Saturday 10 November, 2018

'दृष्टि' का अभूतपूर्व लघुकथा अंक/लता अग्रवाल

लघुकथा के विभिन्न पक्षों पर गहनता से पड़ताल करते हुए, रचनात्मक सामग्री को पाठकों तक पहुँचाने में 'दृष्टि' ने अपने नाम को सार्थक किया है। दूसरे शब्दों में दृष्टि की गहन - गम्भीर दृष्टि लघुकथा के विभिन्न पहलुओं पर रही है | लघुकथा के प्रचार-प्रसार में दृष्टि पत्रिका के महत्वपूर्ण योगदान से इंकार नहीं किया जा सकता । समय-समय पर विशेषांकों के माध्यम से उपयोगी लघुकथाओं से दृष्टि ने लघुकथा साहित्य को समृध्दता प्रदान की है। इस बार का अंक 'मानवेतर लघुकथा विशेषांक' भी लघुकथाकारों को अपनी अनुभूति और विचारों को एक नई दृष्टि प्रदान करता है। संपादक श्री अशोक जैन जी ने लेखकीय प्रतिभाओं को इस पत्रिका के माध्यम से एक वृहत मंच प्रदान किया है।
संग्रह के आरंभ में वरिष्ठ लघुकथाकार श्री अशोक भाटिया जी बलराम अग्रवाल जी और माधव नागदा जी द्वारा विषय पर उल्लेखनीय लेख , पाठकों की 'मानवेतर' से तात्पर्य के प्रति समझ को पुख्ता करता है | अशोक भाटिया जी ने मानवेतर को ‘मानव जीवन के कुछ पक्षों को अलग अंदाज में प्रस्तुत करने, कल्पना की प्रधानता के साथ रचनात्मकता , रोचकता,पठनीयता तथा जीवन के यथार्थ को प्रस्तुत करने वाली कथाएँ माना हैं | तो बलराम अग्रवाल जी ने मानवेतर को  ‘भीतर की आँखों से सृष्टि को देखने की कला स्वीकार किया है। संवेदना से जुड़ना, बिंब, प्रतीक, संकेत के साथ अभिधा और व्यंजना को भी अपरिहार्य माना है | दोनों ही लघुकथाकारों ने मानवेतर को विशुध्द मानवेतर,  प्रमुखतः मानवेतर प्रधान पात्र , मिश्रित पात्र, प्रधान के साथ  अति मानवीय, सजातीय, विजातीय पात्रों के रूप में विभाजित कर लेखकों की बड़ी समस्या का निराकरण किया है | माधव नागदा जी द्वारा संवेदना की धीमी आँच पर पकी  लघुकथाएँ मनुष्य और प्रकृति के बीच संबंधों को पुख्ता करती हैं। उनके अनुसार, किसी भी समय की सामाजिक विसंगतियों को प्रस्तुत करने की दिशा में मानवेतर पात्र  में काफी संभावनाशील हैं| संग्रह की अगली संख्या में सीमा जैन द्वारा धीर गंभीर लघुकथाकार श्याम सुंदर अग्रवाल जी से उनके व्यक्तित्व और कृतित्व पर चर्चा प्रस्तुत है, वहीं दूसरी और मैंने (डॉ. लता अग्रवाल) भी प्रयास किया है मानवेतर लघुकथाओं को लेकर लेखकों के मन में जो दुविधा हैं, उन्हें दूर कर सकूं | इस दृष्टि से बलराम अग्रवाल जी के समक्ष कुछ जिज्ञासाएँ रखी हैं, कितना सफल हो पाए हैं यह पाठक ही बता पाएंगे |
अग्रज लघुकथाकार स्वर्गीय पारस दासोत जी की लघुकथाओं का जिक्र करना न केवल उनके प्रति श्रद्धांजलि है अपितु लघुकथा समाज से उनके साहित्य का परिचय कराना भी है | जहां तक मेरी जानकारी है, उनका संग्रह ‘मेरी मानवेतर लघुकथाएं’ एकमात्र संग्रह है मानवेतर विषय पर | मैंने इस संग्रह पर समीक्षा भी प्रस्तुत की थी; लेकिन, संभवतः स्थान अभाव के कारण स्थान न पा सकी हो |
भ्रष्टाचार का कोई अंत नहीं है नीति और सत्य मिट जाते हैं भ्रष्टाचार को मिटाने के लिए | मानवेतर लघुकथाओं की श्रंखला में स्व. शंकर पुणतांबेकर की लघुकथा  ‘और वह मर गई’ मुझे बेहद पसंद है | यह वर्तमान दौर में अपनी प्रासंगिकता सिध्द करती है | साथ ही शरद जोशी, अजगर वसाहत के साथ निराला जी की ‘जंगल और कुल्हाड़ी’ जीवन का सबक देती है| शब्द ब्रह्म है, कमजोर नहीं है, शब्दों की विनम्रता ही शब्दों की शाश्वतता का प्रमाण है दर्शाती 'शब्द और बम', अंकुश्री की लघुकथा |  मानव की पशुता के विरोध में गर्भाशय की चीत्कार अनघा जोगलेकर की ‘शल्य चिकित्सा’। कहन नया है | उम्र के एक पड़ाव पर टूटने के बाद उपेक्षा के दर्द को साकार करती अशोक जैन जी की लघुकथा ‘दाना-पानी’ |  ‘समय’ बलवान है, कहते अशोक भाटिया जी,  प्यार की सत्ता हमेशा से महान रही है इस बात का एहसास कराती उपमा शर्मा की कथा ‘हार- जीत’ जो बाबा भारती की कथा का स्मरण कराती है | उषा लाल की ‘रंगभेद’ के खिलाफ जागृत करती,  बदलते परिवेश में विचारों की प्रासंगिकता भी बदलती है किंतु सकारात्मक रूप में बदलाव सार्थक प्रतीत होता है यह ‘दृष्टि’ है ओमप्रकाश क्षत्रिय प्रकाश जी की| राजनीति पर व्यंग है कमलेश भारतीय की ‘पत्थर का दर्द’ , जल प्रदूषण की पीड़ा को बयां करती है कृष्ण कुमार आशु की ‘बावड़ी का दुःख’ | कहने को जंगल राज्य है किंतु मानव से बेहतर है जहां मानव की भांति न जाति ,धर्म, संप्रदाय का भेद है नहीं आरक्षण जैसी दुष्कर नीतियां और भ्रष्टाचार है तो कृष्ण मनु की ‘गृह प्रवेश’ में | चंद्र सायता जी की ‘जिंदगी और समय’ मिश्रित मानवेतर पात्र की लघुकथा है जो जिंदगी को समय के सांचे में डालकर देखने की सीख देती है | छवि निगम की ‘ढांचा’ पेड़ और मानव के अटूट संबंध को दर्शाती है| ज्योति जैन की ‘पशु भाषा’ की शक्ति का लोहा मनवा लेती है | ज्योति स्पर्श की ‘दहशत’ नवीन संस्कृति के आंगन से उपेक्षित रिश्तों के दर्द को बयां करती है जब माता- पिता ही बोझ लगने लगे हों तो पुराने पेड़ों की क्या बिसात ? वर्तमान में दिल- दिमाग में भरी ‘द्वन्द’ रहता है | इन्सान किसकी सुने ...अक्सर दिमाग की सुनता है  किन्तु नयना जी दिल को जीत हासिल कराती हैं | स्वतंत्रता जीवन की सबसे बड़ा उपहार है नीरज सुधांशु की लघुकथा ‘कुदरत की नेमत’ पिंजरा पिंजरा ही होता है चाहे सोने का क्यों न हो | इसका शीर्षक ‘गले का पट्टा’ अधिक उपयुक्त लगा | बकरे के माध्यम से बड़ा सवाल उठाती पवित्रा अग्रवाल जी की लघुकथा ‘क्या हम जीव नहीं हैं’ | इंसान और कुत्ते में ‘अंतर’ पर गहरा व्यंग प्रस्तुत करती प्रभात दुबे की कथा अंतर आखिर चरित्र का एमपीएल कुत्ते भी पहचानते हैं | इंसान की पाशविकता से परेशान नन्हे पंछियों की पीड़ा को बलराम जी की कथा ‘चिड़िया इन दिनों’ में देखा जा ःः है | भागीरथ परिहार जी ने ‘धर्मनिरपेक्ष’ के माध्यम से कथा में दृश्यात्मकता, पात्रानुकूल भाषा, परिवेश की दृष्टि से बेहतरीन तथ्य को उजागर किया है | व्यंजना शैली में लिखी गई मधुकांत जी की लघुकथा ‘जनता’ विषय के साथ पूर्ण न्याय करती है | मधु जैन की ‘अहिल्या’ , माधव नागदा जी की ‘फैसला’ परिस्थितियों के प्रति जागृत करती है | मकान और घर के अंतर को सादगी से दर्शाती है  मालती बसंत जी की ‘दो बत्ती वाला मकान’ |
