Tuesday, 24 June 2025

चरित्र-रचना की सूक्ष्मता : काले दिन / डॉ. शोभा जैन

 

इंदौर से प्रकाशित साप्ताहिक ‘अग्निधर्मा’ (अंक 25जून-1जुलाई 2025, पृष्ठ 5) के 'अग्निधर्मा:पुस्तक चर्चा' स्तम्भ में डॉ॰ शोभा जैन द्वारा लिखित ‘काले दिन’ की विस्तृत समीक्षा प्रकाशित हुई है; तथापि डॉ॰ शोभा जैन ने अपनी ओर इसे 'संक्षिप्त चर्चा' कहा है। उनके आभार सहित प्रस्तुत है उक्त समीक्षा :  

बदलते सामाजिक परिदृश्य के मध्य चेहरे की सच्चाइयों के बरअक्स मुखौटे  भी बदले हैं।  इस बदलाव में समाज की देहरी से  उठाए कथानक अपनी लघुता में अर्थवत्ता की गहरी  छाप छोड़ देते हैं।  लघुकथा की छोटी सी जमीन पर संग्रह  'काले दिन' का क्षेत्रफल अपनी  सांकेतिकता के टेप से नपा तुला होकर अपनी व्यंजना में पोषित होता है ।  व्यंजना का यह आचरण ही देश ,काल परिस्थिति का सही-सही उद्घाटन करने में निः सृत हुआ लघुकथा संग्रह  'काले दिन'  में ।

वैचारिक संबद्धता इन लघुकथाओं का सारतत्व है। समाज के षट्कोणीय ज्वलंत हालातों  का मिला जुला मसौदा तैयार करती इन लघुकथाओं में लेखक बलराम अग्रवाल  किसी चमत्कारिक स्वर में आलंबन नहीं खोलते बल्कि ‘संप्रेषण’ के ‘नुकीले’ घेराव से अपनी  सर्जना को ठोस जमीन देते हैं।

कुल जमा 67 लघुकथाओं में एक लघुकथा 'दिवार से पीठ टिकाए बैठा वह बूढ़ा’ (पृ 92 )' आंतरिक जीवन का ऐसा परिशिष्ट खोलती है जो पाठक को घंटों सोचने पर विवश करती है ।

कथा विन्यास का कौशल  शीर्षकों पर भी प्रतिबिंबित होता है।  यह मनोवैज्ञानिक स्पर्श बारीक़ बुनावट का संकेतक है।  कथ्य को बुनने के लिए लेखक ने बाह्य दृश्य-पटल को जितना थिरकन-भरा बनाया है उसी पर उदासी के स्याह रंगों से संवेदना को गहरा दिया है। मसलन

''अकेला हूँ बेटा।'' बुजुर्ग ने कहा, इधर -उधर से भीख मांग ,पेट भरकर यहाँ आ पड़ता हूँ। बतियाने के लिए पांच -सात मिनट निकाल लोगे तो मेहरबानी होगी। ''

''देख लेना ,अगर कर सको .. '' दुविधा में पाकर उन्होंने कहा ,''आपका बहुत समय ले लिया ,अब जाइये।'' और विदा कर दिया।

और उस दिन के बाद ,अनायास, घर-वापसी का मेरा रास्ता ही बदल गया।

इस लघुकथा  में घटना की विशिष्टता नहीं है।  जीवन की विवशता को सामने रखकर कथाक्रम संजोने की कला  है जिसमें रचनाकार भाषा को ऐंद्रिय बनाता है।  कुछ अबाध्य अभावों के बावजूद वह स्पर्श कर जाती है।

शब्दाधिक्य की मार से पूरी सुरक्षित  लघुतम संवादों के  गढ़ी गई ये लघुकथाएं अपनी लघुता  में एक लम्बी यात्रा तय करती हैं।  इनमें हिंसक संचय की प्रवृतियों और घनघोर आत्मकेन्द्रीयता का विस्तार है तो गहराव भी।  संस्था और संसाधनों पर एकाधिकार कायम करने के  तिकड़मी संस्कार ,पूँजीतंत्र और बाज़ारतंत्र  के  साथ जो   मूल्यहीन जीवन-विवेक  अस्तित्व में आया है, जातिवाद के विषाणु हों या वर्गीय विषमता लघुकथाओं की मुखर अभिव्यक्तियाँ बनी हैं । मसलन :

"जिनकी कोई एक विचारधारा नहीं होती, वे नष्ट हो जाते हैं।" उन्होंने कहा ।

"कबीर की तरह ?” मैंने पूछा ।

"नहीं..." अचानक मिले जवाबभरे इस सवाल पर वे सकपका गये ।

कुछ देर बाद सँभले और कहा, "उन हजारों-लाखों की तरह, जिनका नाम न तुम जानते हो न मैं ।''

"वही तो कबीर की जड़ों में पड़े हैं... !" मैंने कहा तो 'लाहौल-विला-कूवत' बकते वे मुझे छोड़कर इधर-उधर हो गये।

अनचीन्हे लोग (पृ 29 ) चंद पंक्तियों में लघुकथा कितनी बड़ी हलचल पैदा कर देती है। 

सांकेतिकता के आधार पर बुनी  लघुकथाएं  आतंकी (69 ), फासीवाद (68), दॉंव ,पेंच और पैंतरा (67 ) कैनवास में   सीमित होकर व्यापक अर्थ प्रदान करती है। 'दरख्त’, नया रेट, मल्टीलाइनर, शाहीन से मुलाकात : शुरूआती तीन सवाल जैसी लघुकथा में नैतिक संकेत, आदर्श बुनावट की निचली परत में समाए हुए हैं। कथांत उसकी प्रतिध्वनि देते हैं।  कथा  की लय  अबाधित रूप से लक्ष्यगामी है। आवरणविहीन शिल्प आम आदमी  का सहकार लघुकथाओं को व्यापक फलक देता है।

पात्रों की ‘चरित्र-रचना की सूक्ष्मता’ इस संग्रह की खासियत है।  'काले दिन' अपने पूरे कलेवर में जिन मूल्यों के लिए विपथगामिता और भ्रष्टताओं से टकराती है,  छोटे-छोटे कथानक में उपन्यास रचा जा सकता है।

पुस्तक : काले दिन; कथाकार : बलराम अग्रवाल; प्रकाशक : मेधा बुक्स, एक्स-11, नवीन शाहदरा, दिल्ली-110032; फोन : 98910 22477; आईएसबीएन : 978-81-8166-21-5; कुल पृष्ठ : 100; मूल्य : रुपये 100 पेपरबैक संस्करण; वर्ष : 2023 द्वितीय संस्करण

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