Wednesday 17 August, 2022

डॉ. शैलजा सक्सेना (ओरंटो, कनाडा) की तीन लघुकथायें

भूख

आलू की बोरी के जैसे वह धड़ाम से गिरी थीं, सड़क पर उसे इस तरह से धक्का देकर फेंक देने वाली कार, सैकेंडों में आगे !!" निकल चुकी थी। कुछ देर ऐसे ही अचेत पड़ी रही। थोड़े मैले-कुचैले से कपड़े, धूल की परतों में लिपटा हुआ चेहरा, हाथों और गर्दन पर कुछ खरोंचों के निशान। आस-पास के लोगों ने चौंककर जाती हुई कार को देखा, फिर सड़क पर पड़ी हुई उस भिखारन जैसी औरत को भी देखा और एक क्षण के बाद ही अपनी हैरानी पर काबू पाकर वापस अपने-अपने कामों में लग गए। किसी के पास उस औरत को देने के लिए दो मिनट का समय या फिक्र नहीं थी। और फिर औकात भी तो चाहिए इस फ़िक्र को पाने के लिए! कोई अच्छे घर की साफ-सुथरे कपड़े पहने हुए औरत वहाँ गिरती, तो उनकी चिंता का, ख़बर का या उनके समय का हिस्सा बनती। इस भिखारन जैसी औरत को वे अपनी चिंता समय भीख में नहीं दे पाए।

जाने कितनी देर ऐसे ही अचेत पड़ी रही वह जब होश आया, तो पहले तो उसे कुछ समझ ही नहीं आया कि वह कहाँ है, फिर धीरे-धीरे अपने चोट खाए बदन को संभालती वह उठी। हाथ और चेहरे की मिट्टी को झाड़ते हुए उसने आस-पास देखा और जाना कि वह बाजार की सड़क पर पड़ी है। चेहरा साफ करते हुए, उसके होठों और जीभ ने आधे खाए डबल को याद किया, जिसे दिखाकर वे लोग उसे गाड़ी में बिठा ले गए थे। अपनी थेगली लगी धोती को समेटकर वह खड़ी हो गई। कमर और नीचे बहुत दर्द था। उसे अपने साथ हुई कोई बात याद नहीं आ रही थी, आँखों के सामने केवल वह खाना था जिसे वह पूरा खा नहीं पाई थी, अगर वह मिल जाता तो...! तीखी भूख मुँह से पेट तक खिंची, पेट खरौंच रही थी। चार-पाँच कदम चली, तो अपना फटा झोला भी दिखाई दिया। साथ ही, कागज में लिपटा डबल भी, जो खुलकर आधा सड़क पर आ गिरा था। उसने लगभग लपककर पहले डबल और फिर झोला उठाया और डबल से धूल झाड़ती, फुटपाथ के किनारे बैठकर उसे खाने को हुई। होंठ तक बर्गर लाने के साथ ही उसकी रीढ़ की हड्डी के नीचे से सिर के ऊपरी नोक तक दर्द की तेज़ लहर बदन में फैल गई, तो वह तड़प उठी। हाथ में पकड़ें बर्गर को उसने फिर धूल में फेंक दिया और अपने गर्दन को  दोनों हाथों से पकड़ कर रीढ़ की हड्डी को दबाने लगी। उसने बर्गर को नफरत से देखते हुए मुँह घुमाकर थूक दिया और बुदबुदाई "मुझको खाकर मुझे खाना देने की हिम्मत करते हैं भुक्खड़ ! नीच!!"

