Sunday, 27 July 2008

जनगाथा जुलाई 2008




जनगाथा का यह जुलाई 08 अंक कतिपय तकनीकी खामियों और इंटरनेट संबंधी मेरी अकुशलताओं के चलते काफी देरी से प्रकाशित हो पा रहा है, क्षमाप्रार्थी हूँ। लघुकथा की रचना-प्रकिया पर इस अंक में प्रस्तुत है वरिष्ठ कथाकार भगीरथ का महत्वपूर्ण लेख तथा वरिष्ठ कवि, विचारक व अनुवादक अनिल जनविजय की विचारोत्तेजक टिप्पणी।
—बलराम अग्रवाल

लघुकथा की सृजन-प्रक्रिया का स्वरूप
भगीरथ
नीति एवं बोध कथाएँ जीवन के उत्कट अनुभव को सीधे-सीधे व्यक्त करने की बजाय उसके परिणामस्वरूप उत्पन्न विचार को रूपक कथाओं के माध्यम से व्यक्त करती हैं। (जबकि) समकालीन लघुकथाएँ अधिकांशतः अनुभव के बाह्य विस्तार में न जाकर अनुभवात्मक संवेदनाओं की पैनी अभिव्यक्ति करती हैं। अतः इन दो प्रकार की रचनाओं की सृजन-प्रक्रिया भी अलग-अलग है।
स्थिति, मनःस्थिति, वार्तालाप, व्यंग्य, मूड, पात्र आदि संबंधी वे अनुभव जो लघु कलेवर एवं कथारूप में व्यक्त हो सकने की संभावना रखते हैं, साथ ही, रचना की संपूर्णता का आभास देते हों, उन्हें लघुकथाकार अपनी सृजनशील कल्पना, विचारधारा, अन्तर्दृष्टि एवं जीवनानुभव की व्यापकता से लघुकथा में अभिव्यक्ति देता है।
जो लघुकथाएँ विचार के स्तर पर रूपायित होती हैं, उनके लिए कथाकार घटना, कथानक, रूपक या फेंटेसी की खोज करता है। प्रस्तुत खोज में अनुभव की व्यापकता के साथ ही सृजनशील कल्पना की भूमिका महत्वपूर्ण होती है। यह खोज विधागत सीमाओं के भीतर ही होती है।
जब रचना एक तरह से मस्तिष्क में मेच्योर हो जाती है और संवेदनाओं के आवेग जब कथाकार के मानस को झकझोरने लगते हैं, तब रचना के शब्दबद्ध होने की प्रक्रिया प्रारंभ होती है। इस प्रक्रिया के दौरान रचना परिवर्तित होती है। भाषा-शिल्प पर बार-बार मेहनत से भी रचना में बदलाव आता है। यह बदलाव निरंतर रचना के रूप को निखारता है। यह भी संभव है कि मूल कथा ही परिवर्तित हो जाये।
लघुकथा संयमी विधा है। इसके लिए कथाकार को अनावश्यक छपे शब्दों का मोह छोड.ना पड.ता है। लघुता एवं अभिव्यक्ति के पैनेपन को प्राप्त करने के लिए शब्द, प्रतीक, बिंब, लोकोक्ति एवं मुहावरों ज्युडीशियस सलेक्शन(Judicious Selection) करता है और उसे कोहरेन्ट(Coherent) रूप में प्रस्तुत करता है। लघुकथा में कहीं बिखराव का एहसास होते ही लघुकथाकार एक बार फिर कलम उठाता है। अक्सर लघुकथा को आरम्भ करने में काफी कठिनाई होती है। आरंभ बार-बार बदल सकता है क्योंकि कुछ ही वाक्यों में लघुकथा को एक तनावपूर्ण चरमस्थिति तक पहुँचाना होता है। चरमस्थिति पर रचना का फैलाव होता है और वहीं अप्रत्याशित ही, रचना एक झटके से अन्त तक पहुँच जाती है। इससे रचनाकार कथा को प्रभावशाली और संप्रेषणीय बना देता है।
अनेक लघुकथाओं में अन्त अधिक चिन्तन और मेहनत माँगता है, क्योंकि पूरी रचना का अर्थ अन्त में ही स्पष्ट होता है। ऐसा प्रमुखतः धारदार व्यंग्य(हास्य-व्यंग्य नहीं) एवं वार्तालाप शैली में लिखी गई लघुकथाओं में होता है। संवादों को छोटा, चुस्त, स्पष्ट एवं पैना करने में कथाकार की सृजनशक्ति और मानसिक श्रम विशेष महत्व रखते हैं।

अनुभवजगत का नंगा साक्षात्कार
अनिल जनविजय
आज साहित्य में लघुकथा की विधागत स्वतन्त्रता को लेकर जो बहस चल रही है, वह बेमानी है। लघुकथा के अस्तित्व पर कोई भी प्रश्नचिह्न लगाना अपनी नासमझी का परिचय देना है। आज कहानी और कविता से भी ज्यादा संख्या में लघुकथाएँ लिखी जा रही हैं और छपकर सामने आ रही हैं। ये लघुकथाएँ जीवन के हर पहलू को छूती हैं। आज की जिन्दगी का छोटे से छोटा हर क्षण लघुकथाओं ने पकडा है। सबसे बडी बात तो यह है कि लघुकथा कविता और कहानी दोनों को अपने में समेटकर उभरी है। इसमें मनुष्य की इच्छाओं, स्वप्नों और उनकी यातनाओं का अन्तर्सम्बन्ध भी है और समकालीन बोध के प्रति नैतिक प्रतिबद्धता भी। लघुकथाओं ने प्रखर जनवादी चेतना को अपने सर्जनात्मक संघर्ष के द्वारा एक गम्भीर कलात्मक आधार प्रदान किया है। इनमें मनुष्य की यातनाओं के व्यापक संसार के साथ-साथ उसके प्रतिरोध की बात भी है और इस प्रतिरोध में आज के आदमी का आक्रोश भी झलकता है।
लघुकथा मनुष्य के अनुभव और अनुभव के प्रति सोचने की प्रक्रिया से उपजी है। इनके लेखक स्थितियों और घटनाओं पर पहले सोचते हैं। इसलिए, इनमें एक ठोस और समझ में आने वाला संसार होता है जो पाठक को अनुभव-जगत का नंगा साक्षात्कार कराता है। इस तरह लघुकथा कम्प्रेशन, इन्सपायरेशन, सिंसियरिटी, सेंसेबिलिटी, आब्जेक्टिविटी और इन्वाल्वमेंट की संरचना है, जिसे पढ़ने के बाद पाठक स्थितियों पर विचार करने को मजबूर हो जाता है। यही, लघुकथा की अपनी विशेषता है।


जगमगाहट
रूप देवगुण
वह दो बार नौकरी छोड़ चुकी थी। कारण एक ही था—बास की वासनात्मक दृष्टि! लेकिन नौकरी करना उसकी मजबूरी थी। घर की आर्थिक दशा शोचनीय थी। आखिर उसने एक दूसरे दफ्तर में नौकरी कर ली।
पहले दिन ही उसे उसके बास ने अपने केबिन में काफी देर तक बिठाए रखा और इधर-उधर की बातें करता रहा। अब की बार उसने सोच लिया था—वह नौकरी नहीं छोड़ेगी, बल्कि मुकाबला करेगी। कुछ दिन दफ्तर में सब ठीक-ठाक चलता रहा, लेकिन एक दिन उसके बास ने उसे अकेले में उस कमरे में आने के लिए कहा जिसमें पुरानी फाइलें पड़ी थीं। उन्हें उन फाइलों की चैकिंग करनी थी। उसे साफ लग रहा था कि आज उसके साथ कुछ गड़बड़ होगी। उस दिन बास सजधज कर आया था।
एक बार तो उसके मन में आया कि वह कह दे कि मैं नहीं जा सकती, किन्तु नौकरी का खयाल रखते हुए वह इंकार न कर सकी। कुछ देर में ही वह तीन कमरे पार करके चौथे कमरे में थी। वह और बास फाइलों कि चैकिंग करने लगे। उसे लगा जैसे उसका बास फाइलों की आड़ में उसे घूरे जा रहा है। उसने सोच लिया था कि ज्यों ही वह उसे छुएगा, वह शोर मचा देगी। दस पन्द्रह मिनट हो गये, लेकिन बास की ओर से कोई हरकत न हुई।
अचानक बिजली गुल हो गयी। वह बास की हरकत हो सकती है—यह सोचते हि वह काँपने लगी। लेकिन तभी उसने सुना…बास हँसते-हँसते कह रहा था, “देखो, तुम्हें अँधेरा अच्छ नहीं लगता होगा। तुम्हारी भाभी को भी अच्छा नहीं लगता। जाओ, तुम बाहर चली जाओ।”
अप्रत्याशित बात को सुनकर वह हैरान हो गयी। बास की पत्नी मेरी भाभी यानी मैं बास की बहन!
सहसा उसे लगा, जैसे कमरे में हजार हजार पावर के कई बल्ब जगमगा उठे हैं।

बहू का सवाल
बलराम
रम्मू काका काफी देर से घर लौटे तो काकी ने जरा तेज आवाज में पूछा,“कहाँ चलेगे
रहब? तुमका घर केरि तनकब चिन्ता-फिकिर नाइ रहति हय।” तो कोट की जेब से हाथ निकालते हुए रम्मू काका ने विलम्ब का कारण बताया,“जरा जोतिसी जी के घर चलेगे रहन। बहू के बारे मा पूछय का रहस।”
रम्मू काका का जवाब सुनकर काकी का चेहरा खिल उठा—सूरज निकल आने पर खिल गये सूरजमुखी के फूल की तरह्। तब आशा-भरे स्वर में काकी ने अपनी जिज्ञासा प्रकट की,“का बताओ हइनि?”
चारपाई पर बैठते हुए रम्मू काका ने कंपुआइन भाभी को भी अपने पास बुला लिया और बड़े धीरज से समझाते हुए उन्हें बताया, “शादी के आठ साल लग तुम्हरी कोख पर सनीचर देउता क्यार असरु रहो। जोतिसी जी बतावत रहयं। हवन-पूजन कराय कय अब सनीचर देउता का सांत करि दायहयं। तुम्हयं तब आठ संतानन क्यार जोग हय। अगले मंगल का हवन-पूजन होई। हम जोतिसी जी ते कहि आए हनि।” रम्मू काका एक ही साँस में सारी बात कह गये।
कंपुआइन भाभी और भैया चार दिन की छुट्टी पर कानपुर से गाँव आये थे और सोमवार को उन्हें कानपूर जाना था।
रम्मू काका की बात काटते हुए कंपुआइन भाभी ने कहा, “हमने बड़े-बड़े डाक्टरों से चेक-अप करवाया है और मैं कभी भी माँ नहीं बन सकूँगी।”
कंपुआइन भाभी का जवाब सुनकर रम्मू काका सकते में आ गये और अपेक्षाकृत तेज आवाज में बोले, “तब फिर हम अगले साल बबुआ केरि दुसरि सादी करि देव्। अबहिन ओखेरि उमरहय का हय!”
उनकी बात सुनते ही कंपुआइन भाभी को क्रोध आ गया तो उन्होंने बात उगल दी,“कमी मेरी कोख में नहीं, आपके बबुआ के शरीर में है। मैं तो माँ बन सकती हूँ, पर वे बाप नहीं बन सकते। और अब, यह जानने के बाद आप क्या मुझे शादी करने की अनुमति दे सकते हैं?”


