Monday 16 January, 2012

इक्कीसवीं सदी : पहले दशक की लघुकथाएँ


                                            चित्र : बलराम अग्रवाल
दोस्तो, सन् 2003 में अनुभव (डॉ. नरेन्द्र नाथ लाहा), उत्तराधिकारी (सुदर्शन भाटिया), कटाक्ष (किशोर श्रीवास्तव), कदम कदम पर हादसे (जगदीश कश्यप), कीकर के पत्ते (शराफत अली खान), खुलते परिदृश्य (प्रेम विज), नमस्कार प्रजातन्त्र (महेन्द्र राजा), पहाड़ पर कटहल(सुदर्शन वशिष्ठ), पूजा (पृथ्वीराज अरोड़ा), भूखे पेट की डकार (रविशंकर परसाई), मीरा जैन की सौ लघुकथाएँ (मीरा जैन) यह मत पूछो (रूप देवगुण), लघुदंश (प्रद्युम्न भल्ला) तथा लपटें(कहानी+लघुकथा संग्रह:2003) चित्रा मुद्गल कुल 14 संग्रहों की सूची प्राप्त हुई है। इनमें से कदम कदम पर हादसे (जगदीश कश्यप) के बारे में सूचना संदेहास्पद प्रतीत हो रही है। सन् 2004 में  अछूते संदर्भ (कनु  भारतीय), अपना अपना दु:ख (शिवनाथ राय), अपना हाथ जगन्नाथ (सुदर्शन भाटिया), उसी पगडंडी पर पाँव (डॉ. शील कौशिक), एक बार फिर (मनु स्वामी), कड़वे सच (दलीप भाटिया), कर्तव्य-बोध (माणक तुलसीराम गौड़), चन्ना चरनदास (बलराम अग्रवाल:कहानी-लघुकथा संग्रह), ज़ुबैदा (बलराम अग्रवाल), दिन-दहाड़े (सरला अग्रवाल), देन उसकी हमारे लिए (अन्तरा करवड़े), प्रभात की उर्मियाँ (आशा शैली), पोस्टर्स (मनोज सोनकर), बयान (चित्रा मुद्गल), बुढ़ापे की दौलत (मालती वसंत), मुखौटा (डॉ. आभा झा), मुर्दे की लकड़ी (भगवान देव चैतन्य), सच के सिवा (जसवीर चावला), सपनों की उम्र (अशोक मिश्र), सफेद होता खून (डॉ. प्रदीप शर्मा ‘स्नेही’), सागर के मोती (डॉ॰ प्रभाकर शर्मा) कुल 21 संग्रहों की सूची प्राप्त हुई है। इनमें से 2004 में प्रकाशित जितने भी संग्रह मेरे पास उपलब्ध हैं उनमें से प्रस्तुत हैं निम्न लघुकथाएँ—



भिखारी का दान/अशोक मिश्र
सारा दिन भीख माँगने पश्चात उसे आज काफी अच्छी कमाई हो गई थी। उसने सोचा कि काफी दिनों बाद आज अच्छा पैसा मिला है तो वह भरपेट पूड़ी-सब्जी और मिठाई खायेगा।
                                               चित्र : बलराम अग्रवाल
उसने होटल से खरीदकर एक एकांत स्थान पर पूड़ी-सब्जी खाना शुरू ही किया था कि इतने में एक-और बूढ़ा भिखारी आ पहुँचा जो काफी कृशकाय था, बोला—“बेटा, कई दिनों का भूखा हूँ। थोड़ा खाना खिला दे। बड़ा उपकार होगा तेरा।
पहले वाले भिखारी ने अपना पूरा खाना दूसरे बूढ़े भिखारी को दे दिया।
पहला भिखारी आज काफी संतोष महसूस कर रहा था कि भिखारी होने के बावजूद वह किसी को खाना खिला सका।
चेहरे पर उभरे संतोष के भाव से उसकी रही-सही भूख कपूर की भाँति उड़ गई थी।

भ्रष्टाचार/अशोक मिश्र
चारों तरफ फैले और दिन-प्रतिदिन बढ़ रहे भ्रष्टाचार की ओर सरकार का ध्यान गया और उसने भ्रष्टाचार उन्मूलन आयोग बनाकर उसके अध्यक्ष पद का भार एक निहायत ईमानदार और कर्मठ किस्म के अधिकारी को सौंप दिया।
शाम को साहब खाने की मेज पर बैठे हैं—“मैडम, ये दशहरी आम तो बड़े टॉप क्लास के हैं! क्या इन्हें बाज़ार से मँगाया था?
नहीं तो।
फिर इन्हें कौन दे गया?
बड़ा बाबू रामचरण।
अरे, वो तो सस्पेंड है घूस लेने के आरोप में। खबरदार, फिर उससे आम या कोई सामान न लेना।
दूसरे दिन।
अरे, आम आज फिर वही? बड़े टेस्टी हैं। साहब चिंतन में मगन हो गयेआम पच्चीस रुपए किलो…एक टोकरी आम, मतलब दस किलो।
साहब ने तीसरे दिन रामचरण बाबू से आम की बाबत पूछा तो उत्तर मिला—“सरकार, बाग आपका है। सेवा का मौका देते रहें।
ठीक है, ठीक है।
साहब पुन: चिंतन कर फाइल-स्टडी कर रहे हैं और रामचरण बाबू आम पहुँचा रहे हैं। उन्हें आशा है कि एक न एक दिन…।
(सपनों की उम्र:2004 से)

