Thursday, 6 October 2022

पुस्तक समीक्षा--छोटे-छोटे सायबान / कल्पना भट्ट

पुस्तक का नाम : छोटे-छोटे सायबान 

कथाकार : पुरुषोत्तम दुबे 

प्रस्तोता : जन लघुकथा साहित्य 

प्रथम संस्करण : जनवरी २०२१

मूल्य : ४० ₹

हिन्दी-लघुकथा जगत् में पुरुषोत्तम दुबे एक चीर-परिचित हस्ताक्षर हैं| आप उच्चशिक्षा विभाग मध्यप्रदेश शाशन से सेवानिवृत प्राध्यापक रहे हैं| आप हिन्दी-साहित्य में भी रुचि रखते हैं| आपके निबंध, लम्बी-कविता, ग़ज़ल की पुस्तकें प्रकाशित हुई हैं| इन विधाओं के अतिरिक्त आपकी विशेष रुचि ‘हिन्दी-लघुकथा’ में रही है | आपने लघुकथा केन्द्रित अनेक आलोचनात्मक एवं समीक्षात्मक लेख लिखे हैं जो विविध पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हुए हैं| 


                    डॉ. पुरुषोत्तम दुबे


डॉ. पुरुषोत्तम दुबे ने गत वर्ष अपना लघुकथा संग्रह ‘छोटे-छोटे सायबान’ भेजा था जिसको मैं अपने निजी कारणों से पढ़ नहीं पायी, परन्तु हाल ही में मेरे मुंबई प्रवास के दौरान इस बेहतरीन संग्रह को पढ़ना संभव हो सका| आपकी लघुकथाओं को पढ़कर जितना समझ पायी हूँ उसको यहाँ प्रषित करने का विनम्र प्रयास कर रही हूँ, इसमें कितना सफल हुई हूँ यह आप सुधि-पाठक तय करें| 

आपने अपने इस संग्रह में विभिन्न विषयों पर जैसे कि पारिवारिक, मनोवैज्ञानिक, दर्शनशास्त्र, सामाजिक जैसे कि दहेज़ विरोधी, सांप्रदायिक, धर्म(भ्रष्टाचार, आडम्बर), मित्रों की दोस्ती इत्यादि पर अपनी कुशल लेखन शैली का परिचय दिया है| 

इस संग्रह के शुरुवात में ‘संश्राव्य यानी सुनाने योग्य’ में आपने जो लिखा है उसपर पाठकों का ध्यान आकर्षित करवाना चाहती हूँ| आप लिखते हैं, ‘अनुभूति से बड़ा यार कोई नहीं| विचारों को अभिव्यक्ति के पैरों से गति देना, सर्जक का यही मौलिक और अनिवार्य धर्म है| लेखक की भूख का कोई अंत नहीं | एक रचना कह देने के बाद वह दूसरे ही दम नई रचना कह देने के लिए तैयार मिलता है,सृजन की भूख ही सृजनकार की सृजनात्मक शक्ति होती है|’

आप आगे कहते हैं, “मैं सृजन के गमले में लघुकथा को उगाना नहीं चाहता, न ही लघुकथा को आसमान पर उलटा लटकाना चाहता हूँ| तथापि चाहता हूँ, बिजली के करंट की तरह मेरी लघुकथाएँ पाठक के मन में सिहरन पैदा कर दें|” आपके कथन को हर उस लेखक को जो लघुकथा लिखना चाहता है को ध्यान में रखना चाहिए| 

इस लघुकथा संग्रह में कुल ४४ लघुकथाएँ प्रकाशित हुई हैं| जिसमें पारिवारिक लघुकथाएँ, मनोवैज्ञानिक लघुकथाएँ, राजनीति पर आधारित लघुकथाएँ, मानवेत्तर इत्यादि| अब अगर शिल्प की दृष्टि से देखा जाए तो इस संग्रह में कुछ प्रयोगात्मक एवं फंतासी में भी लघुकथाएँ भी प्रकाशित हुई हैं जिस कारण यह संग्रह कुछ विशेष बन पडा है| 

सबसे प्रथम मैं प्रयोगात्मक लघुकथाओं पर प्रकाश डालना चाहूँगी | ‘लड़की पसंद है’ इसमें कथानक को पाँच दृश्यों में बाँटा गया है | प्रथम दृश्य में तबले पर थाप पड़ रही है और कोने में पड़ी सारंगी रो रही थी| इस तरह का चित्र प्रस्तुत किया गया है| दूसरे दृश्य में कथानायिका की माँ और पिता के परस्पर संवाद है| जिसमें माँ कहती हैं, “तरंगीता के पापा! तुमने घर को संगीतशाला बना दिया है!” और यह शिकायत भी करते हुए नज़र आती हैं, “और कुछ नहीं तो बेटी को संगीत की शिक्षा में डाल दिया!!” 

जिसपर उनका पति प्रणव अपनी बेटी का पक्ष लेते हुए कहते हैं, “तुम भी शामली! लड़कियों को घर के काम-काज के अलावा दूसरे हुनर भी आने चाहिए|” इस संवाद में पिता की अपनी बेटी को आत्मनिर्भर बनाने का संकल्प भी छिपा हुआ दिखाई देता है जो पुरुषप्रधान समाज जो बेटों को महत्त्व देते हैं के लिए एक सन्देश देता प्रतीत होता है कि बेटियाँ भी बेटों से कम नहीं और समय आने पर बेटियाँ अपने घरेलु दायित्वों को निभाते हुए दूसरे कार्यों पर भी अपने को साबित करने में नहीं चुकती हैं| 

तृतीय दृश्य में तरंगीता को देखने शैलेश, उसकी माँ और उसके पिता आये हुए हैं| और तरंगीता चाय-नाश्ते से सजी ट्रे के साथ ड्राइंग-रूम में आती है| यहाँ उस परिवार के संस्कारों को दर्शा रहा है जो सहज है| 

चौथे दृश्य में तरंगीता की रुचि को जानकार लड़के की माँ जोर देकर कहती हैं “लड़के को गाना-बजाना कतई पसंद नहीं! वह घर को संगीत का घराना बनाना नही चाहता है| घर को मंदिर ही बनाये रखना चाहता है|”  

यहाँ एक ऐसे परिवार का चित्रांकन है जिसमें संगीत को अच्छा नहीं मानते, जो समाज में अक्सर दिखाई देता है | 

इसके जवाब में तरंगीता कहती है , “मंदिर भी आरती और भजन बिना संज्ञाहीन है|” इस संवाद से कथानायिका की समझदारी दिखाई देती है जिसमें उसको घर के अच्छे संस्कारों के साथ-साथ घर में सामंजस्य बनाने के गुण भी हैं ऐसा दृष्टिगोचर होता है साथ ही वह एक सशक्त स्त्री है जो अपना और अपने घर का अच्छा-बुरा भली-भाँति जानती और समझती है और वक़्त आने पर विरोध भी  दर्ज करवाने की क्षमता रखती है | यह नारी-सशक्तिकरण का बेहतरीन उदहारण प्रस्तुत किया गया है जो सराहनीय है| 

पाँचवे दृश्य में तबले बैण्ड-बाजे बन चुके थे और सारंगी शहनाई | इस वाक्य से समापन किया गया है| यह प्रतीकात्मक बन पडा है जो यह दर्शा रहा है कि तरंगीता का रिश्ता तय हो जाता है और उसका विवाह हो रहा है| 

इस अन्तिम वाक्य में एक सन्देश यह भी छिपा हुआ प्रतीत होता है कि अगर मन में दृढ़ निश्चय कर लिया जाए और अपने हुनर के लिए प्रेम और समर्पण की भावना हो तो व्यक्ति अपने लक्ष्य को पा सकता है जिस हेतु उसका प्रयास आवश्यक होता है| 

इसकी शिल्प की वजह से यह लघुकथा श्रेष्ठता को छू रही है | इसी तरह एक और लघुकथा को देखा जा सकता है | ‘अनमोल गीत’, ‘प्रार्थना’ हैं जो कथन के रूप में प्रस्तुत किया गया है जो राष्ट्र-प्रेम को दर्शा रही हैं| इसी तरह की शिल्प में आपकी एक और लघुकथा है जिसका शीर्षक ‘घ्राण शक्ति’ है| यह एक मानवेत्तर लघुकथा के साथ-साथ व्यंग्य भी किया है और ऐसे व्यक्तिओं पर कटाक्ष किया है जो व्यक्ति-से-व्यक्ति बदलने पर अपने आचरण और व्यवहार को बदल लेते है बिलकुल इस कहावत के अनुसार कि गंगा गए गंगा दास और जमुना गए जमुनादास| ये तीनों ही लघुकथाएँ सुंदर बन पड़ी है | 

‘समान्तर साक्षात्कार’ शीर्षक से एक लघुकथा इस संग्रह की एक और उत्कृष्ट रचना है जो साक्षात्कार शिल्प में लिखी गयी है| जिसमें दो साक्षात्कार प्रस्तुत किये गए हैं पहला साक्षात्कार साहित्यकार से और दूसरा एक ड्राईवर से | दोनों को एक-से प्रश्न पूछे गए हैं ‘आपकी दिनचर्या क्या है?” और द्वितीय प्रश्न साहित्यकार से यह पूछा है कि आप लिखते हैं” दिनचर्या बताने के उपरान्त साहित्यकार का उत्तर है ‘कल’ और ड्राईवर से जब पूछा जाता है, ‘आप सोते कब हो?” तब उसका भी उत्तर भी कल होता है| पर दोनों के कल में अंतर कितना है यह इस लघुकथा की जान है | साहित्यकार के लिए कल आलास का प्रतीक है जब की एक मेहनतकश इंसान के लिए ‘आराम हराम है’ जैसा होता है| इसी उद्देश्य को दर्शाती यह लघुकथा श्रेष्ठ बन पड़ी है जिसके लिए लेखक बधाई के पात्र हैं| 

पारिवारिक परिवेश पर आधारित लघुकथाओं के शीर्षक इस प्रकार हैं, ‘फैसला होने  तक’ जिसमें संयुक्त परिवार की महत्ता को दर्शाया गया है एवं परिवार में सामंजस्य बनाने की जिम्मेदारी तीसरी पीढ़ी की भी और वह इसको जब निभाते नज़र आते हैं तब भारतीय संस्कृति ‘वासुदेव कुटुम्बकम्’ की झलक दिखाई देती प्रतीत होती है जो इस लघुकथा का उद्देश्य भी है और सन्देश भी| 