कंधा
विपिन जैन
भीड़-भरे डिब्बे में हमने नजरें दौड़ाईं। बैठने की कोई गुंजाइश कहीं नहीं थी। मुझे आश्चर्य हुआ कि पंजाब की ओर जाने वाली गाड़ी में इतनी भीड़! आतंकवाद तो अभी भी उत्कर्ष पर था। खैर, तराश रखी दाढ़ीवाले एक नौजवान से थोड़ा सरकने का अनुरोध करके मैंने अपनी पत्नी सुधा के बैठने लायक थोड़ी जगह बनवाई और उसे बैठा दिया।
गाड़ी आगे जाने पर वह युवक उठकर ‘टायलेट’ की ओर चला गया। इस बीच पत्नी ने पास बैठाकर मेरे कान में फुसफुसाया,“कहीं यह वही तो नहीं?”
मैंने आश्चर्य से उसकी ओर देखा।
“उसका चेहरा बड़ा डरावना-सा है। अभी लौटते ही धूँ-धूँ न कर दे! कहीं बम छिपाकर न भाग गया हो!!” उसने आगे कहा और अपनी चप्पलें झाँकने के बहाने सीट के नीचे निगाह भी डाल ली।
धीमी आवाज और कठोर मुख-मुद्रा से मैंने उसे डराया,“बेकार की बातें मत करो, चुप बैठी रहो।”
मैं उसके मूर्खतापूर्ण डर के बारे में सोचने लगा: पहले, जब मैं इसको शादी अटैंड करने के लिए मना कर रहा था, तब यह मुझको दब्बू बता रही थी। कह रही थी कि अखबार में आतंक की खबरें पढ़-पढ़कर यहीं बैठे-बैठे भयभीत होते रहना…अरे, घर से निकलोगे तो डर भाग जायेगा…जो होना होगा, हो जायेगा।
“अज्ञानता के अभय से जागरूकता का भय अच्छा रहता है।“ मैंने इससे कहा था।
ट्रेन स्टेशन-दर-स्टेशन दौड़ाती जारही थी। दाढ़ीवाला युवक इस दौरान वापस अपनी जगह पर आकर बैठ गया था। उसके आ जाने पर सामने की सीटों पर बैठे यात्रियों ने मुझे अपने साथ एडजस्ट कर लिया।
आधा-पौना घंटा सफर निकला होगा कि मैं उनींदा-सा हो आया। तभी मैंने सुधा की ओर
निगाह डाली। वह बेसुध-सी उस युवक के कंधे पर सिर टिकाए नींद में डूब चुकी थी; और वह बेचारा परेशानी के बावजूद अपना कंधा स्थिर रखे हुए था।

मूल्यों के लिए
अशोक लव
—पेट भरा हो, आवश्यकता से अधिक धन हो, पंच-तारा होटलों में बिताने के लिए शामें हों तो गरीब और गरीबी ढोंग नजर आते हैं। समाजवाद लाने और वर्ग-भेद मिटाने वाले शत्रु नजर आते हैं।-विश्वेशर ने कहा।
—ऐसी बातें और कौन करता है़। तुम्हीं बताओ, तुम्हें क्या कमी है? डेढ हजार कमाते हो। अच्छी भली नौकरी करते हो। फिर दूसरों को कोसते रहना क्या उचित है?–राजीव ने तर्क देते हुए कहा।
—डेढ. हजार कमाता हूँ—बस डेढ. हजार। छ्ह तो मकान का भाडा देता हूँ। दो सौ का दूध आता है। तीन सौ का राशन। डेढ सौ के करीब की सब्जी, कपडे.-लत्ते, रिश्तेदारी में सौ मरना-जीना, शादी-ब्याह। बच्चों की फीस। कभी पत्नी बीमार तो कभी बच्चे। मेरी चाय-सिगरेट मत गिन। बता क्या बचा? और तू । क्या किया तूने? और मजे कर रहा है।
—तू जब भी आएगा, बस घर-गृहस्थी का रोना-धोना लेकर बैठ जाएगा। सोचा था, काफ़ी पिलाकर तेरी थकावट दूर कर दूँगा। पर तू फिर वही भाषणबाजी पर उतर आया है।–राजीव ने झुँझलाते हुए कहा।
—मैं जिस जिन्दगी को जी रहा हूँ, तू उसे भाषणबाजी ही कहेगा। रो-पीटकर थर्ड-डिवीजन बी.ए. की और पिताजी की गद्दी पर जा बैठा–मैनेजिंग डायरेक्टर राजेश जोशी। और मैं। तेरे साथ बी.ए. में था। फर्स्ट डिवीजन लाया था। क्या बना। फाइलौं में दुबका क्लर्क। चार दिन मेरे साथ रह ले। तू भी मेरी तरह ही बोलेगा। बोल, रहेगा मेरे साथ?–विश्वेश्वर ने चुनौती-भरे स्वर में कहा।
—देख, तू मेरा दोस्त है। इसलिए सब चुपचाप सुन रहा हूँ। तुझे कहा था, मेरी कम्पनी में आ जा। पर, तू तो आदर्शवादी रहेगा। सिद्धान्तवादी रहेगा। तो फिर भुगत। जिसकी किस्मत में झुग्गी-झोंपडी हों, वह वहीं रहेगा और उम्रभर कुढ.ता रहेगा।–गुस्से में भरा राजीव काफी का अंतिम घूँट तेजी से उतार, मारुति में जा बैठा।
विश्वेश्वर ने बीमार पुत्र की दवाई के लिए रखे दस रुपए के नोट को काँपते हाथ से बैरे की ट्रे में रख दिया।
वेतन मिलने में अभी चार दिन बाकी थे।

हमारे आगे हिन्दुस्तान
डा. सतीश दुबे
शाम के उस चिपचिपे वातावरण में वह अपने मित्र के साथ तफरी करने के इरादे से सड़क नाप रहा था।
उनके आगे एक दम्पति चले जा रहे थे। पुरुष ने खादी का कुरता-पाजामा तथा पैरों में मोटे चप्पल डाल रखे थे, तथा स्त्री एक सामान्य भारतीय महिला लग रही थी। उसकी निगाह जैसे ही दम्पति की ओर गई, उसने कुछ अनुभव किया तथा मित्र से कहा—देखो, हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है।
—क्या मतलब। क्या ये एम.एल.ए., भूतपूर्व मन्त्री, पूँजीपति या नौकरशाह में से कोई हैं... ?
—ऊँ-हूँ...तुमने जो नाम गिनवाये हैं, उनमें से यदि कोई ऐसे घूमे तो उनकी नाक नहीं कट जायेगी...।
—फिर तुमने कैसे कह दिया कि हमारे आगे हिन्दुस्तान चल रहा है?–मित्र ने तर्क की मुद्रा में आँखें घुमायीं।
—यह तो वो ही बतायेंगे। आओ, मेरे साथ।
वे दोनों कुछ हटकर उनके पीछे-पीछे चलने लगे। उन्होंने सुना, पत्नी पति से कह रही थीः
दोनों बच्चों को कपडे. तो सिलवा ही दो। बाहर जाते हैं तो अच्छा नहीं लगता। कुछ भी खाते हैं तो कोई नहीं देखता, पर कुछ भी पहनते हैं तो सब देखते हैं। इज्जत तो बनाके रखना जरूरी है ना...।
उन्होंने देखा, पत्नी मंद-मंद मुस्करा रहे पति की ओर ताकने लगी है। पति की उस मुस्कराहट में सचमुच हिन्दुस्तान नजर आ रहा था।

प्यासी बुढ़िया
शंकर पुणतांबेकर
—माई, पानी दोगी पीने के लिए।

—कहीं और पी ले, मुझे दफ़्तर की जल्दी है।
—तू दरवाजे को ताला मत लगा। मुझ बूढी पर रहम कर। मैं तेरी दुआ मनाती हूँ...तुझे तेरे दफ्तर में तेरा रूप देखकर बढोत्तरी मिले...।
औरत ने उसे झिड.ककर कहा—तू मेरी योग्यता का अपमान कर रही है?
—बडी अभिमानिनी है तू, तेरे नाम लाटरी खुले...मुझे पानी पिला दे।
—लाटरी कैसे खुलेगी। मैं आदमी को निष्क्रिय और भाग्यवादी बना देने वाली सरकार की जुआगिरी का टिकट कभी नहीं खरीदती।
—मुझे पानी दे माई, तेरा पति विद्वान न होकर भी विद्वान कहलाए...और किसी विश्वविद्यालय का वाइस चांसलर बने।
—चल जा, मेरे पति को मूर्ख राजनीतिग्यों का पिछलग्गू बनाना चाहती है क्या?
—तेरे पूत खोटे काम करें, लोगों पर भारी अत्याचार करें, औरतों के साथ नंगे नाचें, तब भी उनका बाल बाँका न हो। बस, तू पानी पिला दे।
—लगता है, बडी दुनिया देखी है तूने। लेकिन हम लोग जंगली नहीं हैं। सभ्य हैं और हमें अपनी इज्जत प्यारी है। जा, कहीं और जाकर पानी पी।
—तेरा पति बिना संसद के ही प्रधानमंत्री बने। सोच, इससे भी बडी दुआ हो सकती है। चल, दरवाजा खोल और मुझे पानी पिला।
—देती हूँ मैं तुझे पानी...पर मेरे पति को दोगला, विश्वासघाती बनने का शाप मत दे।
बुढिया पानी पीकर चली गयी तो औरत के मुँह से निकल पड़ा—यह बुढिया, बुढिया नहीं, हमारी जर्जर व्यवस्था है जो सस्ती दुआएँ फेंककर हमारा पानी पी रही है...नहीं, पी नहीं रही है बल्कि...हमारा पानी सोख रही है।