टॉयलेट/डॉ॰ सरला अग्रवाल
                                              चित्र : बलराम अग्रवाल
मम्मी देखो, ये मालती आज फिर हमारे टॉयलेट को गंदा करके गई है। कितनी बदबू आ रही है!! अंकुर ने गुस्से में मम्मी से कहा।
क्यों री मालती, दस बजाकर घर से आती है, फिर भी हमारे टॉयलेट में ही जाती है रोज। कितनी बार तुझे कह दिया कि फ्लश खींच दिया कर और वहीं रखा विम डालकर ब्रश से साफ कर दिया कर।
शर्म से पानी-पानी होती मालती ने घबराहट भरे स्वर में कहा,मालकिन, घर में टॉयलेट कहाँ है? सब बाहर बहते पानी के आसपास बैठेते हैं। मुझे वहाँ जाते लाज आती है। एक दिन पड़ोस के एक मर्द ने मेरा हाथ भी पकड़ लिया था।
तो साफ तो कर सकती है यहाँ का टॉयलेट।
मैं करने लगती हूँ, इतने में ही घर में सभी शोर मचाने, डाँटने लगते हैं। कहकर वह मुँह नीचा करके खड़ी हो गई।
ठीक है, अब से कोई तुझसे कुछ नहीं कहेगा, पर तू पूरी सफाई करके बाहर आना। आकर साबुन से हाथ धोना, फिर कोई काम करना।
माँ, यह बात तो ठीक नहीं लगती। तभी बड़े बेटे ने आकर कहा। वह पीछे खड़ा सब बातें सुन रहा था।
ठीक नहीं लगती तो इनकी बस्ती में दो-चार टॉयलेट खुद बनवा दो, या सुविधा वालों से कहकर ही सही। माँ ने शान्तिपूर्वक उत्तर दिया।
(दिनदहाड़े:2004 से)

मानदंड/चित्रा मुद्गल
माँ, बेचारी बाई को तुमने उसके कपड़े धोने से क्यों मना कर दिया?
                                             चित्र : बलराम अग्रवाल
मना न करती तो क्या करती?
क्या बात हुई?
महारानी सुबह का चौका-बरतन निबटाने चढ़ी दोपहरी में पधार रही हैं। टोकने पर बिसूरने लगींतीन दिन से नलके में बूँद पानी नहीं टपका। पीने और कपड़े-लत्ते धोने बगल की झोंपड़-पट्टी से भरके लाना पड़ रहा है। इसीलिए देर हो गई…।
हूँअ…
पसीजकर मैंने कह दियाकपड़े-लत्ते यहीं लाकर धो ले, मगर चौका-बासन में अबेर न कर। वही निहाद है, पाँवों को हाथ लगाने दो, फट्ट पहुँचा पकड़ लेंगे। जब देखो, गट्ठर उठाए चली आ रही…
हो सकता है, पानी की दिक्कत अब तक बरकरार हो?
हो तो हो। ठेका ले रखा है रोज़ का? चीकट ओढ़ने-बिछोने, कपड़े-लत्ते हमारे नहानघर में फींचेगी? बाल-बच्चों वाला घर, छूत-पात नहीं लग सकती?
क्यों नहीं लग सकती। एक बात बताओ माँ, छूत आदमी से ज्यादा लगती है या कपड़े लत्तों से?
दोनों से…
तब तो तुम फौरन सावित्रीबाई को चलता करो।
ऊल-जलूल न बक…आसानी से मिलती हैं कामवालियाँ?
सावित्रीबाई की आधी कमर दाद से भरी हुई है, गौर किया तुमने?
चुप रह…तुझसे अकल उधार नहीं लेनी। और सुन, घर-गृहस्थी के मामले में तुझे टाँग अड़ाने की जरूरत नहीं, समझी!
उसने विस्मय से माँ की ओर देखा।
(बयान:2004 से)

3 comments:

राजेश उत्‍साही said...

अशोक मिश्र की पहली लघुकथा कुछ हद तक प्रभावित करती है। पर दूसरी में वे गच्‍चा खा गए प्रतीत होते हैं। पत्‍नी से वे कहते हैं कि रामचरण संस्‍पेड है और दूसरे ही दिन वह आफिस में नजर आता है।
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सरला अग्रवाल की लघुकथा समस्‍या और उसके समाधान को नए कोण से सामने रखती है,लेकिन अंत में आकर लड़खड़ा जाती है।
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चित्रा मुद्गल की लघुकथा शुरू बहुत प्रभावी तरीके से होती है लेकिन जहां उसे खत्‍म हो जाना चाहिए था,उससे आगे बढ़ जाती है। नतीजा यह कि दम टूटना ही था।

प्रदीप कांत said...

Shuru ki dono lagjukathaein jyada achchhi hain

सुधाकल्प said...

भिखारी का दान --लघुकथा बहुत कुछ कह गई । दानी राजा भी हो सकता है और रंक भी । इसके लिए दिल होना चाहिए ,भावना होनी चाहिए ।
मानदंड --आज सच में इंसान दोहरे मापदण्डों के बीच झूल रहा है । विरोधी विचारो के ध्वनित टकराव की काफी समय तक छाप रही ।