Friday, 2 April 2010

सुधा भार्गव की लघुकथाएँ

-->॥1॥ दूध के दाम
शादी के करीब 15 वर्ष बाद अविनाश के घर में बच्चे की किलकारी सुनाई दी। उसका रोना भी कानों में शहद घोलता। शिशु चार मास का भी नहीं हो पाया था कि माँ का दिन का चैन और रात की नींद कपूर की तरह उड़ गए। घड़ी-घड़ी बच्चा रोता,दिन में मुरझाया-सा रहता।
लेडी डाक्टर ने बताया,बच्चे का माँ के दूध से पेट नहीं भरता है। कम से कम छह मास तक उसका दूध पीता तो अच्छा था। अब गाय का दूध या डिब्बे का दूध पिलाना पड़ेगा।
दुर्भाग्यवश दोनों दूध बच्चा हजम न कर पाया और उसका पेट गड़बड़ा गया। अंत में लेडी डाक्टर ने सुझाव दिया,माताश्री दुग्ध केंद्र चले जाइये। वहाँ कुछ कुछ व्यवस्था हो ही जायेगी।
केंद्र की अध्यक्षा ने एक मोटी-ताजी महिला को अविनाश के साथ कर दिया जो उसके बच्चे की दुग्धपान की आवश्यकता को पूरी कर सके। निश्चित हुआ कि वह रोज 200 रुपये लेगी। अच्छी खुराक के साथ 4 लीटर दूध भी पीना उसके लिए जरूरी है।
अधर में लटके अबिनाश को किनारा मिला। वह महिला बड़े प्यार से उस बच्चे का ध्यान रखती। उसका नाम गोमती था। ग्वाले से अकसर वही दूध लिया करती। पिछले दो दिनों से उसने आना बंद कर दिया था। गृहिणी ने ग्वाले को बुलाया।
बड़ी मिन्नतों के बाद तो वह आया और बोला,मेमसाहब, हम कितने दिनों से बोल रहे हैंदूध का दाम बढ़ाओ, दाम बढ़ाओ। सरकार तक मदर डेरी के दूध-दही के दाम बढ़ाने जा रही है।
तुम्हारी और सरकार की बराबरी है क्या? उसे तो देश सँभालने के लिए पैसा चाहिए।
हम बड़ी-बड़ी बातें नहीं जानते, सरकारी लोग देश को सँभाले हैं या स्वयं को। पर इतनी बात जरूर है कि हमें अपने खेत, जानवर, बीवी-बच्चे सबको सँभालना है। साथ में गाय-भैंस भी हैं।
पशुओं के चारे की क्या कमी है? उन्हें तो जंगल में छोड़ देते हो।
जंगल…जंगल नेता लोगों ने कहाँ छोड़े? आपकी ये शानदार इमारतें पशुओं का चारा चर गईं। चारा भी खरीदना पड़ता है। उसने कहा। फिर बोला,छोड़िये मेमसाहब! आप ये सारी बातें नहीं समझेंगी। इस महीना से हम 16 की जगह 22 रूपये किलो के हिसाब से दूध देंगे। साफ बात…एक बात।
पास में खड़ी गोमती उनका वार्तालाप बड़े ध्यान से सुन रही थी। ग्वाले के जाने के बाद वह बोली,माई जी, दाम तो हमारे दूध के भी बढ़ाने होंगे। मानुष दूध तो सबसे ज्यादा कीमती है।
बच्चे के रोने की आवाज सुनकर वह उसकी ओर दौड़ी। जाते-जाते सुना गई—“देखा माई जी, लल्ला हमारे बिना एक मिनट नहीं रह सके।
॥2॥ पहनूँगी इन्हें
मौसी ,ये चूड़ियाँ रख लो।
अरे, ये तो बड़ी सुन्दर हैं, तूने बनाई हैं संतो?
हाँ ,इन्हें मैं अपनी शादी के समय पहनूँगी। मेरी कलाई पर खूब फबेंगी। माँ को नहीं बताना वरना वह पहन डालेगी। कहते -कहते संतो हाँफने लगी। खाँसी का जोर आया, ढेर-सा खून उगल दिया। मौसी घबरा उठी। गर्म पानी से कुल्ले कराकर उसे चाय पिलाई। सीने में सेक आते ही संतो तो सो गयी पर मौसी भयभीत हिरनी-सी उसे घूरने लगी।
नींद टूटने पर संतो, मौसी की नजरों का सामना नहीं कर पाई।
संदेह की चादर ने उसे ढक दियाकहीं मेरी बीमारी का पता तो नहीं लग गया! I
मौसी की घुटन बाहर आई—“बेटी, अपनी सेहत का ध्यान रखना, कहीं तेरा
सपना अधूरा रह जाये।
कोई ख़ास बात नहीं है। दवा तो रोज पीती हूँ। उसने झूठ का पैबंद लगाने की कोशिश की।
सच कुछ और ही था। चूड़ी के कारखाने में काँच की धूल उसके फेंफडों में जम कर रह गयी थी। उसे लगता, काँच के महीन टुकड़े उसके अंग-अंग को छेदे जा रहे हैं जिन्हें वह निकाल पाती है न सहन कर पाती है।
गहरी साँस छोड़ते हुए मौसी ने सुझाव दिया,कुछ दिन की छुट्टी ले ले।
कैसे ले लूँ! चूड़ियों की काट-छाँट में मेरा जैसा किसी का हाथ नहीं। संतो का जवाब था,मालिक तारीफ करते नहीं अघाता। दिन के हिसाब से मुझे मजूरी मिलती है, माँ तो एक दिन घर नहीं बैठने देगी।
संतो हँसते हुए चली गई। पर वह हँसी दिनोंदिन लुप्त होती गयी और जीवन के सोलह बसंत देखने से बहुत पहले तेरह वर्ष की उम्र में ही एक दिन निर्दयी समाज से उसने छुटकारा पा लिया। जीते-जी उसकी साध पूरी हो सकी लेकिन मृतक शरीर को चिता पर लेटाते समय लोगों ने देखाउसकी कलाई में मीने की दर्जन भर लाल-हरी चूड़ियाँ झिलमिला रही थीं।
॥3॥ आतंकवादी
पिंटू अपनी दादीजी के साथ टी.वी. में समाचार सुन रहा थाशहर में आतंकवादियों ने डेरा जमा लिया है। सावधान रहें।
दादी माँ, ये आतंकवादी कौन होते हैं?”
बड़े बुरे लोग होते हैं। खुद खुश रहते हैं दूसरों को खुश रहने देते हैं। अपनी बात मनमाने के लिए दूसरों को डराते-धमकाते रहते हैं। दादी ने बताया।
पिंटू, काफी देर हो गयी है। अब अपने कमरे में जाकर सो जाओ।पास में बैठे पापा ने आज्ञा दी।
पापा देखोआतंकवादी!
हाँ-हाँ देख रहा हूँ। पर तुम यहाँ से उठ जाओ। पापा के स्वर से लगता था कि ज्वालामुखी बस फटा, अब फटा।
पिंटू बेमन से उठा और पापा को घूरते हुए जाने लगा। सोने का उपक्रम किया मगर नींद कहाँ! अचानक उसके दिमाग में कौंधापापा आतंकवादी तो नहीं!
सुबह स्कूल में अपने साथी से पिंटू बोला,शिन्तू, हमारे घर में आतंकवादी घुस आया है, क्या किया जाये?”
समस्या तो गंभीर है।
कल टी.वी. में भी आतंकवादी थे।
तब आज टी.वी. खोलकर देखना। पता चल जायेगा कि उसने आतंकवादियों के साथ क्या किया।
शाम को पिंटू टी.वी. खोलकर समाचार सुनने लगादो आतंकवादी पकड़े गये हैं और पुलिस की हिरासत में हैं अगर आपको किसी पर आतंकवादी होने का शक हो तो तुरंत सूचना दें। फोन न. है55555555।
पिंटू ने आनन् -फानन में डायल घुमा दिया—“जल्दी आइये, आतंकवादी के आने का समय हो गया है।
आपका पता क्या है?”
चाट वाली गली, फ्लैट नम्बर 111।
संध्या समय एक तरफ से पिंटू के पापा की कार आकर रुकी। दूसरी ओर से पुलिस के जवान जीप से धड़-धड़ करते हुए उतर पड़े। कुछ ने घर को घेर लिया, कुछ अन्दर घुस गये, कुछ घर के बाहर खड़े रहे। पिंटू के पापा भौंचक्के!
क्या यह आपका घर है?” पुलिस अधिकारी ने पूछा।
जी हाँ! पिंटू के पापा ने जवाब दिया।
हमें सूचना मिली है कि इस घर में आतंकवादी आने वाला है।
आतंकवादी!
शोर-शराबा सुनकर पिंटू घर से बाहर निकल आया। चिल्लाया—“पुलिस अंकल, यही आतंकवादी हैं।
बेटा, मैं…मैं तो तुम्हारा पापा हूँ!
नहीं-नहीं, आप आतंकवादी हैं। डाँट पिलाकर, आँखें दिखाकर सबको डराते हैं। मुझे तो मारते भी हैं।… ये किसी को भी खुश होता नहीं देख सकते। पुलिस अंकल, जल्दी पकड़िए…वरना ये भाग जायेंगे!

