Sunday 16 November, 2008

हरियाणा का हिंदी लघुकथा लेखन / डा॰ अशोक भाटिया

सितम्बर, 2008 में प्रारम्भ हुए डा अशोक भाटिया के लेख की अंतिम किश्त इस बार प्रस्तुत है। इसी के साथ ‘जनगाथा’ की प्रस्तुति का पहला वर्ष भी पूरा हो रहा है। सभी मित्रों से आवश्यक सुझाव व सहयोग आमंत्रित हैं। – बलराम अग्रवाल


हरियाणा का हिंदी लघुकथा लेखन
डा॰ अशोक भाटिया

अक्टूबर, 2008 से आगे का अंश…
हरियाणा के प्रतिनिधि लघुकथा लेखक

विष्णु प्रभाकर
हिंदी के प्रतिष्ठित साहित्यकार विष्णु प्रभाकर मूलत: नाटककार व कहानीकार हैं। इसके अतिरिक्त इन्होंने जीवनी और लघुकथा-साहित्य में भी अपनी प्रतिभा का परिचय दिया है।
विष्णु प्रभाकर की पहली लघुकथा ‘सार्थकता’ मुंशी प्रेमचंद द्वारा संस्थापित/संपादित ‘हंस’ पत्रिका के जनवरी 1939 अंक में प्रकाशित हुई थी। इनके अब तक—‘जीवन पराग’(1963), ‘आपकी कृपा है’(1982) और ‘कौन जीता कौन हारा(1989)—तीन लघुकथा-संग्रह प्रकाशित हो चुके हैं। इन तीनों ही संग्रहों में लघुकथाएँ और बोधकथाएँ, दोनों साथ-साथ रखी गई हैं। ‘आपकी कृपा है’ संग्रह में लघुकथा-आंदोलन के महत्व का उल्लेख करते हुए वह कहते हैं—“आज लघुकथा को लेकर जो आंदोलन उभरा है, यदि वह न उभरा होता तो संभवत: मेरा ध्यान इस ओर इतनी गंभीरता से न जाता।” उनके ही शब्दों में—“आदर्श लघुकथा वह होती है, जो किसी कहानी का कथानक न बन सके।”
विष्णु प्रभाकर की अनेकश: चर्चित लघुकथाओं में फर्क, पानी की जाति, ईश्वर का चेहरा और दोस्ती प्रमुख हैं। ‘फर्क’ लघुकथा में मनुष्य-मनुष्य के बीच बनाई हुई सीमाओं पर सहज व्यंग्य किया गया है, तो ‘ईश्वर का चेहरा’ रचना भावनात्मक धरातल पर आकर सांप्रदायिक भेदभाव को भुलाने की प्रेरणा देती है।
विष्णु प्रभाकर की सन 1963 के बाद लिखी लघुकथाएँ मुख्य रूप से मानवीय संवेदनाओं की रचनाएँ हैं। उन्होंने द्वंद्व के माध्यम से मानव में छिपे शुभ और सुंदर तत्वों को उभारने का कलात्मक प्रयास किया है। इन रचनाओं की ताकत इनकी सजग सरलता व सहजता में है।

पूरन मुद्गल
मूलत: कहानीकार और कवि पूरन मुद्गल की पहली लघुकथा ‘कुल्हाड़ा और क्लर्क’ सन 1964 में हिंदी मिलाप में प्रकाशित हुई थी। इनकी लघुकथाओं का पहला संग्रह ‘निरंतर इतिहास’ सन 1982 में प्रकाशित हुआ। इसके अतिरिक्त ‘लघु आघात’ पत्रिका में इन्होंने लघुकथा के आलोचना-पक्ष पर भी कलम चलाई है। वह आठवें दशक में हिंदी लघुकथा आंदोलन के सक्रिय साक्षी रहे हैं।
पूरन मुद्गल जन-पक्षधरता के रचनाकार हैं। अपनी लघुकथाओं में इन्होंने विभिन्न सामाजिक-पारिवारिक विषयों को उकेरा है। ‘अमरता’, ‘निरंतर इतिहास’, ‘बाहर भीतर’, ‘पहला झूठ’ इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएँ हैं। हंसराज रहबर के शब्दों में—“पूरन मुद्गल ने अपनी लघुकथाओं में जीवन की साधारण घटनाओं को इस तरह उकेरा है कि वर्तमान समाज का कोई न कोई सत्य नजरों के सामने आकर साकार हो जाता है।” शंकर पुणतांबेकर का मत है कि—“पूरन मुद्गल संस्कारगत(कुसंस्कारगत भी) व्यक्ति के चित्रण में सिद्धहस्त हैं।”

