Tuesday, 16 July 2013

आज की नारी / शहंशाह आलम



दोस्तो, 'जनगाथा' पर आज से यह नया कॉलम शुरू कर रहा हूँ--'लघुकथा : रचना और दृष्टि' । इसमें पूर्व प्रकाशित किसी एक रचना पर आप भी आलोचकीय टिप्पणी के साथ उपस्थित हो सकते हैं, सभी लघुकथा-चिंतकों का इस कॉलम में स्वागत है। शर्त केवल एक है--टिप्पणी संबंधित लेखक के प्रति पूर्वग्रह प्रेरित न होकर विधा के हित और नवोदित लेखकों के मार्गदर्शन की दृष्टि से सिर्फ़ लघुकथा पर हो।                                                      --बलराम अग्रवाल
                 रचना…
                           चित्र:बलराम अग्रवाल
औरत की उम्र चौबीस-पच्चीस वर्ष होगी। खूबसूरत नाक-नक्श की थी और फैशनेबल भी लगती थी। उसका पहनावा भी यही ज़ाहिर करता था। खूब गहरा लिपस्टिक भी लगाए हुए थी।
तो वह आयी और बस की ‘लेडीज़ सीट’ पर बैठ गयी। मैं भी बगल की सीट पर बैठा हुआ था।
स्टैंड से बस खुली। बस खुलने से पहले सभी यात्रियों को टिकट लेकर सफ़र करने का ऐलान करा दिया गया था। गाड़ी स्टैंड से बढ़ी तो कंडक्टर ने एक-एक करके सभी यात्रियों को टिकट दिखाने के लिए कहा। जब उस ‘फ़ैशनेबल औरत’ की बारी आयी, तब मालूम हुआ कि उस उच्चकोटि वाली साहिबा ने टिकट तो लिया ही नहीं।
“मेरे पास टिकट नहीं हैं, आप पैसे ले लीजिए।”
“मैम साहिबा, ये सरकारी बस है और यहाँ काउंटर से ही टिकट लेने का नियम है। अभी चेकिंग भी ज़ोर-शोर से है। कब, कहाँ पर गाड़ी चेक कर ली जाएगी, कहा नहीं जा सकता। आपको टिकट लेकर चढ़ना चाहिए…पर, खैर एक उपाय है। अगर गाड़ी चेक कर ली गयी, तो आपको मेरी पत्नी ज़ाहिर करना होगा। इससे आपका भी काम हो जाएगा और मेरा भी। या फिर, आप गाड़ी से उतर सकती हैं।” कंडक्टर ने काफी सोचने-समझने के बाद संकोच से कहा।
“ऐसा ही करूँगी।” औरत ने बहुत कम शब्दों में जवाब दिया और बेफ़िक्र होकर खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने लगी। कंडक्टर भी निश्चिंत होकर दूसरे यात्रियों के टिकट चेक करने लगा था।
मुझे अज़ीब-सा लगा, उस औरत की बातों और विचारों पर। आज की नारी इतना गिर भी सकती है, ऐसा मैं नहीं समझता था। 
(प्रकाशित : ‘सम्बोधन’ लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-अक्टूबर 1988, पृष्ठ 78)
…और दृष्टि
आज की नारी (शहंशाह आलम)  लघुकथा में कथानायक की कथन-भंगिमा प्रारंभ से ही ‘उस औरत’ के चरित्र के खिलाफ़ स्पष्ट होने लगती है जिसे अब से पहले उसने कभी देखा-जाना ही नहीं था। आभासित हो जाता है कि महाशय जी फ़ैशनेबल औरतों के चरित्र के प्रति कुंठित मानसिकता के शिकार हैं। किसी भी औरत का उसके पहनावे से या गहरी लिपस्टिक लगाने मात्र से फ़ैशनेबल लगना दैहिक सौंदर्य के प्रति जागरूकता का द्योतक है जिसे विपरीत देशकाल और परिस्थिति में ही ग़लत माना जा सकता है, सदैव नहीं।
‘वह आयी और बस की ‘लेडीज़ सीट’ पर बैठ गयी।’ यह नैरेशन इस बात का प्रमाण है कि वह औरत दूसरों के अधिकार-क्षेत्र में घुसपैठ न करके अपने लिए आरक्षित चीजों पर ध्यान देने के प्रति भी सचेत है। वह अगर वाक़ई ‘फ़ैशनेबल’ और ‘गिरी हुई औरत’ होती तो बगल की सीट पर बैठे नैरेटर के निकट बैठती, ‘लेडीज़ सीट’ पर नहीं।
बेशक, कुछ विशेष रूट्स की बसों में सीटें काउंटर से ही आरक्षित होती हैं, बावज़ूद इसके, बस-कंडक्टर को यह अधिकार होता है कि सीटें खाली रह जाने या किसी सवारी की विवशता को महसूस करके वह बस में ही अतिरिक्त टिकट बना सकता है। औरत सीट पर बैठ चुकी है, बस स्टेशन से खुल चुकी है और किसी भी सवारी के खड़े रह जाने का ज़िक्र लघुकथा में नहीं है—ये सब बातें स्पष्ट करती हैं कि बस की कम-से-कम उस सीट के लिए काउंटर से टिकट ज़ारी नहीं की गयी थी। की गयी होती तो उस सीट पर कोई अन्य शख्स अपना दावा ज़रूर पेश करता। दूसरे, औरत का कंडक्टर से यह कहना कि ‘मेरे पास टिकट नहीं है, आप पैसे ले लीजिए’ उसके स्पष्टवादी, अनुभवी और धीर स्वभाव वाली होने का द्योतक है। अगर इतने पर भी कंडक्टर ने बहानेबाजियाँ लगाई हैं तो यह उसके चरित्र का कमज़ोर हिस्सा है, औरत के चरित्र का नहीं।
