हौंसले बुलंद
“अरे चची ।तूने कुछ सुना ! लोग कह रहे हैं हमें जो राशन मुफ्त में मिल रहा है उसी से देश भिखारी बन रहा है ।”
“हम मुफ्तखोर भिखारी ही तो हैं । जहां भिखारी रहेंगे उस देश का बेड़ा तो गरक ही समझो।”
"इसमें हमारा क्या दोष! हमारे मरद पढ़े - लिखे तो है ना।वे तो मेहनत- मजदूरी ही कर सकें । जब से करामाती मशीनें बनी हैं 10 मिनट का काम 2 मिनट में हो तो जाए पर चाकरी तो चली गई। अब सरकार को हमारे पेट तो भरने ही पड़ेंगे।चाहे नौकरी दे चाहे राशन दे।"
“सरकार के पास क्या नौकरी का पेड़ लगा है ।जो तोड़-तोड़ कर दे दे।अब तो अपने पेड़ ख़ुद लगाने पड़ेंगे।”
“मरद तो लगा ही न पाये, हम औरतें की भला क्या बिसात !”
“ मर्दों के भरोसे रहने की आदत पड़ गई है ।घर में बैठे बिठाए सब चाहिए।अरे हम औरतें क्या किसी से कम है ।अपनी कीमत तो समझें नाएं ।बस तकदीर का ठीकरा फोड़ती रहवे हैं ।”
“चची जान ऐसा बोल के क़हर न ढा। बच्चा पालने में क्या कम मुसीबत है।जान पर बन आय ।”
“लाडो तेरे बच्चे तो बड़े हो गये।अब तो कुछ कर सके। सारे दिन चोंच भिड़ाती रहे।”
“मैं क्या कर सकूँ…!”सोच के बादलों से वह घिर गई।
तभी चची की आवाज उसे छेकती चली गई—-
“मैंने तो मन बना लिया ..पापड़ बनाऊंगी —-झोपड़ियां के आगे सूरज का ताप ही ताप। एक ही दिन में सूख जाएंगे।देख लीजो——माघ मेले में फटाफट बिकेंगे । घर की बनी चीजों की तरफ़ शहरी बाबू फिर से लौट रहे हैं।”
चेहरों पर धूप आन बैठी। गाँव में हलचल सी आ गई । ज़बान कम हाथ ज़्यादा चलने लगे। माघ मेला आया तो उसके लिए एक टोली भी निकल पड़ी।सभी के सिर पर टोकरियाँ --किसी में बैठी थी अचार की मटकियाँ तो किसी में पापड़ और मंगोड़ियाँ ।प्रतीत होता था,यह टोली उत्साह के पंखों पर सवार अपनी तकदीर का कमल खिलाने चल पड़ी है।
पसीने की स्याही
कोलकाता के गरियाहाट बाजार में हाथ से रिक्शा खींचने वालों की लाइन लगी हुई थी । चिलचिलाती धूप से बचने के लिए उनके सर अंगोछे से ढके हुये थे। लेकिन निगाहें आने जाने वालों पर ही लगी हुई थी । इस उम्मीद में शायद कोई उनकी तरफ देख ले और बोहनी हो जाए।
एक मोटी औरत हाँफती हुई आई। पसीने की बूंदें उसे भिगोये हुई थीं। वह एक रिक्शा वाले के सामने खड़ी हो गई। दो भारी-भारी बैग हाथों में लटके हुए थे जिनसे ढाकाई और तांत की बंगाली साड़ियाँ झांक रही थीं। मरियल सी आवाज में पूछा -"मीरा पट्टी जाना है, कितना लोगे!"उस भारी -भरकम शरीर को देख रिक्शा चालक को गश सा आ गया पर दूसरे ही पल दूध की एक बूंद को तड़पता बच्चा उसकी आंखों के सामने आगे आ गया। थकी सी आवाज में बोला -
"लाओ, बैग रिक्शा में रख दूँ। 30 रुपये दे देना।"
“30 तो बहुत हैं । 15 दूँगी।"
रिक्शावाला चुप ।
"ठीक है- ठीक है !ना जा— !चार कदम पर तो है ही !मैं पैदल चली जाऊंगी।"आवाज तीखी थी ।
चुप्पी घायल हो उठी । अवरुद्ध कंठ से बोली-" बैठो मां जी !पेट पर लात ना मारो!"