संक्षिप्त परिचय:सुधा भार्गव
शिक्षा--बी ,ए.बी टी ,रेकी हीलर
शिक्षण--बिरला हाई स्कूल कलकत्ता में २२ वर्षों तक हिन्दी भाषा का शिक्षण कार्य |
साहित्य सृजन--
विभिन्न संकलनों में तथा पत्र-पत्रिकाओं में कहानी, लघुकथा, कविता, यात्रा-संस्मरण, निबंध आदि प्रकाशित।
प्रकाशित पुस्तकें--
रोशनी की तलाश में --काव्य संग्रह
बालकथा पुस्तकें--
१ अंगूठा चूस
२ अहंकारी राजा
३ जितनी चादर उतने पैर--सम्मानित-राष्ट्रीय शिखर साहित्य सम्मान !
आकाशवाणी दिल्ली से कहानी, कविताओं का प्रसारण
सम्मानित कृति--रोशनी की तलाश में
सम्मान--डा .कमला रत्नम सम्मान
पुरस्कार--राष्ट्र निर्माता पुरस्कार(प. बंगाल--1996)
अभिरुचिदेश-विदेश भ्रमण, पेंटिंग, योगा, अभिनय, वाक् प्रतियोगिता
मोबाइल-09731552347
ई-मेल-subharga@gmail.com
ब्लॉग:sudhashilp.blogspot.com