कैरियर
शकुन्तला किरण
—सर, आपकी पुस्तकें।
—बैठो। पेपर्स कैसे हुए?
—जी, बहुत अच्छे।
—और नीता, तुम्हारे?
—जी सर, यूँ ही...तीसरा तो बिल्कुल बिगड़ गया।
खैर छोडो, नीता, तुम्हें तो हर चीज का पता है। जरा चाय बना लाओ। और अंशु, सामने वाला बंडल खोलकर जरा नंबरों की टोटलिंग करवा दो। आज ही भेजना है। फिर, बाद में...।

टोटलिंग करते-करते अंशु ने अचानक सिर उठाया तो देखा—सर की नजरें उस पर चिपकी हुई हैं।
—अंशु, तुम साडी मत पहना करो। बैल-बाटम शर्ट में ज्यादा जँचती हो।
—जी सर...।–वह काँप उठी।
—तुम घबरा क्यों रही हो?–सर ने एक चपत थपकी, बिल्कुल करीब आकर।
—नहीं तो।...सर, याद नहीं रहा, मम्मी अस्पताल गयी हैं।...खाना बनाना है घर पर।
—तो चाय पीकर चली जाना।–सर व्यंग्य से मुकराये।
—नहीं सर, फिर कभी।
और वह तेजी से बाहर आ गई। चाय बनाती हुई नीता ने कहा—मुझे एक जरूरी काम याद आ गया है। उठो, घर चलो।
—पर, पर...मुझे तो ऐसी कोई जल्दी नहीं है।...फिर, कापियाँ नहीं जँचवाईं तो सर नाराज हो जायेंगे...। अंशु, रुक ही जाओ तो अच्छा है।
—तुम्हें जाना है तो जाओ, इसे क्यों घसीट रही हो?–अचानक, परदे को चीरती, सर की इस तूफानी डाँट से अंशु चौंक पड़ी और अकेली ही लौट पड़ी।

अब, जब रिजल्ट आया, उसका सारा करियर बिगड़ चुका था और नीता का बन गया था।
वास्तव में, नीता उससे अधिक समझदार थी।

Saturday, 21 June 2008

लघुकथा की रचना-प्रक्रिया / बलराम अग्रवाल

(पिछले अंक से जारी)

लघुकथा का उद्देश्य पाठक को किसी उथली और सतही कहानी की तरह सिर्फ रंजित, रोमांचित या प्रभावित कर देना मात्र नहीं है। पारम्परिक बोधकथा, नीतिकथा, भावकथा की तरह पाठक के हृदय को पिघलाना या उसकी आत्मा को झकझोरना भी इसका उद्देश्य नहीं है...और हास-परिहास या चुटकुला तो यह है ही नहीं। इसका लेखक सामान्यत: संवेदित/भावविभोर होकर…जौली मूड(Jolly mood)में आकर नहीं, बल्कि परिस्थितियों से आन्दोलित होकर कथा-लेखन में प्रवृत्त होता है। इसलिए लघुकथा-लेखन के माध्यम से उसका उद्देश्य पाठक की चेतना को आन्दोलित करना है। न सिर्फ कहानी से, बल्कि बोधकथा, नीतिकथा, भावकथा, चुटकुला आदि से लघुकथा की भिन्नता का यह तीसरा बिन्दु है।
परन्तु, पाठक की चेतना को आन्दोलित करने से भी आगे कोई लघुकथा-लेखक यदि पाठक को दिशा-निर्देशित करना ‘लघुकथा’ का ‘हेतु’ समझता है तो जरूरी नहीं कि लघुकथा उसे सिर्फ सकारात्मक दिशा ही दे। प्रत्येक सामाजिक अपनी प्रकृति, परिवेश और सामर्थ्य,—इन तीन भावों से प्रभावित रहता है और—नकारात्मक या सकारात्मक—इन्हीं भावों के अनुरूप दिशा-निर्देश ग्रहण करता है। यों भी, लघुकथा में ‘निदान’(डाइग्नोस) किया जाता है, ‘सुझाव’(ट्रीटमेंट) नहीं दिया जाता, क्योंकि ट्रीटमेंट दिये जाने के कुछ विशेष खतरे हैं जिनमें से एक है—लघुकथा में लेखक के स्वयं उपस्थित हो जाने/होते रहने का खतरा तथा दूसरा है—लघुकथा का उसके लेखक के किसी सिद्धान्त-विशेष की ओर घूम जाने का खतरा। ये दोनों खतरे ध्यातव्य हैं क्योंकि सिद्धान्त-विशेष के तहत दिए गए ट्रीटमेंट और तज्जनित परिसीमन के कारण ही अनेक लघुकथाएँ शिल्प और शैली की दृष्टि से पुष्ट होने के बावजूद, समसामयिक साहित्य में मान्य नहीं हैं। अत: लघुकथा के लेखक को हेतु-रचना के माध्यम से उन्मुक्त चिन्तन-मनन की दिशा में पाठक की चेतना को आन्दोलित करना होगा।
शिल्प की दृष्टि से लघुकथा किसी गद्य-गीत जैसी सुगठित होनी चाहिए। शाब्दिक अतिरिक्तता या वैचारिक दोहराव उसे कमजोर कर सकते हैं। लघुकथा की वास्तविक शक्ति वास्तव में उसके व्यंग्य-प्रधान या गाम्भीर्य-प्रधान होने में न होकर उसके सांकेतिक होने निहित है। यहाँ यह समझ लेना भी आवश्यक है कि ‘सांकेतिकता’ लघुकथा का अनिवार्य गुण अवश्य है, परन्तु इसे बहुत क्लिष्ट या गूढ़ न होकर सहज रहना चाहिए। यों भी, लघुकथा में उसका कोई भी गुण, सिद्धान्त या दर्शन बहुत क्लिष्ट या गूढ़ न होकर सहज ही समाविष्ट होना चाहिए। सहज समावेश से तात्पर्य बलात्-आरोपण से लघुकथा को बचाए रखना भी है।
‘लघुकथा’ में संवादों की स्थिति क्या हो? उन्हें होना चाहिए या नहीं? होना चाहिए तो किस अनुशासन के साथ और नहीं तो क्यों? ये सवाल वैसे ही अनर्गल हैं जैसे कि इसके आकार या इसकी शब्द-संख्या के निर्धारण को लेकर अक्सर सामने आते रहते हैं। वस्तुत: लघुकथा ‘लिखी’ या ‘कही जाती’ प्रतीत न होकर ‘घटित होती’ प्रतीत होनी चाहिए। लघुकथा की रचना-प्रक्रिया का मैं समझता हूँ कि यह प्रमुख सूत्र है। क्रियाशीलता, कृतित्व, चरित्र, परिस्थिति और परिवेश के साथ स्वयं उसके पात्रों को पाठक के सम्मुख होना चाहिए न कि उसके लेखक को। लघुकथा में ‘लेखकविहीनता’ की डा0 कमलकिशोर गोयनका इसी रूप में व्याख्या करते हैं। लघुकथा में संवाद और तत्संबंधी अनुशासन के बारे में एक जिज्ञासा को मैं अवश्य यहाँ प्रकट करना चाहूँगा। यह कि लघुकथा में संवादों को ‘कथोपकथन’ या ‘कथनोपकथन’ कहने का आधार क्या है? कथोपकथन यानी कथ+उपकथन तथा कथनोपकथन यानी कथन+उपकथन। अगर विवेकपूर्वक विचार किया जाए तो ‘कथन’ के उत्तर में बोले जाने वाले संवाद को ‘उपकथन’ नहीं बल्कि ‘प्रतिकथन’ कहा जाना चाहिए, क्योंकि कथा में उसका आस्तित्व किसी भी दृष्टि से ‘उप’ नहीं होता। फिर, आवश्यक नहीं कि प्रत्येक ‘कथन’ का उपकथन हो ही। कोई पात्र परिस्थिति-विशेष में किसी पात्र के ‘कथन’ का जवाब अपनी उस चुप्पी से दे सकता है जो उसके ‘प्रतिकथन’ या ‘उपकथन’ की तुलना में कहीं अधिक स्फोटक सिद्ध हो। इसलिए लघुकथा में संवाद के लिए ‘कथन प्रति कथन’ तथा ‘कथनाकथन’ व ‘कथाकथ’ यानी कथन+अकथन व कथ+अकथ शब्द भी बनते हैं। संवाद कैसे हों? इस बारे में मेरी धारणा है कि वे लघुकथा की भाषा में सहजग्राह्य और मन्तव्य को स्पष्ट करने वाले होने चाहिएँ। वे पाठक की चेतना को उद्वेलन और कथानक को अग्रसर गति दे पाने में सक्षम होने चाहिएँ।
अपनी समेकित इकाई में लघुकथा को गद्य-गीत जैसी सुस्पष्ट, सुगठित व भावपूर्ण; कविता जैसी तीक्ष्ण, सांकेतिक, गतिमय और लयबद्ध तथा कथा की ग्राह्य शीर्ष विधाओं—कहानी व उपन्यास—जैसी सम्प्रेषणीय और प्रभावपूर्ण होना चाहिए।
प्रत्येक कहानी में एक ‘सत्व’ होता है और हम इसे ‘कहानी की आत्मा’ कहते हैं। अपनी पुस्तक ‘परिहासिनी’ के इंट्रो में भारतेंदु हरिश्चंद्र ने इसे ‘चीज’ कहा है। ‘लघुकथा’ ‘कहानी की आत्मा’ है, उसका ‘सत्व’ है, ‘चीज’ है। घटना की प्रस्तुति को विस्तार देने की तुलना में कथाकार को जब ‘वस्तु’ का सम्प्रेषण अधिक महत्वपूर्ण प्रतीत होता है तब रचना का विस्तार उसके लिए गौण हो जाता है। अत: हम कह सकते हैं कि ‘लघुकथा’ केवल आकारगत, शिल्पगत, शैलीगत और प्रभावगत ही नहीं, शब्दगत और सम्प्रेषणगत भी सौष्ठव को प्राप्त कथा-रचना है। कहानी और लघुकथा के बीच अन्तर को उनके कथानकों के समापन की ओर बढ़ने में दृष्टिगोचर त्वरणों में अन्तर की माप के द्वारा स्पष्ट रूप से जाना जा सकता है।

