Wednesday 22 May, 2024

पाठक के लिए प्रेरणास्रोत दो आलोचना पुस्तकें / डॉ. सुरेश वशिष्ठ

डॉ. सुरेश वशिष्ठ वरिष्ठ साहित्यकार हैं। कहानी, लघु-कहानी, लघुकथा, नाटक, नुक्कड़ नाटक, एकांकी, आलोचना आदि साहित्य की अनेक विधाओं में लेखन किया है। उनसे आज यह समीक्षात्मक आलेख मिला है जिसे उनकी अनुमति के बिना मैं ‘जनगाथा’ और लघुकथा-साहित्य के पाठकों के समक्ष रख रहा हूँ।

पिछले दिनों लघुकथा विमर्श पर दो पुस्तकें प्राप्त हुई। एक पुस्तक नेतराम भारती द्वारा संपादित--'लघुकथा चिंतन और चुनौतियाँ' है। इस पुस्तक में 25 लघुकथा लेखको से विचार विमर्श किया गया है। लेखक लघुकथा को लेकर क्या सोचते हैं, इस पर साक्षात्कार के रूप में चर्चा हुई है। 
दूसरी पुस्तक 'उत्कृष्ट लघुकथा विमर्श' दीपक गिरकर द्वारा संपादित है। इसके खंड-एक में 26 लघुकथा लेखको से आलेख प्रस्तुत हुए हैं। दोनों पुस्तकों में जिन रचनाकारों के विचार साझा हुए, करीबन वही लोग दोनों तरफ हैं। खंड-दो में कुछ अच्छी लघुकथाएँ हैं। दोनों पुस्तकें लघुकथा के इतिहास, मानक अथवा उसकी स्थिति को लेकर महत्वपूर्ण पुस्तकें हैं। दोनों पुस्तकों में करीब-करीब उन्हीं लोगों के विचार साझा हुए हैं। आलेख के माध्यम से या साक्षात्कार के रूप में, लघुकथा के मापदंड प्रस्तुत हुए हैं। अच्छा होता यदि यहाँ विद्वान समीक्षक भी अपने विचार साझा करते। लघुकथा लेखक से अलग लोग, इस विधा पर मापदंड तय करें तो बेहतर है। 

खैर ! सर्वप्रथम 'लघुकथा क्या है?' इस पर दृष्टि डालते हैं। नेतराम भारती द्वारा संपादित पुस्तक में, डॉ. अशोक भाटिया का कहना है--"कथा परिवार की सबसे छोटी इकाई लघुकथा है। सबसे बड़ी इकाई उपन्यास, फिर कहानी और फिर लघुकथा और यह विशुद्ध भारतीय परंपरा की देन है। इस विद्या ने परंपरा से आकार लिया है और समय के दबाव से समकालीन यथार्थ को अभिव्यक्त करने की प्रेरणा पाई है।" डॉ. अशोक भाटिया ने कालदोष पर भी अपने विचार रखे हैं। उन्होंने इसे हवाई बीमारी कहा है और कालदोष को सिरे से नकारा है। स्पष्ट किया है कि किसी भी विधा की रचना को समय सीमा में नहीं बाँधा जा सकता। कालखंड पर उमेश महदोषी भी यह मानते हैं कि अब इस मुद्दे को समाप्त मान लेना चाहिए क्योंकि विभिन्न कालखंडों को समाहित कर अनेक लघुकथाएँ लिखी जा चुकी हैं। उनकी नजर में--'जीवन से जुड़ी समस्याओं, विसंगतियों और अनुभूतियों पर केन्द्रित आलोचनात्मक और संवेदनात्मक प्रकृति की तीव्र वैचारिक एवं भावनात्मक संवेग वाली कथात्मक रचनाएँ लघुकथा की श्रेणी में आती हैं।'

      अंतरा करवड़े की नजर में प्रत्येक लेखक की अपनी क्षमता अनुसार सामने आने वाली एक बार की सोच, घटना के प्रति उसकी दृष्टि, उसी कालावधि में सामने आते संदर्भ और इन सभी के ताने-बाने लेकर बुनी गई एक रचना लघुकथा है। डॉ. कमल चोपड़ा का मानना है--'लघुकथा अपने आप में एक संपूर्ण कला है। सृजनात्मक कथा साहित्य में लघुकथा एक ऐसा कथा प्रकार है, जिसमें धनीभूत अनुभूतियों की प्रकृति और अभिव्यक्ति सार्थक रूप से पूर्णतया संभव है। दूसरे शब्दों में कहें तो लघुकथा जीवन के यथार्थ खंड, प्रश्न, विचार या अनुभूति को गहराई और गहनता के साथ व्यंजित करने वाली कथा-विधा है। कांत राय लघुकथा को बंद कली के सदृश मानती हैं। बंद कली से उनका आशय कथ्य के संप्रेषण के लिए प्रयोग की गई सांकेतिक भाषा से है। जिस प्रकार बंद कली में पंखुड़ियाँ एक दूसरे में लिपटी और गुँथी हुई रहती है, उसी तरह से लघुकथा में भी अंतर्द्वंद्वों के माध्यम से कथ्य गुंथा हुआ होना चाहिए। डॉ कुमारसंभव जोशी लघुकथा की सर्वमान्य एवं संपूर्ण परिभाषा देने में स्वयं को सामर्थ्यवान नहीं मानते लेकिन संक्षेप में अपनी बात रखते हैं--'सामाजिक विसंगति को तिक्ष्णता से उठाते हुए कथातत्व की अनिवार्यता के साथ, अत्यल्प व आवश्यक शब्दों में कही गई, सुउद्देश्य एवं सुस्पष्ट सम्प्रेषित रचना लघुकथा कही जा सकती है। डॉ. खेमकरण सोमन का कहना है--'लघुकथा ओस की बूँदों के समान है। लघुकथा फूलों की तरह है। लघुकथा तारों के समान है। लघुकथा नदी या कहूँ कि समुद्र की तरह है, जो अपने भीतर बहुत कुछ समाए बैठी है। लघुकथा मनुष्य की आँखों की तरह है जिसे मनुष्य ने कभी छोटा नहीं कहा। परन्तु इन आँखों ने क्या-क्या सच नहीं दिया। कहने का आशय यह कि सारा खेल छोटे होने का नहीं, क्षमताओं का है। जैसे बूँद, फूल, तारे, नदी, समुद्र और आँखें। ये शब्द छोटे अवश्य हैं परन्तु इनके कार्य बहुत बड़े हैं।'

     डॉ. चन्द्रेश कुमार छतलानी न्यूनतम शब्दों में रचित एकांगी गुण की कथात्मक विधा को लघुकथा मानते हैं। पुरुषोत्तम दूबे का कहना है--'जीवन में घटने वाली आशा के विपरीत अथवा समस्यामूलक कोई घटना हमको घेर ले तो कारगर संप्रेषण से ऐसे विषम चक्रव्यूह को तोड़कर विसंगतियों रहित, मूल्य आधारित सलभ मार्ग का आश्रय सहज उपलब्ध कराने वाली विधा लघुकथा है।'प्रबोध कुमार गोविल कहते हैं--'हर कथ्यात्मक कल्पना में कोई न कोई बिन्दु ऐसा अवश्य होता है, जिसके चारों ओर कहने योग्य बात घूमती है। यह केन्द्रीय बिन्दु किसी तथ्य, भाव अथवा स्थिति के रूप में हो सकता है। इस बिन्दु पर आधारित संक्षिप्त रूप में विकसित गद्य रचना ही लघुकथा है।' डॉ. बलराम अग्रवाल सुरुचि सम्पन्न लघु-आकारीय कथा को ही लघुकथा मानते हैं। सुरुचि सम्पन्नता का सम्बंध वे मूल्यों से मानते हैं। उनकी नजर में लघुकथा सघन अनुभूति की सुगठित प्रस्तुति है। कुछ लोगों का यह भी कहना है कि लघुकथा उस चिप की तरह है जिसमें पूरी दुनिया और सारे विषय समाए हुए हैं। उस विद्युत उपकरण अथवा स्विच की तरह है, इसके ऑन होते ही वातावरण रोशनी से नहा देता है। कालखंड के विषय में चंद्रेश कुमार छतलानी का कहना है कि एकांगी होना लघुकथा का स्वभाव है। यदि लघुकथा एकांगी नहीं हो पा रही है, तो वह कहानी में तब्दील हो सकती है। और यदि लेखक इस तब्दीली में कोई घटना कर्म से नहीं ले पा रहा है तो वह रचना एक से अधिक कालखंड में विभक्त होकर छोटी कहानी की तरफ मुड़ सकती है और इसमें कोई दोष भी नहीं है।

       भगीरथ परिहार किसी एक दृश्य या घटना को, एक कथानक या मानसिक द्वंद्व और एक सार्थक वार्तालाप या एक अनुभव की कम से कम शब्दों में कथात्मक अभिव्यक्ति को लघुकथा मानते हैं। 

      संतोष सुपेकर लघुकथा को लेकर अपना दृष्टिकोण स्पस्ट करते हैं--"लघुकथा क्षण विशेष की स्वाभाविक अभिव्यक्ति है। इसकी संक्षिप्तता का अन्य अर्थ न लगाया जाए। जैसा कि रमेश बतरा जी ने कहा है कि 'लघुकथा में शब्द सीमित होते हैं लेकिन चिंतन नहीं।' विसंगति और विडंबना इसके केंद्र में रही हैं। सुप्त समाज के लिए इंजेक्शन की सुईं है लघुकथा, जिसकी थोड़ी सी दवा विशाल स्तर पर जागृति फैला सकती है। या यूँ कह लीजिए कि बाहर बिखरा पड़ा ढेर सारा सामान, एक छोटे कमरे में आपको इस तरह सजाना है कि कोई सामान बाहर भी न रहे और कमरा भी व्यवस्थित लगे। इस सजाने की प्रक्रिया में लगने वाला श्रम भी लघुकथा सृजन है। यहाँ सामान से आशय विचारों की भीड़ से है और कमरे से आशय लघुकथा की फ्रेम से है। लघुता, कसावट, सांकेतिकता, संप्रेषणीयता और पैनापन लघुकथा की मुख्य विशेषताएँ हैं।"

     'उत्कृष्ट लघुकथा विमर्श' में बलराम अग्रवाल ने लघुकथा के पैमाने की स्पष्टता के लिए कुछेक बिंदु तय किए हैं। कथा-धैर्य, बिंब, प्रतीक और सांकेतिक योजना, उसका विगत, नेपथ्य और लाघव से उसे संवारने की कवायद, यथार्थ घटना और कथा घटना की अहमियत, कल्पित उड़ान, भाषा-परिवेश और शिल्प एवं शब्द प्रयोग, दृश्य योजना और परस्पर संवाद, लेखकविहीनता, संपूर्णता और शीर्षक इत्यादि बिंदुओं द्वारा उसके स्वरूप को निर्धारित किया है। बलराम अग्रवाल ने बहुत अच्छे से लघुकथा की बारीकियों को समझने और आपको उसे समझाने का प्रयास किया है। लघुकथा को लेकर दीपक गिरकर भी अपनी राय देते हैं—'लघुकथा मानव जीवन की सूक्ष्म एवं तीक्ष्ण अभिव्यक्ति है। लघुकथा कथ्य प्रधान विधा है। लघुकथा में पात्रों की संख्या एक दो तक ही सीमित होती है। लघुकथा के कथानक में घटनाओं के विस्तार का अभाव होता है। लघुकथा के अंत में विस्मयकारी मोड़ लघुकथा को एक नया आयाम प्रदान करता है। जो मानस पटल पर अमित छाप छोड़ जाए, वहीं उत्कृष्ट लघुकथा है।' उन्होंने अपने इस आलेख में भगीरथ के विचार भी सांझा किए हैं। भगीरथ कहते हैं—'लघुकथा अक्सर द्वंद्व से आरंभ होकर तेजगति से चरम की ओर चलती है, तथा चरमोत्कर्ष पर अप्रत्याशित ही समाप्त हो जाती है। लघुकथा का अंत अक्सर चौंकाने वाला तथा हतप्रभ करने वाला होता है। इस तरह का अंत पाठक की जड़ता को तोड़ता है।' दीपक गिरकर जी का कहना है कि लेखक आस-पास जब भी कुछ असाधारण देखता है और अनुभूत करता है, तब उसका अंतर्मन व्यथित होने लगता है और अभिव्यक्ति के लिए छटपटाने लगता है। अंतः लघुकथा क्षणिक घटनाक्रम को आधार बनाकर बुनी जाती है। लघुकथा लिखने से पहले लेखक के समक्ष युगबोध की स्पष्टता, अनुभवों का विस्तार और गहन अनुभूतियों की समझ होनी आवश्यक है। लघुकथा की सृजन प्रक्रिया दीर्घकालिक है, इसीलिए यह देर तक और दूर तक जीवित रहती है। लघुकथा में कथ्य के अनुरूप संप्रेषणीयता, भाषा शैली में सांकेतिकता व संक्षिप्तता का गुण होना आवश्यक है। संवाद चुस्त सटीक एवं संक्षिप्त होने चाहिए। लघुकथा की भाषा जनभाषा होनी चाहिए। लघुकथा की भाषा जीवन्त, प्रवाहमयी, सांकेतिक एवं व्यंजनात्मक होनी चाहिए। लघुकथा का जन्म संवेदनाओं की पृष्ठभूमि पर ही होता है।

