नामक भूत से पूछा—“क्या मनौती माँगते हो भगवान भूतनाथ से?
एक दीर्घ नि:श्वास खींचकर भूत रुद्रप्रताप ने कहा—“मैं इसी शहर का रहने वाला था। मेरी शादी एक बहुत ही सुंदर लड़की से हुई थी जिसे मैं बेतहाशा प्यार करने लगा था। मगर मुझे नहीं मालूम था कि उसका एक प्रेमी भी है। अपने प्रेमी के साथ षड्यंत्र रचकर उसने मेरी हत्या कर दी। वह अक्सर इस मंदिर में आती है। जिस दिन भी अकेली मिल गई…।
बीच में ही बोल पड़ा भूत भोलासिंह—“…तो तुम उसकी हत्या कर दोगे?
नहीं भाई। मैं उससे प्यार करता था और आज भी करता हूँ।
फिर?
मैं उससे पूछूँगा कि प्रेमी के प्यार के मुकाबले पति का प्यार क्यों निरर्थक-सा रह जाता है?

भूत-2
भूत रुदप्रताप ने भी एक दिन भूत भोलासिंह से पूछ लिया—“तुम इस मंदिर में क्यों रोज आते हो?
क्योंकि मेरी प्रेमिका भी यहाँ रोज आती है और हम दूसरों से निगाह बचाके चुपचाप मिल लेते हैं।
चुपचाप क्यों?
असल में, पिछले जन्म में मैं दलित था और मेरी प्रेमिका सवर्ण। सवर्ण हमारा प्यार सह नहीं सके और एक गुण्डे को पैसे देकर उन्होंने मुझे मरवा दिया। मेरी प्रेमिका ने दु:खी होकर जहर खा लिया।
फिर तो भूत-भूतनी बनकर दोनों साथ रह सकते हो?
नहीं भाई! भूतों में क्या कम जातिवाद है!
भगवान भूतनाथ से क्यों नहीं कहते हो?
जातिवाद को मिटाना तो उनके वश की बात नहीं है। इसीलिए मैं रोज प्रार्थना करता हूँ कि अपनी तरह हम दोनों को भी अर्द्धनारीश्वर बना दें; ताकि हम भी अभिन्न होकर जी सकें।

अन्तर
गाँधी और मार्क्स एक दिन घूमते हुए अपने-अपने उपग्रहों से बाहर निकलकर तीसरे उपग्रह में पहुँचकर मिल बैठे। मार्क्स ने नि:श्वास खींचकर कहा—“मैं वर्गहीन समाज की कल्पना करता रहा। सोचता था कि लुटेरे पूँजीपतियों की पूँजी एक दिन सर्वहारा वर्ग के हाथों में होगी। मगर देख रहा हूँ कि सोवियत संघ टूट गया, आधा चीन बाजारवाद के दंगल में व्यस्त है और हिन्दुस्तान में बंगाल जैसे साम्यवादी प्रांत में, वहाँ का मुख्यमंत्री विदेशी पूँजी-निवेश के लिए हाँक लगा रहा है।
गाँधी ने भी नि:श्वास खींचीमैं रामराज्य चाहता था। गाँवों को सम्पन्न बनाना चाहता था, उद्योगपतियों का हृदय परिवर्तन करना चाहता था और धर्म को सहिष्णुता का प्रतीक बनते देखना चाहता था…मगर…।
हाँ, न सत्य रहा और न अहिंसा! मार्क्स ने कहा।
हाँ, वर्ग-संघर्ष भी नहीं रहा। जम गया वर्ण-सघर्ष। हम दोनों नाबाद हो गये। गाधी बोले।
मार्क्स ने यथार्थ महसूस किया और कहा—“मेरी चाहनाओं और तुम्हारी चाहनाओं में अन्तर नहीं था। मगर मेरे और तुम्हारे अनुयायी एक-दूसरे को मिटाने में जुटे रहे। परिणाम----एक नृशंस अमरीका का जन्म!

विजय जी का संक्षिप्त परिचय:
कथाकार विजय, सेवानिवृत वैज्ञानिक(रक्षा अनुसंधान एवं विकास संगठन) हैं। इनका जन्म 06 सितम्बर, 1936 को आगरा(उत्तर प्रदेश) में हुआ। एक किशोर उपन्यास समेत इनके अब तक 6 उपन्यास, 15 कहानी-संग्रह, 2 बाल-पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं। इनकी अनेक कहानियों का अँग्रेजी, उर्दू, उड़िया, तेलुगु आदि भाषाओं में अनुवाद हो चुका है। कथाकार जोगिंदरपाल के उपन्यास पार परे समेत उनकी अनेक कहानियों और लघुकथाओं का उर्दू से हिन्दी में अनुवाद कर चुके हैं। अनेक पुस्तकों की समीक्षाएँ प्रकाशित।

संपर्क: 115 बी, पॉकेट जे एंड के, दिलशाद गार्डन, दिल्ली110095(भारत)
दूरभाष(लैंडलाइन) 01122121134,
(मोबाइल) 09313301435