मीठे -कड़वे सौदे
“कल तेरे घर खाना खाया था बड़ा लजीज था और सब्जियों का स्वाद तो अभी तक जीभ पर रखा है।”
“हां शांतनु,सब्जियां बड़ी स्पेशल थी। ढाकुरिया रेलवे स्टेशन के पास जो फुटपाथिया बाज़ार लगता है, वहां कुछ औरतें ताजा सब्जियां बेचने सवेरे से आन बैठती हैं। भई बड़ी डिमांड है उन सब्ज़ियों की। चंद घंटों में ही वारे न्यारे ! वह भी बड़े सस्ते दाम पर ।”
“मैं तो केशव वहाँ कभी नहीं गया !”
“तेरे घर के तो बहुत पास है।”
“जिंदगी की भाग दौड़ में कहां जा पाता हूं। पार्क में घूमने आ गया यह क्या कम है।”
“तो चल …अभी ले चलता हूं । दो कदम पर ही है। मैं भी कुछ सब्जियां ले लूंगा।”
इस सब्जी बाजार में वे एक ऐसी औरत की तरफ बढ़ गए जिसकी छाती से उसका दूधमुंहा बच्चा चिपका हुआ था। लेकिन औरत का सारा दिमाग ग्राहकों पर ही लगा हुआ था।
“सब्जियां कैसी चमक रही हैं, चल, टमाटर लेते हैं।” केशव बोला।
"ओ बाई, टमाटर किस भाव दिए।”
“30 रुपए किलो ! एकदम टटका है !अभी खेत से तोड़कर लाई हूं।”
“30---ये तो बहुत महंगे है। 15 रुपए किलो दे दे तो 5 किलो इकट्ठा ले लूं । मेरा कुछ तो फायदा हो ! तेरा तो फायदा ही फायदा !एक साथ इतने बिक जायेंगे।”
“बाबू बिकने की चिंता ना करो ग्राहकों की कमी ना है । यही टमाटर बड़ी-बड़ी दुकानों पर लेने जाओ तो 50 रुपए किलो से कम ना मिलेंगे। एक पाई कम न हो। सारा मोलभाव हमारी किस्मत में ही है क्या। मेरे बच्चे पर तो तरस खाया होता।"
“अरे देना है तो जल्दी कर। ऑफिस भी जाना है।” केशव झुंझलाया।
शान्तनु अपने दोस्त की मोलभाव की कला को देख अंदर ही अंदर कुढ़ रहा था।
“अरे शान्तनु ,तू भी सब्ज़ी ले न । क्या सोच रहा है??”
करेलों की तरह इशारा करते शान्तनु बड़े शांत भाव से बोला - “दो किलो करेले मुझे भी दे दो।"
“बाबू पहले से ही कह दे रही हूं यह तो 40 रुपए किलो है। एक पैसा कम ना करूंगी।”
वह चुपचाप उसकी बात सुनता रहा। जेब से 100 का नोट देते हुए बोला-“ 80 रुपए तुम्हारे करेले के हुए और 20 तुम्हारे बच्चे के लिए।"
सब्ज़ी वाली के चेहरे पर चाँदनी छिटक पड़ी । उल्लसित हो बोली -"बाबू ,तुम जैसे लोगों के भरोसे ही तो अपने पैरों पर खड़े होने की कोशिश कर रही हूँ। भगवान न करे कभी कटोरा हाथ में थामना पड़े। "
आजाद देश की बेड़ियाँ
कामकाज से फारिख हो दोपहर को पड़ोसन कावेरी के पास आन बैठीं। सांत्वना देने वाली तो एक दो ही थीं। हाँ, जले पर नमक छिड़कने वालों की कमी न थी।
एक बोली -“हाय रे! कैसा हट्टाकट्टा जवान था इसका मर्द। सोचा भी ना था कि हाथ की मेहंदी फीकी पड़ने से पहले ही वह इसे छोड़कर चला जाएगा।"
नहले पर दहला फेंकती दूसरी भी बोली-"उसे भी क्या सूझी! भरी बरसात में स्टेशन पर भागे जा रहा था …वह भी सिर पर भारी भरकम अटैचियाँ लादे! नीचे पानी!ऊपर से पानी ! फिसल पड़ा बेचारा ! टूट गई रीढ़ की हड्डी! हाय री तकदीर !"