Saturday, 20 March 2010

पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथाएँ


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करनाल से भाई अशोक भाटिया ने बातचीत के दौरान सूचना दी थी कि श्रीयुत पृथ्वीराज अरोड़ा के मस्तिष्क के किसी हिस्से में फ्लूड्स के रिसाव की वजह से उनके दायें अंगों पर आंशिक पक्षाघात का आक्रमण हुआ था और 18 मार्च को उनका ऑप्रेशन भी करना पड़ा। आज 20 मार्च को आदरणीया भाभीजी से बात करके पता चला कि हॉस्पिटल से रिलीव होकर वे आज ही घर पहुँचे हैं और डॉक्टर ने अधिक बात करने के लिए मना किया है। फिर भी, अरोड़ा जी ने शायद जिद करके मोबाइल उनसे माँगा और मुझसे बात की। मुझे अच्छा लगा कि वे इस सब के बावजूद भी दिलेर रवैया अपनाये हुए हैं। उनके शीघ्र स्वस्थ होने शुभकामनाओं के साथ इस माह भी प्रस्तुत हैं उनकी तीन लघुकथाएँ



शिकार
काश बादलों से ढँका था। पहले टुपुर-टापर बूँदें गिर रही थीं, फिर उन्होंने विकराल रूप ले लिया था। ऐसे में स्ट्रीट लाइटें धुँधली-धुँधली रोशनी दे रही थीं। चोरी के लिए सही समय समझते हुए दोनों पॉलिथीन की बरसातियाँ सिर पर ओढ़े खोलियों से निकल पड़े।
पहला चौकस था,तूने सभी औजार ले लिए हैं न ?
दूसरा आश्वस्त था,हाँ, और तुमने?
पहला भी आश्वस्त लगा,मैंने भी।
थोड़ी दूर चलने के बाद दूसरा रुक गया।
पहले ने पूछा,रुक क्यों गये?
मन में उठ रहे बवंडर को उसने उगल दिया,मन नहीं मानता।
पहले को उपहास सूझा,डर गए क्या?
डर! कभी डरा हूँ मैं ? उसने अपने अंदाज़ में उत्तर दिया।
पहला चौंका,फिर!
दूसरा आहत-सा बोला,हमारा शिकार हमेशा गरीब या कम पैसे वाला ही रहा है। कहीं न कहीं हम अमीर आदमी पर हाथ डालते डरते नहीं हैं क्या?
यह कड़वा सच पहले को गंभीर बना गया,हाँ, तुम सही कह रहे हो।
अचानक दूसरा बोला,तो लौट चलें?
हाँ, मैं भी यही सोचता हूँ। हमें किसी मोटी मुर्गी पर हाथ डालना चाहिए। चलो, सोचते हैं।
सचमुच दोनों लौट पड़े
-->हाथों में हाथ डाले।

प्रश्न
ब उनके अति गोपनीय सेलफोन की घंटी घनघनायी तो वे तत्काल उस विवाहोत्सव के गहमागहमी-भरे माहौल को छोड़ एक एकांत कोने की ओर लपके—“यस सर!
उधर से स्वर था,पांडे, तुम फौरन अपने घर से होते हुए मेरे पास पहुँचो।
यस सर।
वह जानते हैं कि डी आई जी ऐसे आदेश उस समय ही देते हैं जब मामला अत्यन्त गंभीर हो। बिना वक्त गँवाए अपनी ओर देख रहे सिपाही को संकेत से बुलाया और कहा,तुम मेम साहिबा को ढूँढकर बता दो कि साहिब किसी जरूरी काम के लिए चले गए हैं। सिपाही सल्यूट मारकर मेम-साहिबा को संदेश देने के लिए आगे बढ़ गया।
वह बाहर निकले। उन्हें देखते ही ड्राईवर गाड़ी लेकर उनके समीप आ गया। गाड़ी चलते ही उनके पीछे-पीछे पुलिस-वैन भी चल पड़ी। कोठी पर पहुँचते ही उन्होंने देखा किपुलिस से घिरा, हथकड़ियों से जकड़ा उनका घरेलू नौकर सिर झुकाए जमीण पर बैठा था।
एस एच ओ भागकर उनकी गाड़ी के समीप आया। उनके गाड़ी से बाहर निकलते ही सल्यूट मारकर उनके कान में कुछ फुसफुसाया। और फिर, एक कागज पर हस्ताक्षर करवा, नौकर को गाड़ी में बैठा चला गया।
कपड़े बदलते हुए उनका ध्यान बार-बार विश्वसनीय नौकर को लेकर उचट जाता था। यह कैसे संभव है कि एक एस पी के घरेलू नौकर के तार उग्रवादियों के साथ जुड़े हों? सद्भावनापूरित उनकी आशंका बार-बार बलवती हो उठती किकहीं वह अपनी गरीबी से इतना त्रस्त तो नहीं था कि किसी बड़े प्रलोभन में आकर कुछ-भी करने को तैयार हो गया हो?
गाड़ी में बैठते हुए वे लगातार यह सोच रहे थे किवे डी आई जी को यह दलील कैसे दे पाएँगे…कैसे?