प्रतिष्ठा बड़ी गरिष्ठ होती है इसे विनम्रता की हाजमोला ही पचा सकती है। मीरा जैन की ‘पेड़ का जवाब’ संपूर्ण मानवता का जवाब है | मुरलीधर वैष्णव की ‘विकल्प’ न केवल प्रकृति से मानव के रागात्मक संबंध हेतु प्रेरित करती है अपितु प्रकृति का क्षरण करने पर प्रायश्चित हेतु  भी सचेत करती है | सच जीवन में विवाह शारीरिक, मानसिक और आत्मिक मेल का नाम है रामकुमार आत्रेय की कथा ‘और कौआ रो पड़ा’ विषय और कथन की दृष्टि से नवीन है| राजनीति पर व्यंग करती रामकुमार घोटड जी की ‘जाति भाई’ , राजकुमार निजात की ‘विचार मुद्रा’ विडंबना है आज अच्छे विचारों को भी कबाड़ के हवाले किया जा रहा है|  आज और कल का पिता पुत्र के सांकेतिक माध्यम से रामनिवास मानव जी ने ‘आने वाले कल का भय’ बखूबी दर्शाया है | राम पटवा जी की ‘अतिथि कबूतर’ पहले भी पढ़ चुकी हूं उम्दा राजनीतिक व्यंग्य है|  कुंठा के माध्यम से जीवन दर्पण में झांकने का अवसर देती रामेश्वर कंबोज हिमांशु जी की ‘चिरसंगिनी’ हमने अपने से चिपका रखी हैं कुंठाएँ जिससे हमारी निजता धूमिल हो रही है | नेताओं की भ्रष्टता, कुचरित्रता पर करारा व्यंग है रूप सिंह चंदेल की ‘कुर्सी संवाद’| राजनीति के कुचक्र पर ही मेरी (डॉ. लता अग्रवाल ) लघुकथा ‘लामबंद’ | विनीता राहुरिकर की ‘शुभ शुभ बोल’ इंसान की मानसिकता को दर्शाती है | व्यावहारिक जीवन की सीख, बीती ताहि बिसार दे आगे की सुध ले, विभा रश्मि जी की लघुकथा ‘व्यावहारिक’ वास्तव में व्यावहारिक ज्ञान देने में सफल है | मोहम्मद शफीक अशरफ  की ‘बोल उठा गुंबद’ गंभीर चिंतन और पीड़ा दे जाती है विभिन्न धर्मों के बीच एक नया धर्म इजाद हुआ दंगाई धर्म जिसने गुंबद को भी  नीव में गाड दिया है | इंसान, पेड़ और पक्षियों के त्रिकोणीय संबंध को दर्शाती शील कौशिक जी की लघुकथा ‘चिड़िया ने कहा था’ | शोभना श्याम की ‘आखरी पन्ना’ आज के अभिभावकों को सचेत करती है| दिल का छोटा होना, घर को छोटा कर जाता है , यह आज इंसानी फितरत बन गया है जिसमें जन्मदाताओं के लिए भी स्थान नहीं है श्याम सुंदर दीप्ति जी  की लघुकथा ‘फितरत’ इसी विडंबना को दर्शाती है | प्रेम की इंतहा है संतोष श्रीवास्तव की ‘अंतिम विदाई’ यथा नाम तथा गुण को चरितार्थ करती संतोष सुपेकर की ‘कठोर व्यंग्य’ उसी की अगली कड़ी है संध्या तिवारी की ‘ग्रहों से भारी’ लघुकथा जहां देवस्थान भी आज सुरक्षित नहीं | सतीश राठी जी की ‘कूप मंडूक’ आज संपूर्ण भारत की व्यथा है |हम एक दूसरे की टांग खींचने में ही लगे हैं | चोरी और सीना जोरी सविता इंद्र गुप्ता की ‘उसकी गलती’ | ‘आत्मनिर्भरता’ का पाठ पढ़ाती सुकेश साहनी जी की कथा वही तरेगा जो अपने पर आश्रित होगा| लिंगभेद पर जगदीश राय कुलरियाँ की ‘तलाश’ | मेघा राठी की ‘आंसू का उत्सर्ग’ मेरी दृष्टि में परिपक्व मानवेतर लघुकथा है| सुनील वर्मा की ‘रूहों का वर्गीकरण’ देश की संस्कृति पर करार तमाचा है |