“अरे चुप भी रहोगी!” एक वृद्धा गुस्साई। कावेरी के सिर पर हाथ फेरती बोली -" बिटिया, ऐसे कब तक रो-रोकर जी हलकान करेगी ।”
स्नेह का छींटा पड़ते ही वह बबककर रो पड़ी।उसके घुटने का सहारा लेती बोली -"मुझे कोई ठौर न सूझ रहा अम्मा!"
"अरी तू तो भागवान है ! मर्द के मरने के बाद उसकी जगह तुझे ही तो मिलेगी ।"
"आग लगे ऐसी नौकरी को । सूली पर चढ़ा दे पर कुली की नौकरी न करूंगी।"
"अरे काहे इतनी आग बबूला हो रही है!"
"कुली कहकर बाबू लोग हमारी कितनी बेइज़्ज़ती करे हैं। हम क्या जन्मजात कुली हैं। कातिल तो चले गए पर कुली कहने को अपनी औलाद छोड़ गये।”
“किन क़ातिलों की बात करे है।”
"अरे वही कमबख्त ! अंग्रेज़ कौम! जो मेरे गाँव वालों को नौकरी का लालच देकर जहाज में भेड़ बकरियों की तरह भर कर ले गए। भूखे पेट माल ढोते -ढोते उनकी कमर टूट जाती।
दवादारू के नाम पर उन्हें सीधा समुद्र में फेंक देते।
ए माँ ऐसो धोखा ! एक पड़ोसन सकते में आ गई।
हाँ, उनकी नज़र में तो वे कीड़े - मकोड़े से ज़्यादा कुछ न थे। सत्यानाश हो ऐसे फरेबियों का ।
"भूल जा बीती बातों को!अब तो हम आजाद हैं।"
"हय! कौन से आजाद देश की बात कर रही है --अब बाहर वाले न सही अपने ही खून चूस रहे हैं । हमारी इच्छा का कोई मोल है !"
"क्या बात करे है। तू अपनी इच्छा से कहीं भी जा,कुछ भी खा !किसने रोका!"
"हा---- हा ---मैं कहीं भी जा सकती हूँ !कुछ भी खा -पी सकती हूँ !सुना तुम सबने! हा--- हा --। वह विक्षिप्त सी हो उठी। कातरता से बोली --पर अंटी में पैसा कहाँ ! बोल--तेरे पास है --तेरे पास है --। नहीं ना—।" वह बदहवास सी औरतों की तरफ हाथ फेंकने लगी। बड़ी मुश्किल से उसे शांत किया।
"हूँ ,मजदूरी तो बहुत कम मिले है।" दुख से बोझिल आवाजें गूंजीं।
"मालूम है कम क्यों मिले है!"
सब कावेरी का मुंह ताकने लगे।
"जिससे हम दुनिया के साथ न बढ़ पाएँ । आगे बढ़ गए तो पैसे वालों को कौन हिंडोले में झुलाएगा! कहने की बात है सबका साथ सबका विकास !"
आहत मन लिए औरतें तितर -बितर हो गईं।
सुलगती सांसें
सार्वजनिक खुले शौचालय के आगे नागिन सी लाइन लगी थी। उसके खतम होते ही वही भंगिन !अरे जिसका नाम था बेला टी--दनदनाती अंदर घुस गई। सारा शौचालय गीला --!गनीमत कि फिसल न गई। बदबूदार भबका उठा तो बेचारी ने नाक पर कपड़ा डाल लिया।अपनी ड्यूटी तो हर हालत में उसे पूरी करनी थी, सो मन मसोसकर आगे बढ़ना पड़ा। ।
अपने कपड़ों को समेटती लोहे के टुकड़े से कोनों का पाखाना खुरचने लगी। जब- तब टट्टी उसके नाखूनों में भी भर जाती । उसे कहाँ परवाह!रोजाना की बात !इसकी तो उसे आदत पड़ गई थी। कैंची से हाथ चलाते हुए मैला उठाकर टोकरी में भरने लगी। कमर की टेक पर टोकरी को उठाया और ट्रक में डालने चल दी। पर यह क्या! ट्रक तो उस दिन आया ही नहीं था!