रमेश बतरा
समकालीन हिंदी लघुकथा को सही दिशा देने वाले रचनाकारों में कथाकार-संपादक रमेश बतरा अग्रणी हैं। इन्होंने आठवें दशक के आरंभ से ही एक ओर अपने विभिन्न लेखों के माध्यम से लघुकथा की शक्ति और व्यापकता को लगातार रेखांकित किया तो दूसरी ओर स्तरीय लघुकथाएँ लिखकर इस साहित्य-प्रकार को समृद्ध किया। 1971-72 में करनाल से पाक्षिक समाचार-पत्र ‘बढ़ते कदम’ संपादित कर उसमें लघुकथाओं को स्थान दिया। अगस्त 1973 में इन्होंने अम्बाला छावनी से प्रकाशित मासिक पत्रिका ‘तारिका’ का लघुकथांक संपादित किया और जून 1974 में चंडीगढ़ से प्रकाशित ‘साहित्य निर्झर’ का लघुकथांक। इस दौर के बाद पहले वह प्रतिष्ठित कथा-पत्रिका ‘सारिका’ में, तत्पश्चात ‘नवभारत टाइम्स’ तथा ‘संडे मेल’ में उप-संपादक व वरिष्ट उप-संपादक रहे। इन सभी पत्र-पत्रिकाओं में कार्यरत रहते हुए इनके माध्यम से तथा इनके अतिरिक्त अन्य पत्र-पत्रिकाओं के माध्यम से भी रमेश बतरा ने हिंदी लघुकथा के स्वरूप को निखारने-सँवारने का काम निरंतर जारी रखा। अपनी लघुकथाओं का हालाँकि वह कोई एकल लघुकथा-संग्रह प्रकाशित नहीं करा पाए; बावजूद इसके समकालीन हिंदी लघुकथा साहित्य में उनका स्थान अक्षुण्ण है। ‘सुअर’, ‘खोया हुआ आदमी’, ‘बीच बाज़ार’, ‘नौकरी’, ‘लड़ाई’, ‘नागरिक’ आदि इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएँ हैं। ‘कहूँ कहानी’ शीर्षक इनकी लघुकथा अपने अति-लघु आकार व तीव्र संवेदनशीलता के कारण बेहद चर्चित है—
--ए रफीक भाई! सुनो…उत्पादन के सुख से भरपूर थकान की खुमारी लिए, रात मैं कारखाने से घर पहुँचा, तो मेरी बेटी ने एक कहानी कही—एक लाजा है, वो बोत गलीब है!
रमेश बतरा की लघुकथाएँ अँधेरे में रोशनी का काम करती हैं। कलात्मकता और सांकेतिकता के ज़रिए वह अपने कथन को सशक्त रूप में उभारते हैं। इनकी लघुकथाएँ ज़रा-सा कलात्मक घुमाव देकर शब्दों से नई अर्थ-व्यंजनाएँ उभारने में सक्षम हैं। इनकी ‘सुअर’ शीर्षक लघुकथा सांप्रदायिक उन्मादियों को सचेत करती है कि—मस्जिद में सुअर नहीं घुस आया, बल्कि सुअर तो राजनीतिक गलियारे से निकली संकीर्णता का नाम है।


पृथ्वीराज अरोड़ा
समकालीन हिंदी लघुकथा को पुनर्स्थापित करने में महत्वपूर्ण योग देने वाले कथाकारों में पृथ्वीराज अरोड़ा प्रमुख हैं। इनकी अधिकतर लघुकथाएँ ‘सारिका’ के माध्यम से सामने आईं। अब तक इनके दो लघुकथा-संग्रह—‘तीन न तेरह’(1997) और ‘आओ इंसान बनाएँ’(2007) प्रकाशित हो चुके हैं। इनकी पहली लघुकथा ‘एहसास’ सन 1974 में प्रकाशित हुई।
पृथ्वीराज अरोड़ा की लघुकथाओं का मूल-स्वर अन्याय और कुप्रथाओं का विरोधी है। मुख्यत: मध्य-वर्ग पर केन्द्रित इनकी रचनाएँ मध्य-वर्ग की संवेदना की उपज हैं। इनकी लघुकथाएँ पाठक को संघर्षशील होने व अन्याय के विरुद्ध सक्रिय होने की प्रेरणा देती हैं। ‘दया’, ‘दु:ख’, ‘विकार’, ‘कील’, ‘प्रभु-कृपा’ आदि इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएँ हैं। ‘दया’ पृथ्वीराज अरोड़ा की ही नहीं, हिंदी की श्रेष्ठ लघुकथाओं में अपना स्थान रखती है। ‘दया-भाव भी धन पर निर्भर है’—इसे रचनात्मक माध्यम द्वारा स्पष्ट करते हुए यह रचना इतिहास की छोटी-सी कड़ी को नई दृष्टि से देखने का आग्रह करती है।

कमलेश भारतीय
आठवें दशक में हिंदी लघुकथा के परिदृश्य में जो कथाकार निरंतर सृजनरत रहे, उनमें कमलेश भारतीय प्रमुख हैं। व्यवसाय से पत्रकार कमलेश भारतीय के अब तक तीन लघुकथा-संग्रह—‘मस्तराम जिंदाबाद’(1984), ‘इस बार’(1992), और ‘ऐसे थे तुम’(2008) प्रकाशित हो चुके हैं। भारतीय की पहली लघुकथा ‘किसान’ सन 1971 में ‘प्रयास’ में प्रकाशित हुई थी। इनकी लघुकथाएँ मुख्यत: ‘सारिका’, ‘कादम्बिनी’, ‘दैनिक ट्रिब्यून’ में छपी हैं। इनके अतिरिक्त प्रमुख लघुकथा-विशेषांकों में भी इनकी लघुकथाएँ शामिल होती रही हैं।
कमलेश भारतीय ने अपनी लघुकथाओं में एक साथ ग्राम्य जीवन, महानगरीय सभ्यता और आतंकवाद-विरोध पर कलम चलाई है। इनकी प्रतिनिधि लघुकथाओं में ‘अब क्या देंगे’, ‘किसान’, ‘सपने’, ‘कायर’, ‘विश्वास’ और ‘मन का चोर’ शामिल हैं। ‘कायर’ इनकी सबसे चर्चित लघुकथा है, जो संतुलन और मजबूती के साथ स्त्री-पुरुष संबंधों को उभारती है। कमलेश भारतीय मूलत: मानवीय संबंधों के कथाकार हैं। इनकी लघुकथाओं की भाषा अपनी रवानगी व सादगी के कारण खास तौर से ध्यान खींचती है।

अशोक भाटिया

अशोक भाटिया ने लघुकथा के क्षेत्र में रचना, आलोचना, संपादन और अनुवाद—चार धरातलों पर कार्य किया है। ‘जंगल में आदमी’(1990) इनकी लघुकथाओं का चर्चित संग्रह है। इनकी पहली लघुकथा ‘अपराधी’ जून 1978 में प्रकाशित ‘समग्र” के लघुकथांक में छपी थी। ‘रंग’, ‘रिश्ते’, ‘तीसरा चित्र’, ‘पीढ़ी-दर-पीढ़ी’, ‘चौथा चित्र’, ‘व्यथा कथा’, ‘कपों की कहानी’ आदि इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएँ मानी जाती हैं। राधेलाल बिजघावने के शब्दों में, “अशोक भाटिया डस्टबिन-संस्कृति की सड़ाँध और एकतरफा अभियोगों की छिन्न-भिन्न मानसिकता को लघुकथाओं में बुनते हैं।” और रामयतन यादव के शब्दों में,“… ‘रंग’ वेदनात्मक अनुभूति पर आधारित सहज रूप से तिलमिला देने वाली लघुकथा है। यह लघुकथा सूक्ष्म विचार-शक्ति और सर्जनात्मक क्षमता का विस्मयकारी प्रमाण है।”
बलराम अग्रवाल का कहना है कि—“…‘श्रेष्ठ पंजाबी लघुकथाएँ’(1990) अशोक भाटिया का पंजाबी से हिंदी में किए गए स्तरीय अनुवाद और संपादन का कार्य है, जबकि ‘पेंसठ हिंदी लघुकथाएँ’(2001), ‘निर्वाचित लघुकथाएँ’(2005) और ‘विश्व साहित्य से लघुकथाएँ’(2006) उनके सजग लघुकथा-चयन और शोधपरक संपादकीय लेखों/ बेधक भूमिकाओं के कारण अनगिनत संपादित लघुकथा-संकलनों की भीड़ में अपना अलग और विशिष्ट मुकाम रखते हैं। उनका आलोचनात्मक लेख ‘हिंदी लघुकथा की यात्रा’ अनेक दृष्टि से महत्वपूर्ण है।”
‘लघुकथा और शास्त्रीय सवाल’(1987) लघुकथा पर इनका पहला आलोचनात्मक लेख था और यह कार्य अद्यावधि जारी है। पंजाबी के अलावा अशोक भाटिया अंग्रेजी और उर्दू भाषा से भी लघुकथाओं का हिंदी में अनुवाद करते रहे हैं।