‘युक्ति’ लघुकथा में कथानायक अमीरचंद का पुश्तेनी तीन मंजिला मकान जो  पिलगोंडा बाज़ार के बीचो-बीच स्थित है वह जर्जर हो चुका है और नगरनिगम की  खतरनाक भवनों की सूची में प्रमुखता के आधार पर नामंकित्त है| उसको लिए नगरनिगम ने समय सीमा बाँधते हुए यह आदेश दिया है कि या तो समय सीमा के भीतर उसको तुड़वाकर जमींदोज करवा दें अन्यथा नगरनिगम का जत्था उस भवन को तोड़ डालेगा| अमीरचंद पेशे से बढई है और वह भी अन्य काष्ठकारों के साथ रोजन्दारी के हिसाब से फर्नीचर बनाने का काम करता है | वह तीन बेटों का पिता है| एक बार उसका मन उस मकान को बेचने का हुआ पर परिवार की सहमति न मिलने पर वह थोडा परेशान भी होता है क्योंकि उन सब के अनुसार नया मकान खरीदना आसान न होगा उनके लिए| ऐसे में उसका एक मित्र उसके भवन का मुआयना करता है और बताता है कि मकान की छत पर करीब पच्चीस से तीस लाख रुपयों की सागबान की लकड़ी लगी हुई हैं | वह कहता है कि सावधानी से चारों भवन को तोड़ने का कार्य करें और लकड़ी का उपयोग फर्नीचर बनाकर बेचने का प्रयास करें | यह युक्ति उसको काम आ जाती है और वह धीरे-धीरे अमीर बन जाता है| इस लघुकथा के माध्यम से लेखक यह सन्देश देना छह रहे हैं कि समस्या में ही समाधान छिपा हुआ है, बस प्रयास भर करने से उसका हल मिल जाता है| यह भी एक उत्कृष्ट लघुकथा है| इनके अतिरिक्त ‘ घर लौटा राम खिलावन’ में एक माँ का अपने मजदूर बेटे के प्रति प्रेम को दर्शाता है| पति-पत्नी के आपसी प्रेम को दर्शाती लघुकथाओं में ‘आसमान के नीचे’ , ‘उस दिन...’, ‘बेड टी’ हैं जो सुन्दर हैं| ‘अनुभवों का उपहार’ लघुकथा में सास अपनी तीनों बहुओं को अपने-अपने कार्यशैली और रुचि को देखते हुए दिवाली की पूजन के उपरान्त छोटी बहू को इंग्लिश भाषा का स्पिकिंग कोर्से ज्वाइन करने बाबक कोचिंग क्लास की फीस जमा कर उसकी रसीद प्रदान की| मँझली बहू को डांस क्लास की मेम्बरशिप का कार्ड दे दिया| बड़ी बहू को हेलिकोपते से सैर करने की टिकेट दे दी| इस तरह से मटेरियल गिफ्ट न देते हुए एक्स्पेरियंशियल गिफ्ट देकर उनकी मुरादें पूरी कर देती हैं| और इस तरह से लेखक ने वर्तमान पीढ़ी की औरतों हेतु प्रगितिशील विचार धरा प्रस्तुत किया है जो उल्लेखनीय है| 

मानवेत्तर लघुकथाओं का उल्लेख करूँ तो इस संग्रह में ‘ सतयुग का शिलालेख’, जो पर्यावरण संरक्षण को लक्षित करती है, ‘अन्नप्राशन’ लघुकथा में वृक्षों की कटाई के चलते पक्षिओं के लिए अपने घरौंदे बनाने और बचा पाने के लिए चिंता जताई गयी है | 

मनोविज्ञान पर आधारित लघुकथाओं में ‘कार्टून’ अपने कथ्य के कारण, ‘ जीवन क्रम’ आत्महत्या करने के प्रयास करने वालों के लिए एक सकारात्मक सन्देश दे रही है कि हर सुबह एक और दिन जी लेने को कहती है, यह लघुकथा इसी वजह से उत्कृष्ट बन पड़ी है | ‘युग-पीड़ा’ मनोविश्लेषण पर आधारित  का एक बेहतरीन उदाहरण  है जिसमें कथानायक अपने बच्चे को स्कूल बस में बैठाने के लिए एक रोज़ उसके साथ बस-स्टॉप पर खड़ा होता है तभी पहचाने पालकों के चेहरों की बीच उसको एक नया चेहरा दिखाई देता है | परिचय पाने के लिए वह अपना हाथ आगे बढ़ाता है बदले में सामने वाला व्यक्ति अपने दोनों हाथ जोड़कर नमस्कार करता है| कथानायक के मन में एक प्रश्न आता है और वह सोचता है कि, ‘भारतीय संस्कारों को अपनाकर चलने वाला वह नया चेहरा बच्चे को अंग्रेजी स्कूल में दाखिल कर क्या अन्तेर्द्वंद से नहीं गुजर रहा होगा?’ और उनके इस अंतर्द्वंद को अचानक अपने भीतर के विचारों से तौलता है तब उसको लगता है कि वह तो युगबोध लिए हुए है, जबकि वह नया चेहरा युगपीड़ा  से आंदोलित है | इस लघुकथा में लेखकीय प्रवेश दृष्टिगोचर हो रहा है परन्तु यह लघुकथा अपने उद्देश्य को पूर्णतः संतुष्ट करती है | ‘माती का मीत’ लघुकथा दर्शनशास्त्र पर आधारित लघुकथा है | कुल सात पंक्तियों की लघुकथा को देखें- चलता चाक थामकर निर्मित घड़े को उसने पकाने की प्रक्रिया में एक ओर रख दिया| अब फिर नया घड़ा घड़ने में गूँथी मुलायम मिट्टी उसने हाथों में ली | 

चाक जब तक बंद रहता है, वह लौकिक बना रहता है| घूमने के साथ ही वह स्वयं में अलौकिक रूप प्रदाता का आभास कराता है| बावजूद इसके, वह जन्मदाता नहीं है|

माटी, माटी को ही पैदा करेगी | जीवन का वरण करने वाली मृत्यु उसके वश में नहीं है| 

तभी तो वह अलौकिक होकर भी देवता नहीं है| 

व्यक्ति सोचता है कि वह निर्माता है, परन्तु वह वही करता है जो समय ने पहले से ही उसके लिए निर्धारित करके रखा हुआ है| परन्तु चूँकि वह कार्य करता है वह अपने लक्ष को पाकार या अपने निर्धारित किये कार्य में सफलता को देखकर वह आनंदित हो जाता है और स्वयं को इश्वर समझने की भूल कर बैठता है परन्तु वह भूल जाता है कि वह जन्मदाता नहीं है| 

वह जीवित है, वह सब कुछ कर तो सकता है परन्तु जीवन और  मृत्यु उसके हाथ में नहीं है| इसलिए वह अलौकिक होकर भी देवता नहीं है| इसका अर्थ यह है कि इंसान अपने को इंसान ही माने परन्तु वह देवता किसी भी परिस्थिति में नहीं बन सकता | यही सन्देश इस लघुकथा के माध्यम से दिया गया है जो यथार्थ और सटीक है| इसके प्रस्तुतीकरण के कारण यह लघुकथा उत्तम श्रेणी में आती है| 

