Thursday 7 November, 2013

मुझमें मंटो / उर्मिल कुमार थपलियाल



16 जुलाई 2013 से ‘जनगाथा’ में  रचना और दृष्टिस्तंभ शुरू किया गया था। इसके अन्तर्गत शहंशाह आलम की लघुकथा ‘आज की नारी’ पर बलराम अग्रवाल व अन्य की तथा चित्रा मुद्गल की लघुकथा ‘गरीब की माँ’ पर डॉ॰ अशोक भाटिया व अन्य की आलोचकीय टिप्पणियों से आप परिचित हो चुके हैं। इस बार प्रस्तुत है कथाकार उर्मिल कुमार थपलियाल की लघुकथा ‘मुझमें मंटो’। यह लघुकथा ‘कथादेश अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता-2013’ में प्रथम पुरस्कृत हुई है तथा इस पर यहाँ प्रस्तुत सुकेश साहनी की टिप्पणी भी पुरस्कृत लघुकथाओं के संदर्भ में ‘निर्णायक की टिप्पणी’ शीर्ष तले ‘लघुकथा के निकष पर पुरस्कृत लघुकथाएँ’ शीर्षक से कथादेश के नवम्बर 2013 अंक में प्रकाशित उनके लम्बे लेख का अंश भर है।

रचना 

मुझमें मंटो
                                        चित्र:बलराम अग्रवाल
उर्मिल कुमार थपलियाल

एक
मैं — मंटो मियाँ, उस खूँखार दरिंदे दहशतग़र्द ने सड़क पार कर रहे एक छोटे बच्चे पर निशाना साधा और दन्न से गोली चला दी। मगर गोली बच्चे के करीब से निकल गई, ऐसा कैसे हुआ?
मंटो — इसलिए कि गोली को पता था।
मैं — क्या पता था?
मंटो — कि वो बच्चा है।

