Monday 3 February, 2020

सुख नैतिक है / डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी

आवरण का चित्र : बलराम अग्रवाल 
[सुप्रसिद्ध हिन्दी आलोचक डॉ. विश्वनाथ त्रिपाठी 16 फरवरी 2020 को नब्बेवें वर्ष में प्रविष्ट हो रहे हैं। अभिनंदन स्वरूप 'कथादेश' के फरवरी 2020 अंक में उनके साथ कथाकार योगेन्द्र आहूजा, ओमा शर्मा, भालचंद्र जोशी तथा कथादेश संपादक हरिनारायण जी की 8 पृष्ठीय अत्यंत महत्वपूर्ण बातचीत प्रकाशित हुई है। प्रस्तुत हैं उक्त बातचीत के अनेक उल्लेखनीय बिंदुओं में से कुछ...। इनमें कोई बिंदु अगर बहसतलब महसूस हो तो पहले कृपया पूरी की पूरी मूल बातचीत अवश्य पढ़ें। ]


¶ साहित्य की प्रकृति बड़ी दोगली है। जहाँ बड़ी यातना होती है, वहाँ यह रस पैदा कर देती है।

¶ मुझे कोई संकट ‘शब्द’ या ‘साहित्य’ पर नजर नहीं आता। हाँ, संकट साहित्य पर खुद साहित्यकारों की तरफ से हो सकता है।… साम्राज्यवाद के विरोधी खुद अधिकाधिक इच्छा से लिप्त न हों, ऐसा नहीं होता। हम उसका विरोध करते हैं, लेकिन हमारी मानसिकता खुद उनके जैसी होती है।

कुछ बातें शायद कहने में अच्छी न लगें, लेकिन वे ठीक होती हैं।

¶ शब्द का और क्रिएटिविटी का संयम से बहुत गहरा सम्बन्ध है।

¶ साहित्य पर खतरा उतना बाहर से नहीं है, जितना उसके भीतर से है।


¶ कौन-सी ऐसी शब्द की या ध्वनि की महिमा है, जो आपको उस सौन्दर्य की ओर उन्मुख कर देती है, जो साहित्य से प्रकट होता है?


¶ सौन्दर्य जो है… राजस्थानी गाना है न, ‘पधारो म्हारे देस!’; ‘पधारो म्हारे’ में क्या ‘जम्प’ है, बस वही है… होंठ का जरा-सा इधर से उधर हो जाना।… संस्कृति ने, नेचर ने, पता नहीं कितनी प्रक्रियाओं के बाद वह होंठ का जरा-सा कर्ब पसंद किया होगा।

¶ म्यूजिक का, साहित्य का, सबका स्रोत जीवन में ही होता है।


¶ लोकगीतों में वो कसक आदिम मनुष्य की जो है… जब आदमी ने सूर्य को पहली बार देखा होगा, ‘ओह’ किया होगा। वह ‘ओह’ लोकगीतों में, बच्चों के रोने-गाने में मौजूद है और हमारा लोकसाहित्य चीख-चीखकर पकड़कर उसे लाता है।

¶ आजकल के आलोचक किसी सिद्धान्त की व्याख्या कर देना आलोचना समझते हैं। रचना में मार्मिकता कहाँ है, जिस ‘कर्ब’ की मैंने बात की थी, वो कर्ब कहाँ है, वो पकड़ना मुश्किल होता है। 


यह प्रेम जो होता है, कभी-कभी आपको दूर फेंक देता है। उसकी जरा-सी भी बात आपको बहुत अजीब लग जाती है।… 


जीवन में एहसान लेना अच्छी चीज नहीं होती।

उन (पं॰ हजारी प्रसाद द्विवेदी जी) की कृपा मुझपर हुई, न जाने कितने जन्मान्तरों के संयोग से। अब मैं किसी और का नहीं हो सकता था।


अकेले में आपकी तारीफ कर दी और फिर सबसे कहा, कि हमने तो ऐसे ही कह दिया था। ऑडियंस देखकर बोलना ये नामवर जी बहुत करते थे। 


¶ साही को पढ़ लिया था और कुछ पश्चिमी आलोचकों को अच्छी तरह पढ़कर… वे गहरी बातें थीं, लेकिन उन (नामवर जी) की नहीं थीं।

¶ रामविलास जी ने लिखा कि नामवर जी की प्रतिभा ये है कि जिस आदमी से उठाते हैं, उसकी शब्दावली भी ले लेते हैं। 


¶ रामविलास जी ने उनसे कहा, कि ‘नामवर, तुमको पता है कि मैं क्यों नाराज हूँ तुमसे?… तुम पहले मेरा चुराते थे, चुरा-चुरा के लिखते थे। अब तुमने साही का चुराकर लिखना शुरू कर दिया! तो तुमने मेरा अपमान किया या नहीं?’


नामवर जी इज़ ए क्रिटिक ऑफ हिस्ट्री ऑन हिज़ ओन। मुक्तिबोध पर रामविलास जी ने गलत लिखा है।… पंत जी, यशपाल, द्विवेदी जी पर उन्होंने खराब लिखा। मुक्तिबोध को उन्होंने बाद में समझा। चूक जाते हैं लोग। पहले जो लिखा वो गलत है। 


अपनी रचना की प्रशंसा सुनने की इच्छा स्वाभाविक है। सिरदर्द होता है तो कोई फोन करके कह दे, कि आपका लेख पढ़ा मैंने, तारीफ कर दे तो सिरदर्द भी ठीक हो जाता है। 


¶ आप अपने बनाए मानदंडों पर चल नहीं सकते, बिल्कुल नहीं चल सकते। 

¶ उर्दू वाला, किसान-जीवन पर नहीं लिख सकता। 

¶ अकेलापन तो होता है… लेकिन उसी को ताकत बनाना होता है वरना इसी में झूलते रहोगे। द्वंद्वात्मक जीवन नहीं जी पाओगे।

¶ जिन ओगों का लेखन आपको पसन्द आता है न, उसका आपके लेखन पर दबाव होता है। यह चीज बड़ी दूर तक जाती है। 

अगर कोई फार्मूला बनाना चाहे तो फार्मूला तो एक ही है, कि लेखक होकर आप मत लिखिए, आप लिखने लगिए तो… जो देख रहे हैं, महसूस कर रहे हैं एक मनुष्य के रूप में, बस वह लिखिए। 

¶ संस्मरण लिखना है तो उनमें आत्मौचित्य नहीं होना चाहिए। एकाउंट नहीं सेटल करना चाहिए। जैसे कोई घटना हुई तो उस घटना के केन्द्र में आप खुद को न रखें। अपने को गाढ़ा रंग न देना, सहज ढंग से लिखना; बल्कि हो सके तो अपने को बहुत पीछे रखना। लेकिन यह सब कोशिश करके नहीं, विवेक ही ऐसा होता है।

¶ जो इतिहास है, विचारधारा है, राजनीति है… प्रपंच जो है, वह बहुत हावी हो गया है हम पर। उससे स्वतंत्र और मुक्त कला ही कर सकती है।

¶ इतिहास इतना हावी जो है, तभी उससे मुक्ति के लिए हम तड़प रहे हैं। जो आदिम मनुष्य रहा होगा, उसे इतिहास से मुक्ति की कोई पीड़ा नहीं रही होगी।

¶ जो सौन्दर्य का क्षण होता है, वह सबसे विशिष्ट तो होता है, लेकिन कनेक्टेड वह पता नहीं कितने क्षणों से है।

¶ जो हमारा सौन्दर्यबोध है, सौन्दर्य की संरचना है, उसके बहुत कॉन्स्टीट्वेंट्स हैं, बहुत घटक हैं।

मुसीबत में, परेशानी में, अर्थाभाव में, बीमारी में पति पत्नी ही साथ देते हैं, प्रेमिकाओं के साथ वह सम्बन्ध नहीं है। कभी हो जाए तो बहुत अच्छा है, लेकिन कुल मिलाकर प्लेटोनिक ही रहता है। वह सुख देता है, जीवन को सार्थकता देता है। वही एक ऐसा मनोविकार है जो आपको स्वार्थ से मुक्त कर देता है। आप अपने सुख के बारे में नहीं, प्रेमी के सुख के बारे में सोचते हैं। असल में, जो इन्द्रियों का सुख है, बहुत बड़ा सुख है। पता नहीं लोग कब समझेंगे रति-क्रीड़ा मामूली सुख नहीं है। तल्लीन होना, तन्मय होना, क्रियेट करना… जो आदि-बिम्ब है क्रिएशन का…

¶ (ओमा शर्मा के सवाल--’क्या आपका मन करता है कि आप पचास साल कम उम्र के होते?’ के जवाब में) लेकिन तब इतनी विज़डम न होती। उस समय, मैं तीन-तीन घंटे बस स्टेशन पर इंतजार किया करता था; लेकिन अब नहीं कर सकता। अब अगर उतनी शक्ति आ जाये तो भी नहीं करूँगा। मैं कहूँगा कि इट इज़ नॉट वर्थ दैट।… विवाहित आदमी (इतर) प्रेम न करे तो अच्छा है। इससे पत्नी और बच्चों को बहुत तकलीफ होती है।… पत्नी को पता चल जाता है। आप पत्नी से छुपा नहीं सकते। एक प्रेमिका से भी दूसरी प्रेमिका नहीं छुपा सकते।

एक बार जो मैंने कहा था, कि इस समय जो कहानियाँ लिखी जा रही हैं, तो वह उस ढंग से नहीं कहा था। सचमुच बहुत अच्छी कहानियाँ लिखी जा रही हैं। आलोचक उन कहानियों की ग्रेटनेस को, उनकी वर्थ को कैसे बतावें? यह मुश्किल काम है, मेहनत माँगता है। मैं इस उम्र में उतनी मेहनत नहीं कर सकता।

¶ साहित्यकार सौन्दर्य को देख सकता है। भोग सकता है। यह उसका पॉजिटिव एडवेंचर है। एक सुन्दरी को देखकर (साहित्यकार होने के नाते) तुमको जो सुख मिलेगा, वह उसे नहीं जो साहित्यकार नहीं।

¶ (भालचन्द्र जोशी के सवाल--‘नामवर जी ने कहा कि आलोचना भी रचना होती है और एक बार यह भी कहा था कि रचना हमेशा आलोचना से बड़ी होती है। इन दोनों की द्वंद्वात्मकता को लेकर क्या कहेंगे आप?’ के जवाब में) ऐसा है भालचन्द्र, आलोचना ही रचना नहीं होती है, पाठ की प्रक्रिया भी एक रचना होती है। जब आप कविता पढ़ते हैं, तो उसके साथ अपनी कविता भी तो रचते जाते हैं न! अच्छी रचना के साथ आप भी तो अपना पाठ रचते हैं। अच्छी रचना पाठकों को सर्जक या सर्जना में सहभागी बनाती है। हर अच्छा पाठक अच्छा आलोचक नहीं होता; लेकिन हर आलोचक एक अच्छा पाठक जरूर होगा। तो आलोचक को तो रचनाकार होना ही पड़ता है। लेकिन आलोचक की महत्ता वहीं तक नहीं है…


¶ (त्रिपाठी जी के कथन--‘सुख नैतिक है’ पर ओमा शर्मा के सवाल--‘और दु:ख?’ के जवाब में) दु:ख केवल वही नैतिक है जिसमें सबके सुख की कामना छुपी हो… विराट दु:ख, बुद्ध वाला। उससे बड़ी नैति्कता क्या हो सकती है? वह दु:ख भी दरअसल सुख ही है, सर्वोच्च, चरम सुख।
दिखा तो देती है, बेहतर हयात के सपने।
खराब होके भी ये जिंदगी खराब नहीं॥(फिराक)

1 comment:

RAJNARAYAN BOHRE said...

आपने बहुत संक्षिप्त शब्दों में विश्वनाथ जी के महत्वपूर्ण विचार यहाँ रखे। अच्छे से कहा उन्होंने। कई चीजें बहुत क्लियर हुई आज।