पास खड़े खाए-अघाए, भुक्खड़ लोगों की निगाहें शर्म से झुक गईं।

ज्ञान

“लड़कियों को ज्यादा पढ़ाने का यही नतीजा होता है भाभी।" बाहर बैठके में डॉक्टर चाचा के मुँह से यह बात सुनकर वह विश्वास नहीं कर पाई थी। घर के सब से ज़्यादा पढ़े-लिखे, सब से समझदार, अगली पीढ़ी के लिए प्रेरणा माने जाने वाले चाचा यह क्या कह रहे थे? वह एक क्षण को तो सनाके में रह गई। प्रसंग उसी का है, उसने शादी से मना जो कर दिया था। उसे अभी कॉलेज पूरा कर के पीएचडी करनी है। चाचाजी के लाये रिश्ते को मना कर दिया था, तो क्या? सीधे-साधे माँ-बाबूजी को यह बरगलायेंगे ऐसे और हम बैठ के सुनेंगे! वह झटके से उठी। कहीं कम पढ़े-लिखे बाबूजी अपने डॉक्टर भाई के कहे या रौब में आ गये, तो बहुत मुश्किल हो जाएगी।

रसोई से आधी कटी सब्जी छोड़कर, लम्बे-लम्बे कदम बढ़ाती वह बाहर आई। उसके बोलने से पहले उसे बाबूजी की ऊँची आवाज़ सुनाई दी, “छोटे, हमें तुम से ऐसी उम्मीद नहीं थी । तुम तो पढ़े-लिखे हो, हम तो सोचते थे कि तुम उसे बढ़ावा दोगे, पर तुम तो उसकी पढ़ाई पर दोष लगा रहे हो। ज्ञान कब से दोषी हो गया? ज्ञान पाने वाला कब से सजा पाने वाला हो गया ?"

चाचाजी, बाबूजी की प्रतिक्रिया देखकर हैरान होकर बोले, "भाई साहब, हम तो व्यवहार की बात बता रहे हैं। आपको, पीएचडी की क्या ज़रूरत है, कॉलेज कर तो रही है। ज़्यादा पढ़ने वाली लड़कियाँ घर की नहीं रहतीं और यह गाँव है, शहर नहीं। बताये दे रहे हैं, कोई शादी नहीं करेगा!”

बाबूजी की नाराज़ आवाज़ घर में गूँज गई, "बस अब चुप रहो, हमने जब सबके खिलाफ जाकर तुम्हारी पढ़ाई की इच्छा पूरी की, तब तो तुमने मना नहीं किया था? ज़्यादा पढ़ने से लड़कों की कीमत बढ़ती है और लड़कियों की कीमत घटती है? तो ठीक है, तुम जाकर अपनी बड़ी बोली लगवा लो, मैं अपनी बेटी की बोली वैसे भी नहीं लगवाना चाहता।"

खंबे के पास उसे खड़ी देख वह उसके पास आये और प्यार से सिर सहलाकर बोले, "हम तो मन लगा नहीं पाते थे पढ़ाई में, तुम्हारे मन को चाहने के लिए ही हमने पहले मना किया था पढ़ने को, पर तुम लगन से पढ़ती जा रही हो, तो हमें क्या आपत्ति होगी। बेटी ? रही घर में और बाहर विरोध करने वालों की बात, तो मेरा नाम है रामभरोसे, तो मैं हूँ ही राम भरोसे, शादी की बात भी राम भरोसे ही छोड़ता हूँ। कोई न कोई तो मिलेगा ज्ञान का मान करने वाला और न मिले तो न सही खुद पढ़ाई नहीं कर सका, तो क्या हुआ, तुम्हारी लगन को नहीं तोडूंगा।" फिर चाचाजी की ओर देखकर बोले, "मुझे दुःख है छोटे कि बाबूजी का इतना पैसा खर्च कर के तुम में तुम । शिक्षित भले ही बन गये हो पर ज्ञान नहीं आ पाया।

चाचाजी ने अपने बड़े भाई का यह रूप और ऊँची आवाज़ आज पहली बार सुनी थी, अतः भौंचक्के खड़े रह गये। दीपा के चेहरे की खुशी उसके माँ और पिता के चेहरे पर जगमगा रही थी। आज उसके पिता ने अपने ज्यादा पढ़े-लिखे भाई को जो ज्ञान दिया था, वह किसी भी पढ़ाई से कहीं ऊंचा था।