रामकुमार आत्रेय
मूलत: कवि, रामकुमार आत्रेय सन 1980 से लघुकथाएँ भी निरंतर लिख रहे हैं। इनकी लघूकथाएँ हिंदी की राष्ट्रीय स्तर की लगभग सभी प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं, यथा—‘सारिका’, ‘हंस’, ‘कथादेश’, ‘कथाक्रम’, ‘वर्तमान साहित्य’, ‘अक्षरा’, ‘वागर्थ’ और व्यावसायिक/सरकारी पत्रिकाओं ‘कादम्बिनी’ व ‘आजकल’ में छपती रही हैं। अब तक रामकुमार आत्रेय के तीन लघुकथा-संग्रह—‘इक्कीस जूते’(1993), ‘आँखों वाले अंधे’(1999) और ‘छोटी सी बात’(2006) प्रकाशित हो चुके हैं।
‘समझ’, ‘सपनों की संदूकची’, ‘नींद’, ‘इक्कीस जूते’, ‘मक्कारी’, ‘छोटी-सी बात’, ‘हरिद्वार’, ‘समय’ आदि इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएँ हैं। इनकी लघुकथाओं का मूल-स्वर अन्याय की खिलाफत और न्याय की तलाश है। प्रभावान्विति के लिए रामकुमार आत्रेय कहीं आंचलिक भाषा का, तो कहीं दृष्टांत और रूपक का सहारा लेते हैं।

रामनिवास मानव
मूल रूप से कवि रामनिवास मानव की कलम पिछले तीन दशकों से लघुकथा-लिखन में भी चलती रही है। अब तक रामनिवास मानव के दो लघुकथा-संग्रह ‘घर लौटते कदम’(1988) और ‘इतिहास गवाह है’(1996) प्रकाशित हो चुके हैं। इनसे पूर्व दर्शन दीप के साथ इनकी लघुकथाओं का संग्रह ‘ताकि सनद रहे’(1982) भी प्रकाशित हो चुका है। डा सुभाष रस्तोगी के शब्दों में—“…’घर लौटते कदम’ में जहाँ पारिवारिक जीवन और दाम्पत्य-संबंधों से जुड़ी लघुकथाओं का प्राधान्य था, वहाँ इस(इतिहास गवाह है) संग्रह में लेखक ने सामाजिक विसंगतियों, राजनीतिक विद्रूपताओं तथा जीवन के अन्यान्य पक्षों से जुड़े कथा-प्रसंगों को अपनी लघुकथा-रचना का आधार बनाया है।”
‘स्टेटस’, ‘टोलरेन्स’, ‘मुक्ति’, ‘बोझ’, ‘साँप’ आदि इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएँ हैं। सहज, सजग भाषा इनकी लघुकथाओं की शक्ति को बढ़ाती है।

हरियाणा राज्य की अनेक महिला लघुकथाकारों की लघुकथाएँ भी यत्र-तत्र छ्पती रही हैं, परन्तु सार्थक लेखन की दृष्टि से समकालीन लघुकथा के उन्नयन में महत्वपूर्ण योगदान देने वाली जिन दो कथाकारों ने राष्ट्रीय स्तर पर अपनी पहचान बनाई है, वे हैं—उर्मि कृष्ण और कमला चमोला।

उर्मि कृष्ण
सार्थक लेखन में विश्वास करने वाली उर्मि कृष्ण ने लेखन और संपादन दोनों माध्यमों से लघुकथा-साहित्य को समृद्ध किया है। अम्बाला छावनी से, पहले महाराज कृष्ण जैन ने और 2002 के बाद से उर्मि कृष्ण ने ‘तारिका’ में लगातार लघुकथाओं को स्थान दिया है। ‘तारिका’ के अगस्त 2002 और सितम्बर 2005 के अंक इन्होंने लघुकथांक के रूप में संपादित किए हैं। उर्मि कृष्ण की लघुकथाओं के संग्रह का नाम ‘दृष्टि’ है।
‘मैं दुर्गा हूँ’, ‘कुहनी की चोट’, ‘दृष्टि’, ‘यह मेरा भाई है’ आदि इनकी प्रतिनिधि लघुकथाएँ हैं।
इनकी लघुकथाएँ एक ओर नारी के स्वर को दृढ़ता से उभारती हैं, तो दूसरी ओर जीवन के श्रेष्ठ और उज्ज्वल पक्ष को वाणी प्रदान करती हुई अँधेरे के खिलाफ अलख जगाती हैं। उर्मि कृष्ण की लघुकथाएँ ‘सादगी में उँचाई’ सिद्धांत को साकार करने वाली रचनाएँ हैं।