हम लघुकथा-लेखकों को उन्मुक्तता और उच्छृंखलता के मध्य अंतर को भली-भाँति जान लेना चाहिए। मन के भावों का अनुशासनहीन, उद्दंडतापूर्वक प्रदर्शन उच्छृंखलता कहलाता है। विदेशी शासन से मुक्ति ने हमें उन्मुक्तता दी है, परन्तु आज वाणी व भाव-स्वातंत्र्य के अधिकारों को पाकर हम अक्सर ही उच्छृंखल व्यवहार करते नजर आ जाते हैं। अति आवश्यक है कि वाणी व भाव के प्रकटीकरण पर हम अनुशासन-विशेष का अंकुश रखें। अनुशासन से अग्रसारण का निश्चय होता है।
लघुकथा के अगर कुछ अनुशासन हैं तो उनके प्रति लेखकों की आबद्धता और प्रतिबद्धता भी अपेक्षित है ही। परन्तु, इन सब अनुशासनों को प्रस्तुत कर देने के बाद इसी लेख के इस अन्तिम पैरा में इन आबद्धताओं व प्रतिबद्धताओं को मैं लघुकथा-लेखन की चौहद्दियाँ या गणितीय-सूत्र बताकर इनके नकार का आह्वान करूँ तो निश्चय ही आप मुझे बेहद भ्रमित व्यक्तित्व मानेंगे; परन्तु लघुकथा ने आज तक वाकई इतने सोपान तय कर लिए हैं कि हर सोपान पर वह पिछले सोपान के अनुशासनों को भंग करती प्रतीत होती है। बुद्धिमान, शूर और प्रगतिगामी लोग सदैव ही पुराने अनुशासन को तोड़ते और नये को जोड़ते आये हैं। यही प्रगति की रूपरेखा है। हिंदी लघुकथा ने अब तक यही किया है और यही वह अब भी कर रही है। यही कारण है कि लघुकथा आज मानव-जीवन के किसी क्षण-विशेष का ही नहीं, उसके किसी पक्ष-विशेष का भी चित्रण करने में पूर्ण सक्षम है। वस्तुत: समकालीन हिंदी लघुकथा उद्वेलन और आन्दोलन से जनित भावों की उन्मुक्त, सम्प्रेषणीय एवं प्रभावकारी कथात्मक प्रस्तुति है। यह उत्तरोत्तर विकासशील विधा है। आज, इस लेख में जो अनुशासन इसकी रचना-प्रक्रिया को स्पष्ट करने के लिए किखे गये हैं, वे ही कल को पिछले सोपान के अनुशासन कहे जा सकते हैं। बहरहाल, पिछले समस्त अनुशासनों को भंग करके भी विधाएँ अनुशासनबद्ध ही रहती हैं।
एक बात और, नवीन अनुशासनों के निर्माण और प्रस्तुति का अधिकार उसी को मिल सकता है जो विधा के पक्ष में(स्वयं द्वारा प्रस्तुत) पूर्व अनुशासनों को भंग कर सकने की क्षमता रखता हो; लेकिन इसका यह मतलब कदापि नहीं कि वह एक अनुशासन को प्रस्तुत करता और फिर तोड़ता रहकर नित नये भ्रम पैदा करता रहे।
‘हिंदी लघुकथा’ की लेखिका डा0 शकुन्तला किरण : संक्षिप्त परीचय



बीती सदी के आठवें दशक के मध्य में, समकालीन हिंदी लघुकथा जिन दिनों अपनी स्वतंत्र पहचान बनाने के लिए जूझ रही थी; जिन दिनों समकालीन तेवर की न तो लघुकथाएँ ही यथेष्ट-संख्या में उपलब्ध थीं और न ही तत्संबंधी आलोचनापरक लेख आदि अन्य सामग्री; राजस्थान के अजमेर शहर की निवासी सुश्री शकुन्तला किरण उन दिनों इस विधा में रचनात्मक लेखन के साथ-साथ शोध के स्तर पर भी सक्रिय थीं। देश-विदेश के किसी भी विश्वविद्यालय द्वारा ‘हिंदी लघुकथा’ पर शोध हेतु पंजीकृत, तदुपरांत शोध-उपाधि(पी-एच0 डी0) से अलंकृत वह पहली शख्सियत हैं। उनके द्वारा प्रस्तुत शोध-प्रबन्ध समकालीन हिंदी लघुकथा की रचनाशीलता व आलोचनापरकता दोनों ही पर अनेक कोणों से एकदम मौलिक चिंतन-दृष्टि प्रस्तुत करने वाली हिंदी की पहली कृति है। इस सबके बावजूद ‘हिंदी लघुकथा का इतिहास-पुरुष’(संदर्भत: महिला) बनने की आपाधापी में वह कभी शामिल नहीं हुईं। हिंदी लघुकथा के तत्कालीन आपाधापी-भरे मसीहाई माहौल से हटकर अपनी रचनात्मक शक्ति का सदुपयोग उन्होंने उससे अलग विभिन्न सांस्कृतिक, सामाजिक व राजनीतिक संगठनों व समितियों में अपनी सक्रियता को बढ़ाकर किया। पहले वह राजस्थान प्रदेश भाजपा कार्य-समिति की सदस्या नामांकित हुईं, तदुपरांत लगभग एक दशक तक राजस्थान महिला मोर्चा की उपाध्यक्षा जैसा महत्वपूर्ण पदभार सँभालने में सफल रहीं। वह नगर परिषद, अजमेर की पार्षद भी निर्वाचित हुईं और वहाँ ‘भूमि एवं भवन निर्माण समिति’ के अध्यक्ष पद को सुशोभित किया।
बहु-आयामी व्यक्तित्व की धनी सुश्री(डा0) शकुन्तला किरण को परिचितों के बीच ‘शकुन’ नाम से पुकारा जाता है। लेखन की ओर उनका रुझान बचपन से ही रहा है। उनकी पहली रचना ‘माँ की ममता’ शीर्षक कहानी थी जो अजमेर से प्रकाशित उनकी स्कूल-पत्रिका ‘प्रभा’ में तब प्रकाशित हुई थी जब वह मात्र पाँचवी कक्षा की छात्रा थीं। बाद में, ‘प्रज्ञा’ नामक साहित्यिक पत्रिका की वह संपादक भी रहीं। स्कूल व कालेज के दिनों में वह विभिन्न नाटकों व सांस्कृतिक कार्यक्रमों में लगातार सक्रिय बनी रहीं। यह सक्रियता बाद में भी अनेक वर्षों तक बनी रही।
अब तक दो सौ से अधिक लेख,कहानियाँ, लघुकथाएँ, कविताएँ/गीत/गजल आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं, विशेषांकों, संकलनों व कोशों में प्रकाशित हो चुकी हैं। आध्यात्मिक दृष्टि से वह मूलत: सूफी विचारभूमि वाले ‘उवैसिया’ सम्प्रदाय से जुड़ी हैं। उनका मानना है कि सृष्टि में आध्यात्मिक-शक्ति से बढ़कर मनुष्य के पास दूसरी कोई शक्ति नहीं है।
सम्प्रति : मित्तल हास्पिटल, पुष्कर रोड, अजमेर(राजस्थान) की निदेशिका हैं।
लघुकथाएँ
शंकाएखलाक अहमद जेई
एकाएक घोड़ा रुक गया। अरे!…यह तो जालिमसिंह है। वही जालिमसिंह दरोगा, जिसकी आवाज से सारा शहर थरथराता है। जालिमसिंह ने देखा—एक सिपाही किसी को डाँट रहा था।
“क्या बात है?”
सिपाही घूमा और एक जोरदार सैल्यूट मारकर बोला, “सर, रात के एक बजने वाले हैं; पर यह बुड्ढा अभी तक खट-खट कर रहा है। अगर चोर कहीं सेंध लगायें तो सुनाई भी न दे।”
जालिमसिंह ने देखा कि एक टूटी-फूटी छोटी-सी दुकान में लालटेन जल रही थी। दीवार पर इधर-उधर कई लकड़ी की वस्तुएँ बनी टगी थीं तथा जमीन पर भी कोई अधबनी वस्तु पड़ी थी।
उसने बुड्ढे पर नजर डाली। एक दुबला-पतला-सा शरीर, मैले-फटे कपड़े में लिपटा, हाथ जोड़े खड़ा था। दारोगा ने महसूस किया कि बुड्ढे के शरीर में बार-बार डर की ठंडी लहर उठ रही है। उसने दुकान के अंदर से नजरें हटा लीं।
“जिस जगह कोई जाग रहा हो, वहाँ क्या चोरी हो सकती है?” जालिमसिंह ने पूछा।
“सर.…” सिपाही की आवाज गले में ही अटककर रह गयी।
“अगर कोई गरीब मेहनत-मजदूरी करके अपना पेट पालना भी चाहे, तो तुम लोग नहीं करने दोगे…जाओ अपना काम करो, आइंदा ऐसी गलती मत करना।”
उधर बुड्ढा जालिमसिंह को ऐसे देख रहा था, जैसे पहली बार देखा हो।
“बाबा, आप काम कीजिए।” जालिमसिंह ने बड़ी ही शालीनता से कहा तो बुड्ढा भी बेहिचक पूछ बैठा,“साहेब, का आप पुलिस अफसर ना हो?”

हाथ वाले
महावीर प्रसाद जैन

शो शुरू होने में अभी देर है और इस तरह के खाली समय का उपयोग भी वह सार्थक
ढंग से करता है…यानी फुटपाथ पर बिखरी किताबों के ढेरों को देखना…टटोलना…उसका अनुभव है कि इन फुटपाथी ढेरों में प्राय: बड़ी उम्दा किस्म की किताबें हाथ लग जाती हैं।
उसके कदम उस परिचित दुकान पर जाकर रुक गये। यह बहुत पुरानी फुटपाथी दुकान है और इसके मालिक के दोनों हाथ कटे हुए हैं।
दुकानदार उसे देखकर हल्के-से मुस्कराया और उसने एक तरफ इशारा किया…जिसका मतलब था कि इस ढेर से आपको कुछ न कुछ मिल ही जायेगा। वह किताबें देखने लगा। तभी उसकी बगल में एक युवक आकर खड़ा हो गया। उसने उसे एक नजर देखा…वह युवक भी किताबें छाँटने में लग गया। कुछ देर बाद उसकी नजरें फिर उसी युवक की ओर उठीं, और उसने देखा कि एक किताब को बगल में दबाए वह अभी भी किताबों को उलट-पलट रहा था।
दुकानदार अन्य ग्राहकों को निपटाने में लगा हुआ था, कि वह युवक चल दिया। उसने देखा कि उसकी बगल में पुस्तक दबी है। बिना पैसे दिये…यानी…ऐसे ही…चोरी…और उसके मुँह से निकल पड़ा,“वह तुम्हारी किताब ले गया है…बिना पैसे दिये…!” उसने जाते हुए युवक की ओर इशारा भी किया।
“मुझे मालूम है भैयाजी…”
“यार, बड़े अहमक हो। जब मालूम है तो रोका क्यों नहीं?”
कुछ देर वह चुप रहा और फिर जवाब देते हुए बोला,” चोरी हाथवाले ही तो कर सकते हैं।”

धरमरमेश श्रीवास्तव

जब ट्रेन काशी से कुछ इधर ही थी तो एक भिखमंगा मेरे पास में बैठी एक महिला से कुछ देने के लिए आग्रह कर रहा था। अंत में महिला बिगड़ती हुई बोली,“पैसा क्या पेड़ में फलता है कि तोड़कर लिये हुए चली आ रही हूँ। कुछ करना-धरना है नहीं, भीख माँगने चले आते हैं। भला इन्हें भीख देने से मेरा धरम पूरा हो जायेगा?”
उक्त महिला की डाँट सुनकर बेचारा भिखमंगा आगे बढ़ गया।
कुछ देर बाद जब ट्रेन गंगा नदी का पुल पार करने लगी तो उक्त महिला ने नीचे बह रही गंगा को प्रणाम करते हुए एक अठन्नी उछाल दी। यह देख पास में बैठे एक व्यक्ति से रहा नहीं गया तो सहज भाव से उसने पूछ ही डाला,“बहनजी, इससे आपका धरम पूरा हो गया?”
महिला आँखें तरेरती जरूर रही, बोली कुछ नहीं। गाड़ी गंगा पार हो गयी।

एक और श्रवण
डा0 सतीश दुबे

ममी ने छोटे बेटे को आवाज लगायी और कहा, “बेटे, जरा केमिस्ट के यहाँ से ये दवा ले आओ। मुझे बुखार है। शरीर दर्द कर रहा है।”
पर श्रवण ने इंकार कर दिया और फिर से अपने मित्रों के बीच जाकर खेलने लगा। थोड़ी देर बाद ममी ने फिर आवाज लगायी। वह खीझ गया।
“ममी, ये क्या लगा रखा है! आप जानती नहीं, हमारा गेम चल रहा है।”
“बेटे, इसीलिए तो तुम्हें बुलाया है। अपने दोस्तों के लिए थोड़ा नाश्ता ले आओ और तुम्हारी कापी-बुक भी तो आनी है…”
श्रवण के चेहरे पर चमक आ गयी। वह प्रफुल्लित होकर बोला,“ओह ममी, आप कितनी अच्छी हैं।…और आपकी दवा भी तो लानी है ना! वह चिट मुझे दे दीजिए।”
“अरे, वह तू रहने दे।”
“नहीं-नहीं, वह भी ले आऊँगा।”
और ममी ने कराहते हुए निराश मन से वह चिट उसे थमा दी।

प्रश्नचिह्न
सत्य शुचि

वह मेरा मकान-मालिक था, इसलिए खामोश रहना ही उचित समझा। यदि उसका मन उस ग्राम्य-बाला के गदराये जिस्म पर अटक भी गया तो इसमें मैं कर भी क्या सकता था! यदि जालीदार खिड़की से सभी कुछ स्वत: ही दिख नहीं रहा होता तो देखता भी नहीं।
मैं ऊपर कमरे में पलंग पर खाना खाकर लेटा ही था। शायद उसे इस चीज का आभास नहीं था। तभी तो उसकी इतनी हिम्मत हो गयी थी। इन दिनों उसकी पत्नी और बच्चे भी घर पर नहीं थे।
दोनों परस्पर उलझ रहे थे। उसने करीब-करीब उसे नग्न-सा कर दिया था। यह जबर्दस्ती का कुकृत्य मेरी आखोँ बालकोनी से देखी जा रही किसी फिल्म की रील-सा गुजरता जा रहा था। लड़की मुक्ति के लिए छटपटा रही थी और असफल होने के साथ लगभग समर्पित-सी होती जा रही थी।
मैं गुस्से में भरा अपनी मुट्ठियों को भींचता-खोलता रहा। मैं बिल्कुल असमर्थ था। चाहता तो दरवाजा खोलकर लड़की की सहायता कर सकता था, पर मेरे सामने एक ही प्रश्न था कि यदि मैं इस मामले में पड़ा तो कल ही यह कमरा खाली करना पड़ेगा; और बड़ी मुश्किल से लगातार एक महीने तक प्रयास करने पर हाथ लगा था यह कमरा। यह भी निकल गया तो?

हूण
संजीव

रंगीले का रंग आज उड़ा हुआ था। उस्ताद से उदासी देखी नहीं जा रही थी। पतली वीरान सड़क पर जीप चलाते हुए उन्होंने कई तरह की कोशिशें कीं; चुटकुले सुनाकर देखा, कत्ल की वारदातें बताकर देखा, बलात्कार का चटख चटखारा छोड़ा, लेकिन रंग नहीं जमा तो नहीं जमा।
उस्ताद की उस्तादी के लिए जबर्दस्त चुनौती आ खड़ी हुई थी। तभी उन्हें सामने साइकिल से आता हुआ वह जोड़ा दिखाई दिया। जीप को धीमा करके उन्होंने एक चतुर शिकारी की तरह उस जोड़े का जायजा लिया। युवक देहाती लग रहा था और अपनी जवान बीवी को पीछे बैठाकर मस्ती में कोई गँवई गीत गुनगुनाता हुआ चल रहा था।
उस्ताद ने जीप को थोड़ा दायें किया और तीव्रता से पुन: बायें उनकी बगल में लाकर ब्रेक कस दिया। युवक घबराकर साइकिल लिए-दिए नीचे जा गिरा ऊँची सड़क से। युवती बड़े अटपटे ढंग से गिर पड़ी और उसके कपरे कुछ उघड़ गये। घबड़ाई हुई वह उठने का उपक्रम करने लगी। देहाती युवक ने उसे सहारा दिया और एक बेबस आक्रोश से जीप की ओर देखा।
तभी रंगीले भिलभिलाकर हँस पड़ा। उसका रोम-रोम आह्लाद से भर उठा। उस्ताद ने हँसने की जुगलबंदी निभाई।
जीप ने भी किरकिराकर ताल दिया और खुशी के हिचकोले खाती डकारती खुरों से धूल उलीचती आगे बढ़ गयी।

खेल-खेल मेंरफीक जाफर

अहमद और अनवर गली में गिल्ली-डंडा खेल रहे थे। खेल-खेल में किसी बात पर लड़ाई हो गई। इत्तफाक की बात कि उस समय अनवर की माँ रहमत बी पानी का घड़ा उठाए वहाँ से गुजर रही थी। जब उसने इन दोनों को लड़ते देखा तो पानी का घड़ा जमीन पर रखकर दोनों को एक-दूसरे से अलग करते हुए एक-एक थप्पड़ रसीद कर दिया। दोनों रोते हुए वहाँ से भाग गये।
रहमत बी खाली घड़ा लिए जब अपने घर से लौट रही थी, तो अहमद की माँ करीमुन रास्ता रोके खड़ी हो गयी। उसका पल्लू थामे अहमद सहमा हुआ खड़ा था। रहमत बी मामले को समझ गयी। वह करीमुन के तेवर देखकर खुद भी तैयार होने लगी। पहले तो उसने घड़े को जमीन पर रखा, फिर साड़ी के पल्ले को कमर पर कस लिया और बोली,“क्या है री, लड़ाई हुई बच्चों में और आ गयी तू लड़ने!…बोल क्या बोलती है?”
सुनकर करीमुन बोलने लगी—“अरे वाह, चोरी की चोरी और उस पर सीनाजोरी? मेरे बच्चे को मारा और उस पर मुझे आँखें दिखाती है! हरामजादी, चीर के रख दूँगी, समझती क्या है!”
अहमद ने सोचा कि अब लड़ाई होने वाली है और साथ में उसकी पिटाई भी। इसलिए वह वहाँ से भाग गया और ये दोनों लड़ने लगीं।
करीमुन ने उसके हाथ से घड़ा छीनकर परे फेंक दिया। रहमत बी को बहुत गुस्सा आया। उसने करीमुन को बालों से पकड़कर उसे जमीन पर गिरा दिया और हाथों-लातों से मारना शुरू कर दिया। करीमुन को मौका मिला तो उसने भी रहमत बी को पीटना शुरू कर दिया। फिर लड़ाई-लड़ाई में करीमुन के हाथ एक पत्थर आ गया, जो उसने रहमत बी के सिर पर दे मारा। रहमत बी के सिर से खून निकलने लगा और वह चीखने-चिल्लाने लगी। मुहल्ले की दूसरी औरतें, जो बहुत देर से खड़ी तमाशा देख रही थीं, करीब आ गयीं। इनमें से कुछ तो रहमत बी की ओर हो गयीं और कुछ करीमुन की ओर। फिर क्या था, अच्छी-खासी जंग छिड़ गयी। इसके बाल उसके हाथ और उसका जिस्म इसकी लात। बहरहाल, उस गली में एक हंगामा खड़ा हो गया। सब बोल रही थीं। कुछ मरदों ने बीच-बचाव करना चाहा, पर वे बेचारे औरतों के हाथों पिट गये। न जाने किसने पुलिस स्टेशन में खबर कर दी कि वहाँ पुलिस वाले भी आ गये। उनके आते ही भीड़ छंट गयी। कुछ औरतें तो भाग गयीं। पुलिस वालों जब हकिकत जाननी चाही तो औरतों ने रहमत और करीमुन को सामने कर दिया। पुलिस वालों ने दो-चार औरतों को गवाह रखा और उन दोनों को लेकर आगे बढ़े।
रास्ते में करीमुन और रहमत बी की नजरें अहमद और अनवर पर पड़ीं। दोनों बच्चे गिल्ली-डंडा खेल रहे थे। दोनों औरतें ठिठककर एक-दूसरे को देखने लगीं। फिर दोनों की पलकें शर्म के बोझ से झुक गयीं।