"हे भगवान !अब तो टोकरी को सिर पर उठाना होगा। दूर बहुत दूर घूरे पर फेंकने कैसे जाऊँगी!" आँखें गीली हो आईं।किसी तरह पैरों को घसीटती रास्ता पार किया।
टोकरी खाली करके वह गुजर ही रही थी कि एक महिला से छूते- छूते बच गई। महिला घुर्रा पड़ी -"अरी आँख की अंधी ! परे हट !उफ बदबू !बदबू! "
एक -एक शब्द उसके कानों में गरम शीशा उड़ेलने लगे। तड़पती बोली -"ए माई, हमें क्या पाखाना उठाने का शौक है !हमें भी बदबू आवे! नखरा तो ऐसा मार रही है जैसे तेरे मैला में इत्र की खुशबू आती हो।"
"बढ़-बढ़ के ना बोल!अब तो फ्लश सिस्टम चल पड़ा है मुखिया उसे ही लगवाने की बात कर रहे हैं। "
"कितने ही सिस्टम लगवा ले चौधराइन, तेरे सिस्टम को हमारे सिस्टम की जरूरत तो पड़ेगी! वरना भूल जाएगी …. चमचमाती चूड़ियाँ और अंगूठियाँ पहनना ।"
निशाना चूक गया
“सुना है सामने बड़ी सी बिल्डिंग बन रही है। उसमें कम से कम 500 फ्लैट है। तब तो हमें बहुत काम मिल जाएगा।”
“ज्यादा खुश होने की जरूरत नहीं पट्टू । यह शहर है शहर। यहां शौचालय नहीं…रेस्ट रूम होता है। आराम से वहाँ गाने सुनो ,मोबाइल पर बात करो । अखबार पढ़ो और ..साथ में….. ही ..ही ।”वह जोर जोर से हंसने लगा।
“वाक्य तो पूरा कर । बंद कर अपनी ही.. ही ।”
“ शुशु -पॉटी।”
“उसे उठाने के लिए तो हमारी जरूरत पड़ेगी।”
“ना-ना !यह तो पुरानी बात हो गई ।अब तो बटन दबाते ही पानी की धार शुरू— सुसु पॉटी एकदम गायब ।”
“यह पॉटी कोई जादू की है क्या।”
“ यही समझ ले।”
“ये रेस्टरूम तो हमारी नौकरी छीन लेंगे।”
“छीन लें हमारी बला से। नौकरी की क्या कमी है!”
“हमें कौन नौकरी देगा रे कांछी !देखते ही तो लोग नाक भौं सकोड़ने लगें ।”
“चल मैं तुझे नौकरी दिलवाता हूँ।पानी की मारामारी होने से कुँओं की सफाई- खुदाई शुरू हो गई है।मज़दूर तो चाहिए ही। मैंने भी अपना नाम लिखवा दिया है। सुपरवाईजर बहुत दयावान है । तुझे भी ले लेगा।”
उस दिन काम जोरों पर था ।सुपरवाइजर की निगरानी में खुदाई हो रही थी।तभी मंदिर से पुजारी निकल कर आए ।काली पीली आंखों करते दहाड़े -“अरे यह मंदिर का कुआं है। लड़कों तुम्हारी जात कौन सी है?”
पट्टू -काँछी सहम गए। उन्हें पीछे करते हुए सुपरवाइजर आगे आया । बोला ,”पंडित जी ,हमारी इनकी जात तो एक है।”
“क्या कहा! फिर से तो कहना !”पंडित जी ने आँखें तरेरीं।
“मैं और तुम भारतवासी ! ये दोनों भी भारत के रहनेवाले !फिर तो भारतीय ही कहलाएगे। हुई न एक ही जात पंडित जी..!”सुपरवाइजर की आँखों में व्यंग्य मिश्रित हास्य झलकने लगा।
पंडित जी ने जनेऊ पर हाथ रखा और राम-राम कहते हुए मंदिर की ओर उल्टे पांव लौट पड़े।
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1 comment:
सभी लघुकथाएं एक से बढ़कर एक, प्रेरणादायक.... बहुत बहुत मुबारक मैम
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