कमला चमोला
कमला चमोला मूल रूप से कहानीकार हैं। किंतु, सन 2000 के लगभग से वह लघुकथा-लेखन में भी सार्थक हस्तक्षेप कर रही हैं। हिंदी की प्रमुख साहित्यिक पत्रिकाओं में इनकी लघुकथाएँ प्रकाशित होती रहती हैं। सन 2000 में, ‘हंस’ में प्रकाशित रचना ‘लाठी’ इनकी पहली लघुकथा है।
‘भय’ और ‘देश-दिल्ली’ इनकी प्रथिनिधि व बहु-प्रशंसित लघुकथाएँ है। ‘भय’—जहाँ पुरुष की फितरत को सहज लेकिन तिलमिला देने शैली मे सामने लघुकथा है; वहीं ‘देश-दिल्ली’ लघुकथा देश की दुर्दशा का तकलीफदेह बयान है।

अन्य प्रमुख लघुकथाकार
लघुकथा-लेखन में रत राज्य के समस्त रचनाकारों के लघुकथा-कार्य पर टिप्प्णी प्रस्तुत करने की अनुमति यह फार्मेट नहीं देता है। फिर भी, उपर्युक्त लघुकथाकारों के अतिरिक्त विकेश निझावन, मधुकांत, रूप देवगुण, अरुण कुमार, ज्ञानप्रकाश विवेक, हरनाम शर्मा, अनिल शूर आज़ाद, प्रद्युम्न भल्ला, सुरेन्द्र गुप्त, सुरेश जाँगिड़ उदय, प्रेमसिंह बरनालवी, आदि उल्लेखनीय रचनाकार हैं, जो हिंदी लघुकथा-पटल पर आधिकारिक कलम चला रहे है।

संपर्क: 1882, सेक्टर 13, करनाल-132001(हरियाणा)
फोन: 0184 2201202 मो: 09416152100
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लघुकथाएँ

एक और अभिमन्यु
मुकेश शर्मा

बड़बड़ाता हुआ छुन्ना बैठक के भीतर प्रवेश कर गया। सामने नेताजी खाना खा रहे थे, इसीलिए छुन्ना चुपचाप सामने रखी कुर्सी पर जा बैठा। नेताजी की अनुभवी आँखों से छुन्ना की परेशानी छिपी न रह सकी; बोले, “छुन्ना, क्या बात है, कुछ परेशान हो?”
“परेशान तो क्या साब…बस्स…!”
“हूँ…क्या हुआ?”
“साब वो…वो इंसपेक्टर है ना, पुलिसवाला—अभिमन्यु…साब, उसे मालूम है मैं आपका आदमी हूँ…फिर भी साब, साले की आँखों में लिहाज नहीं है!”
“कुछ हुआ भी होगा?”
“साब, आज फिर ढाई लाख का माल पकड़ लिया है। पहले भी ये गिरी हुई हरकत एक-दो बार कर चुका है।”
“हूँ!” नेताजी गंभीर हो गए।
“रात मेरे आदमी ट्रक पर माल लाद रहे थे, साब…चूहा, चूहा साब!”
“हैं?” नेताजी की प्रश्नवाचक दृष्टि उसकी ओर उछली।
“साब, वो आपके पाँव के पास मोटा-सा चूहा है।”
“ओ…” नेताजी नीचे देखते हुए मुस्कराने लगे, “सुनो, क्या रेट है उसका?”
“किसका साब? उस पुलिसवाले का? साब, बड़ा बेईमान आदमी है, रिश्वत के नाम से ही बिदकता है।”
“अच्छा! तब तो वाकई समस्या गंभीर है!” नेताजी ने थाली में हाथ धोए और उसी में कुल्ला करके बोले, “सुनो, ये थाली बाहर रख आओ।”
“जी साब!” छुन्ना मुस्कराते हुए उठा और थाली बाहर रखकर भीतर आ गया।
“कमरे का दरवाजा भीतर से बंद कर लो…और खिड़की भी।”
छुन्ना एक क्षण के लिए हैरान हुआ, किंतु फिर आदेश का पालन करने लगा।
“मेज पर रखे फल फ्रिज में रख दो, यह मिठाई का डिब्बा भी…”
“जी साब!”
“और हाँ, फ्रिज में से एक पनीर का टुकड़ा निकालकर उस चूहे के पिंजरे में लगा दो…अब पिंजरा नीचे रख दो…हाँ, अब बताओ, तुम क्या कह रहे थे।”
“साब, मैं बता रहा था कि…”
छुन्ना अपनी बातों को दोहराने लगा। एकाएक ‘खट’ की आवाज सुनकर छुन्ना चुप हो गया।
“चूहा पिंजरे में फँस गया है। पिंजरे में अटके पनीर के टुकड़े के अतिरिक्त कोई खाने की चीज खुले स्थान पर नहीं थी। इसे भूख लगी होगी।” नेताजी रहस्यमय ढंग से मुसकराए।
“अच्छा साब, अनुमति दीजिए।” छुन्ना एकाएक उठ खड़ा हुआ।
“पर वो तुम्हारा इंसपेक्टर वाला मामला?”
“साब, अब तो यह काम मैं खुद निपटा लूँगा।”
छुन्ना की बात सुन नेताजी जोर-जोर से हँसने लगे।