‘अफवाह से अफवाह तक’ सामाजिक मनोविज्ञान को दर्शाती एक अच्छी लघुकथा है जिसमें यह दर्शाया गया है कि जब कोई अफवाह फैलती है तब शब्द कानोंकान हस्तांतरित होते हैं और जब लौटकर मुख्य व्यक्ति तक पहुँचती है तब उसको एहसास होने लगता है कि आकाश पर थूकने पर थूक लौटकर थूकने वाले पर ही गिरता है | 

इसके बाद अगर वह सतर्कता भी रखता है तब वह हर बात को अफवाह मान लेता है और ऐसे में उसका अपना नुक्सान भी हो जाता है| फिर उसको यह एहसास हो जाता है कि पूरी दुनिया इस अफवाह के गिरफ्त में फँसी हुई है| 

‘नर नरेश नारायण’ पौराणिक पात्रों को प्रतीक बनाकर यह दर्शाया है कि जब कोई व्यक्ति अपनी जिम्मेदारी को किसी पर भरोसा करके सौंपता है तब वह कार्य करता है परन्तु कभी किसी पल उसकी महत्वाकांक्षा हावी हो जाती है तब वह सोचने लगता है कि वह नरेश ही क्यों है? नारायण क्यों नहीं?” और वह रक्षक से भक्षक बन जाता है। उसके भीतर की आस्था को तिरोहित कर वह आततायी बन जाता है और घमंड से चूर वह स्वयम को स्वयम्भू समझने लगता है और एक दिन वह नारायण से ही नाता तोड़ लेता है| वर्तमान समय में अति महत्वकांक्षी व्यक्ति की मनोदशा को प्रतीकात्मक ढंग से बाखूबी उकेरा गया है जो प्रशंसनीय है| 

‘तिजारत’ लघुकथा में कथानायक रमेश से कहता है ‘आदमियों की तिजारत करना मूर्खों का काम है!’ और उसका अभिप्राय माँगता है तब रमेश दैत्यों और देवताओं के द्वारा किया गया अमृत-मंथन का दृष्टांत देते हुए यह बताने का प्रयास करता है और कहता है कि कलयुग में मनुष्यों की नीयत का मंथन हुआ| जिसमें शिष्टाचार और भ्रष्टाचार नाम के दो पेय निकले| शिष्टाचार का पान सबको विषैला प्रतीत हुआ| इसके चलते सब मनुष्यों ने भ्रष्टाचार नाम का अमृत का पान किया| 

परिणाम स्वरुप भ्रष्टाचार का यह अमृत अब ऊपर से नीचे तक बराबर रूप में सबको पीने को मिल रहा है और आदमियों में बीच आदमी का व्यापार चल रहा है|” यह एक अच्छी लघुकथा हुई है |  

विद्यार्थिओं के मनोविज्ञान को दर्शाती ‘चातुर्य’ शीर्षक की लघुकथा सुन्दर बन पड़ी है जिसमें एक अध्यापक अपनी कक्षा में जाता है तब वह देखता है कि कुछ विद्यार्थी तो उसको कक्षा में आया देखकर अपनी जगह पर खड़े हो जाते हैं परन्तु कुछ बैठे रहते हैं| 

अध्यापक को प्राचार्य पहले ही आगाह कर देते हैं कि एक कक्षा में तोमर नाम का एक छात्र है, जो छात्र संघ का अध्यक्ष भी है| जब वह अध्यापक बैठे हुए विद्यार्थिओं को देखता है वह समझ जाता है  कि ये छात्र तोमर गुट के हैं तब वह मनोवैज्ञानिक ढंग से अपना आंशिक परिचय देते हुए अपनी हॉबियों को बताते हुए कहता है, “मुझे फाउंटेन पेनों में ‘होमर’ पसंद है, घड़ियों में ‘रोमर’ पसंद है और जाति-बिरादरी में ‘तोमर’ पसंद है|” 

यह सुनते ही बैठे हुए छात्र एक साथ खड़े हो जाते है| विद्यार्थियों को अगर विश्वास में लेना हो,ऐसे में अध्यापक अगर उनको विश्वास में लेते हुए यह दर्शाने का प्रयास करते हैं कि विद्यार्थी अपने अध्यापक को अपना ही समझे क्योंकि वह भी उनमें से एक है तो उनकी बातों का उनपर प्रभाव पड़ता है और विद्यार्थी राजनीति को छोड़ अपने सही उद्देश्य यानी की पढ़ाई की ओर बढ़ जाता है जो वर्तमान समय के शिक्षा संस्थाओं के लिए बेहद महत्त्वपूर्ण चुनौती बन गयी है| जिसका निराकण होना अति आवश्यक हो गया है| इसी उद्देश्य को दर्शाती यह एक बेहतरीन लघुकथा बन पड़ी है| चूँकि लेखक स्वयं एक प्राध्यापक रह चुके छात्र संघ जैसी समस्याओं से किस तरह से समाधान तलाशा जा सकता है यह आप बेहतर समझ सकते है और आपने अपने अनुभवी होने का परिचय इस लघुकथा के माध्यम से प्रेषित किया है| एक अच्छा लेखक वही होता है जो अपने लेखन में न सिर्फ समाज में चल रही किसी विसंगति पर अपनी कलम चलाये अपितु उस विसंगति के प्रति सजग हो उसका समाधान भी प्रस्तुत करना एक लेखक का कर्त्तव्य होता है जो पुरुषोतम दुबे जैसे कुशल लेखकविद भली-भाँति समझते है चूँकि उनके पास वर्षों का अनुभव होता है |आपने भी ऐसा ही किया है| 

इसी श्रेणी में ‘चेहरा’ लघुकथा भी एक सुन्दर लघुकथा है जिसमें व्यक्ति में मनोबल को बढ़ाने का सन्देश है| टूटे हुए आत्मबल को पुनः हासिल करने के लिए व्यक्ति के भीतर आत्मविश्वास बढाने की आवश्यकता होती है जिसके हासिल होते ही वह जीवन की हारी हुई बाजी जीत सकता है | 

