Thursday 6 March, 2008

जनगाथा-मार्च 2008


हिन्दी लघुकथा में एक ऐसा वर्ग लगभग लगातार सक्रिय रहा है जो प्रत्यक्षत: तो लघुकथा के प्रति पूर्ण समर्पित नजर आता है, परन्तु उसके कार्यों का जायजा लिया जाए तो उनके पीछे छिपी महत्वाकांक्षाएँ और व्यक्तिगत दुराग्रह साफ नजर आने लगते हैं। एकबारगी नयी पीढ़ी को दिग्भ्रमित करने की ताकत भी इनके पास है। हमें इन सभी पर न सिर्फ नजर रखनी है, बल्कि नयी पीढ़ी को सही स्थिति के प्रति सचेत भी करना है। जनगाथा के फरवरी ‘08 अंक में इसी के मद्देनजर FLASH STORY व WITS के कुछ उदाहरण प्रस्तुत करके स्थिति को स्पष्ट करने का प्रयास किया गया था।
‘जनगाथा’ के इस अंक में प्रस्तुत हैं सामाजिक सरोकारों के विभिन्न बिंदुओं को अलग-अलग कोणों से स्पर्श करती, पाठकीय चेतना को झकझोरने तथा लघुकथा होने के अपने दायित्व को पूरी शिद्दत से निभाती ये कथा-रचनाएँ:

अन्तिम यात्रा
अरुण कुमार
अर्थी उठने में देरी हो रही है। अन्तिम यात्रा में शामिल होने वालों की भीड़ घर के बाहर जमा है। वर्मा को बीड़ी की तलब उठी तो वह शर्मा की बाँह पकड़कर एक तरफ को ले चला। थोड़ी दूर जाकर वर्मा ने बंडल निकाला, “यही जीवन का सबसे बड़ा सच है जी! यही सच है…!”
शर्मा ने एक बीड़ी पकड़ते हुए कहा, “हाँ भाई साहब, एक दिन सभी को जाना है।”
“अब देर किस बात की हो रही है?” वर्मा ने वर्मा ने बंडल वापस जेब के हवाले किया।
“बड़ा लड़का आ रहा है बंगलोर से। हवाई जहाज से आ रहा है। सुना है कि उसका फोन आ गया है, बस पाँच-सात मिनट में पहुँचने ही वाला है।” शर्मा ने अपनी बीड़ी के दोनों छोर मुँह में डालकर हल्की-हल्की फूँक मारीं।
“लो जी, अब इसके बालकों को तो सुख ही सुख है…सात पीढ़ियों के लिए जोड़कर जा रहा है अगला।” वर्मा ने माचिस में से एक सींक निकालकर जलाई।
“और क्या जी, इसे कहते हैं जोड़े कोई और खाए कोई। साले ऐश करेंगे ऐश!” वर्मा द्वारा जलाई सींक से शर्मा की बीड़ी भी जल उठी।
“भाई साहब, अब उन सब घोटालों और इंक्वारियों का क्या होगा जो इनके खिलाफ चल रही हैं?” वर्मा ने गहरा काला धुँआ बाहर उगला।
“अजी होना क्या है। जीवन की फाइल बन्द होते ही सब घोटालों-इंक्वारियों की फाइलें भी बन्द हो जानी हैं। आखिर मुर्दे से तो वसूलने से रहे…” शर्मा ने जो धुँआ उगला, वह वर्मा द्वारा उगले गये धुँए में मिलकर एक हो गया।
“वैसे भाई साहब, नौकरी करने का असली मजा भी ऐसे ही महकमों में है…क्यों?” वर्मा ने गहरे असन्तोष-भरा धुँआ अपने फेफड़ों से बाहर उगला।
“और क्या जी, असली जिन्दगी ही लाखों कमाने वालों की है। अब, ये भी कोई जिन्दगी है कि सुबह से शाम तक माथा-पच्ची करके भी केवल पचास-सौ रुपए ही बना पाते हैं। हम तो अपना ईमान भी गँवाते हैं और मजे वाली बात भी नहीं…” शर्मा ने भी अपना सारा असन्तोष धुँए के साथ बाहर उगल दिया।

ईंधनबालकवि बैरागी

रेल के डिब्बे में तिल रखने को जगह नहीं थी। नौजवान लड़के-लड़कियों से कम्पार्टमेंट खचाखच भरा पड़ा था। नियमित मुसाफिर जगह के लिए मारे-मारे फिर रहे थे। गाड़ी चल दी।
डिब्बे में फँसे हुए एक अजनबी, किंतु नियमित यात्री ने कुछ नवयुवकों से पूछा,”कहाँ जा रहे हैं आप सब?”
“राजधानी।”
“क्यों?”
“रैली में।”
“कौन-सी पार्टी की रैली है?”
“किसी के पास उत्तर नहीं था।
“आपके पास टिकट है?”
“हमें नहीं मालूम, हमारा नेता जाने।”
“कहाँ है आपका नेता?”
“हमें नहीं मालूम्।”
प्रश्नकर्त्ता आश्चर्यचकित था। तभी एक दूसरे सामान्य सहयात्री ने प्रश्नकर्त्ता का समाधान करते हुए उसे समझाया,”भाई, ईंधन को क्या मालूम कि वह किस भट्टी में झोंका जा रहा है? लकड़हारा ले जा रहा है। भट्टीवाला सम्हाल लेगा।”
रैली के स्वयंसेवक राष्ट्रीय गीत गाने में व्यस्त हो गये।
रेलगाड़ी राजधानी की ओर भागी जा रही थी।

तीस रुपये
छाया वर्मा

“सुनो, सो गये क्या?”
“नहीं, क्या बात है?”
“एक बात कहूँ?”
“कहो।”
“नाराज तो नहीं होगे?”
“नहीं, कहो तो।“
“सोच रही हूँ, दीपू की स्कूल-बस छुड़वा दूँ।”
“फिर जायेगा कैसे?”
“पैदल चला जायेगा। कोई बहुत दूर तो नहीं।”
“इतना पास भी तो नहीं…और फिर, इतना भारी बैग…?”
“बैग मैं ले लिया करूँगी।”
“तुम जाओगी छोड़ने?”
“हाँ, तो क्या हुआ; तब तक बेबी के पास तुम रहोगे ही।”
“ठीक है, लेकिन क्यों?”
“सोचती हूँ, महीने में तीस रुपये बच जायेंगे।”
“उन पैसों का क्या करोगी?”
“दूध बढ़ा दूँगी। बेबी के पीने के बाद बेचारे दीपू के लिए एक कप भी नहीं बचता।”
“………”
“चुप क्यों हो गये, कुछ गलत कहा मैंने?”
“नहीं, बस तो छुड़वानी ही पड़ेगी।”
“और अगले महीने से दूध बढ़ा देंगे।”
“दूध पीना शायद दीपू के नसीब में नहीं।”
“क्यों?” वह झटके से उठ बैठी।
“अगले महीने से मकान मालिक ने किराया बढ़ा दिया है।”
“बढ़ा दिया? कितना?”
“तीस रुपये!”

सीढ़ियाँप्रियंवद
मैंने जिन्दगी को तीन बार निचोड़ा और मुझे तीन चीजें मिलीं। पहले सपने, फिर आँसू और फिर गीत।
बहुत पहले मैंने खरगोश के बच्चों के सफेद मुलायम जिस्म में मुँह दुबकाकर पूछा,”मैं कौन हूँ?”
“माँस का लोथड़ा।” सफेद बच्चे की आँखें टिमटिमाईं।
“मैं कौन हूँ? ” मैंने खिड़की के काँच से चिपके सुर्ख गुलाब से पूछा…
“माँस का लोथड़ा।”गुलाब की इक्कीसों पंखुरियाँ फड़फड़ाईं।
“मैं कौन हूँ।” मैंने मरते हुए सूरज, उगते हुए चाँद से पूछा।
“माँस का लोथड़ा।”उदास शाम और पीली बीमार चाँदनी फुसफुसाई।
“मैं कौन हूँ? ” मैंने उससे पूछा।
“मेरी आत्मा।” उसने मेरे गले का बायाँ हिस्सा चूम लिया। मैंने तब जिन्दगी को निचोड़ा तो उसमें से सिर्फ सपने निकले, रंग-बिरंगे सपने, एक के साथ एक गुँथे हुए। वह सपने मेरे पूरे बदन में फैलते गये, किसी बोगनबेलिया की तरह।
जिन्दगी में सपना ही सत्य है, मैं सोचने लगा।
तुम्हारे एक गाल में धूप और दूसरे में चाँदनी है। मैं उससे कहता और एक सपना अपनी हथेली से उतारकर उसके गालों पर टाँक देता। वह खिलखिलाती, “और…”
“तुम्हारे बाल उस राजकुमारी की तरह हैं, जिसे राक्षस कैद कर लेता है।“ मैं एक सपना उसके बालों में गूँथ देता हूँ।
“और…” उसकी आँखें पागल हो जातीं।
फिर सपने के बाद सपने से मैं उसको ढँक देता, उसके होंठ, उसकी उँगलियों की पोरें उसके पंजे तक।
एक दिन उसने पूछा,”अगर मैं जाऊँ तो क्या करोगे? ”
“तुम्हारे दोनों पाँव काट लूँगा।”
“काट लो।” उसने अपने पाँव बढ़ा दिये।
“मैं सारी रात उसके पाँवों पर सिर रखकर रोता रहा।
मैंने तब जिन्दगी को निचोड़ा तो उसमें से सिर्फ आँसू निकले। एक के बाद और, फिर और आँसू। ये आँसू मेरे पूरे बदन में फैल गये, किसी गुलमोहर के गुच्छे की तरह्।
जिन्दगी में आँसू ही सत्य हैं, मैं सोचने लगा।
आँसुओं का दरिया चढ़ता रहा और मैं उसमें डूबता गया।
मैंने तब जिन्दगी को निचोड़ा तो उसमें से सिर्फ गीत निकले। वह गीत मेरे पूरे बदन में फैलते चले गये, हल्दिया अमलतास की तरह्।
जिन्दगी में गीत ही सत्य है, मैं अब सोचता हूँ, लेकिन सच तो न सिर्फ सपना है न सिर्फ आँसू और न सिर्फ गीत। सच है एक सिलसिला। पहले सपने, फिर आँसू, और फिर गीत का शाश्वत अपराजेय सिलसिला।

पक्षपातखुदेजा खान

“ये लीजिए, ये फार्म अभी भर दीजिए। जल्दी कीजिए, टाइम नहीं है।” डाक्टर ने व्यस्तता के साथ फार्म पकड़ाते हुए कहा। शहर का व्यस्ततम नर्सिंग होम। डाक्टर को दम मारने तक की फुरसत नहीं दिख रही थी कि तभी एक नर्स ने तेजी से कमरे में प्रवेश करते हुए कहा,”मैडम, लेबर रूम में एक पेशेंट बहुत चीख-पुकार मचा रही है…चलिए, आप ही उसे समझाइये।”
“समझाना क्या है, उसके हसबैण्ड को बुलाओ, कहाँ है।”
एक हैरान-परेशान युवक सामने आकर बोला,”मैडम, बुलाया आपने? ”
“हाँ, आपकी मिसेज का केस नार्मल नहीं लगता। ये लीजिए, फार्म भर दीजिए ताकि आपरेशन की तैयारी शुरू की जाए।“ मैडम ने प्रोफेशनल लहजे में कहा।
“पर मैडम, नौ महीने तक ऐसी कोई जटिलता नहीं आई कि आपरेशन की नौबत आये!” युवक ने प्रतिवाद किया।
“अरे, आपको तो बहुत नालेज है! फिर घर में ही डिलीवरी करा लेना था…नर्सिंग होम लाने का बेकार कष्ट किया।“ मैडम ने रुक्षता से कटाक्ष किया।
“ओह! आप तो नाराज हो गयीं…मेरा ये मतलब नहीं था…जब आप कह रही हैं तो ऐसा ही होगा। लाइए, कहाँ है फार्म।”
“ये लीजिए…”
ऐसा लग रहा था—मैडम किसी पंजीयन कार्यालय में फार्म भरवाने का कार्य कर रही हैं। थोड़ी देर बाद मैडम उठकर आपरेशन थियेटर में चली गईं। मरीजों की आवाजाही लगी हुई थी। एक अन्य युवती को डिलीवरी के लिए लाया गया। वहाँ उपस्थित नर्स ने उसी तत्परता से उस युवती के साथ आये हुए व्यक्ति के हाथ में फार्म पकड़ाते हुए कहा,”ये लीजिए, आप तो अभी से फार्म भर दीजिए क्योंकि सिजेरियन तो आजकल नार्मल है, बल्कि नार्मल डिलीवरी अनकामन हो गयी है।”
तभी, दूसरी नर्स ने हस्तक्षेप करते हुए फार्म उसके हाथ से झटक लिया—एइ नम्रता, फार्म इधर ला, ये क्या करती है, तुझे नहीं मालूम ये मैडम की सगी भान्जी है, इसे सीजर पर नही, नार्मल डिलीवरी पर लेना है…समझी! ”


वोट बैंक
तारिक असलम ‘तस्नीम’(डा0)

रविवार का दिन था और सुबह के नौ बज रहे थे। बरामदे में बैठे लोग चाय की चुस्कियाँ ले रहे थे। इधर-उधर की बातें छिड़ी थीं।
आज के अखबार के साथ साहिल साहब हाजिर हुए। अपनी कुर्सी पकड़ने से पहले उन्होंने एक शेर पढ़ा—दोस्त, अपने मुल्क की किस्मत पे रंजीदा न हो, उनके हाथों में है पिंजरा, उनके पिंजरे में सुआ।
इसे सुनकर जाहिद ने पूछा,”मियां साहिल, सब खैरियत तो है? यह सुबह-सुबह दुष्यंत की गजल क्यों याद आने लगी?”
“इसका जवाब अखबार की कुछ खबरें देंगी।” उन्होंने अन्दाज से कहा।
“ऐसी कौन-सी खबर छपी है? ”
“यही है कि चुनाव के दिनों में सभी दलों को मुसलमानों की बड़ी याद आती है। उनकी तकलीफें और परेशानियाँ आँखों के सामने नाचती हैं। उनकी भलाई के लिए वायदे दर वायदे किये जाते हैं; मसलन, वक्फ़ जमीन पर से शासक-दल के कब्जे को ख्त्म किया जायेगा। मौलाना मजहरुल हक़ अरबी फारसी विश्वविद्यालय को पूर्ण दर्जा दिया जायेगा और सामाजिक विकास की मुख्यधारा से जोड़ा जायेगा। कमाल ही तो है यह कि पूरे पाँच साल के बाद कालपात्र के समान समस्याएँ सामने आती हैं।”
“क्या खूब कही आपने। मगर मुसलमानों को वक्फ़ की जमीन से क्या लेना? और अरबी फारसी विश्वविद्यालय में कौन पढ़ने जायेगा, जबकि हमारे बच्चे स्कूल और कालेजों में उर्दू-फारसी पढ़ने को तैयार न हों! हमारे दीनी-मदरसों को आतंकवाद का गढ़ कहा जा रहा है। इससे बच्चे खौफ़ज़दा हुए हैं। यह खौफ़ हेलीकोप्टरों में मुल्लाओं और मौलानाओं के साथ उड़ने और मीडिया में बयानबाजी करने से दूर नहीं होगा। इसके लिए कुछ काम करने होंगे।” जाहिद साहब गरजे।
“अरे भाई, सभी दल वाले काम ही तो कर रहे हैं। मुसलमानों को बहलाने के लिए मुसलमानों को काँधे पर बिठाये फिर रहे हैं। इससे ज्यादा हमदर्दी क्या हो सकती है! आखिर हम वोट-बैंक जो ठहरे।” साहिल साहब के इतना कहने पर सबने जोर का ठहाका लगाया क्योंकि ये कभी वोट देने नहीं गये।

वैदिक धर्म
प्रेमपाल शर्मा
राजधानी का प्रथम वातानुकूलित कक्ष। वे तीन, एक मैं। मैं बड़ौदा से चढ़ा था, वे मुम्बई से आ रहे थे—दिल्ली के लिए।
भगवा वस्त्र, ॠषि-मुनियों जैसे। ओजस्वी, चमचमाते महाबलिष्ठ शरीर। भव्य दाढ़ी। ललाट पर शुद्ध चंदन, जिसकी महक उस केबिन में भी व्याप्त थी।
वे चार और भी थे। बराबर के केबिन में। खाने के समय सभी एक स्थान पर आ गये।
खाना उनके साथ था। ‘हम बाहर का नहीं खाते।‘
तरह-तरह के पकवान। मसाले, अचार, दही, मिठाइयाँ। चारों तरफ ताजा कटे हरे-हरे केले के पत्ते फैल गये।
सबने प्रेम से खाया। चमचमाती आँखें और चमकने लगीं।
“आओ, अब पेप्सी पीते हैं।” समापन होते ही एक ने कहा।
खट-खट पेप्सी खुल गयीं। डकारें भी आयीं। तरह-तरह की भारी आवाजों में।
मेरी उत्सुकता अंतिम छोर तक पहुँच गयी थी। उन्हें निहारते-निहारते।
“आप रेल से ही क्यों चलते हैं? हवाई जहाज भी हैं। अब तो हवाई जहाज का किराया और भी कम हो गया है।”
“हमारे पंथ में, शास्त्रों में लिखा है कि हमारा जमीन से सम्पर्क नहीं कटना चाहिए और यह रेलगाड़ी या बस से ही सम्भव है, हवाई जहाज से नहीं।”
उनके स्वर स्पष्टता और आत्मविश्वास से भरे थे।
ये सभी दक्षिण के किसी धार्मिक पीठ के पीठासीन गुरू थे जो दिल्ली में एक सम्मेलन में जा रहे थे—‘21वीं सदी में वैदिक धर्म।'

5 comments:

कथाकार said...

भाई बल राम जी
अभी
पीसी पर बैठा जंक मेल का निपटारा कर रहा था कि देखा आपकी मेल वहां फंसी पड़ी है. अंक तीनों देखे और मन प्रसन्‍न्‍ा हो गया. लघु कथा में जिमने लोग काम कर रहे हैं, सबको एक साथ पढ़ने का सुख्‍ा मिला. अच्‍छा काम कररहे हैं. मेरी बधाई लें.
जरा स्‍वस्‍थ हों लूं तो आपको कुछ भेजंूगा
सूरज

Roop Singh Chandel said...

priya bhai,

Rachanaon ka chayan utkrisht hai.Badhai.

Chandel

रूपसिंह चन्देल said...

भाई बलराम,

अपने ब्लॉग को लघुरचनाओं तक ही सीमित मत रखो. तुम स्वयं कहानीकार हो, इसलिए कहानी , संस्मरण , उपन्यास अंश आदि भी छापो वर्ना मुझ जैसे लेखकों का क्या होगा. लघु के दूसरे ब्लॉग हैं ही. कभी-कभी वातायन और रचनासमय के लिए भी समय निकाल लिया करो.

अच्छी रचनाएं प्रकाशित करने के लिए पुनः बधाई.

रूसिं चन्देल

सुभाष नीरव said...

भाई बलराम अग्रवाल
तुम लगे रहों अपनी "जनगाथा" में, लघुकथाओं सहित। चन्देल की बात पर बिलकुल ध्यान न दो। कहानी, उपन्यास अंश तो कहीं भी छ्प सकते हैं। "लघुकथा" पर गंभीर और सार्थक आलेख देते रहो और उदाहरण में हिंदी और हिंदीतर भाषाओं की श्रेष्ठ और उत्कृष्ठ लघुकथाएं देते रहो। लघुकथा को लेकर ब्लाग और वेब मैगेजीन में कोई ठोस काम नहीं हो रहा, बस छिटपुट खानापूर्ति ही की जा रही है। हाँ, लघुकथा डाट काम इसमें अपवाद है जो केवल लघुकथा पर समर्पित है और लघुकथा पर अच्छा काम कर रही है। "लघुकथा डाट काम" और "जनगाथा" नेट पर ब्लाग और वेब पत्रिकाओं में एक और एक ग्यारह का काम करें।

रूपसिंह चन्देल said...

Balaram,

Bhai marji tumhari, mai to salah hi de sakata hun. Mujhe lag raha hai ki tum Subhash ke bahakave me aa jaaoge. Tum nihsandeh achha kaam kar rahe ho lekin yadi dusari vidhaon ko bhi sthan dete ho to tumhare blog ki mahatta aur badh jayegi.

Chandel

Chandel