       विद्वान मित्रों की राय जान लेने के बाद लघुकथा को लेकर मेरी जो सोच विकसित हुई, वह सामने रख रहा हूँ। मेरी नजर में लघुकथा यथार्थ परिवेश में घटित घटनाओं या समस्याओं से सवेंदित और आहत हृदय का उद्वेग है। यह उद्वेग राजनैतिक, शोषित, सामाजिक और अभाव में घिरे इंसान का रुदन है। आपसी संबंधों का खुलासा है। यह रुदन जब फूटता है, तब रचनाकार की बुनावट में बुन लिया जाता है। सूझ-बूझ से बुना गया तो रचना अच्छी बुनी जाएगी और पाठक पर प्रभाव छोड़ पाएगी। उसे नींद से उठने के लिए बाध्य करेगी। चुनौतीपूर्ण उस यथार्थ के प्रति पाठक को सोचने पर विवश करेगी।'

      दूसरे विश्वयुद्ध के बाद संपूर्ण विश्व में जो परिस्थितियाँ बनी और जो परिणाम सामने आकर खड़े हुए, उनसे आहत या मौत को प्राप्त हुआ आदमी अपनी दास्तान कहने को उठ खड़ा हुआ। दुनिया को सच दिखाने के लिए उसकी वह दास्तान ही कथा बनने लगी। वहीं से लघुकथा का भी जन्म हुआ। भारत में इमरजेंसी से कुछ पहले गरीबी और परिस्थितियों से घिरे चरित्र, पात्र रूप में उपस्थित होने लगे। साहित्य की सभी विधाओं में ऐसे चरित्र दिखलाई पड़ने लगे। लेखन से गोरिल्ला युद्ध लड़ा जाने लगा। उन्हीं दिनों, नुक्कड़ नाटक का भी आगमन हुआ। छोटे क्लेवर में कहानियाँ भी लिखी जाने लगी। लघुकथा उसी समय की देन है। ये दोनों विधाएँ गोरिल्ला की तरह अटैक करती हैं और दर्शक या पाठक की बुद्धि को प्रभावित करती हैं। उसे सोचने पर विवश करने लगती हैं।

     पुरातन काल से चली आ रही कथा सुनने-सुनाने की हमारी प्रवृति धरोहर थी। कथा के माध्यम से यहाँ ऋषि-मुनि मूल्य परोसते थे। अनैतिक का हश्र दिखाते और पाठक या श्रोता के मन को फेरने के लिए प्रयास करते थे। आज के इस दौर में यह सब साहित्य को करना चाहिए। लघुकथा और नुक्कड़ नाटक उसी प्रयास का एक हिस्सा हैं। यह लेखन सामान्य परिस्थितियों में सम्भव ही नहीं। बिना गाम्भीर्य इसे बुनावट नहीं दी जा सकती। यह अंतस के रेशों से बुना जाता है। लेखन के लिए प्रतिभा सम्पन्न हृदय के महत्व को स्वीकार किया जाना चाहिए।

     इसमें भी अलग कोई राय नहीं कि लघुकथा, कहानी का ही एक छोटा कथारूप है। कथा, कहानी लिखना कोई कला नहीं है। वह तो स्वतः अंतस से उपजती है। किन्हीं बेचैन पलों में भीतर से उसका सृजन होता है। शब्दों में आबद्ध होने के बाद उसे भावतत्व से सवार देना कला हो सकती है। कथा, कहानी लिखते समय मानो अवचेतन में सुगबुगाहट हुई, रंध्र फड़के और हाथों में पकड़ी कलम चल पड़ी। मीठा कोई दर्द कहानी के गलियारे में पैदा होने लगता है। आँखें यथार्थ में जिसे देखती रही, समझती और हृदयगम करती रही, उस तकलीफ को बुनती रही, वही तो बाहर आता है। उच्छवास के साथ, वही सब फूटने भी लगता है। फिर हम उसे शब्दकार की तरह सँवारने लगते हैं। उसके अंतिम वाक्य को चौकाने वाला, झकझोरने वाला और पूरी कथा के द्वंद्व को खोल देने वाला मोड़ देकर छोड़ देते हैं। अगला काम पाठक का है। 

      दीपक गिरकर ने खंड-दो में चुनिंदा जिन लघुकथाओं को लिया है, उन्हें पढ़ने से लघुकथा का प्रारूप समझ में आने लगता है। दोनों पुस्तकों में अनेक प्रश्न और जवाब हैं जो निस्संदेह पाठक के लिए प्रेरणास्रोत रहेंगे। नेतराम भारती और दीपक गिरकर जी का यह कार्य प्रशंसा के योग्य है।                                                            -डॉ. सुरेश वशिष्ठ   मो. 9654404416  दिनांकः 23. 5. 24   

2 comments:

Anonymous said...

आभार बलराम जी

Anonymous said...

आभार