बुनियाद
से दुख हुआ कि पढ़ी-लिखी, समझदार पुत्रवधू ने झूठ बोला था। वह सोचता रहाक्यों झूठ बोला था उसने? क्या विवशता थी जो उसे झूठ का सहारा लेना पड़ा?
जब उसका बेटा कार्यालय के लिए चला गया और पत्नी स्नान करने के लिए, तब उपयुक्त समय समझते हुए उसने पुत्रवधू को बुलाया।
वह आई,जी, पापा!
उसने पुत्रवधू को कुर्सी पर बैठ जाने का इशारा किया। वह बैठ गई। उसने कहा,तुमसे एक बात पूछनी थी।
पूछिए पापा।
झिझकना नहीं।
पहले कभी झिझकी हूँ! आपने मुझे पूरे अधिकार दे रखे हैं, बेटी से भी बढ़कर।
थोड़ी देर पहले तुमने झूठ क्यों बोला? मैंने तो अभी नाश्ता करना है! तुमने मेरे नाश्ता कर लेने की बात कैसे कही? उसने बिना कोई भूमिका बाँधे पूछा।
उसका झूठ पकड़ा गया है, उसने अपना सिर झुका लिया। फिर गंभीर-सी बोली,पापा, हम बेटियाँ झूठ बोलने के लिए अभिशप्त हैं। माँएँ भी, गृहस्थी में दरार न पड़े इसलिए हमें ऐसी ही सीख देती हैं। वह थोड़ा रुकी। भूत को दोहराया,भाई के लिए नाश्ता बनाने में देर हो रही है, वह नाराज न हो, कोई बहाना बना डालो। पापा का कोई काम वक्त पर न हो पाया हो तो झूठ का सहारा लो। आज भी ऐसा ही हुआ। नाश्ता बनाने में देर हो रही थी। इनके ऑफिस का वक्त हो गया था। ये नाराज होने को थे कि मैंने आपको नाश्ता करवाने की वजह से देर हो जाने की बात कह डाली। आपका जिक्र आते ही ये चुप हो गये। उसने विराम लिया। फिर निगाह उठाकर ससुर को देखा और कहा,सुबह-सुबह कलह होने से बच गई।…और मैं क्या करती पापा?
ससुर मुस्कुराए। उसके सिर पर हाथ फेरकर बोले,अच्छा किया। जा, मेरे लिए नाश्ता ला। बहुत भूख लगी है।
वह भी किंचित मुस्कराई,आभी लायी।
पुत्रवधू नाश्ता लेने चली गई। ससुर ने एक दीर्घ साँस ली।


पृथ्वीराज अरोड़ा: संक्षिप्त परिचय

जन्म: 10 अक्टूबर, 1939 को बुचेकी(ननकाना साहिब, पाकिस्तान में)

प्रकाशित कृतियाँ:तीन न तेरह(लघुकथा संग्रह), प्यासे पंछी(उपन्यास), पूजा(कहानी संग्रह), आओ इंसान बनाएँ(कहानी संग्रह)

सम्पर्क:द्वारा डॉ सीमा दुआ, 854-3, शहीद विक्रम मार्ग, सुभाष कॉलोनी, करनाल-132001 (हरियाणा)

मोबाइल नं:09255921912

Sunday, 28 February 2010

पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथाएँ



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पृथ्वीराज अरोड़ा हिन्दी लघुकथा के वरिष्ठ हस्ताक्षर हैं। उनकी लघुकथाओं में मानवीय संवेदना के वे सूत्र छिपे होते हैं जो उन्हें अपने समकालीनों के बीच विशिष्ट दृष्टि संपन्न कथाकार सिद्ध करते है। जनगाथा के इस अंक में उनकी तीन ताजातरीन लघुकथाएँ प्रस्तुत हैं।
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संलग्न पेंटिंग सीमा विश्वास की है जिसे सम्माननीय मित्र शमशेर अहमद खान ने
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रंगों के पर्व होली की शुभकामनाओं के साथ भेजा है।