राजनीति विषयक लघुकथाओं में ‘फिर वही राजनीति’ जिसमें यह दर्शाया गया है कि राजनीति में आमजन पर छलावा करके उनपर राज करने की कूटनीति परंपरा-सी बन गयी है और वर्तमान में भी ऐसा ही हो रहा है| ‘उपद्रवी’ लघुकथा में एक कुटिल व्यक्ति जो राजनीति में है पर तंज़ कसा गया है कि वह अवतार लेता है- हरदम, हरघडी| गिरगिट की तरह रंग नहीं बदलता परन्तु हर रंग का गिरगिट बन जाता है | वह एक बार शत्रु को मात देने के चक्कर में वह शतरंज का मोहरा बन जाने को तैयार हो जाती है और जब देखता है कि वह अपनी जगह नहीं बना पाया है तब वह चौसर का पासा बन जाता है क्योंकि उसको पता चल जाता है कि पासा ऐनवक्त पलट भी जाया करता है| और उसको जुबान से पलट जाने में बड़ा आनंद मिलता है | जिसके चलते उसको जानने वाले उसके बहुरुपिया, नौटंकीबाज, यहाँ तक कि दगाबाज़ ही नाम दे देते हैं| 

वह इतना ढीट बन जाता है कि उसको यह लगने लगता है कि अपने नाम के आगे एक ऐसे विशेषण के लग जाने पर वह दुनिया का एक ऐसा व्यक्ति बन जाता है जिसके बारे में यह कहा जा सकता है, ‘दुनिया में यदि कोई काम का आदमी है, तो वही एक, वही एक, वही एक है|’ इसका शीर्षक विषयवस्तु के अनुरूप है | 

‘लहरों पर डोंगियों से शब्द’ स्त्री-सशक्तिकरण को दर्शाती एक सकारात्मक लघुकथा है जिसमें एक मात्र स्त्री-डोंगी अपने साथी पुरुष-डोंगियों की चुनौती को स्वीकार कर अपनी काबिलियत को साबित करती है और उनके मध्य की प्रतिस्पर्धा में न सिर्फ हिस्सा लेती है अपितु उसमें जीत भी हासिल करती है और इस तरह से इस व्यवसाय को जो की पुरुष प्रधान है में अपनी उपस्थिति सिद्ध करते हुए वह भी उनसे कहीं से भी और किसी से भी कम नहीं है का डंका बजवा देती है| यह अपने कथानक और जैसे जैसे कथा आगे बढती है इस कथा में पात्रों के संघर्ष को जिस तरह से चित्रांकित किया गया है वह बहुत ही प्रभावशाली बन पडा है जिस कारण यह लघुकथा उत्कृष्टता की पंक्ति में आती है| इसका प्रतीकात्मक शीर्षक सटीक है और कथानक को परिभाषित करता है | 

‘राग गाँवठी’ धर्म के नाम पर अन्धविश्वास को दर्शाती है जिसके चलते नकली साधू बनकर आमजन को लूटने वाले ढोंगी बाबाओं का सुंदर चित्रांकन किया गया है जो समय के चलते आगे राजनीति में आ जाते हैं परन्तु उनका मुख्य उद्देश्य तब भी भोली-भाली जनता को लूटना और उनपर अपनी धाक जमाना होता है|  इसका प्रतीकात्मक शीर्षक भी सटीक हुआ है|  

‘अज्ञानता की देवी’ लघुकथा अंचल क्षेत्र की एक ऐसी स्त्री के चरित्र को चित्रांकित करती है जो निराक्षर होने के कारण अपने जीवन से जुडी तारीखों का हिसाब भी नहीं समझ पाती और ऐसे में उसको यह याद रह जाता है कि पिछली दफे की जात्रा में उसने मन्नत मांगी थी कि तीन छोरी के बाद उसकी कोख से छोरा जन्मे| उसका कोई असर नज़र न आने पर वह फिर से जात्रा में शरीक होकर पुरानी मन्नत की गाँव देवता को याद दिलाएगी| यह पुरुषप्रधान समाज को दर्शा रही है जिसमें स्त्री का शोषण हो रहा है और वह अपनी कमियों को समझने की बजाय डरी हुई सहमी हुई सी अबला दिखाई पड़ती है|  इसका अंत नकारात्मक होने के बावजूद समाज में स्त्री साक्षातकर्ता को महत्त्व देती हुई एक सुन्दर लघुकथा है| इस लघुकथा का प्रस्तुतीकरण भी सहज और सुन्दर हुआ है|  

‘वे दो’ यह इस संग्रह की प्रथम लघुकथा है जो आतंकवाद पर केन्द्रित है और इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह कहने का प्रयास किया है कि आतंकवादियों में संवेदना लेस मात्र भी नहीं होती और वह अपने साथी को मारने से भी पीछे नहीं हटता| 

‘अँधेरी सुरंग’ वर्तमान में बढती हुई बेरोज़गारी को दर्शाती एक कालजयी लघुकथा है जो एक यक्ष प्रश्न पाठकों के लिए छोड़ रही है|  रोजगार के लिए भटकते हुए का बहुत ही मार्मिक ढंग से चित्रण किया गया है | इस लघुकथा का अंत देखें- अब रौशनी का कोई नामोनिशान नहीं| लोगबाग चल रहे हैं अथवा अँधेरे को पैर लग गए हैं! कहाँ अंत है सुरंग का? कब अंत है सुरंग का? कब मिलेगा सुरंग के उस पार का छोर? क्या कल? क्या परसों? क्या साल दो साल बाद? दो साल बाद! तो, दो साल बाद दुनिया होगी भी की नहीं? 