कथानायक को उस औरत के चरित्र का सबसे गर्हित पहलू वह नज़र आता है जो कि वस्तुत: उसके चरित्र का सबसे अधिक मज़बूत और उल्लेखनीय पहलू है।
‘…अगर गाड़ी चेक कर ली गयी, तो आपको मेरी पत्नी ज़ाहिर करना होगा। इससे आपका भी काम हो जाएगा और मेरा भी। या फिर, आप गाड़ी से उतर सकती हैं।कंडक्टर ने काफी सोचने-समझने के बाद संकोच से कहा।
इसमें कंडक्टर द्वारा ‘काफी सोचने-समझने के बाद संकोच’ से अपनी बात कहने से भी उसका चरित्र साफ़ हो जाता है। लघुकथा में बस खुलने के समय का उल्लेख नहीं है। हो सकता है कि रात का समय रहा हो, हो सकता है कि उस रूट की वह आखिरी बस रही हो, हो सकता है कि औरत का अपने गंतव्य तक जल्दी से जल्दी पहुँचना आवश्यक हो, हो सकता है कि…हो सकता है कि…अन्तहीन सिलसिला इस ‘हो सकता है कि’ का हो सकता है। ऐसे में, कंडक्टर की गीदड़-भभकी से उत्तेजित होकर बस से नीचे उतर जाना किसी भी तरह औरत का बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला नहीं कहा जा सकता था। बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला वही था जो उस समय उसने किया—
“ऐसा ही करूँगी।” औरत ने बहुत कम शब्दों में जवाब दिया और बेफ़िक्र होकर खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने लगी।’
यहाँ, ‘बहुत कम शब्दों में जवाब दिया’ से तात्पर्य है कि उसने उस लालची और बदतमीज़ कंडक्टर के मुँह न लगकर अपना काम निकालने का बुद्धिमत्तापूर्ण रवैया अपनाया न कि ‘दो की चार सुनाकर’ काम को बिगाड़ लेने का। ‘और बेफ़िक्र होकर खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने लगी’ में भी वही, उसकी बुद्धिमत्ता और वैचारिक खुलेपन के ही दर्शन होते हैं क्योंकि बस के अंदर का नज़ारा बहुत घिनौना है जिसे दिखाने के लिए शहंशाह आलम ने नैरेटर और कंडक्टर—दो पात्रों को प्रस्तुत किया है।
अब, इस लघुकथा के अंतिम पैरा पर दृष्टि डालते हैं—
‘मुझे अज़ीब-सा लगा, उस औरत की बातों और विचारों पर। आज की नारी इतना गिर भी सकती है, ऐसा मैं नहीं समझता था।’
प्रस्तुत लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में, वस्तुत: तो नारी यानी औरत नहीं, नैरेटर के रूप में ‘पुरुष’ गिरा है—औरत को बिना टिकट यात्रा करने देकर चंद रुपए बचा लेने के लालच में। उस औरत ने इस लघुकथा में एक भी बात, एक भी हरक़त, एक भी विचार ऐसा प्रस्तुत नहीं किया है जिसे देख-सुनकर ‘अज़ीब-सा’ लगे और यह सोचा जाए कि ‘आज की नारी इतना भी गिर सकती है!’। ‘ऐसा ही करूँगी।’ कहकर उसने फिलवक्त कंडक्टर को आश्वस्त किया है, मौक़ा पड़ने पर वह अपनी बात पर क़ायम रहेगी ही, यह आवश्यक नहीं है।
दरअसल, कभी-कभी स्वयं कथाकार भी नैरेटर के मुँह से बोलने लगता है जिसका आभास इस लघुकथा की कथन-भंगिमा में प्रारम्भ से ही तथा उद्धृत की गयी अंतिम दो पंक्तियों में भी मिल जाता है। लघुकथा की गुणवत्ता और व्यापक प्रभाव-फलक के मद्देनज़र लघुकथाकार के लिए यह एक त्याज्य स्थिति है, इससे हर कथाकार को बचना चाहिए। इस लघुकथा का लेखक ‘पहनावे और गहरी लिपस्टिक लगाने की वज़ह से फ़ैशनेबल लगने वाली औरत’ को चरित्रहीन मानने की रुग्ण मानसिकता और पूर्वग्रह का शिकार प्रतीत होता है। समापन-वाक्य के रूप में लघुकथा की अंतिम दो पंक्तियाँ न लिखने का संयम बरता होता तो इस लघुकथा का शीर्षक निश्चित रूप से कथानायिका की मुक्त मानसिकता को ध्वनित करता।
बलराम अग्रवाल

Monday, 1 July 2013

भगीरथ की लघुकथाएँ

हक़

                  चित्र : बलराम अग्रवाल, साभार
पिता की सम्पत्ति में अब पुत्रियों का भी वही हक़ है जो पुत्रों का है। क़ानून ने अब स्त्री-पुरुषों को बराबर का अधिकार दिया है।” पति अपनी पत्नी को समझा रहा था, “पिताजी की सम्पत्ति में जो तुम्हारा हिस्सा है, उसका दावा है यह!” यों कहते हुए उसने कोर्ट-केस के पेपर्स पत्नी के सामने रख दिये। पत्नी सोच में पड़ गयी।
“क्या चाहते हो तुम?”
“इस पर दस्तख़त कर दो बस, बाकी मैं देख लूँगा।”
“हूँ, तो तुम देख लोगे! क्या देख लोगे?”
“तुम बेकार ही तैश में आ रही हो। तुम केवल अपना हक़ माँग रही हो।”
“दहेज में तुमने एक लाख रुपया लिया। माल लिया, सो अलग; जिसे तुमने निठल्ले बैठकर हजम कर दिया।”
“सीमा! प्लीज़, समझने की कोशिश करो। तुम तो केवल अपना हक़…”
“हक़! वाह खूब। हक़ माँगना मैं तुमसे सीखूँगी! अच्छा बताओ, दहेज़ लेना तुम्हारा हक़ था?”
“वो छोड़ो, पुरानी बात में क्या रखा है। दहेज तो रस्म है और समाज में अपनी इज्ज़त रखने के लिए हर कोई दहेज देता है।”
“मेरे पिता को लूटने की यह नई तरकीब है। मैं हरगिज़ दस्तख़त नहीं करूँगी।” और उसने काग़ज़ फाड़कर फेंक दिये।
“तुम बेकार ताव खा रही हो, ज़रा समझने की कोशिश करो। आज हम अभावों से जूझ रहे हैं। अगर कुछ इन्तज़ाम नहीं करते तो निश्चित है, बहुत बुरे दिन देखने होंगे।”
अभावों का आकाश खुलते ही सीमा के तेवर ढीले पड़ गये। वह समझौता करने पर तैयार हो गयी। धीमे स्वर में बोली, “लेकिन इससे हमारे सम्बन्धों में ज़हर घुल जायेगा। मैं इतना बड़ा पहाड़ अपने सीने पर रखकर जी नहीं सकूँगी।”
“अरे, सम्बन्धों का क्या! आज बिगड़े, कल ठीक।”
“इतने हल्के स्तर पर मत लो मेरी बात।”
“नहीं, मैं गम्भीर हूँ। प्रगतिशील नारी का कर्तव्य है कि…”
“तुम्हारे-जैसा नाकारा आदमी प्रगतिशीलता की बात करता है, और शर्म भी नहीं आती!!!” पत्नी फिर तैश में आ गयी, “तुम्हें पैसा चाहिए? एक काम करो—जितना माल और पैसा अब तक तुमने मेरे पिता से लिया है, उसका हिसाब कर, दावे की रकम में से घटा दो; फिर मैं हस्ताक्षर कर दूँगी। बाप-बेटी और भाई-बहन के सम्बन्धों को तिलांजलि दे दूँगी।”
“तुमने यह सब बाकी निकलवा दिया तो बचेगा क्या? अच्छा यह सब छोड़ो, पिताजी से कहकर मुझे यहाँ धन्धा खुलवा दो।”
“धन्धे के लक्षण होते तो यह नौबत ही क्यों आती? ऐसा करो, मेरा गला घोंट दो, बच्चों को चम्बल में डुबो दो। फिर एक-और शादी करना। उसका माल मिले, उससे धन्धा खोल लेना। बस, इससे ज्यादा मैं कुछ नहीं कर सकती।”
अब वहाँ चुप्पी पसर गयी थी। ***



कनविंस करने की बात
“देखती हूँ, तुम मुझसे उखड़े-उखड़े रहते हो!”
   
                      चित्र : बलराम अग्रवाल, साभार
  
“तुमसे? नहीं तो।”
      “फिर क्या बात है? बताओ भी।”
      “पिछला कॉन्ट्रेक्ट खत्म हुए सालभर होने को आया है और अब कोई कॉन्ट्रेक्ट हाथ में नहीं है।”
      “मिल जाएगा, इतना निराश क्यों होते हो। प्रोपर्टी से आमदनी हो ही जाती है।”
      “नहीं, इस बार कॉन्ट्रेक्ट मुझे ही मिलना चाहिए। नब्बे लाख का कॉन्ट्रेक्ट है। यह कॉन्ट्रेक्ट मिल गया तो मेरी हैसियत बढ़ जायेगी।”
      “बताओ, मैं क्या मदद कर सकती हूँ।”
      “मैं यही तो चाहता हूँ कि तुम मेरी मदद करो। आइ-कैम्प लगाने के बारे में कल लायंस क्लब की मीटिंग है, इनिशियेटिव लेकर चीफ इंजीनियर से बात करना। उन्हें कनविंस करना कि यह कॉन्ट्रेक्ट मुझे मिले। चन्दा देने का पूरा आश्वासन दे देना। एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफीसर को तो मैं सँभाल लूँगा। मिस्टर खण्डेलवाल भी इस ठेके पर जोर दे रहे हैं। ठेकेदारी में मुझसे दस साल जूनियर है, लेकिन अफसरों की मदद से कहाँ-से-कहाँ तक पहुँच गया। अब वह गरीबों की मदद के लिए मेडिकल कैम्प लगा रहा है, चाहे उसकी लेबर को एस्प्रो की गोली भी नहीं मिलती हो।”
      “मैं कोशिश करूँगी, लेकिन तुम इतना परेशान क्यों होते हो?”
      “खण्डेलवाल मुझे मटियामेट करने पर तुला है, लेकिन मैं भी बच्चू को छोड़ूँगा नहीं। देखो, यह अखबार देखा है! एकदम सेन्सेशनल। मैं पीछे न पड़ता तो इस बात का पता ही नहीं लगता। मैंने तो पूरे फोटो और टेप भी तैयार कर रखे हैं।”
      खबर यों भी : ठेकेदार खण्डेलवाल और कम्पनी के बड़े अफसर कम्पनी के गेस्ट हाउस में एक कॉल-गर्ल के साथ संदिग्ध हालत में पाये गये। सुना जाता है कि ठेकेदार, ठेका प्राप्त करने के सिलसिले में एडमिनिस्ट्रेटिव ऑफीसर का मनोरंजन कर रहे थे।
      “बड़े ठेकेदार बनते हैं और करते हैं भड़वागीरी!” वह उत्तेजित हो बोली।
      “यह धन्धा बढ़ाने की तरकीब है, पैसे तो सभी देते हैं, लेकिन जो अफसरों को बेडरूम में नंगा कर लेता है, उसकी तो पाँचों उँगलियाँ घी में हैं।”
      “यानी तुम मुझे कॉल-गर्ल वाला काम दे रहे हो?”
      “नहीं सुधा, जरा कनविंस करने की बात है! समझा करो, नब्बे लाख का ठेका है!! जरा हँस-बोल लोगी तो तुम्हारा क्या घिस जायेगा।”
      कितने ठण्डे दिल से बोल गया वह। सुधा की सिसकियाँ थमने का नाम नहीं ले रही थीं।***
मूल नाम : भगीरथ परिहार
संपर्क : 228, मॉडर्न पब्लिक स्कूल, नया बाज़ार, रावतभाटा-323305 (वाया कोटा) राजस्थान
मोबाइल : 09414317654

Tuesday, 25 June 2013

औरत/युगल



 दोस्तो, युगल हिन्दी लघुकथा के प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं। 'जनगाथा' के इस अंक में उनकी यह लघुकथा ससम्मान प्रस्तुत है। अपनी बेबाक टिप्पणी अवश्य दें:
                                    चित्र : बलराम अग्रवाल
वह उनकी शादी की रात थी। शादी क्या? औरत ने पहले पति का सिन्दूर धो डाला था और इस नये मर्द ने माँग भर दी थी। औरत चटाई पर दीवार का सहारा लिए बैठी थी। मटमैली साड़ी का आँचल सिर से सरककर गोद में पड़ा था। जो ब्लाउज़ उसने चार उसने चार दिनों पहले पहना था, आज भी पहने थी। लेकिन माँग में डाला गया सिन्दूर चमक रहा था। मर्द आया तो उसने आँख उठाकर उसे देखा। मर्द ने भी दीये की रोशनी में उसे देखा और उसकी भरी-पूरी छातियों पर उसकी नज़र टिक गयी। पास आकर बैठ गया और औरत को खींचकर अपने आग़ोश में कर लिया। मर्द ने ब्लाउज़ में हाथ दिया तो औरत बोली—“छोड़ दो, दु:ख रहा है। कमीने ने छातियों में काँटे चुभोये हैं और दरिन्दे की तरह मरोड़ा है। तुम्हारे लगाकर गालियाँ दी हैं। छातियाँ फूली हुई हैं।”
      मर्द का हाथ आप-ही-आप खिसक आया। जाने क्या सोचता रहा! फिर उसने उसकी जाँघ पर से कपड़े हटाये। पिंडलियों पर और जाँघों पर नीले फूले कई दाग़ उभरे थे। नंगी जाँघ पर जब मर्द का हाथ पड़ा तो वह दर्द से चिहुँक उठी। मर्द बोला—“वह मर्द है या कस्साई!…हरामी!!” यह गाली मर्द ने दूर अलक्ष्य में फेंकी थी—औरत के पहले पति की ओर। जाँघ पर कपड़ा बहुत ऊपर तक हट गया था और मर्द के भीतर कनकनाहट भर रही थी। फि न जाने क्या सोचकर उसने जाँघ ढँक दी।
      औरत ने मर्द को पसीजती नज़रों से देखा—“तुम्हारा मन है तो…”
      मर्द कुछ ठीक निर्णय  नहीं ले पा रहा था। तभी दरवाज़ा भड़भड़ा उठा—“खोल रे कुत्ते की औलाद! शेर का शिकार कुत्ता नहीं पाता!”
      भीतर से मर्द बोला—“तुमने तो मार-मार के इसे निकाल दिया है। अब यह मेरी औरत है। चुपचाप चला जा यहाँ से।” उसने दीया बुझा दिया। हाथ में कुदाल लेकर तैयार हो गया।
      बाहर वाला आदमी दरवाज़ा तोड़कर अन्दर आ गया। अन्दर अँधेरे में उसे कुछ दिखा नहीं। तभी कुदाल का एक भरपूर वार उसके कन्धे पर पड़ा। वह ‘हाय’ कर वहीं गिर गया।
      मर्द ने औरत का हाथ पकड़कर खींचा कि चलो, भाग चलें। औरत ने मर्द का हाथ झटक दिया—“हाय! यह तूने क्या कर दिया? यह तो मेरा ब्याहता था।”
      मर्द बोला—“अगर मैं नहीं करता तो यह मेरे साथ यही करता। उसके हाथ में कट्टा था।” और मर्द औरत को घसीटता हुआ ले गया। औरत रोती जाती थी। उसका एक ब्याहता आगे था और एक पीछे, जिस ओर वह बार-बार देख रही थी।
कथाकार का मूल नाम : युगल किशोर
जन्म : 1925 की दीपावली
प्रकाशित कृतियाँ : पाँच लघुकथा संग्रह, तीन उपन्यास, तीन कहानी संग्रह, तीन नाटक, दो निबंध संग्रह
संपर्क : मोहिउद्दीनपुर(समस्तीपुर), बिहार-848501 मो॰ : 09631361689