॥नागरिक॥
शायद वह किसी काम से थोड़ी देर के लिए बाहर गया था। मैंने सिर उठाकर शीशे में देखा। सिर के एक हिस्से के बाल कुछ बड़े थे और दूसरे के छोटे। मैंने हाथ लगाकर जाँचा भी। मैं पिछले कई वर्षों से उससे बाल कटवा रहा था, परंतु ऐसी असावधानी कभी नहीं हुई थी। जैसे ही वह लौटा, मैंने बताया,एक तरफ के बाल थोड़े बड़े लगते हैं।
उसने कैंची और कंघा उठाया और बड़े बालों को छोटा कर दिया। फिर धीरे-से बोला,माफ करना बाबूजी, मैं जानता हूँ कि आप पहले भी आये थे। अब दोबारा आये हैं। मुझे पता है कि आप मेरे अलावा किसी-और से बाल नहीं कटवाते। फिर उसने स्वयं ही बताया,बाबूजी, मैं बहुत परेशान हूँ।
क्या हुआ?
मैं दोपहर को घर गया तो पता चला कि मेरे आठ वर्ष के बच्चे को दो आदमी बहला-फुसला कर ले गए। उसे आइसक्रीम खिलाकर घर के बारे में पूछते रहे। मेरी बेटी के स्कूल में जाकर उसे भी देख आये हैं। मैं…मैं…बहुत तनाव में हूँ…क्या करूँ?
बेटे से पूछा कि वे कौन लोग थे?
पत्नी से उसे इस हरकत के लिए पीट दिया। वह बुरी तरह-से डर गया है। कुछ बताता नहीं।
फिर? अचानक मेरे मुँह से निकल गया।
वह काफी देर चुप रहा। फिर बोला,पुलिस पर मुझे भरोसा नहीं। …और ये नेता लोग तो पहचानते तक नहीं। रिश्तेदार नजदीक तक नहीं फटकेंगे। दोस्त सलाह भर देकर पहलू झाड़ लेंगे। बेटी का सवाल है…इज्जत का… वह पगलाया-सा यही रट लगाये जा रहा था।
॥भ्रष्ट॥
दिनभर खटने के बाद वे शाम को घूमने जाते थे। यह उनकी दिनचर्या का एक अंग था। उनके बीच राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक और अधिकतर दफ्तरी सरोकारों की बातें होती थीं।
आज रवि ने बात शुरु की,सचमुच, बेईमानी हमारे रगों में समा गई है। जो भ्रष्ट नही होना चाहता, उसे मजबूर किया जाता है। वह थोड़ा रुका। अपनी बात के प्रभाव को आँकने के लिए उसने अपने साथियों की ओर देखा और आगे कहा,आज एक आदमी किसी काम के सिलसिले में आया था। वह कानूनन सही था, मैंने काम करने से इंकार कर दिया। उसने कुछ लेने-देने की बात की, परंतु मैं अपने उसूलों पर अड़ा रहा।
शामलाल ने इस प्रसंग में जोड़ा,मैं ऐसी सीट पर हूँ जहाँ आसानी से रुपए ऐंठे जा सकते हैं, आप जानतए ही हैं। मेरे साथ तो हर रोज यही घटता है पर, मैं हराम की कमाई पर विश्वास नहीं करता।
प्रभुदयाल ने सीने पर हाथ रखते हुए कहा,आज तो मेरे साथ हद हो गई। काम करवाने के लिए एक आदमी मेरे घर पहुँचा और मिठाई के डिब्बे में रुपए डालकर मु्झे देने लगा। मेरी आत्मा मानी नहीं। मैंने उसे हाथ जोड़ते हुए डिब्बा स्वीकार करने से इंकार कर दिया।
एक आदमी, जो उनके पीछे-पीछे चल रहा था और ध्यान-से उनकी बातें सुन रहा था, बिल्कुल पास आकर उसने पूछा,जब हम सभी ईमानदार हैं, कोई भी भ्रष्ट नहीं है, तो भ्रष्टाचार क्यों है? क्या आपने किसी को अपने-आप को भ्रष्ट कहते सुना है? अगर हाँ, तो उसे पेश कर सकते है?
अचानक पूछे गये इस सवाल से हकबकाए हुए वे तीनों एक-दूसरे को टुकुर-टुकुर ताकने लगे।
॥पति॥
बु्री खबर थी।
पति ने बतायारज्जू-चाचा नहीं रहे।
पत्नी अलसायी-सी पड़ी रही। पति ने फिर दोहराया। पत्नी धीरे-धीरे उठी। बिखरे बालों को समेटा। जम्हाई ली। अपने गाउन को ठीक किया। आईने के सामने जाकर अपना चेहरा देखा। गुसलखाने गई। मुँह पर छींटे मारे। तौलिये से पौंछा। पानी धीरे-धीरे पिया, खाने की तरह। ब्रश लिया। पेस्ट लगाया। हौले-हौले, इत्मीनान से, ब्रश करती रही। पति कुर्ता-पाजामा पहने तैयार होकर आया और पत्नी को ब्रश करते देख किचन में घुसकर चाय बना लाया। पत्नी ने पति के हाथों बनायी चाय चुस्कियाँ ले पी और थोड़ी देर बाद फिर गुसलखाने में घुस गई। लौटकर आयी और आईने के सामने खड़ी हो साड़ी लपेटने लगी। पति ने घर के सभी दरवाज़े बंद किये और बाहर के दरवाज़े पर ताला टाँग घर से बाहर हो गया।
स्कूटर गली की सड़क पर खड़ा करके उसे स्टार्ट किया। फिर बंद कर दिया। फिर स्टार्ट किया और जोर-जोर से हॉर्न बजाई। फिर स्कूटर बंद कर दिया। मकान के अंदर जाकर देखापत्नी बालों को सँवार रही थी।
जल्दी करो। उसने कहा। कहकर वह फिर बाहर आ गया। स्कूटर स्टार्ट किया। फिर बंद कर दिया। फिर स्टार्ट किया। तेज-तेज हॉर्न बजाई। एक पड़ोसी ने झाँककर उसकी ओर देखा। जब पत्नी स्कूटर के पास आयी तो पति बोला—“वक्त की नजाकत को समझा करो।
पत्नी केवल मुस्कराई। उसकी मुस्कराहट से मर्माहत उसे ढोने की बेबसी लिए वह स्कूटर का गियर बदलने लगा।
पृथ्वीराज अरोड़ा: संक्षिप्त परिचय
जन्म: 10 अक्टूबर, 1939 को बुचेकी(ननकाना साहिब, पाकिस्तान में)
प्रकाशित कृतियाँ: तीन न तेरह(लघुकथा संग्रह), प्यासे पंछी(उपन्यास), पूजा(कहानी संग्रह), आओ इंसान बनाएँ(कहानी संग्रह)
सम्पर्क : द्वारा डॉ सीमा दुआ, 854-3, शहीद विक्रम मार्ग, सुभाष कॉलोनी, करनाल-132001 (हरियाणा)
मोबाइल नं:09255921912