…और दृष्टि 
लघुकथा के निकष पर / सुकेश साहनी 
हम सभी मानते हैं कि लघुकथा को ‘लघु’ होना चाहिए और उसमें ‘कथा’ होनी चाहिए। कथा की अनिवार्यता पर इसलिए बल दिया जाता है क्योंकि कथा का चुम्बक हमारे दिल और दिमाग़ को रचना की ओर खींचता है और हम पात्रों से एकात्म होकर पूरी रचना को सही रूप में ग्रहण कर पाते हैं। आकारगत लघुता के कारण यहाँ ‘कथा’ के लिए सीमित अवसर ही है। यह लेखक के रचना कौशल पर निर्भर है कि वह कैसे इनका संयोजन कर मुकम्मल रचना का सृजन कर पाता है।
      उर्मिल कुमार थपलियाल की लघुकथा ‘मुझमें मंटो’ को लघुकथा की कसौटी पर कसा जाये तो प्रथमद्रष्ट्या इसमें (1) कथा नहीं है (2) शीर्षक कमजोर है, कथ्य को सम्प्रेषित नहीं करता (3) मानवेतर पात्र का उपयोग किया गया है, जैसी कमियाँ मालूम पड़ती हैं। लघुकथा में बात इतनी-सी है कि दहशतगर्द ने सड़क पार कर रहे बच्चे पर निशाना साधा और दन्न से गोली चला दी, मगर गोली बच्चे के करीब से निकल गई। इसमें लेखक ने मंटो से संवाद स्थापित किया है, मंटो अपने अंदाज़ में जवाब देते हैं कि बच्चा इसलिए बच गया क्योंकि गोली को पता था कि वह बच्चा है। इसमें गोली के रूप में मानवेतर पात्र का उपयोग किया गया है। विभिन्न लघुकथा गोष्ठियों में चली लम्बी बहसों के बाद हम सभी ये मानते हैं कि लघुकथा में मानवेतर पात्रों का प्रयोग कम से कम किया जाना चाहिए क्योंकि इनका इस्तेमाल उसे अपनी विकास यात्रा में फिर नीति/बोधकथा की ओर धकेलता है। मानवेतर पात्र का उपयोग वहीं किया जाना चाहिए जहाँ रचनाकार को लगे कि ऐसा करने से वह रचना को और प्रभावी बनाने में सफल होगा। प्रश्न उठता है कि इस लघुकथा में ऐसी क्या बात है, जिनकी वजह से प्रथम स्थान पर रही है।
      ‘मुझमें मंटो’ पर आगे चर्चा से पूर्व यहाँ प्रस्तुत है मंटो की लघुकथा ‘बेखबरी का फायदा’ :
लिबलिबी दबी। पिस्तौल से झुँझलाकर गोली बाहर निकली। खिड़की में से बाहर झाँकने वाला आदमी उसी जगह दोहरा हो गया।
लिबलिबी थोड़ी देर बाद फिर दबी—दूसरी गोली भिनभिनाती हुई बाहर निकली। सड़क पर माशकी की मशक फटी। औंधे मुँह गिरा और उसका लहू मशक के पानी में मिलकर बहने लगा।
लिबलिबी तीसरी बार दबी—निशाना चूक गया। गोली एक गीली दीवार में जज्ब हो गई। चौथी गोली एक बूढ़ी औरत की पीठ में लगी। वह चीख भी न सकी और वहीं ढेर हो गई। पाँचवीं-छठी गोली बेकार गई। कोई न हलाल हुआ, न जख्मी।
गोलियाँ चलाने वाला भिन्ना गया। दफअतन सड़क पर एक छोटा-सा बच्चा दौड़ता दिखाई दिया। गोलियाँ चलाने वाले ने पिस्तौल का मुँह उस तरफ मोड़ा।
उसके साथी ने कहा, “यह क्या करते हो?”
गोलियाँ चलाने वाले ने पूछा, “क्यों?”
“गोलियाँ तो खत्म हो चुकी हैं।”
“तुम खामोश रहो, बच्चे को क्या मालूम!”
‘स्याह हाशिए’ के अन्तर्गत भारत-पाक विभाजन की त्रासदी पर लिखी गई इस रचना में मंटो ने दंगों के दौरान दहशतगर्दों का मखौल उड़ाते हुए उनकी मानसिक स्थिति पर करारा व्यंग्य किया है।
      वर्तमान संदर्भों में थपलियाल जी की लघुकथा अत्यधिक महत्वपूर्ण एवं अर्थगर्भी है। जब हम इसका रचनात्मक विश्लेषण करते हैं तो पाते हैं कि ‘गोली’ के रूप में मानवेतर पात्र का उपयोग लघुकथा की जरूरत है। इस रचना के माध्यम से लेखक यह संदेश देने में सफल रहा है कि संवेदनाएँ कभी नहीं मरेंगी, वे अपना गुण-धर्म निभाती रहेंगी, मनुष्य की क्रूरता को परास्त करती रहेंगी। खूँखार दरिंदे दहशतगर्द का सड़क पार कर रहे छोटे बच्चे पर निशाना साधना और दन्न से गोली चलाना यानी दहशतगर्द की बच्चे के प्रति संवेदना का लोहे की तरह कठोर हो जाना। यहाँ गोली को (जब तक दरिंदे के कंट्रोल में है) दहशतगर्द की बच्चे के प्रति संवेदनहीनता के प्रतीक के रूप में प्रयोग किया गया है; परन्तु दहशतगर्द की चंगुल से छूटते ही संवेदना अपना गुण-धर्म निभाती है और बच्चे की रक्ष करती है। यही रचनाकार का संदेश है। यहाँ लेखक ने जानबूझकर मंटो से संवाद किया है ताकि रचना को विभाजन की त्रासदी के बाद आधुनिक संदर्भों में रेखांकित किया जा सके। ‘मुझमें मंटो’ सकारात्मक सोच के साथ मानवित्थान की अभिलाषा की कथा है। मानवेतर पात्र के उपयोग से रचना का प्रभाव कई गुना बढ़ गया है।  
                      (लघुकथा ‘मुझमें मंटो’ व इस पर सुकेश साहनी की टिप्पणी कथादेश नवम्बर 2013 अंक से साभार)

1 comment:

राजेश उत्‍साही said...

किंतु कम से कम मैं इस विश्‍लेषण से सहमत नहीं हूं..क्‍या गोली को केवल बच्‍चे के लिए संवदेनशील होना चाहिए..बाकी मानवों के लिए क्‍यों नहीं।