अर्चना रॉय, अशोक वर्मा, अशोक शर्मा ,एन उन्नी, कपिल शास्त्री, कांता रॉय, कुँवर बैचेन ,कृष्ण लता यादव, भगवान, माणक तुलसीराम गौड, मार्टिन जॉन, मुकेश शर्मा, योगेंद्र नाथ शुक्ला, वसुधा गाडगिल, विजय जोशी, वीरेंद्र वीर मेहता, शराफत अली खा, कीर्ति गांधी, सीमा जैन, सुदर्शन रत्नाकर, स्नेह लता गोस्वामी, हरभगवान चावला, कनक हरलालका, कल्पना भट्ट, कोमल वाधवानी, चितरंजन गोप , चितरंजन मित्तल, चित्रा राणा राघव, ज्ञानप्रकाश पीयूष, प्रेरणा गुप्ता नीना छिब्बर, ज्ञान प्रकाश, रूपेंद्र रा, लक्ष्मी नारायण, सतविंदर कुमार, हेमंत राणा आदि की लघुकथाएं भी सराहनीय हैं |
नव विकास श्रंखला में अर्चना मिश्रा, आदित्य, प्रचंडिया , आरती लोकेश, आशा खत्री लता, चंद्रिका व्यास, मृदुल त्यागी, वीरेंद्र भाटिया आदि की लघुकथाओं के लिए कहना चाहूंगी लघुकथा में यदि कुछ शब्दों के आरंभ से बचा जाए तो बेहतर होगा जैसे समय दर्शाने वाले शब्द , या किसी स्थान पर ...., एक बार ...., कहीं एक दिन ....आदि, ये शब्द कहानी का आभास कराते हैं |
वरिष्ठ कथाकार कमल कपूर जी के स्वभाव की विनम्रता से हम सभी परिचित हैं यही विनम्रता का सबक उनकी लघुकथा ‘फर्क’ भी देती है| आभा दवे की ‘गुलाब का फूल और कांटे’ , मनोज तिवारी की ‘प्रगतिशीलता’, राधेश्याम भारतीय की ‘राजनीति’, शशि पाधा की ‘विराग गीत’ नदी और सागर के प्रेम को बयां करती है | सत्य प्रकाश भारद्वाज की ‘आदमी जैसा’, दांत और जीभ के बीच रस्साकशी हरि जोशी जी की ‘जिव्हा का वर्चस्व रहेगा’ आदि लघुकथाएं इस अंक के माध्यम से पाठकों के ज्ञान कोष की सामग्री बनी है|
अंत में यही कहना चाहूंगी कि मानवेतर पात्र, मानवेतर मूर्त -अमूर्त पात्र, विशुद्ध मानवेतर पात्र , प्रधान मानवेतर,  मानवेतर मिश्रित पात्र लघुकथाओं का वृहत  मात्रा में संकलन इस संग्रह को महत्वपूर्ण बनाता है | मानवेतर विषय पर आधारित यह संग्रह न केवल पाठकों के लिए संग्रहणीय है वरन भविष्य में शोधार्थियों के लिए भी यह एक उपयोगी शोध सामग्री के रूप में जाना जाएगा | उन्हें मानवेतर विषय पर लेखन हेतु पर्याप्त सामग्री के साथ उचित मार्गदर्शन के रूप में उपस्थित रहेगा |  इसके लिए संपादक को पुनः साधुवाद |
पत्रिकाः दृष्टि, अर्ध्दवार्षिकी लघुकथा पत्रिका (जुलाई से दिसम्बर २०१८ ), मानवेतर लघुकथा अंक
सम्पादक – श्री अशोक जैन
प्रकाशक – अशोक प्रिंटर्स, गुरुग्राम हरियाणा
कुल पृष्ठ -१६८

समीक्षकः डॉ. लता अग्रवाल, ७३ऊ, यश विला, भवानी धाम , फेस-१,   नरेला शंकरी, भोपाल

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