Tuesday, 12 January 2010

कुमार नरेन्द्र की लघुकथाएँ

अपने सभी पाठकों को 2010 के आगमन पर हार्दिक शुभकामनाओं के साथ इस बार ‘जनगाथा’ में प्रस्तुत हैं—कुमार नरेन्द्र की लघुकथाएँ। कुमार नरेन्द्र वरिष्ठ हिन्दी लघुकथा लेखक हैं। इनकी लघुकथाएँ आम तौर पर निम्न मध्यवर्गीय संत्रास झेलते पात्रों की व्यथा को सधी हुई प्रतीकात्मकता के साथ व्यक्त करती हैं। —बलराम अग्रवाल

अमृतपर्व
अधेड़-से सुकेश के पिता अवस्था के पिचहत्तर वर्ष पूरा करने के समीप हैं। उनके मित्र भगवान से प्रार्थनाएँ कर रहे हैं कि वह शुभ दिन जल्द-से-जल्द आए और धूमधाम से अमृतपर्व का जश्न मनाएँ। इसके विपरीत सुकेश गत एक दशक से इसी प्रतीक्षा में है कि कब उसके पिता स्वर्ग सिधारें और सम्पत्ति का हस्तांतरण उसके नाम हो।
अभी, पिछले श्राद्धों में ही, उसके पिता गम्भीर रूप से बीमार हो गए थे। एक दिन तो गले की आवाज ही चली गई। होठों पर झाग तक आ गए। सुकेश के चेहरे पर प्रसन्नता की रेखाएँ उभर आईं। उसे लगा—पिता का अब निश्चित रूप से अंतिम समय आ गया है। …किन्तु संध्या-समय डॉक्टर ने बतलाया कि अब वे खतरे से बाहर हैं, चिन्ता की कोई बात नहीं। सुकेश की सारी आशाओं पर पानी फिर गया। जीवनभर सुकेश ने कोई खास कमाई नहीं की थी, बस दार्शनिक-सा बना घूमता रहा। यूँ वह बहुत ईमानदार है, संवेदनशील है। दूसरों को कर्म की महिमा का उपदेश देता रहा, किन्तु स्वयं कुछ न कर पाया। केवल पिता की दौलत पर नजर रही कि वे कब मरें और रुपये-पैसे का वह स्वेच्छापूर्वक उपभोग कर सके।
अब वह धीरे-धीरे अवसाद से भरता जा रहा है और विचित्र-सा व्यवहार करने लगा है। उसे यह भी मालूम है कि पिता की मृत्यु की प्रतीक्षा करते-करते वह स्वयं मृत्यु की ओर बढ़ रहा है और यह भी सोचता है कि यह आदर्श स्थिति नहीं होगी।
मस्तिष्क में इन्हीं सब विचारों के चलते मध्यरात्रि का समय हो चुका है लेकिन उसे नींद नहीं आ रही है। पत्नी भी करवटें बदल रही है, वह भी बेचैन है। बराबरवाले कमरे में पिताजी लेटे हुए हैं, बार-बार पलंग से कराहने की आती हुई आवाज से लग रहा है कि वे भी सोए नहीं हैं। प्रतीत होता है कि उन्हें सहारे की आवश्यकता है।–यही विचार करते हुए वह उठकर पिता के कमरे की ओर चल देता है और पायँते बैठते हुए धीरे-धीरे उनके पाँव दबाने लगता है। कोई दस मिनट के बाद सुकेश को लगा कि पिताजी सिसकियाँ भर रहे हैं। वह पूछता है—“पिताजी! क्या बात है, मुझे तो बताओ”
“इधर आ, मेरी छाती से लग जा…” वे बोले।
सुकेश उठा और जब समीप पहुँचा तो पिता ने उसे अपनी बाँहों में कस लिया। दोनों का रुदन जारी था। मन निर्मल हो गए।
प्रभात की बेला में एक और पिता ने जन्म ले लिया; सुकेश के मस्तिष्क में अमृतपर्व की तैयारियाँ आकार लेने लगी थीं।


सॉफ्टी कॉर्नर
आखिरी शनिवार की शाम को जब वह कार्यालय से थका-हारा बाहर निकला, तो अभी भी तेज गर्म हवाएँ चल रही थीं। कुछ-कुछ आँधी का-सा वातावरण बना हुआ था। बड़ा अजीब-सा मौसम हो गया था। प्यास के मारे बुरा हाल, किन्तु पानी भी कितना पिया जाय! सिगरेट की तलब हुई। ऊपर की जेब से बची अन्तिम सिगरेट निकालते हुए उसकी तर्जनी उँगली पसीने से भीगे हुए दो के नोट को छू गई। इच्छा हुई—लालबत्तीवाले चौक पर चलकर सॉफ्टी खायी जाय। फिर तभी, सुबह गुड्डी के कहे हुए शब्द उसके कानों में गूँज गये,“पापा-पापा! शाम को हमारे लिए पॉपिंस जरूर लेके आना।”
और उसके पाँव बस स्टैण्ड की ओर मुड़ गये। अभी वह कुछ ही कदम चला था कि किसी ने उसे पीछे से आकर टक्कर मारी और वह अभी सँभल भी न पाया था कि पीठ पर एक धौल जमा दी। अपने को संतुलित करते हुए जब उसने उस व्यक्ति को पहचाना,“अरे रघु तुम! कब आये बम्बई से?” वह आश्चर्य से बोल उठा।
“परसों आये थे हम।” रघु ने सिगरेट 555 की राख झाड़ते हुए कहा।
“अच्छा, आओ एक-एक कप चाय पीते हैं।” उसने शिष्टाचार निभाते हुए कहा।
“छोड़ो यार, चाय और इस गर्मी में!” रघु ने नाखुश होते हुए कहा,“चलो, सॉफ्टी खाते हैं, उसी कॉर्नर वाली दुकान पर।”
“माफ करना रघु, दाढ़ में ठण्डी चीजें बहुत लगती हैं सो मैं तो नहीं खा पाऊँगा; लेकिन तुम…जरूर…।”
“अच्छा भाई, जैसी तुम्हारी मर्जी। हम तो अतिथि हैं।”
और उनके कदम उस ओर बढ़ गये।
अब, ज्यों-ज्यों सॉफ्टी कॉर्नर नजदीक आता जा रहा था, उसे लग रहा था कि उसकी दाढ़ का दर्द निरन्तर बढ़ता जा रहा है!


बिरादरी का दु:ख
मुद्दत से चल रहे अपने किराएदार बंसीराम पर दायर मुकदमा जीतने के बाद आज पंडित ज्योति प्रसाद निरे खुश थे।
सुबह से ही बधाई देने वालों का ताँता लगा हुआ था और पंडितजी हाथ जोड़े सबका स्वागत कर रहे थे। साथ ही साथ सभी को इस बार दीपावली पर अपने यहाँ आमंत्रित भी कर रहे थे।
दोपहर हुई। आसपास के सभी बुढ़ऊ यार-दोस्त खुशी-खुशी अपने-अपने घर लौट गए और पंडितजी अपने दूर के दोस्तों को पत्र लिखने बैठ गए।
…कुछ दिनों बाद उनके दोस्तों के जवाब आने शुरू हुए। एक विधुर दोस्त, जोकि हर वर्ष उनके यहाँ ही दीपावली-पर्व मनाता रहा है, ने लिखा—
प्रिय पंडितजी,
…अस्वस्थ होने के कारण सम्भवत:मैं इस बार तुम्हारे यहाँ दीपावली पर न आ पाऊँगा…।
तुम्हारा
रामसहाय
पंडितजी का यह दोस्त परदेश में किराएदार था।

अवमूल्यन

“ए भैया, पंजी की ये देना।” पाँच वर्षीय बालक ने गजक की ओर इशारा करते हुए जरा ऊँची आवाज़ में कहा।
दुकानदार का ध्यान एकदम बालक की ओर आकर्षित हुआ।
“पंजी की गजक नहीं मिलती।” दुकानदार ने खीजते हुए कहा।
“क्यों?” बालसुलभ बुद्धि ने प्रश्न किया।
“ज्यादा जुबान चलाता है बे…हैं…!” लाला ने भड़कते हुए कहा।
मासूम बालक बिना कुछ कहे धीर-धीरे घर की ओर चल दिया। रास्ते में उसने पाँच के उस सिक्के को कई बार उलट-पलटकर देखा। एक ओर छपा था—भारत; और दूसरी ओर—रुपए का बीसवाँ भाग!
अब, वह जब तंग गली में घुसा तो दायीं नाली भी अपना रंग दिखा रही थी। बालक ने तुरन्त निर्णय ले—पंजी जोर-से नाली में फेंक दी। बालक काफी देर तक खड़ा उस डूबती हुई पंजी को देखता, सुख का अनुभव करता रहा।


बैकुंठ लाभ
स्नानादि से निबटकर मैं नाश्ते के लिए रसोईघर में पटरे पर जा बैठा। अभी चाय का पहला ही घूँट भरा था कि मौसी ने आकर समाचार दिया—पड़ोसी पंडितजी को बैकुंठ-लाभ हो गया।
“कब?” अम्मा ने चौंककर प्रश्न किया।
“अभी, कुछ देर पहले।”
“ओह!”
अम्मा मौसी से अफसोस प्रकट करने लगी थीं। इस बीच तवे पर रोटी के जलने से उठी दुर्गंध रसोई में फैलने लगी। मैंने नाक-भौं सिकोड़ी।
“शोभा-यात्रा में कौन जाएगा?” मैंने अम्मा से पूछा।
“तुम ही हो आना।”
“मैं?…पिताजी हो आएँगे।” मैंने टाल देने का प्रयास किया।
“उनकी आधी दिहाड़ी टूट जायगी बेटे!” अम्मा पूर्ववत् रोटी बेल रही थीं।
“मुझे रोजगार-दफ्तर जाना है अम्मा।”
“हुँऽऽऽ…” अम्मा ने हुंकारी भरी और चकले पर से रोटी को उठाकर तवे पर झटके-से पटक दी और उनके होठों से अस्फुट-से स्वर निकलने लगे—“इस पंडित को आज ही मरना था, कल क्यों नहीं मर गया…!”
“ऐसा क्यों?” मैंने चौंकते हुए पूछा।
“रविवार जो था।” अम्मा हौले-से बोली।
तवे पर पड़ी रोटी जलने लगी थी, तभी मैं कराह उठा। बायीं ओर का मसूढ़ा दाढ़ों के मध्य बुरी तरह-से कुचल गया था।