खाली आँख

पड़ोस का कल्लू पुलिस वाले के साथ लगभग भागता हुआ-सा आ रहा था, जब रामरती ने उसे देखा। "ये ही है जी किसना मजूर की बीवी ।" पुलिस वाले ने अजीब निगाहों से उसके लाल मुँह को देखा। आँख के नीचे सुबह की मार का कालापन मौजूद था, गाल पर किसना के हाथ की अंगुलियों की छाप जैसे अभी भी मौजूद थी। उसके हाथ बर्तन माँजते माँजते रुक गये। मन का कसैलापन होठों तक उमड़ने को था, “अब क्या कर दिया मुए ने?"

सिपाही ने रामरती की प्रश्नवाचक निगाहों के उत्तर में केवल इतना कहा, "थाने चलना होगा, अभी हमारे साथ।" हाथ धोकर जब तक वह झुग्गी से बाहर आई औरतों, बच्चों और काम पर जाने से पीछे छूट जाने वाले छह-सात मर्दों का एक छोटा-सा हुजूम वहाँ जमा हो गया था। कल्लू किसी के कान में फुसफुसाकर कुछ कह रहा था। रामरती जब चली, तो तरस खाने वाली निगाहों से देखते हुए उसके साथ कई लोग चल पड़े। वह कुछ घबरा तो गई थी, पर उसे यही लगा कि पैसों के लिए उसकी कुटाई करके जब किसना निकला होगा, तो भिड़ गया होगा किसी से, अब बंद पड़ा होगा हवालात में उसका बस चले, तो कभी न छुड़ा कर लाये।

सुबह की बकी गालियाँ उसकी जुबान पर लौटने लगीं। चार साल हो गये उसकी शादी को और इतने ही साल हुए उसे लात-घूंसे खाते हुए आज तो बाहर निकलने से पहले ही पीटना शुरू कर दिया था, और जब किसना ने नाभि के नीचे उसे लात मारी थी, तो वह चंडी बन गई थी, गालियाँ देती जब वह उसकी तरफ झपटी, तो किसना झुग्गी से तीर की तरह निकल गया था, लगभग भागते हुए पर रामरती की ऊँची आवाज़ ने उसका पीछा किया था, "तू मर क्यों नहीं जाता, साला हरामी ।" और नाभि के नीचे अपने बढ़े हुए हर्निया को पकड़ कर वह दस मिनट तक कराहती रही थी। 

और जब थाने में आकर थानेदार ने यांत्रिक ढंग से उठकर बेंच पर पड़े किसी सामान के ऊपर से कपड़ा हटाया, तो उसे झुरझुरी आ गई। सामने ट्रेन से कटी, खून में लिथड़ी किसना की लाश पड़ी थी। मिनट तक वह सुध भूलकर भौंचक्की-सी उसे ताकती रही। ज़िंदगीभर वह भगवान से अपने और अपने घरवालों के लिए कुछ न कुछ माँगती रही, कभी माई के लिए दवाई, तो कभी बापू के लिए रिक्शा खींचने की ताकत, कभी छोटे भाई के लिए क्लास पास करने के लिए नम्बर! फिर जब शादी हुई तब भी कल्लू के शराब पीकर उसे मारने पर वह भगवान से उसे सुधारने के लिए कभी व्रत रखती, तो कभी मनौतियाँ माँगती। उसने हर रोज़ प्रार्थनाएं कीं। आज तक उसकी कोई बात पूरी नहीं हुई। उसकी कही कोई बात न फली, तो आज उसकी गालियाँ कैसे फल गई? कैसे? उसे मारने-पीटने वाला खुद कटा-पिटा सा ! उसे लगा उसका सिर घूम जायेगा।

फिर उसका मन हुआ कि वह हँसे और हँसती चली जाये, जब तक कि हँसते-हँसते उसकी छाती और पेट में दर्द न होने लगे एकाएक जैसे वह होश में आ गई। कल्लू नहीं रहा। वह अकेली रह गई है, अकेली! साथ आये लोग ज़ोर-ज़ोर से रोने और बोलने लगे थे "हाय हाय" का-सा शोर ! इन सबके बीच जाने कैसे वह भीतर से एकदम खाली और हल्का-सा महसूस करने लगी। इतना हल्का जैसे उसका हर्निया कटकर निकल गया हो। फिर इसी हल्केपन से चौंककर वह नाक से अचानक वह आये पानी को पोंछने लगी और पल्लू से खाली आँखें मसलती धम्-से ज़मीन पर बैठ गई। ■

(सभी लघुकथाएँ 'प्राची' वैश्विक लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-मई (संयुक्तांक) 2022; सौजन्य संपादक:डॉ. रामनिवास 'मानव' से साभार)

डॉ. शैलजा सक्सेना

शिक्षा: एम ए, (हिंदी), एम फिल, पी.एच.डी. (दिल्ली विश्वविद्यालय, दिल्ली), मानव संसाधन डिप्लोमा (ह्यूमन रिसोर्स मैनेजमेंट; मैक मास्टर यूनिवर्सिटी, हैमिल्टन, कनाडा)

प्रकाशन : प्रवासी कथाकार श्रृंखला-कहानी संग्रह- लेबनॉन की एक रात-२०२२-प्रलेक प्रकाशन।अनेक संग्रहों में कविता, कहानी, शोधालेख आदि प्रकाशित।

सह-संपादन : 'सपनों का आकाश’ (कैनेडा के ४१ कवियों का संग्रह- २०२०), 'संभावनाओं की धरती' (कैनेडा के २१ गद्यकारों का गद्य संकलन- २०२०), वर्ष २०२० में साहित्यकुंज के चार विशेषांकों का संपादन (सुषम बेदी, तेजेन्द्र शर्मा, दलित, फीजी का हिन्दी साहित्य, कैनेडा का हिंदी साहित्य), 'काव्योत्पल' (कैनेडा के कवियों का काव्य संग्रह-२००९)।

नाटक निर्देशन : अंधायुग, रश्मिरथी, मित्रो मरजानी, संत सूरदास-जीवन, संत जनाबाई, दूसरी दुनिया

अभिनय : अंधायुग, अपनी-अपनी पसंद, उनकी चिठ्ठियाँ (तुम्हारी अमृता का संक्षिप्त रूप), आई एम स्टिल मी, उधार का सुख आदि नाटकों में मुख्य भूमिकाएँ।

अंतरर्राष्ट्रीय सम्मेलनों में प्रस्तुति : २०१४ और २०१५ में न्यूयार्क और न्यू जर्सी के 'अंतर्राष्ट्रीय हिन्दी सम्मेलन' में कैनेडा का प्रतिनिधित्व; अंतरराष्ट्रीय कविता और कहानी सभा में सहभागिता।

उपलब्धियाँ : इंडो कैनेडियन आर्ट्स एंड कल्चर इनिशिएटिव द्वारा २०२१ 'वुमैन हीरो अवार्ड’,  विश्वरंग २०२० में 'कैनेडा विश्वरंग’ कार्यक्रम का अयोजन, इंडीड कैनेडा द्वारा २०१८ 'मिरेकिल मॉम’ अवार्ड, टोरोंटो की संस्था 'डांसिग डैमसैल्स' के माध्यम से प्राविंशियल सरकार द्वारा 'वूमैन अचीवर अवार्ड-२०१८' की प्राप्ति ।

काउंसलेट ऑफ इंडिया ऑफिस तथा हिन्दी की अनेक साहित्यिक संस्थाओं द्वारा सम्मान।

संप्रति : स्वतंत्र लेखन।

E-mail : shailjasaksena@gmail.com Phone no. 1-905-580-7341

2 comments:

ve aurten said...

बहुत खूबसूरत लघुकथाएँ

स्नेह गोस्वामी said...

बहुत खूबसूरत लघुकथाएँ