कुछ लघुकथाएँ ऐसी होती है जो हर समय पर प्रासंगिक लगती है यह लघुकथा उनमें से एक है जो पाठकों के मन-मष्तिष्क पर अपनी अमिट छाप छोडती हुई प्रतीत होती है| 

‘रूनझुन’ एक प्रतीकात्मक लघुकथा है जिसमें एक स्त्री के संघर्ष का चित्र है जो अपने भीतर एक बालक को जीवित रखना चाहती है | 

‘एक कोशिश ऐसी भी’ वर्तमान समय में मोबाइल के चलते बच्चों में भाषा और बिगड़ते हुए हरुफ के प्रति चिंता जताते हुए पत्र-लेखन को बढ़ावा देती हुई एक अच्छी लघुकथा हुई है| 

देश प्रेम और फौजीओं पर आधारित लघुकथाओ का उल्लेख करूँ तो , इस संग्रह में ‘मस्तक दान’, ‘अलंघ्य घेरा’, ‘राष्ट्रमाता का ख़त फौजी पर’ इत्यादि हैं | ‘मस्तक दान’ में मातृभूमि के लिए किया जाने वाला ‘मस्तक दान’ ही सर्वश्रेष्ठ होता है का सन्देश प्रेषित किया गया है| इसी पृष्ठभूमि पर ‘प्रार्थना’ लघुकथा भी है जो वतन पर मिट जाने वाले को अमर कर देता है को लक्षित करती है| 

‘अलंघ्य घेरा’ फंतासी शिल्प में लिखी एक बेहतरीन लघुकथा है जिसमें प्रतीकात्मक रूप से यह दर्शाया गया है कि जब संगठित होकर दुश्मनों का मुकाबला किया जाता है तब दुश्मन को यह लगने लगता है जैसे एक अलंघ्य घेरा उसके चारों ओर खींच दिया गया है और उसको एहसास होने लग जाता है  कि यह वही धड़ हैं जिनपर आततायी के रूप में कभी बर्बरता के साथ उसने कभी ठोकरें मारी थीं|  इस लघुकथा का आरंभ देखें- ‘एक ने हाथ खड़ा किया, फिर दूसरे ने हाथ खड़ा किया, फिर तीसरे, चौथे ने| देखते ही देखते मैदान में उपस्थित सारे के सारे धड़ ऊँचे उठे हाथों में तब्दील हो गए| इस लघुकथा को दूसरे रूप में देखा जाए तो किसी व्यक्ति विशेष के सामने अगर कोई बड़ी समस्या आ जाए और उसकी आँखों के आगे अन्धकार-सा छा जाए ऐसे में वह अपनी इन्द्रियों की शक्तियों को इक्कट्ठी कर अपने सामने आई बड़ी से बड़ी समस्या पर विजय प्राप्त हो सकता है का सन्देश भी छिपा हुआ है | 

‘राष्ट्रमाता का खत फौजी पर’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें फौजी जीवन पर प्रकाश डाला गया है| इस लघुकथा का कथानायक ‘फौजी तुषारसिंह तोमर’ मिस्टर वर्मा से मिलने आता है और चाय-नाश्ता के टेबल पर कहता है, “ माँ से पता चला कि जिस ख़त पर मुझको फौजी परिवारों से आने वाले खतों की प्रतियोगिता का पहला पुरस्कार मिला है, उस ख़त को आपने मेरी अनपढ़ माँ के विशेष आग्रह पर लिखा था| माँ की मेरे प्रति भावनाओं को समझते हुए, उनकी ओर से लिखकर मेरे नाम उस ख़त को आप ही ने पोस्ट भी किया था| 

मिस्टर वर्मा को याद आता है परन्तु वह आश्चर्य व्यक्त करते हुए पूछते हैं, “खत और पहला पुरस्कार? जिसके जवाब में फौजी उत्तर देता है, “सर जी, हमारी बटालियन में हर शनिवार की शाम, हफ्तेभर में सैनिकों के नाम आये खतों को सार्वजनिक रूप में पढ़ा जाता है| फिर अच्छे लिखे एक पत्र को पुरस्कार की श्रेणी में रखा जाता ही| चयनकर्ताओं ने इस बार माँ द्वारा भेजे पत्र को पहला पुरस्कार देने की श्रेणी में रखा था|” और आगे कहता है,” ख़त के आखिर में माँ की भावना को समझते हुए आपने लिखा था, कि ‘यह मत समझना तुषार, कि यह खत एक माँ अकेले बेटे तुषारसिंह को लिख रही है; बल्कि निश्चित तौर पर यही समझना कि राष्ट्रमाता के रूप में तेरी माँ सीमा पर तैनात अपने सभी बेटों को इस खत में सदा विजेता बने रहने के आशीष लिख रही है|’ आपकी इस बात ने पूरी बटालियन का सीना गर्व से फुला दिया सर जी|” 

फौजिओं का जीवन संघर्षमय होता है, अपने घर-परिवार से दूर वह देश के प्रति समर्पित होकर अपना जीवन ज्ञापन करते हैं ऐसे में उनके लिए पल भर की ख़ुशी भी उनको ऊर्जा प्रदान करती है और ये लोग अपने व्यस्तम जीवन काल में भी अपने लिए खुश होने का और आनंदित होने के साथ-साथ पारिवारिक होने का भी एहसास दिलाते है और सभी मिलकर अपने सुख-दुःख को बाँट लेते है| ऐसा ही दृश्य इस लघुकथा के माध्यम से उकेरा गया है साथ ही माँ की महत्ता को भी दिखाया गया है कि माँ की ममता निर्मल होती है और वह निश्चलता से सभी बच्चों में एक-सी बाँटती है और अगर फौजियों की बात की जाए तो उनके लिए किसी एक फौजी साथी की माँ उसको अपनी माँ-सी प्रतीत होती है और ऐसे में माँ का ऐसा ख़त पढने पर वह भावुक हो जाता है जो बहुत ही  सहज और स्वाभाविक है| 

