Friday 3 July, 2020

अँधेरा, अपसंस्कृत और आँख


अपने-अपने तरीके से हम सब अँधेरे में उबाल लाने की कोशिशें कर रहें हैं। संध्या तिवारी का तो संकल्प ही है—‘अँधेरा उबालना है’। लेकिन एक आँख ऐसी भी है जो इस अँधेरे के बीच घट रहे अपसंस्कृत को देख रही है, और उस अपसंस्कृत से उन लोगों का साामना कराने को प्रयत्नशील है जिनका दावा है कि वे ‘उजाले’ में खड़े हैं। उसे उम्मीद है कि इस अपसंस्कृत को देखकर ‘उजाले’ में खड़े होने का कुछ लोगों का भ्रम अगर एक प्रतिशत भी टूट गया तो अँधेरे में उबाल आना शुरू हो जाएगा। उबाल लाए बिना अँधेरे के छँटने की कल्पना निरर्थक है। राम और रावण के बीच हुए युद्ध से युगो पहले इन्द्र और वृत्र के बीच युुद्ध हुआ था। वह एक अनवरत युद्ध है जिसमें अनेक बार मारा जाकर भी वृत्र जिन्दा है और इन्द्र इससे हताश नहीं है, युद्धरत है। अंतर यह है कि वृत्र का पुतला बनाकर जलाकर जश्न मनाने की कर्मकांडी परंपरा शुरू करने का विचार कभी वैदिकों में नहीं पनपा। 
आज ही अशोक भाटिया का ‘अँधेरे में आँख’ मिला है और मैं इसमें से अनंत काल को अपनी छोटी काया में समेटे रखने वाली जिन लघुकथाओं को यहाँ दे रहा हूँ, उन्हें एक या दो की गिनती में सीमित करना भी उनके साथ न्याय नहीं होगा। अनंत काल को अपने में समेटे रखने वाली कोई रचना 'एक' होकर भी असीम तक व्याप्त, गिनती से परे रहती है। जिस रचना को आप अंत ही न दे पाएँ उसे 'एक' कैसे कह सकते है। इन रचनाओं के साथ ही इस संग्रह से एक लघुकथा के उस अंश को भी यहाँ उद्धृत कर रहा हूँ जिसमें अनंत काल से चली आ रही एक ऊहापोह को जगह मिली है और जो इस अनंत काल तक चलने वाली एक सच्चाई को कलात्मक आयाम देता है। वह अंश किस लघुकथा से है, यह आपको संग्रह की लघुकथाओं में स्वयं तलाश करना होगा। इस बहाने पहेली ही सही।  
लड़के के भीतर तेज हवाएँ चल रही थीं, काले बादल गरज रहे थे और वह थी कि पीछे हट रही थी!

यह बात लड़के की समझ से बाहर थी।

उसने आवेश में पूछा, “जरूरत हम दोनों की है, फिर तुमने बार-बार ‘नहीं-नहीं’ की रट क्यों लगा रखी है?”