बौना आदमी
हीरालाल नागर

अंतत: फैसला हुआ कि इस बार भी माँ हमारे साथ नहीं जाएगी। पत्नी और बच्चों को लेकर स्टेशन पहुँचा। ट्रेन आई और हम अपने गंतव्य की ओर चल पड़े। ठीक-से बैठ भी नहीं पाए होंगे कि डिब्बे के शोर को चीरता हुआ फ़िल्मी-गीत का मुखड़ा—‘हम बने तुम बने एक दूजे के लिए’—गूँज उठा। उँगलियों में फँसे पत्थर के दो टुकड़ों की टिक्…टिक्…टिकिर…टिक्…टिक् के स्वर में मीठी पतली आवाज ने जादू का-सा असर किया। लोग आपस में आपस में धँस-फँसकर चुप रह गए।
गाना बंद हुआ और लोग ‘वाह-वाह’ कर उठे। उसी के साथ उस किशोर गायक ने यात्रियों के आगे अपना दायाँ हाथ फैला दिया।
“बाबूजी, दस पैसे!” मेरे सामने पाँच-छ्ह साल का दुबला-पतला लड़का हाथ पसारे खड़ा था।
“क्या नाम है तेरा?” मैंने पूछा।
“राजू।”
“किस जाति के हो?”
लड़का निरुत्तर रहा। मैंने लड़के से अगला सवाल किया, “बाप भी माँगता होगा?”
“बाप नहीं है।”
“माँ है?”
“हाँ है, क्यों?” लड़के ने मेरी तरफ तेज निगाहें कीं।
“क्या करती है तेरी माँ?”
“देखो साब, उलटी-सीधी बातें मत पूछो। देना है तो दे दो।”
“क्या?”
“दस पैसे।”
“जब तक तुम यह नहीं बताओगे कि तुम्हारी माँ क्या करती है, मैं एक पैसा नहीं दूँगा।” मैंने लड़के को छकाने की कोशिश की।
“अरे बाबा, कुछ नहीं करती। मुझे खाना बनाकर खिलाती-पिलाती है और क्या करती है!”
“तुम भीख माँगते हो और माँ कुछ नहीं करती? भीख माँगकर खिलाते हो उसे?”
“माँ को उसका बेटा कमाकर नहीं खिलाएगा तो फिर कौन खिलाएगा?” लड़के ने करारा जवाब दिया। मेरे चेहरे का रंग बदल गया, जैसे मैं उसके सामने बहुत बौना हो गया हूँ।

रिश्तों की पहचान

सुरेन्द्र कुमार अंशुल

“सारी मिस्टर, अब कुछ नहीं हो सकता…।” कहते हुए डाक्टर ने मरीज का निर्जीव हाथ छोड़ दिया था और फिर मरीज की पथराई आँखों को मूँदते हुए चादर सिर उढ़ा दी थी।
“आपकी फीस डाक्टर…?” युवक की दर्द में लिपटी आवाज सुनाई पड़ी।
“रहने दीजिए। जब मैंने कुछ किया ही नहीं तो फीस कैसी? और फिर, इंसानियत भी तो कोई चीज है भई।” युवक के कंधे को थपथपाते हुए डाक्टर ने सहानुभूति व स्नेह दर्शाया था और फिर अपना बैग उठाकर घर से बाहर निकल गया था।
युवक और उसकी पत्नी किंकर्तव्यविमूढ़ से खड़े थे कि क्या करें और क्या न करें।
तभी पत्नी बोली,“सुनो, बाबूजी मर ही चुके हैं…अब कम से कम बाबूजी की उँगली में पड़ी सोने की अँगूठी व हाथ में बँधी घड़ी तो उतार लो…पास-पड़ोस के लोग आने के बाद तो…! व्यर्थ में ही ये कीमती सामान बाबूजी की चिता में…!”
युवक ने पत्नी की ओर देखा और फिर वह लपककर बाबूजी की निर्जीव उँगली से सोने की अँगूठी व हाथ में बँधी घड़ी को उतारने में जुट गया।
और फिर कुछ देर बाद, उस घर से रोने की आवाजें सुनाई पड़ने लगीं। धीरे-धीरे पड़ोस के लोग वहाँ एकत्रित होने लगे थे।

दाग
राजकुमार निजात

रात्रि में वह पहुँचा। बस से उतरकर सीधा अपने मित्र के यहाँ मिलने चला आया। दरवाजा खटखटाया। भीतर से पूछा गया—“कौन है?”
“मैं…दिलीप!”
“दिलीप?”
“हाँ, त्रिवेदीजी का मित्र—दिलीप पंकज।”
दरवाजा खुल गया।
“भीतर चले आइए। कहाँ से आए हैं आप?”
“दूर से आ रहा हूँ।”
“मगर वे तो हैं नहीं। बाहर गए हैं।”
“ओह! मैं तो मित्रवत आया था। समीप के नगर में किसी कार्यक्रम में मुझे आना पड़ा। सोचा, बीस किलोमीटर और सही। उनसे मिलाप हो जाएगा—अत: चला आया था। …अच्छा, रुकूँगा तो यहीं पर ही मैं। आपको असुविधा…?”
“नहीं-नहीं, आप बेफिक्र सोइए। मुझे कोई असुविधा नहीं होगी। …खाना तो खाएँगे न?”
“खाना मैं खा चुका हूँ, धन्यवाद!”
सुबह मेहमान जल्दी ही उठ गया। नहा-धोकर प्रात: पाँच बजे ही वह तैयार हो गया। उसे वापस लौटना था, जल्दी। श्रीमती त्रिवेदी से नमस्ते की। थैला उठाया और चल पड़ा। बाहर अँधेरा खुल गया था। एक-दो व्यक्ति गली में से गुजरे।
सुबह होने तक आस-पड़ोस में चर्चा उभरी—बड़ी पवित्र और चरित्रवाली बनी फिरती है। रात में जाने कौन था वह! अँधेरे-अँधेरे ही भगा दिया उसे। पौ फटने से पहले ही।”
उसने सुना।
उसे लगा—अब वह जीवित नहीं रही। उसे जिंदा ही गाड़ा जा रहा है या लटका दिया गया है, आसमान में कहीं।

आँकड़े
कमला चमोला

वह देह-व्यापार करने वाली औरतों पर शोध कर रही थी। शाश्वत समाजशास्त्रीय विषय था। आँकड़ों के एकत्रीकरण के लिए अक्सर उसे लालबत्ती-क्षेत्र की वर्जित गलियों में जाना पड़ता। आते-जाते कुछ ऊल-जुलूल फब्तियाँ भी कान में पड़ जातीं—नई चिड़िया लगती है…है तो खूबसूरत…नईं रे, मैडमजी हैं…क्यों, मैडमजी के क्या…
आगे का वार्तालाप अश्लील इशारे में हो रहा है—समझ जाती वह। कान में अनसुनेपन की रुई ठूँसती आगे बढ़ जाती। उसे क्या इनकी बकवास से; उसे तो जल्द से जल्द काम खत्म करना है। समय कम है उसके पास। कालेज में पोस्ट विज्ञापित होने ही वाली है प्राध्यापिका की।
यहाँ की औरतों के लिए अब अपरिचित नहीं है वह। देह-व्यापार के पक्ष में इनके अपने ही तर्क हैं—अपनी-अपनी कमाई के ढंग हैं बहना…तू भी तो कलम चलाकर हाथ की कमाई खाती है…पेट भरने को शरीर का कोई न कोई अंग तो बेचना ही पड़ता…।
लिखित-सामग्री का प्रारूप लेकर रोज नरेन्द्रपाल जी के पास जाना पड़ता है उसे। वे भी पूरा सहयोग दे रहे हैं। पोस्ट को अपने रसूख से दो माह के लिए विज्ञापित होने से उन्होंने ही रोक रखा है किसी तरह। उनकी पत्नी का भी पूरा सहयोग है। वे लोग तो काम में जुटे रहते हैं और श्रीमती पाल भरे चाय के कप रखने और खाली कप उठाने में लगी रहती हैं। उसने सोच रखा है—शोध-प्रबंध के धन्यवाद-ज्ञापन में श्रीमती पाल का भी अवश्य आभार प्रकट करेगी। दो-एक केस-स्टडी ही शेष हैं अब तो। आज भी वह जुटी थी काम में।
नरेन्द्रपाल बोले, “इसी हफ्ते काम खत्म करने की कोशिश करो। महीने के अंत तक थीसिस जमा हो जानी चाहिए। दोनों शिक्षक भी मेरे अपने हैं। पन्द्रह दिन के अंदर ही रिपोर्ट भेज देने का वादा ले लिया है उनसे…बस, अब प्राध्यापिका ही समझो अपने-आपको। वशिष्ठजी के दोनों विद्यार्थियों को तो कम से कम छह माह लगेंगे डिग्री लेने में। तुम्हारा रास्ता साफ है।”
“धन्यवाद सर…” कृतकृत्य-सी हो उठी वह।
एकाएक नरेन्द्रपाल ने उसका हाथ खींचा…असंतुलित-सी वह उनकी ओर ढह गई।
“ये…ये क्या सर…?”
“एडवांस में मिठाई माँग रहे हैं भई, और क्या…?”
“पत्नी मायके गई है। आज तो चाय भी तुम्हें ही बनानी पड़ेगी डाक्टर अंजलि। भई, हमारे लिए तो तुम अभी से डाक्टर हो…”
देह-व्यापार का अंतिम आँकड़ा भी पूरा हो गया था।


अनलिखा
हरनाम शर्मा

लंच-बाक्स खुलते ही मेरे चहुँ ओर शुद्ध घी में तली सब्जी की महक फैल गई, जिसका स्वाद मैंने उसे खाकर और निकट बैठे एक मजदूर ने सूँघकर लिया।
वह बैठा किसी को खत लिख रहा था। लिखते-लिखते उसने एक-दो बार मेरी ओर देखा तो मुझे अटपटा-सा लगा। मैंने एक रोटी उसकी ओर बढ़ा दी। उसने कहा, “नहीं बाबूजी, हम खाते हैं।” हालाँकि साफ जाहिर था कि वह कभी खा पाता है, कभी नहीं। दिन-रात मशीनों पर काम करके उसे न तो खाने का अवकाश ही मिलता है और न स्वाद ही।
मैंने आग्रह किया तो उसने कहा,”चार रोटियाँ खा चुकने के बाद मुझे एक रोटी देने का आपका आशय?”
इसका उत्तर यद्यपि मेरे पास नहीं था, किन्तु मैं बोला, “नहीं, खा लो। अगर तुम बुरा न मानो, मैंने केवल औपचारिकतावश पूछा था। इसे कुछ और न समझो।”
उसने मेरे हाथ से रोटी ले ली और तुरन्त बड़ी शालीनता से कहा, “बुरा न मानें, मैं आपकी यह रोटी औपचारिकता से लौटा रहा हूँ। अपनी रोटी मैं वक्त पर खा चुका हूँ।”
मैं हड़बड़ाकर पीछे हटा तो वह भी मुस्कराता हुआ चला गया।
जिस पुरजे पर वह खत लिख रहा था, वह वहीं रह गया। लिखा था—माँ, वहाँ हल चलाकर शाम की रोटी नसीब हो जाती थी। यहाँ न सोने का समय है, न तुम्हें याद करने का…और रोटी खाने का तो न समय है और न पैसे!

निरुत्तर
सत्यवीर मानव

“कहाँ जा रहे हो?”
“मंजिल पर।”
“पर…रास्ता तो इधर है!”
“जाया तो इधर से भी जा सकता है न?”
“पर, बना-बनाया रास्ता छोड़कर?”
“क्या यह रास्ता सदा से है?”
“नहीं तो।”
“फिर?”
“!”

1 comment:

सुभाष नीरव said...

"जनगाथा" का नवंबर अंक अच्छा बन पड़ा है। अशोक भाटिया का आलेख महत्वपूर्ण ही नहीं, एक ऐतिहासिक दस्तावेज भी बन गया है। लघुकथा से जुड़े ऐसे महत्वपूर्ण आलेख अन्य प्रांतों के लघुकथा लेखन को लेकर आने चाहिएं। बधाई !