इस लघुकथा का अंत देखें- इतना कहकर तुषार मिस्टर वर्मा के चरण छूने  को झुका; लेकिन उन्होंने बीच में ही उसे अपने अंक में भर लिया| यहाँ एक फौजी के भीतर एक आम नागरिक के प्रति आदर भाव के साथ-साथ यह भी सन्देश देता है कि फौजी का दर्जा बहुत ऊपर होता है और उनमें भी संवेदनाएं होती है बिलकुल एक आम नागरिक जैसी तो उनका सम्मान करना चाहिए और वह आदर के पात्र होते हैं|     

‘सातत्य’ फंतासी शिल्प में लिखी गयी शृंगार-रस से ओत-प्रोत के बेहतरीन लघुकथा है जिसमें आसमान, चाँद, वृक्ष, नवयौवना बाला, धरती को पात्र बनाकर बहुत की कलाकारी से कथानक का निर्माण किया गया है| इस लघुकथा का आरम्भ में आसमान अपने ऊँचे कद से थोड़ा झुक जाता है और अपने अनगिनित हाथों से अपने वक्ष:स्थल में दमकते चाँद को वृक्ष के नीचे प्रतीक्षारत नवयौवना बाला के चेहरे पर शृंगार की तरह सजा देता है| जिससे नीचे की धरती का कायाकल्प हो जाता है| इस परिच्छेद में छिपा यह गूढ़ अर्थ की जब कोई व्यक्ति बड़ा हो जाता है तब उसको चाहिए कि वह थोड़ा झुके और अपने से छोटों को अपने अनुभवों को साझा कर उनका साथ देकर उनको अवसर प्रदान करे जिससे वह भी पल्लवित हो सकें| इस तरह से अपने आस-पास के वातावरण को वह खुशहाल बना सकता है | 

अगले परिच्छेद में दर्शाया गया है कि कवि के आँगन में जैसे कविता रचने का मौसंम उतर आया हो| और वह अपने आलोड़ित(मथे हुए विचारों) विचारों में कलम डुबोकर रुबाईयाँ लिखने लगता है| उधर वृक्ष के तले बैठी उस नवयौवना को हिचकियाँ आने लगती है! प्यार परिभाषित होने लगता है और हवा तरंगायित हो जाती हैं| सरोवर में खिले सरोरुह आलिन्ग्बध होने लगते है| 

प्यार और विश्वास जब पल्लवित होता है तो युवा मन ऊर्जा से भर जाता है और वह आनंदित होकर अपने भीतर छिपी खूबियों से न सिर्फ दूसरों को परिचय करवाता है अपितु वह तन-मन से उस कार्य को करने में तल्लीन हो जाता है नतीजन कार्य पहले से सोचे कार्य से भी कई बेहतर संपन्न हो जाता है जिससे न सिर्फ उसका विकास अपितु उसके आस-पास पनप रहे असंख्य लोग, या संघठन या अन्य किसी भी तरह का व्यावसायिक अथवा को भी संस्था हो के लिए मिसाल बन जाता है और लोग उस व्यक्ति का अनुसरण करने से पीछे नहीं हट्ते जिस कारण वह श्रेष्ठता की शिखर पर पहुँच जाता है| 

ऐसे में अगर दूर किसी पर्वत की चोटी पर चाँद को अनुपस्थित पाकर उदास मन चकोर चकोरी संग प्रणय कलह करने शैवालं की हरी दरी पर लौट आया| 

ऐसे में अगर रौशनी देने वाला अगर अदृश्य  हो जाता है तब उम्र में नव यौवन अपने को सम्भाल नहीं पाते और उनके मन में कलह उत्पन्न हो जाता है और वह धरती पर लौटने लगता है यानी वह धराशाही हो जाता है| ऐसे में आसमान पुनः उंचा होता है और सुबह का सूरज उग जाता है| इसके मायने यह एक निरंतर चल रही क्रिया है की बड़ों के अनुभवों से ही बच्चा सीखता है और जहाँ बड़े उपस्थित न हों तो बच्चे में भटकाव की सम्भावना बढ़ जाती है ऐसे में बड़ों को चाहिए कि वह पुनः उनके करीब आने का प्रयास करें ताकि भावी पीढ़ी अपने उज्वल भविष्य की ओर अपने कदम बढ़ा सकें| यह एक उच्चकोटि की लघुकथा है जिसका प्रतीतात्मक एवं काव्यात्मक प्रस्तुतीकरण पाठकों के मन को अवश्य भा जाएगा ऐसा मुझको पूर्ण विश्वास है|

‘गृहासक्त’ हिन्दी-विभाग में कार्यरत दो प्रोफेसरों में शब्दों की बनावट को लेकर वैचारिक उदध छिड़ जाता है और कथा जैसे-जैसे बढ़ती है एक प्रोफेसर अपने को सर्वश्रेष्ठ साबित करने पर तुला हुआ होता है जब कि दूसरा प्रोफेसर पहले वाले से कहीं से कमतर नहीं होता परन्तु वह विवेकशील होता है और वह पहले प्रोफेसर की तरह किसी को नीचा दिखाने की आदत से सहमत नहीं होता | यह एक अच्छी लघुकथा बन पड़ी है | ‘कह कि मैं झूठ बोलिया’ व्यंग्य लिए हुए एक सुन्दर लघुकथा है जिसमें नयी कॉलोनी में प्लाट बेचने के सिलसिले में दलाल किस कदर हाथ धोकर पीछे पड़ जाता है कि अपना मुनाफ़ा कमाने के लिए वह उस क्षेत्र के नाई, हलवाई इत्यादि को भी अपने साथ ले लेता है और वे सब भी बिल्डर के चुंगुल में फँसकर जलती हुई आग में अपने-अपने हाथ सेकने हेतु प्रयासरत्त हो जाते हैं| वो भी बिना यह सोचे-समझे कि इसका खरीदार पर क्या असर पड़ सकता है या पड़ रहा है| यह बिल्डर और दलालों के लालच को दर्शाती एक सुन्दर व्यंग्यपरक लघुकथा हुई है| ‘जुगाड़’ बड़े घरों की ओछी मानसिकता को दर्शाती एक सुन्दर लघुकथा हुई है| बड़े घर वाले पैसे से भले अमीर हों परन्तु कई बार उनमें से कोई जब गरीब तपके के लोगों पर अपनी धाक जमाते हुए उनसे वो सब छीन लेते है जिसको छिनते हुए वह बिलकुल भी नहीं हिचकते | इसी पर आधारित है यह लघुकथा| इसका शीर्षक व्यंग्यात्मक है परन्तु  इस कथानक के अनुरूप है | 