डण्डा
“जीतेगा भई जीतेगा—तीरवाला जीतेगा…”
“जीतेगा भई जीतेगा—हाथवाला जीतेगा…”
“जीतेगा भई जीतेगा—सीढ़ीवाला जीतेगा…”
“जीतेगा भई जीतेगा—कमलवाला जीतेगा…”
देशभर में लोकतंत्रीय चुनावों का प्रचार जोरों पर है। थैलियाँ खुली हुई हैं। अवसरवादी प्रचारकों की पौ-बारह है। चारों ओर उत्सव और आनन्द का वातावरण छाया हुआ है; परन्तु जनता-जनार्दन हर प्रकार की मार से त्रस्त है।
सन्ध्या-समय बच्चों की एक टोली नारे लगाती हुई गली में से गुजरती है…
“जीतेगा भई जीतेगा—डण्डेवाला जीतेगा…”
“जीतेगा भई जीतेगा—डण्डेवाला जीतेगा…”
टोली जोश-ओ-खरोश के साथ आगे बढ़ रही है…
“लोकतंत्र में कौन बली?”
“डण्डा…भाइयो! केवल डण्डा…”
“हमारा चुनाव-निशान क्या है?”
“डण्डा…” सम्मिलित-स्वर का उद्घोष होता है।


वरदी और वरदी
…घने बीहड़ों में एक नामी डाकू और उसके गिरोह का पीछा करते हुए पुलिस-दल के तीन व्यक्ति उनकी गोलियों का शिकार हो गये। उनमें एक था इंस्पेक्टर, दूसरा सब-इंस्पेक्टर और तीसरा सिपाही। राज्य-सरकार ने इन तीनों को मरणोपरांत पुरस्कार देने की महती घोषणा की। समाचारपत्रों ने इस सरकारी घोषणा को खूब उछाला। पुलिस-दल की भूरि-भूरि प्रशंसा की।
…अंतत: गणतंत्र-दिवस पर इंस्पेक्टर को 50,000 रुपये, सब-इंस्पेक्टर को 25,000 रुपये और सिपाही को 10,000 रुपये एक भव्य समारोह में उनकी विधवाओं को मुख्यमंत्री महोदय ने प्रदान किये। …समारोह सुख-शांतिपूर्वक सम्पन्न हुआ। मुख्यमंत्री जिस हेलीकॉप्टर से आये थे, पुन: उसी में जाकर घुस गये।
…अगले दिन वित्त-विभाग को हेलीकॉप्टर के भाड़े का मात्र 93,050 रुपये का बिल पास होने के लिए भेजा गया। …इसके अतिरिक्त और भी कई बिल थे जोकि स्थानीय नेताओं और अधिकारियों ने अपने-अपने ‘प्रभाव’ द्वारा व्यापारीवर्ग से लगभग पूरे करवा दिये थे।
पाठको! उपर्युक्त जैसे समारोह तो होते रहते हैं…बिल बनते रहते हैं…बिल पास होते रहते हैं। मूल राशि से अधिक अनाप-शनाप खर्चे होते रहते हैं, परन्तु अहम सवाल यह है कि एक ही अभियान में तीन व्यक्ति शहीद हुए। तीनों के बाल-बच्चे एक-जैसे, समस्याएँ एक जैसी, जान एक जैसी…फिर पुरस्कार की राशियों में अन्तर क्यों?
नि:सन्देह, उनकी वरदियों का कपड़ा एक-जैसा न था।


कुमार नरेन्द्र, संक्षिप्त परिचय:
जन्मतिथि—25 सितम्बर, 1954 को दिल्ली में
शिक्षा—(क) स्नातक, विशेष विषय इतिहास के साथ
(ख) तिब्बती भाषा और साहित्य उपाधिपत्र
(ग) विशारद उपाधिपत्र
लेखन—कहानी, लघुकथा, लेख आदि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित एवं संकलनों में सम्मिलित
सम्पादित कार्य—(क) एक कदम और(कहानी संकलन, 1976)
(ख) बोलते हाशिए(लघुकथा संकलन, 1981)
(ग) साँझा हाशिया(लघुकथा संकलन, 1991)
(घ) कफ़न(प्रेमचंद की कहानी का प्रौढ़-शिक्षा के लिए नेशनल बुक ट्रस्ट हेतु रूपांतरण, 2005)
सम्प्रति—पारुल प्रकाशन का संचालन
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