Friday, 16 May 2008

जनगाथा मई 2008


लघुकथा की रचना-प्रक्रिया
बलराम अग्रवाल
(पिछले अंक से जारी)


यह कहना कि उपन्यास और कहानी से लघुकथा की भिन्नता कथानक के स्तर पर होती है—सरासर भ्रामक हो तब भी प्रशंसनीय ही माना जाएगा क्योंकि इसमें भिन्नता के सूत्र को पकड़ लेने का प्रयास परिलक्षित होता है। परन्तु, यह भिन्नता के मूल से भटका हुआ वक्तव्य है। पहली बात तो यह कि उपन्यास से लघुकथा की भिन्नता के बिन्दु तलाश करने की चेष्टा ही अपने आप में विडम्बनापूर्ण मूर्खता है, क्योंकि उपन्यास में कथा के विस्तार का फलक, कहानी और लघुकथा दोनों में, कथा के विस्तार-फलक से पूरी तरह भिन्न होता है। दूसरी बात यह कि कथा-साहित्य की विधाओं में (आकार की दृष्टि से भी) जितना भ्रम कहानी और लघुकथा के बीच उत्पन्न होता है, उतना उपन्यास और लघुकथा या उपन्यास और (सामान्य लम्बाई की) कहानी के बीच नहीं। उपन्यास और कहानी के बीच भ्रम की स्थिति लम्बी-कहानी तथा उपन्यासिका को लेकर तो गाहे-बगाहे उत्पन्न होती रहती है, सामान्यतः नहीं। बिल्कुल वैसे, जैसे छोटी कहानी और (अपेक्षाकृत लम्बे आकार की) लघुकथा के बीच वर्तमान में बनी हुई है। हालाँकि प्रस्तुतिकरण के कुछ बिन्दुओं पर कड़ी नजर डालें तो यह भ्रम ज्यादा टिकता नहीं है। एक मुख्य बात, जो अब तक देखने में आई है, वह है—लघुकथा और कहानी, दोनों के कथानकों का अपने समापन अथवा अन्त की ओर भिन्न गति से बढ़ना। कहानी का कथानक अक्सर किसी उपालम्ब के सहारे समापन की ओर बढ़ता है, जबकि लघुकथा का कथानक बिना किसी अवलम्ब या उपालम्ब के। लघुकथा का कथानक स्वयं ही अपना अवलम्ब होता है तथा कहानी की तुलना में अधिक त्वरण वाला होता है। कह सकते हैं कि समापन की ओर बढ़ते कथानक के मामले में गतिज-ऊर्जा की दृष्टि से कहानी की तुलना में लघुकथा अधिक स्वाबलम्बी कथा-रचना है। कहानी से लघुकथा की भिन्नता का इसे एक-और बिन्दु माना जा सकता है।
आज, जिस समाज में हम रहते हैं, उसमें सूचनाओं को प्राप्त और प्रदान करने के माध्यम और साधन सभी के पास लगभग समान हैं—पुस्तकें, पत्र-पत्रिकाएँ, रेडियो, टीवी, टेलीफोन, इंटरनेट, बाजार और संगति। इसलिए यह अवश्य माना जा सकता है कि लघुकथा में दो या अधिक लेखक एक ही घटना को अपने लेखन का आधार बना सकते हैं। परन्तु, उन सबकी संवेदनाएँ भी उस घटना से समान रूप में ही प्रभावित होंगी और निष्कर्षतः भी वे समान रचनाएँ ही लिखेंगे—यह असंभव है। कथानक की बात हम छोड़ भी दें तो वस्तु और निष्कर्ष के स्तर पर समान लघुकथाएँ भिन्न शीर्षकों के रहते भी अमौलिक तथा किसी पूर्व-प्रकाशित रचना से प्रभावित ही कही जायेंगी।
किसी भी माध्यम से प्राप्त समाचार मनुष्य के बाह्य-जगत का लेखा है, अन्तःजगत का नहीं। इसलिए अनेक बार कथात्मक प्रस्तुति के रहते भी, समाचार-लेखक समाचार ही प्रस्तुत कर पाता है, लघुकथा नहीं। समाचारों के माध्यम से अगर अपनी संवेदनाओं को कथारूप दिया जा सकता होता तो प्रभावशाली लघुकथा-लेखकों की कम-से-कम एक ऐसी जमात जरूर हमारे पास होती जिसने(अखबारी समाचारों के आधार पर) बहुत-सी देशी-विदेशी समस्याओं के सर्वमान्य समाधान प्रस्तुत करती या आदमी के संवेदन-तन्तुओं को जगाती कितनी ही लघुकथाएँ लिख मारी होतीं। समाचार ही अगर संवेदनाओं के मानक वाहक होते तो टीवी, अखबार आदि ‘लघुकथा’ के मुकाबले कम-से-कम इस अर्थ में तो प्रभावशाली माने ही जाते कि समाचार को इनमें से कुछ में हम एक घटना को रूप में जीवन्त घटित होते देखते-सुनते हैं। लेकिन हमारी सुप्त या कहें कि मृत संवेदन-ग्रंथियों का यह हाल है बताने की शायद जरूरत नहीं है कि ‘भोपाल गैस काण्ड’ में मारे गए और पीड़ित लोगों के बारे में टीवी रिव्यू हो या किसी और काण्ड में सताए-मारे गए लोगों के बारे में, टीवी रिव्यू देखते समय हमारे हँसी-ठट्ठों और खान-पान में कोई बदलाव दृष्टिगोचर नहीं होता। उधर खून-खराबा, लाशें और रोते-बिलखते स्त्री-पुरुष-बच्चे दिखाई दे रहे हैं; इधर डाइनिंग-टेबल पर फ्रूट-क्रीम के कप से उठकर चम्मच हमारे मुँह की ओर घूम रही होती है। समाचारों और संवेदनाओं के बीच वर्तमान में यह रिश्ता हमारे सामने है। जब तक कोई लेखक समाज से रू-ब-रू नहीं होगा, संवाद का कोई भी माध्यम उसकी संवेदना को जगाए नहीं रख सकता। साहित्य अगर समाज का दर्पण है तो सिर्फ इसलिए कि उसका रचयिता समाज के अन्तर्विरोधों को उसके बीच अपनी उपस्थिति बनाकर झेलता-महसूसता है, न कि समाचार माध्यमों द्वारा फेंके गये टुकड़ों को लपक-लपक कर संवेदनाओं की जुगाली करता फिरता है।
लेखक का धर्म है कि वह अन्त:जगत से जुड़े। जितना गहरा वह पैठेगा, उतना ही गहरा वह प्रस्तुत करेगा। अन्त:जगत से जुड़े बिना बाहर की हर यात्रा व्यर्थ और निरर्थक है। अन्त:जगत से जुड़ाव ही आदमी को सामान्य की तुलना में विशेष बनाता और सिद्ध करता है। यही वह विशेष कारण है जिसके चलते ‘लेखक’ विशेषणधारी व्यक्ति केवल सुन या देखकर ‘अन्य’ की संवेदनाओं के साथ अपनी संवेदनाओं को जोड़कर उन्हें उनकी सम्पूर्णता में पा लेता है। लेकिन इसको ‘साधना’ न तो इतना आसान है और न ही आम। इसलिए जब तक यह सध न जाए, तब तक समाज से सीधे संवाद निर्विवादित है। हाँ, लेखक के तौर पर किसी को अल्पायु एवं रुग्ण जीवन भी स्वीकार्य हो तो समाचारों को माध्यम बनाकर कुछ काल तक बाह्यजगत में विचरण का सुख भोग लेना कोई बुरी बात नहीं है।...(शेष आगामी अंक में)