‘माँ’ लघुकथा में यह दर्शाया गया है कि बच्चे जितना भी चाहें कि वह अपनी माँ को भूलकर आगे बढ़ते जाएँ परन्तु उनका अंतर्मन अपनी माँ को कभी भूलने नहीं देता और वह उनकी छवि को भुलाने में असमर्थ हो जाते हैं| और उनके सामने उनकी वही अभागिन माँ खड़ी मिलती है जिसके दूध का कर्ज उसके सिर पर चढ़ा हुआ है| माँ की महत्ता को दर्शाती यह एक सुन्दर लघुकथा हुई है| इस लघुकथा में एक जगह मेरी सहमती नहीं बन पा रही है वो इस लघुकथा की अन्तिम पंक्ति में :- “अरे पगले! चित्रकार है, संकल्पना का अथाह समुद्र तुझमें हिलोरें ले रहा है! उसमें ज़रा डूब! फिर उस डूब में अपने आँखें खोल! देख, समझ, मैं तेरी वही अभागिन माँ हूँ जिसके दूध का कर्ज तेरे सिर पर चढ़ा हुआ है!!!” यहाँ यह तीन विस्मयादिक बोधक लगाने का आशय मुझ अज्ञानी को समझ नहीं आ रहा | यहाँ अगर एक ही चिह्न होता तब भी इस पंक्ति का वही प्रभाव पड़ता जो पाठकों पर पड़ना चाहिए ऐसा मेरा मत है जरूरी नहीं की लेखक मेरी इस बात से सहमत हों

‘तीन पत्ती’ दहेज़ प्रथा पर आधारित है| इस लघुकथा में दो दृश्य सामानांतर चल रहे हैं जैसे एक दृश्य में ताश में तीन पत्ती का खेल खेला जा रहा है और क्रमशः इसकी तुलना दहेज़ लेने वाले और देने वालों में मध्य हो रहे क्रिया-कलापों को चित्रांकित किया गया है| इस तरह इस दोनों का तुलनात्मक ढंग से प्रस्तुतीकरण इस लघुकथा को विशेष बना देता है जो प्रशंसनीय है|

‘प्रोफेसर विल्फ्रेट’ एक ऐसी लघुकथा है जिसमें कथानायक सेवानिवृत होने के बाद भी अपने मित्रों से संपर्क करता रहता है परन्तु धीरे-धीरे वह यह बात मानने हेतु विवश हो जाता है कि उसके मित्र निश्चित ही अपने पते से गुम हो गए हैं| इस लघुकथा के माध्यम से लेखक ने यह समझाने का प्रयास किया है कि इंसान इतना स्वार्थी हो गया है कि जब तक वह सामने है तब तक अपनेपन का ढोंग करता है परन्तु बाद में वह सब कुछ भूल-भालकर अपना रास्ता ले लेता है| 

‘विरेचन’ इस लघुकथा की आखरी लघुकथा है जो इसके पीछे के कवर पेज पर प्रकाशित हुई है| यह एक हलकी-फुलकी लघुकथा है जिसमें दो दोस्तों का दूरभाष पर वार्तालाप होता है का दृश्य चित्रांकित किया गया है| यह एक साधारण-सी लघुकथा है | 

यूँ तो चूँकि इस लघुकथा में कुल ४४ लघुकथाएँ हैं परन्तु इसमें प्रस्तुत विविध विषयों पर आधारित लघुकथाओं ने इसको विशेष बना दिया है जो बहुत ही उल्लेखनीय है और पाठकों को अपनी ओर आकर्षित करेगा ऐसा मेरा मानना है| मैं पुरुषोत्तम दुबे जी को इस संग्रह हेतु बहुत-बहुत बधाई प्रेषित करती हूँ साथ ही इसमें प्रस्तुत लघुकथाओं के चयन करने हेतु आदरणीय भगीरथ परिहार जी, बलराम अग्रवाल जी, अशोक भाटिया जी एवं माधव नागदा जी को भी धन्यवाद देती हूँ कि आप सब ने मिलकर इस बेहतरीन संग्रह को हम पाठकों तक पहुँचाने में अपना अमूल्य समय एवं सहयोग दिया है जिसके लिए लघुकथा-जगत् सदैव आपका आभारी रहेगा| 

स्मृतिशेष डॉ.सतीश दुबे जी के अनुसार “लघुकथा मानव-मन की अभिव्यक्ति को कुछ शब्दों में प्रभावशाली ढंग से कह डालनेवाली सशक्त विधा है| इसकी मारक शक्ति इतनी तेज तथा संवेदना के तन्तुओं को प्रभावित करनेवाले तत्त्व इतने शक्तिशाली होते हैं कि उनका प्रभाव अभूतपूर्व होता है| 

मेरा दृढ़ विश्वास है कि डॉ.पुरषोत्तम दुबे जी का ‘छोटे-छोटे सायबान’ नामक लघुकथा-संग्रह में प्रस्तुत लघुकथाएँ पाठकों को अवश्य पसंद आएँगी।  इसी आशा के साथ मैं दुबे जी  को अपनी शुभकामनाएँ प्रेषित करती हूँ और अपने इस प्रयास को आप सब को समर्पित करती हूँ| 

कल्पना भट्ट / +91 94244 73377



No comments: