Sunday 22 September, 2019

'लघुकथा कलश' रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक से-2


'लघुकथा कलश-4' रचना-प्रक्रिया महाविशेषांक से चुनी हुई रचना-प्रक्रियाएँकी दूसरी प्रस्तुति। इनका चुनाव मेरा है और इन्हें उपलब्ध करा रहे हैं भाई योगराज प्रभाकर। अनुरोध है कि शनै: शनै: आने वाली इन रचना-प्रक्रियाओं को समय निकालकर धैर्य के साथ पढ़ें और इन पर अपने विचार, सहमति-असहमति अवश्य रखें। ये सभी रचना-प्रक्रियाएँ आपको सीखने की कला से सम्पन्न करेंगी।



एक बात और ये सभी प्रस्तुतियाँ अपने आप में विशिष्ट होंगी। प्रस्तुति के क्रम को इनकी श्रेष्ठता का क्रम न माना जाए।

तो शृंखला की दूसरी कड़ी के रूप में पेश है, पृष्ठ 211-213 से पटियाला निवासी श्री रवि प्रभाकर की रचना प्रक्रिया उनकी लघुकथा 'लकीरें' के सन्दर्भ में। पहले लघुकथा कुकनूस


समुद्र की उतंग लहरों की स्वरलहरियों से गुंजायमान वातावरण में निश्चिंत भाव से चहकते गुटर
रवि प्रभाकर
गूँ... गुटर गूँ...
करते दाना चुग रहे कबूतरों की गर्दनें अनायास ही होटल ताज की ओर से आ रहे लोगों की दिशा में मुड़ गईं। आज फिर कुछ दरबान चमचमाती पॉलीथीन की थैलियाँ हाथ में लिए विदेशी पर्यटकों के साथ उनकी तरफ़ बढ़ रहे थे। गुटर गूँ... गुटर गूँ... के धीमे स्वरों में अब संशय के भाव थे। ज्यों ही दरबानों ने थैलियों में से दाना निकालकर कबूतरों की ओर उछाला, वे सभी उड़कर साथ सटे पेड़ों और बिजली के खंभों की तारों पर बैठ गए। सेल्फ़ी लेने को बेताब महँगे सेलफ़ोन लिए विदेशी पर्याटकों के बाज़ू उनके मुँह की तरह लटक गए। गुटर गूँ... गुटर गूँ... का स्वर अब बंद हो गया और वातावरण में नीरवता सी पसर गई। पुच्च... पुच्च...पुच्च... करके दाना डालकर कबूतरों को आमंत्रित कर रहे दरबानों के चेहरों पर खीझ और निराशा स्पष्ट झलक रही थी।

तभी एकदम से कुछ हलचल हुई। कबूतरों के पंखों के फड़फड़ाने और उल्लास से भरे गुटर गूँ के स्वरों से दरबान चैंक उठे। उन्हें समझते देर न लगी कि वह आज फिर आ गया है। उनकी नज़रें उधर मुड़ गई जिस तरफ़ कबूतर उड़ कर जा रहे थे। ढीली पतलून, पैबंदों से सजा ओवरसाइज़ कोट और सिर पर मैला-सा हैट। हाँ! वो ही था। धीरे-धीरे अय...अय...अय... करते हुए पुराने-से कपड़े की थैली से दाना निकालकर कबूतरों की ओर बिखेर रहा था। गर्दनें मटका-मटका कर गुटर गूँ... गुटर गूँ... करते दाना चुग रहे कबूतरों में से कुछ उसके कंधे और सिर पर जा बैठे, जैसे पूछ रहे हों कि इतने दिनों से कहाँ थे?

'इस हरामी ने तो जीना हराम कर रखा है। कसैले स्वर में बड़ी-बड़ी मूँछों वाला दरबान अपने साथियों से मुख़ातिब होते हुए बोला।

शही कहते हो यार...। यही मौक़ा होता है इन फॉरेनर शे बख्शीश लेने का...। पर ये शाला, शब गुड़गोबर कर देता है। छोटी-छोटी आँखों वाला गोरखा भी ग़ुस्से से भरा हुआ था।

अपने फॉरेनर गेस्ट कबूतरों संग सेल्फ़ी लेकर कितना ख़ुश हो जाते है... और हमें भी ख़ुश कर देते है... पर इस साले भिखमंगे की वजह से...। अभी पिछले हफ्ते ही इसे वार्निंग दी थी कि जब हम इधर हों तो दिखाई न दिया करे...। लगता है आज इसे सबक़ सिखाना ही पड़ेगा। एक और दरबान का दाँतभीचा स्वर उभरा और वे सभी तेज़ी से उसकी ओर चल पड़े।

ओए! तुझे मना किया था ना... इस तरफ़ मत आया कर। तेज़ क़दमों की आहट और ग़ुस्से भरी आवाज़ सुनकर वह सहम गया। कबूतर उड़कर पेड़ पर जा बैठे और गुटर गूँ... गुटर गूँ... करने लगे। इस बार उनकी गुटर गूँ में आक्रोश झलक रहा था।

जी... वो... मैं...।

क्या बकरी जैशे मिमिया रहा है शाले। उसे सहमा देख गोरखा दरबान उसपर झपटा, जिससे उसका हैट दूर जा गिरा।

हमारे पेट पे लात मारता है, साले...। बड़ी-बड़ी मूँछों वाले दरबान ने उसके कोट का कॉलर पकड़कर एकदम से झटक दिया। जैसे ही कॉलर झटका तो कोट के अंदर से सैंकड़ों कबूतर फड़फड़ाते हुए निकले और आकाश की ओर उड़ गए। अशरीरी पतलून बेजान होकर ज़मीन पर जा गिरी। दरबान के हाथ में सिर्फ कोट ही रह गया और कपड़े की थैली से सारा दाना निकलकर ज़मीन पर बिखर चुका था।

•••••

'कुकनूस' की रचना प्रक्रिया

लघुकथा के बारे में अक्सर कहा जाता है कि यह एक क्षण का चित्र प्रस्तुत करती है। परन्तु मेरा मानना है कि लघुकथा केवल किसी क्षण की उपलब्धि मात्र ही नहीं है, अपितु यह तो दीर्घ साधना की उपलब्धि है। कुकनूस के आविर्भाव के पार्श्व में कुछ घटनाएँ और कुछ कल्पना है, जिनकी कतर-ब्योंत से लघुकथा का प्रस्तुत रूप अस्तित्त्व में आया। तो आइए कुकनूस से रू-ब-रू होते हैं
हमारा घर पटियाला शहर के बीचों-बीच घनी आबादी वाले एक मुहल्ले में स्थित है। जहाँ आस-पड़ोस के सभी लोग एक-दूसरे के दुःख-सुख के साथी है और प्रेमपूर्वक मिलजुल कर रहते हैं। घटना लगभग 17-18 वर्ष पुरानी है। मेरी तीन-साढ़े तीन वर्षीय भतीजी रश्मि, जो पूरे मुहल्ले की दुलारी थी, मुहल्ले के एक बाऊजी की विशेष प्रिय थी। वह जब भी उन बाऊजी को देखती तो उन्हें ओए-होए कहकर पुकारती, जवाब में बाऊजी भी उसे दो-तीन बार ओए-होए कहते। जिसे सुनकर वह बहुत प्रसन्न होती और बाऊजी भी हँस देते थे। यह सिलसिला दो-तीन महीनों से अनवरत चल रहा था। एक बार बाऊजी किसी कारणवश शहर से बाहर गए हुए थे और दो-तीन दिन बाद घर वापिस लौटै थे। रश्मि दो दिनों से बीमार थी। घर लौटते ही किसी कारण बाऊजी की अपने घरवालों से बहस हो गई। चूँकि बाऊजी ग़ुस्सैल स्वभाव के थे, लिहाज़ा वह बहुत ऊँची आवाज़ में चिल्ला रहे थे। बाऊजी की आवाज़ जैसे ही रश्मि के कानों में पड़ी तो वह उठकर सीधे बाऊजी के घर पहुँच गई और उन्हें देखते ही धीरे-से बोली- ओए-होए। रश्मि को देखते ही बाऊजी के ग़ुस्से के जलते तवे पर मानों शीतल जल के ठंडे छींटे गिर पड़े और वह अपना ग़ुस्सा भूलकर रश्मि को ओए-होए, ओए-होए कहते हुए खिलखिला पड़े। घर का माहौल जून की तपती दोपहर से अक्तूबर की द्दाुलाबी सर्द शाम-सा खिल उठा। यह घटना मेरे ज़ेहन में अंकित हो चुकी थी।
शादी के आठ वर्ष बाद हमारे सूने घर में बेटे रोहित की किलकारियाँ गूँजी। बेटे का जन्म हॉस्पिटल में हुआ था। जच्चा-बच्चा का ध्यान रखने के लिए मुझ समेत घर के दो-तीन सदस्य हॉस्पिटल में ही रहते। मेरा एक बड़ा भाई अपना काम-धाम छोड़कर लगातार 15 दिन हॉस्पिटल में ही रहा। उसे रोहित से बहुत स्नेह है। जैसे-जैसे रोहित बड़ा होता गया, उनका स्नेह और भी प्रगाढ़ होता गया। मैंने अक्सर देखा कि रोहित उनका बहुत ध्यान रखता था। जैसे-ही उनकी आवाज़ सुनता, सबकुछ छोड़कर उनके पास चला जाता। वह भी रोहित से ऐसा व्यवहार करते जैसे उसके ताऊ न होकर उसके सहचर हों। रोहित की छोटी-से-छोटी बात का वह बहुत ध्यान रखते। पार्क में घूमने जाना हो, क्रिकेट खेलना हो यो कोई टूटा खिलौना ठीक करवाना हो, रोहित उन्हीं से कहता और वह सबकुछ छोड़कर रोहित के बताए काम में जुट जाते। अब तो हालात यह है कि रोहित अपने ताऊ के विरुद्ध कोई बात सुनना तक भी गवारा नहीं करता।
रोहित जब अढ़ाई वर्ष का था तब उसे प्ले-स्कूल में भेजा गया। स्कूल में वैसे तो कई टीचर्ज़ थे, जो बच्चों को बड़े प्यार से रखते थे पर मैंने नोट किया कि रोहित समेत सभी बच्चे टीचर्ज़ की अपेक्षा वहाँ काम करने वाली आंटी से विशेष स्नेह रखते थे। बच्चे हमेशा आंटी के साथ खेलना पसंद करते और वह आंटी भी बच्चों संग बच्चा हो जाती। वह बच्चों का बहुत ध्यान रखती जैसे; बच्चों को टॉयलेट ले जाना, उनकी साफ़-सफ़ाई इत्यादि कार्य प्रसन्नतापूर्वक करती। किसी बच्चे की नाक आदि बहता देखकर जहाँ टीचर्ज़ नाक-भौंह सिकोड़ते और बच्चों को डाँट भी देते, वहीं आंटी बिना डाँटे, प्रेमपूर्वक बच्चों के नाक वगैरह पोंछती। लंचटाइम में बच्चों को टिफ़िन खोलकर देना और खाते समय उनके हाथ और मुँह पोंछते समय उसकी आँखों में एक संतोष दिखाई देता था। एक बार हमने देखा कि रोहित पिछले कुछ समय से स्कूल जाने में आनाकानी करने लगा था। छुट्टी के बाद जब घर वापिस आता तो उदास-सा रहता और कहता कि अब स्कूल नहीं जाएगा। जब स्कूल जाकर इस बाबत पूछताछ कि तो पता चला कि रोहित ही नहीं सभी बच्चे ऐसा ही कर रहे हैं, क्योंकि आंटी अपने पति के स्थानांतरण की वजह से स्कूल छोड़ गई थी।
उपर्युक्त तीनों घटनाएँ कई वर्षों से मेरे मन-मस्तिष्क में गहनता से अंकित थी। मेरे पास घटना रूपी कच्चा माल तो था, अब उसे लघुकथा में ढालना था यानी अब इन अनुभूत किए हुए अनुभवों को अभिव्यक्त करना था । मैंने इसके तीन-चार ड्राफ्ट लिखे परन्तु मेरी संतुष्टि नहीं हुई। लेखन आत्माभिव्यक्ति है, परन्तु उपर्युक्त तीनों घटनाओं से प्राप्त हृदयानुभूति की अभिव्यक्ति नहीं हो पा रही थी। क्योंकि स्वानुभूति के कुछ अंश अभिव्यक्ति के टकसाली साँचें में ढल नहीं पा रहे थे। अनावश्यक विस्तार और अपने अंतर के भावों को यथार्थ रूप में प्रकाशित न करने की अभिलाषा के फलस्वरूप हृदय में उमड़े भाव बाहर आने के लिए उद्वेलित हो रहे थे। इसी बीच मुझे हिंदी लघुकथा के मूर्धन्य हस्ताक्षर सुकेश साहनी की कुछ प्रतीकात्मक लघुकथाएँ पढ़ने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। सुकेश साहनी अपने आलेख मेरी लघुकथा-यात्रा में एक स्थान पर लिखते हैं--राजेन्द्र यादव लघुकथा को एक कठिन विधा मानते थे। लघुकथा के यान्त्रिक लेख से उनको बहुत चिढ़ थी। मेरी प्रतीकात्मक रचनाएँ उन्हीं की देन है। बस! फिर क्या था, मुझे एक दिशा गई! मैंने यह लघुकथा प्रतीकों में लिखने का फ़ैसला किया, क्योंकि प्रतीको में संक्षिप्तीकरण की प्रवृत्ति होती है, जिस कारण गूढ़ व सूक्ष्म विचार-भावों और अनुभूतियों को संक्षिप्त रूप में प्रभावशाली ढंग से अभिव्यक्त किया जा सकता है। इसलिए ही प्रतीकों को व्यष्टि में समष्टि के संपोषण से अभिहित किया जाता है। प्रस्तुत लघुकथा में मैंने क्रमशः रश्मि, रोहित और प्ले-स्कूल के बच्चों को कबूतरों के रूप में लिया है। कबूतर बच्चों के जैसे ही अबोध और मासूम होते हैं। बाऊजी, रोहित के ताऊ और प्ले-स्कूल की आंटी को लघुकथा के केन्द्रीय पात्र वह के प्रतीक रूप में लिया है। स्कूल टीचर्ज़ तथा स्कूल के अन्य स्टाफ़ मैंबर्ज़ को दरबान व पर्यटकों के रूप में चित्रित किया है, इनको बच्चों (कबूतरों) से कोई लगाव नहीं है, इनके अपने-अपने ही निहित स्वार्थ हैं। वह को मुफ़लिस दिखाने का आशय केवल यही था कि बच्चे, जो कि भगवान का रूप होते हैं, बाह्य चमक-दमक के आवरण से प्रभावित नहीं होते। बच्चे तो उससे प्रभावित होते हैं जो अंदर से स्वयं बच्चा हो। अगर (भगवान स्वरूप) बच्चों का स्नेह पाना है तो बच्चों के संग बच्चा बनना पड़ेगा अर्थात छद्म वेष-व्यापार का त्याग करना पड़ेगा तभी बच्चों (भगवान) को पाया जा सकेगा। लघुकथा के प्रस्तुत रूप से अब संतुष्टि हो गई थी, क्योंकि प्रतीकों का बल पाकर भाषा में नई अर्थशक्ति एवं अभिव्यक्ति में मनोहरता की गंध महसूस हो रही थी।
अब बारी थी लघुकथा के शीर्षक चयन की। भालचंद्र गोस्वामी के अनुसार, शीर्षक का अर्थ यही होता है कि कहानी भर में प्राप्त होने वाली घटना को एक-दो शब्दों में गुंफित कर दिया जाए और इसका उद्देश्य पाठक के लिए उन एक-दो शब्दों में कहानी की रूपरेखा उपस्थित कर देना होता है। पहले इसका शीर्षक पानी रखा। पानी पारदर्शी होता है, जिसके आर-पार आसानी से देखा जा सकता है। लघुकथा के केन्द्रीय पात्र वह का निश्छल स्वभाव भी पानी जैसा पारदर्शी है, जिसे किसी के साथ कोई इर्ष्या या द्वेष नहीं है। और पानी में जीवनदायी गुण होते हैं, जिनके अभाव में जीना संभव ही नहीं है। जैसे कि लघुकथा के केन्द्रीय भाव प्यार अथवा स्नेह के अभाव में जीवन व्यतीत करना भी दुष्कर है। शीर्षक के संदर्भ में कुछ चिंतन-मंथन फिर से किया। जिसके परिणतिस्वरूप शीर्षक कुकनूस का आविर्भाव हुआ। कुकनूस जिसे हिन्दी में अमरपक्षी और अंग्रेजी में फ़ीनिक्स कहा जाता है एक मिथक पक्षी है, जिसका उल्लेख प्राचीन यूनानी ग्रंथों में मिलता है। इस पक्षी की विशेषता है कि यह मरने के बाद अपनी राख से पुनः जीवन प्राप्त कर लेता है। इसका रोना तक शुभ माना जाता है और इसके आँसू से नासूर तक ठीक हो जाते हैं। प्यार सरीखी पवित्र भावना भी कभी नहीं मरती है और इसमें किसी भी ज़ख़्म को ठीक करने की शक्ति होती है। इस प्रकार कुकनूस शीर्षक का आकषर्ण जहाँ लघुकथा के अंत तक बना रहता है, और इसकी सिद्धी भी लघुकथा के अंत में जाकर होती है।
•••••
सम्पर्क : रवि प्रभाकर, बी-29/23, एस.डी. स्कूल के सामने आर्य समाज, पटियाला- 147 001 (पंजाब) चलभाष : 98769-30229

योगराज प्रभाकर, सम्पादक 'लघुकथा कलश', 'ऊषा विला', 53, रॉयल एन्क्लेव एक्सटेंशन, डीलवाल, पटियाला-147002 पंजाब/ मोबाइल98725 68228

नोट: जिन लोगों को #लघुकथा_कलश_चतुर्थ_रचना_प्रक्रिया_महाविशेषांक (जुलाई-दिसम्बर 2019) अथवा कोई भी अन्य अंक लेना हो, वे  डाक खर्च सहित 300 मात्र (इस अंक का मूल्य 450 है) 7340772712 पर paytm कर योगराज प्रभाकर +919872568228 को स्क्रीन शॉट अपना नाम, पूरा डाक-पता पिन कोड सहित और मोबाइल नंबर के साथ सूचित करें। पत्रिका उनको भेज दी जायेगी।

2 comments:

Satvinder Kumar Rana 'baal' said...

लघुकथा और इसकी रचना प्रक्रिया दोनों ही अद्भुत हैं।

Anonymous said...

अनिल मकरिया-
रवि सर को सादर प्रणाम,
पूरा लेख पढ़ने के बाद मेरे मुंह से निकला 'वाह!'
मुझे लगता है लघुकथा लेखन में रत नवोदितों के लिए यह लेख किसी मास्टर की से कम नही है ।
सर आपके इस लेख को मैं आपके नाम के साथ कॉपी कर रहा हूँ ।
उम्मीद करता हूँ भविष्य में लघुकथा से संबंधित इसीतरह के लाजवाब लेख आपकी कलम से नवोदितों का मार्गदर्शन करेंगे ।
धन्यवाद,