एक परिचयात्मक टिप्प्णी हिन्दी लघुकथा : सोच के नये आयामडा0 सतीश दुबे

हिन्दी कथा-साहित्य के बीच लघुकथा ने हर दृष्टि से आज जो विशिष्ट स्थान प्राप्त है, उसका श्रेय अस्सी के दशक में युवा-रचनाकारों द्वारा किये गये विभिन्न सृजनात्मक प्रयासों को दिया जाना चाहिए।
आन्दोलन का आकार लिये इन प्रयासों की पृष्ठभूमि में ‘सारिका’ के माध्यम से कमलेश्वर जी की भूमिका को अनदेखा नहीं किया जा सकता। इस बहु-प्रसारित व्यावसायिक पत्रिका में लघुकथाएँ, उससे सम्बन्धित आलेख, चर्चा-गोष्ठियाँ, रपट जैसी सामग्री प्रकाशित होने के कारण बहुल-पाठक-वर्ग ने लघुकथा की शक्ति को पहचाना। सहमति-असहमति के उभरे स्वरों ने अनेक तेज-तर्रार युवा-समीक्षकों को मुखरित किया। रचना-प्रक्रिया, विधागत मान्यता, लेखन-प्रकाशन जैसे विभिन्न मुद्दों पर साहित्यिक-चेतना का प्रतिध्वनित माहौल नये-पुराने रचनाकारों का ध्यान लघुकथा की ओर आकृष्ट करने लगा।
इसे अजीब विरोधाभास या संयोग ही माना जाना चाहिए कि उसी दशक के दौरान लघुकथा को लेकर बहस-मुबाहिसों की इस हलचल से परे एक ऐसा कार्य हो रहा था जिसने इस विधा में सृजन के सकारात्मक पक्ष की मिसाल ही कायम नहीं की, प्रत्युत भविष्य में बनने वाली लघुकथा-इमारत को जाँचने-परखने, उसका आकलन करने का ठोस आधार भी प्रदान किया। यह कार्य था—राजस्थान के अजमेर जिले की निवासी शकुन्तला किरण द्वारा जयपुर विश्वविद्यालय से आठवें दशक की ‘हिन्दी लघुकथा’ पर केन्द्रित शोध-कार्य। किसी भी भारतीय अथवा विदेशी विश्वविद्यालय द्वारा लघुकथा को केन्द्र में रखकर शोध-हेतु पंजीकृत तथा शोधोपरांत सम्मानोपाधि(पी-एच0 डी0) प्राप्त ‘हिन्दी लघुकथा’ पहली कृति है।
डा0 शकुन ने शोध-दृष्टि और सूक्ष्म अध्ययन को चिंतन का आधार बनाकर सटीक तथ्यात्मक टिप्पणियों के माध्यम से लघुकथा-लेखन की सामाजिक सरोकारों के वृहद फलक पर साहित्यिक परिप्रेक्ष्य में पैरवी की है।
पाँच अध्यायों में, तकरीबन तीन सौ पृष्ठों पर विदुषी शोधार्थी ने आठवें दशक की तमाम ऐसी सृजनात्मक गतिविधियों को सोच के नये आयाम दिये हैं, जो लघुकथा की पहचान और उसके उज्ज्वल पक्ष को उजागर करने के लिए साहित्यिक-जगत में जारी थे।
हिन्दी लघुकथा की रचनात्मक-पड़ताल के लिये डा0 शकुन के दृष्टि-पटल पर देश ही नहीं, विदेश की परम्परा भी बीज-रूप में विद्यमान रही है। और इसीलिए, खलील जिब्रान का उल्लेख करते हुए वह उन प्रसंगों को विशेष रूप से रेखांकित करती हैं जो लघुकथा के रचनात्मक-तेवर की वजह से तात्कालिक-व्यवस्था के लिए खतरनाक साबित हुए।
लम्बे अरसे तक निरन्तर जद्दोजहद के बाद साहित्य-जगत में अपना विधागत मुकाम हासिल करने में लघुकथा भले ही अब कामयाब हो सकी हो, किन्तु डा0 शकुन्तला किरण आठवें दशक में उपलब्ध साहित्य के साक्ष्य में एक पारखी शोधार्थी के नाते ऐसी स्थापना को बहुत पहले शब्द दे चुकी थीं---“आठवें दशक में उदित आधुनिक हिन्दी लघुकथा ने अपनी विशिष्टताओं, क्षमताओं एवं उपयोगिताओं के कारण अभिव्यक्ति के एक नये व प्रभावशाली माध्यम के रूप में अपनी स्वतन्त्र पहचान दी…।”
प्रस्तुत आलोचनात्मक कृति विषय के प्रति न्याय ही नहीं शोध के समर्पण और निष्ठा का आदर्श भी प्रस्तुत करती है। साहित्य की विधा-विशेष पर किए जाने वाले अन्य कार्यों की अपेक्षा यह कार्य विशिष्ट दर्जा हासिल करने का हकदार इसलिए भी है कि इसमें शोध-सामग्री संकलन के प्रयास एकाकी की अपेक्षा बहुआयामी तथा समाज-वैज्ञानिक हैं।
आठवें दशक जैसे अति-महत्वपूर्ण कालखण्ड-विशेष पर केन्द्रित होने के कारण यह कृति लघुकथा की विधागत अंतरकथाओं एवं आलोचना-दृष्टि के संदर्भ में रामायण-महाभारत के प्रसंगों की तरह कालातीत साबित होगी,ऐसा मेरा विश्वास है।
लघुकथाएँ
धरम की बातविमल किशोर
अंगूरी तो बस यही समझती थी कि उसका आदमी कल्लू जब भी शराब पीकर आता है, उसे मारता-पीटता है। बल्कि, अब तो वह यह समझने लगी थी कि कल्लू को जब भी उसे पीटना होता है, तभी वह शराब पीकर आता है, अन्यथा नहीं।
मुहल्ले में नयी आयी रामकली को यह बात कुछ अजीब-सी और आतंकित करती-सी लगी। उस दिन उसने अंगूरी के चीखने-चिल्लाने की आवाज सुनी तो अपनी पड़ोसन चंपा के पास गयी। चंपा ने कल्लू को एक लम्बी-सी गाली देते हुए जो कुछ कहा उसका आशय रामकली को यही समझ में आया कि यह तो हमेशा ही होता आया है –कोई कहाँ तक बीच-बचाव करे……और वह वहाँ से चली आयी; लेकिन ध्यान उसका अंगूरी की ओर ही लगा रहा।
अंगूरी चीखती-चिल्लाती बेबस, कल्लू को गालियाँ दे रही थी, उसकी मौत भगवान से माँग रही थी। सुन-सुन कर रामकली भी चाह रही थी कि यह हत्यारा मर जाये और बेचारी की जान बचे।
चार दिन बाद महालक्ष्मी का व्रत आया। मुहल्ले की सभी स्त्रियों ने अपने पति और पुत्रों की दीर्घायु के लिए व्रत किया। रात को अंगूरी पूजा करने रामकली के घर आयी। पूजा करते समय रामकली ने लक्ष्मीजी की मूर्ति के सामने माथा टेकते हुए अपने पुत्र और पति के कल्याण एवं लम्बी आयु की कामना की।
अंगूरी ने भी ऐसा ही किया तो रामकली ने आश्चर्य से पूछा,”अभी उस दिन तो तू मना रही थी कि लल्लू के कक्का अभी मर जायें और आज…”
अंगूरी ने बीच में ही टोकते हुए कहा,”ऐसी बात मत कहो बाई…वा और बात हती… जा धरम की बात है…करम में वोई बदो है, धरम में जे है…”


अरेखित त्रिकोण
उदय प्रकाश

-कुत्ते, कमीने… बाप से मुँह बड़ाता है! इसी दिन के लिए क्या तुझे पाल-पोस कर बड़ा किया था?
-चुप रह तू, बाप होने का हक जताता है, पर बाप की जिम्मेदारियाँ निभानी आती हैं तुझे? जितना तूने मुझ पर खर्च किया है, उससे दुगुना तुझे कमा-कमा कर खिला चुका हूँ मैं, समझा!
-क्यों बे बूढ़े, मौत आयी है क्या तेरी, जो अपने बेटे से जबान लड़ा रहा है।--–पुत्र का एक हितैषी बोला।
-स्साले, कमीने, हमको उपदेश देता है! हरामी की औलाद!!---कहते हुए अगले ही क्षण पिता-पुत्र दोनों उसकी छाती पर सवार थे।



अंधेःखुदा के बंदेरमेश बतरा

-इस आदमी को क्यों नहीं चढ़ने दे रहे आप…इसे भी तो जाना है।
-यह तो कहीं भी चढ़ जायेगा। रह भी गया तो अगली गाड़ी से आ जायेगा। मगर तुम्हें तकलीफ होगी।
-मुझ पर इतना तरस क्यों खा रहे हैं आप?
-तुम अंधे जो हो…अपाहिज।
-मैं ही क्यों, आप भी तो अपाहिज हैं।
-सूरदास, भगवान ने आँखें नहीं दीं, कम-से-कम जुबान का तो सही इस्तेमाल कर… मीठा बोलना सीख।
-आपको तो भगवान ने सब-कुछ दिया है; पर क्या दुनिया का कोई भी काम ऐसा नहीं जो आप नहीं कर सकते?
-बहुत-से काम हैं।
-फिर उन कामों को लेकर तो आप भी अपाहिज ही हुए। और तो और, भगवान ने आपको आँखें दी हैं और आप उनका भी सही इस्तेमाल नहीं कर रहे।
-यह तो फिलोसफर लगता है।
-कैसे भई कैसे?
-आपकी आँखें यह नहीं देख रहीं कि दो आदमी हैं और आपका इंसानी फर्ज है कि आपकी तरह वे भी अपनी मंजिल पर पहुँच जायें, बल्कि आपकी आँखें अंधे और सुजाखे को देख रही हैं। जो आदमी होकर आदमी को नहीं पहचानता, उससे ज्यादा अपाहिज कोई नहीं होता।
-अच्छा-अच्छा, भाषण मत दे। चढ़ना है तो चढ़ गाड़ी में, वरना भाड़ में जा…हमें क्या पड़ी है!
-मुझे मालूम था, आप यही कहेंगे। आपकी तकलीफ मैं समझता हूँ…आप एक अंधे को गाड़ी पर चढ़ाकर पुण्य कमाना चाहते थे, किन्तु धर्मराज की बही में आपके नाम एक पुण्य चढ़ता-चढ़ता रह गया।
-पुण्य कमाने के लिए एक तू ही रह गया है बे?…मैं तो इसलिए कह रहा था कि अंधे बेचारों की हालत तो दो-तीन साल के बच्चों से भी बुरी हुई रहती है।
-वाह! दो-तीन साल का बच्चा इस तरह गाड़ी पकड़ सकता है क्या?
-बच्चा भला क्या गाड़ी पकड़ेगा अपने आप!
-मैं अकेला आया हूँ स्टेशन पर…कोई लाया नहीं मुझे।
-पुलिस से बचकर भाग रहा होगा…आजकल खूब ठुकाई कर रही है तुम्हारी।
-अजी, अपना हक माँगने गये थे, भीख माँगने नहीं…लाठी पड़ गयी तो क्या हुआ। आप जाइए तो आप पर भी पड़ सकती हैं लाठियाँ तो।
-हम तो कैसे भी बचाव कर सकते हैं अपना…मगर तुम…!
-देख लीजिए, जीता-जागता खड़ा है यह अविनाश कुमार आपके सामने।
उस आदमी के पास कोई जवाब नहीं बन पड़ा। गाड़ी, जो सीटी दे चुकी थी, अब चल पड़ी। अविनाश कुमार ने लपककर डंडा पकड़ते हुए अपने पाँव फुटबोर्ड पर जमा दिए। लोग उसका हाथ थामकर उसे डब्बे के अंदर लेने की कोशिश करने लगे…और अविनाश कुमार बड़ी मजबूती-से डंडा थामे कहता रहा—इंसान को सँभालना इंसान का फर्ज है…इस नाते मैं आपकी तारीफ करता हूँ…पर मुझे अंधा समझकर मुझ पर दया मत कीजिए…मुझे अपने लायक बनने दीजिए…अंधा हो चुका…मोहताज नहीं होना चाहता…!
गाड़ी तेज होती चली जा रही थी।