लड़की गंभीर थी। वह चुप रही।
कथा तो असलियत में इतनी ही है; लेकिन उसकी पहुँच सामान्य पाठक तक भी सुनिश्चित करने के लिए सामान्यीकरण की प्रक्रिया भी कथाकार को अक्सर अपनानी ही पड़ती है, अपनानी चाहिए। ऐसा करना कथानक को किंचित सरल, प्रवहमान और ग्राह्य बनाता है।
गत दिनों ऐसी लघुकथाओं की चर्चा फेसबुक पर चली कि सबसे लंबा कालखंड किन लघुकथाओं में है? ऐसे अवसरों पर मुझे एकाएक कमलेश भट्ट ‘कमल’ सामने खड़े दिखाई देने लगते हैं, 1990 के आसपास मेरी ही डिमांड पर लिखे अपने लेख ‘लघुकथा में इतिहास-पुरुष बनने की आपाधापी’ के साथ। उस लेख को अशोक मिश्र ने अपनी अनियतकालीन पत्रिका में प्रकाशित किया था और उस समय के ‘अंधेरों’ में उसे देख-पढ़ कर वह उबाल आया था जिसे हम भीतर ही भीतर उजाले के खिलाफ उबलना कह सकते हैं। अँधेरा जब खुद में उबलता है तो बहुत भयावह परिणाम देने वाला होता है। लघुकथा में ‘लंबे कालखंड’ की हमारी धारणा उतनी ही विकृत है, जितनी ‘एक क्षण’ की है। मैं समझ नहीं पा रहा हूँ कि लघुकथा के संदर्भ में हम घड़ी और कैलेंडर से बाहर निकल क्यों नहीं पा रहे है? इतना तो तय है कि गत 50 वर्षों में लघुकथा जहाँ तक आ पहुँची है, उसे वहीं छोड़कर हमें नयी पगडंडी पर पाँव रखना होगा। इस ‘नयी पगडंडी’ का भी तात्पर्य समझने की जरूरत है। बस यह समझ लें कि कोंपलें हवा में नहीं फूटा करतीं, फूट भी जाएँ तो पनपने के लिए उन्हें जमीन चाहिए ही। 
लंबे कालखंड की दो शानदार लघुकथाएँ अशोक भाटिया के सद्य प्रकाशित संग्रह ‘अँधेरे में आँख’ से यहाँ उद्धृत है। समय इनमें त्रासदी के रूप में दर्ज हुआ है, कैलेंडर के रूप में नहीं। नयी पीढ़ी को पुरानी पीढ़ी से यह सूक्ष्मता ही ग्रहण करनी है। लघुकथा इस सूक्ष्मता को पकड़ने की बड़ी आवश्यकता है।

पहली लघुकथाइतिहास परिचय
वह गरीब था।
सब ने कहा, हम इसे ऊपर उठाएँगे।
लेखक ने उस पर कहानी लिखी। उसे छपवाया, पढ़वाया। उसे पैसा मिला और वह अच्छा लेखक माना जाने लगा। वह खुश था।
गरीब और गरीब हो गया।
चित्रकार ने उसके चित्र बनाकर उन की प्रदर्शनी लगाई। उसे पैसा मिला और वह अच्छा चित्रकार माना जाने लगा। वह खुश था।
गरीब और गरीब होता चला गया।
नेता ने उसके विकास की योजना बनाकर उसके कल्याण की घोषणा करते हुए कई भाषण दिए। उसे तालियां मिलीं और वह अच्छा नेता माना जाने लगा। वह खुश था।
गरीब बहुत गरीब हो गया...

दूसरी लघुकथापीढ़ी-दर-पीढ़ी
उसके पिता ने उसे पढ़ाया नहीं था।
उसने सोचा... मैं अपने बच्चों को जरूर पढ़ाऊँगा।
उसने अपने बच्चे को स्कूल में प्रवेश दिलाया।
एक दिन बच्चे ने किताबों की माँग की।
दूसरे दिन बच्चे ने स्कूल ड्रेस की माँग की।
तीसरे दिन बच्चे ने फीस की माँग की।
फसल कटाई के दिन थे। पिता ने कहा, बेटा, फसल मंडी में बिकेगी अभी मजूरी मिल पाएगी!
मजबूर बेटा पिता का हाथ बँटाने लगा।
एक दिन पाठ याद ना होने पर बच्चे को सजा मिली।
दूसरे दिन स्कूल ड्रेस ना होने पर बच्चे को घर भेज दिया गया।
उस दिन के बाद वह बच्चा कभी स्कूल नहीं गया।
जब वह बड़ा हुआ तो उसने भी सोचा...मैं अपने बच्चे को जरूर पढ़ाऊँगा।

पुस्तक : अँधेरे में आँख; कथाकार : अशोक भाटिया; प्रकाशक : हिन्दी साहित्य निकेतन, 16, साहित्य विहार, बिजनौर-246701; ई-मेल : hindisahityaniketan@gmail.com संस्करण द्वितीय : 2020; पृष्ठ : 136; मूल्य : रु॰ 150/- (पेपरबैक)

No comments: