दोस्तो, 'जनगाथा' पर आज से यह नया कॉलम शुरू कर रहा हूँ--'लघुकथा : रचना और दृष्टि' । इसमें पूर्व प्रकाशित किसी एक रचना पर आप भी आलोचकीय टिप्पणी के साथ उपस्थित हो सकते हैं, सभी लघुकथा-चिंतकों का इस कॉलम में स्वागत है। शर्त केवल एक है--टिप्पणी संबंधित लेखक के प्रति पूर्वग्रह प्रेरित न होकर विधा के हित और नवोदित लेखकों के मार्गदर्शन की दृष्टि से सिर्फ़ लघुकथा पर हो। --बलराम अग्रवाल
रचना…
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चित्र:बलराम अग्रवाल |
औरत की उम्र
चौबीस-पच्चीस वर्ष होगी। खूबसूरत नाक-नक्श की थी और फैशनेबल भी लगती थी। उसका पहनावा
भी यही ज़ाहिर करता था। खूब गहरा लिपस्टिक भी लगाए हुए थी।
तो
वह आयी और बस की ‘लेडीज़ सीट’ पर बैठ गयी। मैं भी बगल की सीट पर बैठा हुआ था।
स्टैंड
से बस खुली। बस खुलने से पहले सभी यात्रियों को टिकट लेकर सफ़र करने का ऐलान करा दिया
गया था। गाड़ी स्टैंड से बढ़ी तो कंडक्टर ने एक-एक करके सभी यात्रियों को टिकट दिखाने
के लिए कहा। जब उस ‘फ़ैशनेबल औरत’ की बारी आयी, तब मालूम हुआ कि उस उच्चकोटि वाली साहिबा
ने टिकट तो लिया ही नहीं।
“मेरे
पास टिकट नहीं हैं, आप पैसे ले लीजिए।”
“मैम
साहिबा, ये सरकारी बस है और यहाँ काउंटर से ही टिकट लेने का नियम है। अभी चेकिंग भी
ज़ोर-शोर से है। कब, कहाँ पर गाड़ी चेक कर ली जाएगी, कहा नहीं जा सकता। आपको टिकट लेकर
चढ़ना चाहिए…पर, खैर एक उपाय है। अगर गाड़ी चेक कर ली गयी, तो आपको मेरी पत्नी ज़ाहिर
करना होगा। इससे आपका भी काम हो जाएगा और मेरा भी। या फिर, आप गाड़ी से उतर सकती हैं।”
कंडक्टर ने काफी सोचने-समझने के बाद संकोच से कहा।
“ऐसा
ही करूँगी।” औरत ने बहुत कम शब्दों में जवाब दिया और बेफ़िक्र होकर खिड़की से बाहर का
नज़ारा देखने लगी। कंडक्टर भी निश्चिंत होकर दूसरे यात्रियों के टिकट चेक करने लगा था।
मुझे
अज़ीब-सा लगा, उस औरत की बातों और विचारों पर। आज की नारी इतना गिर भी सकती है, ऐसा
मैं नहीं समझता था।
(प्रकाशित : ‘सम्बोधन’ लघुकथा विशेषांक, अप्रैल-अक्टूबर
1988, पृष्ठ 78)
…और दृष्टि
आज की नारी (शहंशाह आलम) लघुकथा
में कथानायक की कथन-भंगिमा प्रारंभ से ही ‘उस औरत’ के चरित्र के खिलाफ़ स्पष्ट होने
लगती है जिसे अब से पहले उसने कभी देखा-जाना ही नहीं था। आभासित हो जाता है कि महाशय
जी फ़ैशनेबल औरतों के चरित्र के प्रति कुंठित मानसिकता के शिकार हैं। किसी भी औरत का
उसके पहनावे से या गहरी लिपस्टिक लगाने मात्र से फ़ैशनेबल लगना दैहिक सौंदर्य के प्रति
जागरूकता का द्योतक है जिसे विपरीत देशकाल और परिस्थिति में ही ग़लत माना जा सकता है,
सदैव नहीं।
‘वह
आयी और बस की ‘लेडीज़ सीट’ पर बैठ गयी।’ यह नैरेशन इस बात का प्रमाण है कि वह औरत दूसरों
के अधिकार-क्षेत्र में घुसपैठ न करके अपने लिए आरक्षित चीजों पर ध्यान देने के प्रति
भी सचेत है। वह अगर वाक़ई ‘फ़ैशनेबल’ और ‘गिरी हुई औरत’ होती तो बगल की सीट पर बैठे नैरेटर
के निकट बैठती, ‘लेडीज़ सीट’ पर नहीं।
बेशक,
कुछ विशेष रूट्स की बसों में सीटें काउंटर से ही आरक्षित होती हैं, बावज़ूद इसके, बस-कंडक्टर
को यह अधिकार होता है कि सीटें खाली रह जाने या किसी सवारी की विवशता को महसूस करके
वह बस में ही अतिरिक्त टिकट बना सकता है। औरत सीट पर बैठ चुकी है, बस स्टेशन से खुल
चुकी है और किसी भी सवारी के खड़े रह जाने का ज़िक्र लघुकथा में नहीं है—ये सब बातें
स्पष्ट करती हैं कि बस की कम-से-कम उस सीट के लिए काउंटर से टिकट ज़ारी नहीं की गयी
थी। की गयी होती तो उस सीट पर कोई अन्य शख्स अपना दावा ज़रूर पेश करता। दूसरे, औरत का
कंडक्टर से यह कहना कि ‘मेरे पास टिकट नहीं है, आप पैसे ले लीजिए’ उसके स्पष्टवादी,
अनुभवी और धीर स्वभाव वाली होने का द्योतक है। अगर इतने पर भी कंडक्टर ने बहानेबाजियाँ
लगाई हैं तो यह उसके चरित्र का कमज़ोर हिस्सा है, औरत के चरित्र का नहीं।
कथानायक
को उस औरत के चरित्र का सबसे गर्हित पहलू वह नज़र आता है जो कि वस्तुत: उसके चरित्र
का सबसे अधिक मज़बूत और उल्लेखनीय पहलू है।
‘…अगर गाड़ी चेक
कर ली गयी, तो
आपको मेरी पत्नी ज़ाहिर
करना होगा। इससे आपका भी
काम हो जाएगा और
मेरा भी। या फिर,
आप गाड़ी से उतर
सकती हैं।’ कंडक्टर ने काफी सोचने-समझने के बाद संकोच
से कहा।
इसमें कंडक्टर
द्वारा ‘काफी सोचने-समझने के बाद संकोच’ से अपनी बात कहने से भी उसका चरित्र साफ़ हो
जाता है। लघुकथा में बस खुलने के समय का उल्लेख नहीं है। हो सकता है कि रात का समय
रहा हो, हो सकता है कि उस रूट की वह आखिरी बस रही हो, हो सकता है कि औरत का अपने गंतव्य
तक जल्दी से जल्दी पहुँचना आवश्यक हो, हो सकता है कि…हो सकता है कि…अन्तहीन सिलसिला
इस ‘हो सकता है कि’ का हो सकता है। ऐसे में, कंडक्टर की गीदड़-भभकी से उत्तेजित होकर
बस से नीचे उतर जाना किसी भी तरह औरत का बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला नहीं कहा जा सकता था।
बुद्धिमत्तापूर्ण फैसला वही था जो उस समय उसने किया—
“ऐसा ही करूँगी।” औरत ने बहुत कम शब्दों में
जवाब दिया और बेफ़िक्र होकर खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने लगी।’
यहाँ,
‘बहुत कम शब्दों में जवाब दिया’ से तात्पर्य है कि उसने उस लालची और बदतमीज़ कंडक्टर
के मुँह न लगकर अपना काम निकालने का बुद्धिमत्तापूर्ण रवैया अपनाया न कि ‘दो की चार
सुनाकर’ काम को बिगाड़ लेने का। ‘और बेफ़िक्र होकर खिड़की से बाहर का नज़ारा देखने लगी’
में भी वही, उसकी बुद्धिमत्ता और वैचारिक खुलेपन के ही दर्शन होते हैं क्योंकि बस के
अंदर का नज़ारा बहुत घिनौना है जिसे दिखाने के लिए शहंशाह आलम ने नैरेटर और कंडक्टर—दो
पात्रों को प्रस्तुत किया है।
अब,
इस लघुकथा के अंतिम पैरा पर दृष्टि डालते हैं—
‘मुझे अज़ीब-सा लगा, उस औरत की बातों और विचारों
पर। आज की नारी इतना गिर भी सकती है, ऐसा मैं नहीं समझता था।’
प्रस्तुत
लघुकथा के परिप्रेक्ष्य में, वस्तुत: तो नारी यानी औरत नहीं, नैरेटर के रूप में ‘पुरुष’
गिरा है—औरत को बिना टिकट यात्रा करने देकर चंद रुपए बचा लेने के लालच में। उस औरत
ने इस लघुकथा में एक भी बात, एक भी हरक़त, एक भी विचार ऐसा प्रस्तुत नहीं किया है जिसे
देख-सुनकर ‘अज़ीब-सा’ लगे और यह सोचा जाए कि ‘आज की नारी इतना भी गिर सकती है!’। ‘ऐसा
ही करूँगी।’ कहकर उसने फिलवक्त कंडक्टर को आश्वस्त किया है, मौक़ा पड़ने पर वह अपनी
बात पर क़ायम रहेगी ही, यह आवश्यक नहीं है।
दरअसल,
कभी-कभी स्वयं कथाकार भी नैरेटर के मुँह से बोलने लगता है जिसका आभास इस लघुकथा की
कथन-भंगिमा में प्रारम्भ से ही तथा उद्धृत की गयी अंतिम दो पंक्तियों में भी मिल जाता
है। लघुकथा की गुणवत्ता और व्यापक प्रभाव-फलक के मद्देनज़र लघुकथाकार के लिए यह एक त्याज्य
स्थिति है, इससे हर कथाकार को बचना चाहिए। इस लघुकथा का लेखक ‘पहनावे और गहरी लिपस्टिक
लगाने की वज़ह से फ़ैशनेबल लगने वाली औरत’ को चरित्रहीन मानने की रुग्ण मानसिकता और पूर्वग्रह
का शिकार प्रतीत होता है। समापन-वाक्य के रूप में लघुकथा की अंतिम दो पंक्तियाँ न लिखने
का संयम बरता होता तो इस लघुकथा का शीर्षक निश्चित रूप से कथानायिका की मुक्त मानसिकता
को ध्वनित करता।
बलराम अग्रवाल