धूल-धुआँ
पृथ्वीराज अरोड़ा

खेलते-खेलते अचानक बच्चों के हाथ रुक गये। मेरा ध्यान भी टूटा। मैंने पूछा,”क्या हुआ, तुम लोगों ने खेलना क्यों बंद कर दिया?”
उनसे कोई जवाब न मिला तो मैंने निगाहें उठाकर देखा। बच्चों की आँखों का अनुकरण करते हुए मैं सन्न रह गया। अपने अन्दर एक कमजोरी के अहसास को महसूसा। मेरे साठ वर्षीय पिता दूध से भरा बड़ा गिलास गटागट पी रहे थे। मैंने आगे बढ़कर खिड़की बन्द कर दी, मानो अपने अभावों से नजर चुरा ली हो।
बच्चे मेज के इर्द-गिर्द बैठ गये। तीनों बच्चों ने चाय के गिलास जल्दी-जल्दी उठाकर खाली कर दिये और फटाफट बस्ते उठाकर स्कूल जाने लगे। पत्नी की नजर दूध के भरे गिलास पर पड़ी तो चौंक गयी…छोटा तो दूध बिना पिये मानता नहीं… आज दूध छोड़कर चाय कैसे पी गया! उसने जाते-जाते छोटे को डाँटा, “ए, तुमने दूध क्यों नहीं पिया?”
उसने भोला-सा मुँह बना दिया, “बच्चे दूध नहीं पीते।“
“और कौन पीते हैं?”
“बूढ़े पीते हैं।”
“यहाँ कौन बूढ़ा बैठा है। चल, जल्दी-से गिलास खाली कर और जा।”
“नहीं मम्मा, मैं नहीं पियूँगा।”
“कौन पियेगा फिर!”
“तुम पापा को पिला दो, मम्मी।” कहते हुए बच्चा भागकर आगे निकल चुके भाइयों में जा मिला।
क्रियात्मक कामसूत्र
शंकरदयाल सिंह

दिल्ली से जब गाड़ी चली, तो हम लोग—तीन सवारियाँ—प्रथम श्रेणी के उस डिब्बे में थे—दो महिलाएँ और एक पुरुष-यात्री मैं। गाड़ी छूटने के कुछ ही देर बाद एक महिला-यात्री दूसरे डिब्बे में चली गयी और उसके बाद हम दो ही बच गये। मेरे साथ वाली सहयात्री ने भी कंडक्टर गार्ड के आते ही महिलाओं वाले डब्बे में चले जाने की इच्छा व्यक्त की।
कंडक्टर गार्ड ने ‘सी’ कम्पार्टमेंट मे जगह देने की बात कही, लेकिन अलीगढ़ से। महिला सहयात्री ने अपना आधा सामान ‘सी’ में जा कर रख भी दिया। मैं खामोश सब देखता-सुनता रहा।
‘डीलक्स-गाड़ी’ में 'डायनिंग कार’ की सुविधा रहती है, अतः बेयरा को चाय लाने का आदेश दिया और चाय आने पर स्वाभाविक रूप में अपने सामने बैठी और खोयी संभ्रांत महिला से चाय पीने का आग्रह किया। पहले तो एक-दो बार उन्होंने ‘ना-नो’ की, लेकिन मेरे जोर देने पर वह तैयार हो गयीं। चाय की चुस्की के साथ कुछ बातों का क्रम भी चला और मुझे पता चला कि वह एक आर्मी-आफीसर की पत्नी हैं तथा उन्हें यह पता चला कि मैं संसद सदस्य हूँ। वे कलकत्ता जा रही हैं और मैं पटना जा रहा हूँ।
अलीगढ़ में कंडक्टर-गार्ड ने आकर डब्बा बदलने की बात कही तो उन्होंने अरुचिपूर्ण स्वर में कहा—“आगे देखा जाएगा।”
गाड़ी आगे बढ़ी तो मैंने उनसे कहा—“चेंज ही करना है तो बदल लें। चलिए, मैं आपका सामान वहाँ तक पहुँचा देता हूँ।”
उन्होंने बड़ी संभ्रांत एवं संकोचशील आवाज में कहा—“आपको बुरा नहीं लगेगा?”
“भला मुझे बुरा क्यों लगेगा? आप अकेली हैं, महिला हैं, दूर का सफर है; फिर किसी अपरिचित पुरुष के साथ यात्रा में झिझक स्वाभाविक है। आप डब्बा बदल लें और शांतिपूर्वक सो जायें।”
“सब लोग एक तरह के नहीं होते और अब आप अपरिचित भी नहीं हैं।” एक छोटी-सी मुस्कान के साथ उन्होंने कहा और अपना सामान लाने चली गयीं।
हम दोनों बहुत देर तक व्यक्तिगत और पारिवारिक जीवन के संबंध में बातें करते रहे। करीब साढ़े आठ बजे रात में गाड़ी टूँडला पहुँची और वहाँ हमारे डब्बे में दो विदेशी—युवक-युवती—आ गये तथा ऊपर की दोनों बर्थों पर कब्जा कर लिया।
दस बजे के करीब मैंने सबों से अनुमति लेकर डब्बे की उजली बत्तियाँ बुझा दीं और दरवाजा भी बंद कर दिया। बारह बजे रात के करीब अपनी संभ्रांत-सहयात्री के खाँसने की आवाज से मेरी नींद टूट गयी और नीले प्रकाश में उनकी आँखों में चमक और बेचैनी तथा हास्य की आभा देखी। उन्होंने अपनी उँगलियों से ऊपर की ओर इशारा किया। मेरी नजर सामने गयी, तो देखा कि वात्स्यायन के कामसूत्र का क्रियात्मक पाठ दोनों विदेशी—युवक-युवती—धड़ल्ले से कर रहे थे।


चाँदनी
डा0 जाकिर हुसैन
हिमालय की वादियों में स्थित अल्मोड़ा के एक बड़े मियाँ—अब्बू खाँ—अकेले होने के कारण सदा एक-दो बकरियाँ पाले रखते थे। दिनभर उन्हें बड़े प्यार से चराने के बाद रात को घर में बंद कर देते थे। पहाड़ी नस्ल की बकरियाँ बँधे-बँधे घबरा जाती थीं और अवसर पाने पर रस्सी तुड़ाकर पहाड़ में चली जाती थीं। वहाँ एक भेड़िया उन्हें खा जाता था।
जब कई बकरियाँ भाग निकलीं तो अब्बू खाँ ने सोचा कि यदि उन्होंने एक कम-उम्र बकरी ली और उसे पहले से ही अच्छे चारे-दाने की आदत डाल दी तो वह पहाड़ का रुख न करेगी। वे एक नन्हीं-सी सुंदर, बकरी ले आये, चाँदनी नाम रखा और अधिक स्नेह से उसका पोषण करने लगे। उन्होंने चाँदनी को अपने खेत में बाँध दिया जिसे काँटों से घेर दिया गया था और रस्सी भी खूब लम्बी कर दी।
स्वतंत्र प्राणियों का दम खुली चारदीवारी में घुटता है और काँटों से घिरे खेत में भी। एक सुबह जब चाँदनी ने पर्वतों की ओर दृष्टि की तो सुन्दर शिखरों ने उसे पुकारा। उसे उछलने, कूदने और ठोकरें खाने की इच्छा हुई। सो, उसने एक दिन अब्बू खाँ से कहा—“अब्बू मियाँ, मुझे पहाड़ में चला जाने दो।”
अब्बू खाँ बकरियों की भाषा जानते थे। चाँदनी की बात सुनकर उन्होंने छाती पीट ली। फिर, मनाने लगे। बेहतर चारे-दाने की आस दिलायी। भेड़िये का डर बताया। मगर चाँदनी ने कहा— “अल्लाह ने दो सींग दिये हैं, इनसे उसे मारूँगी।”
अब्बू खाँ झुँझलाये। उन्होंने उसे एक कोठरी में बंद कर दिया। मगर वह उसकी खिड़की बंद करना भूल गये और चाँदनी खिड़की फलाँगकर भाग गयी।
पहाड़ पर पहुँचकर चाँदनी की खुशी का ठिकाना कहाँ! उछली, कूदी, फाँदी, फिसली और सँभली! वहाँ उसे बकरियों का एक रेवड़ भी मिला। उसमें एक जवान बकरा पसंद भी आया। लेकिन, वह उसके साथ न गयी। आजादी की आरजू प्रबल थी।
अँधेरा उतर आया। एक ओर से भेड़िये की खूँ-खूँ की आवाज आने लगी, दूसरी ओर से अब्बू खाँ की प्यारभरी पुकार—“लौट आ…लौट आ!”
पलभर को लौटने की इच्छा हुई; पर खूँटा, रस्सी और काँटों का घेर नजरों के सामने घूमने लगे। उसने सोचा—वहाँ की जिन्दगी से यहाँ की मौत अच्छी।
होठों पर जीभ फेरते भेड़िये को देखकर चाँदनी लड़ने को तैयार हो गयी। वह जानती थी कि बकरियाँ भेड़िये को नहीं मार सकतीं। वह तो बस यह चाहती थी कि सामर्थ्यानुसार मुकाबला करे। जीत-हार तो अल्लाह के हाथ है। भेड़िया आगे बढ़ा तो चाँदनी ने भी सींग सम्हाल लिये और वो हमले हुए कि भेड़िये का जी जानता है। तारे एक-एक करके गायब हो गये। चाँदनी ने आखिरी समय में अपना जोर दुगुना कर दिया, लेकिन वह बेदम होकर गिर गयी।
भेड़िये ने उसे दबोच लिया।

महँगाई
राधेलाल ‘नवचक्र’
राज्य में रोज महँगाई बढ़ रही थी। राजा परेशान, जनता तबाह। आखिर राजा के विरुद्ध आवाज उठी, “महँगाई को कम करो, नहीं तो गद्दी छोड़ दो!”
राजा ने इस संबंध में एक चतुर मंत्री से सलाह ली। मंत्री ने कहा, “यह समस्या तो चुटकी बजाते हल हो सकती है, महाराज!”
“कैसे?” महाराज ने पूछा।
“महँगाई कम करने के लिए महँगाई बढ़ानी पड़ेगी।” मंत्री ने कहा।
“यह आप क्या कह रहे है!”
“पहले महँगाई को डेढ़ गुना बढ़ा दिया जाये…”
“फिर?”
“अगले दिन हर चीज की कीमत एक प्रतिशत घटा दी जाये। फिर कुछ दिनों बाद थोड़ी और घटा दी जाये। फिर थोड़ी और…ऐसा करने से जनता समझेगी कि अब कीमतें धीरे-धीरे घट रही हैं; जबकि वह पहली वाली कीमत से थोड़ा ऊपर रहकर स्थिर हो जायेगी। जब-जब महँगाई के विरुद्ध आवाज उठे, आप यही करें।” मंत्री ने गूढ़ बात कही।
तरीका प्रयोग में लाया गया। राजा ने देखा, जनता पहले से खुश थी—खूब खुश!