दो किस्तों में समाप्य लम्बे लेख की पहली कड़ी
क्षितिज की बात करने से पहले तत्कालीन लघुकथा के मालवाऔर निमाड़ परिदृश्य
सतीश राठी |
पर बात करना मुझे
बड़ा जरूरी लग रहा है,अतः अपनी इस बात को मैं वहीं से प्रारंभ कर रहा हूँ। मालवा और निमाड़ के
क्षेत्र में लघुकथा लेखन की बहुत पुरानी परंपरा रही है। मालवा एक पठारी क्षेत्र है
और यहाँ की भूमि के बारे में कभी लिखा गया है कि:-
मालव भूमि गहन गंभीर
डग डग रोटी पग पग नीर
ये पंक्तियाँ उस समय के मालवा के समृद्ध परिदृश्य की ओर इंगित करती हैं। पर यह समृद्ध परिदृश्य आर्थिक और आवासीय रूप से ही नहीं था अपितु उस समय यहाँ का साहित्यिक परिदृश्य भी काफी मजबूत रहा है।
लघुकथा विधा की परंपरा में जो नाम आते हैं उनमें मालवा और निमाड़ के क्षेत्र के श्रद्धेय माखनलाल चतुर्वेदी एवं पद्मश्री दादा रामनारायण उपाध्याय का नाम सर्वोपरि रूप से लिया जाता है। दोनों खंडवा शहर के साहित्य परिदृश्य में देदीप्यमान रहे हैं। दादा माखनलाल चतुर्वेदी की लघुकथा बिल्ली और बुखार प्राचीन लघुकथा लेखन में गिनी जाती है। मालवा निमाड़ के लघुकथा के पितृपुरुष पद्मश्री दादा राम नारायण जी उपाध्याय का जिक्र करना चाहूँगा, जिन्होंने लघुकथा को बहुत स्नेह प्रदान किया है। मध्य प्रदेश के परिदृश्य में उस समय पद्मश्री दादा रामनारायण उपाध्याय लघुकथाएं लिखते रहे हैं। दादा का जब मैंने एक साक्षात्कार लिया था,तब उनसे लघुकथा पर भी बातचीत की गई थी।
आपको मैं यह बताना चाहूँगा कि इंदौर शहर लघुकथा का प्रारंभिक रूप से सबसे महत्वपूर्ण स्थान रहा है। डॉ सतीश दुबे का पहला लघुकथा संग्रह 'सिसकता उजास ' वर्ष 1974 में प्रकाशित हुआ था। ' वीणा 'पत्रिका जो श्री मध्य भारत हिंदी साहित्य समिति इंदौर की मुख पत्रिका रही है, उस पत्रिका में डॉ श्याम सुंदर व्यास ने बतौर संपादक लंबे समय तक लघुकथाओं का प्रकाशन किया है। वर्ष 1974 में ही डॉ सतीश दुबे का लघुकथा संग्रह' सिसकता उजास: प्रकाशित हो चुका था। वर्ष 1977 में नरेंद्र मौर्य और नर्मदा प्रसाद उपाध्याय के संपादन में एवं श्री कमलेश्वर की भूमिका के साथ' समांतर लघुकथाएं' पुस्तक भी इंदौर से ही प्रकाशित हुई।
लघुकथा लेखन के क्षेत्र में मेरा प्रवेश भी तकरीबन वर्ष 1977 का ही रहा है उस समय डॉ सतीश दुबे एक साहित्यिक संस्था,'साहित्य संगम' की मासिक गोष्ठियां सुदामा नगर स्थित अपने आवास पर किया करते थे और उन गोष्ठियों में,जब मैं अपनी कविताओं के साथ गया तब वहीं पर लघुकथा विधा से मेरा परिचय हुआ। मेरे लघुकथा गुरु डॉ सतीश दुबे ने मुझे यह प्रेरणा दी कि मैं लघुकथा लिखना प्रारंभ करूं। उस समय मैंने अपनी पहली लघुकथा 'समाजवाद' लिखी जो बाद में लघु आघात में प्रकाशित हुई।
लघुकथा की पहली पत्रिका 'आघात 'जो बाद में फिर 'लघु आघात' के नाम से प्रकाशित हुई, इंदौर शहर से ही प्रारंभ हुई। 'आघात' का प्रवेशांक जनवरी से मार्च 1981 का प्रकाशित हुआ उस अंक की कीमत सिर्फ ₹3 थी तथा त्रैमासिक पत्रिका आघात का वार्षिक शुल्क सिर्फ ₹12 था। प्रवेश अंक में उसके प्रणेता डॉ सतीश दुबे प्रधान संपादक रहे और संपादक श्री विक्रम सोनी। अन्य संपादकीय साथियों के रूप में सर्वश्री वेद हिमांशु, वसंत निरगुणे, महेश भंडारी रहे। पत्रिका का तीसरा अंक ग्रामीण लघुकथा अंक के रूप में प्रकाशित हुआ। उक्त नाम से पंजीयन ना मिलने के कारण जनवरी 1982 से यह पत्रिका 'लघु आघात' के रूप में प्रारंभ हुई, जिसके संपादन मंडल में प्रधान संपादक डॉ सतीश दुबे, संपादक विक्रम सोनी, उप संपादक वेद हिमांशु, सतीश राठी, राजेंद्र पांडेय 'उन्मुक्त' एवं महेश भंडारी रहे। इस पत्रिका का अप्रैल-जून 82 अंक 'महिला लघुकथा अंक' के रूप में प्रकाशित हुआ। कुछ समय तक पत्रिका का नियमित त्रैमासिक प्रकाशन हुआ, फिर कुछ अंतराल देकर और तत्पश्चात आठवें वर्ष में संयुक्त अंक 30 से लेकर 33 के साथ जनवरी 1989 में पत्रिका का प्रकाशन बंद हो गया।
'क्षितिज' संस्था की स्थापना 26 जून वर्ष 1983 को श्री बालकृष्ण नीमा के निवास अर की गई। दिनांक 28 नवंबर 1984 को एक संस्था के रूप में इसका पंजीयन भी हो गया संस्था के प्रारंभ से साथियों ने मुझे अध्यक्ष के पद का दायित्व प्रदान किया जिसे सबके सहयोग और समर्पण से आज तक निर्वहन किया जा रहा है। जिन साथियों ने 'क्षितिज' का निर्माण किया उनके प्रमुख नाम और दायित्व इस प्रकार है : डॉक्टर अखिलेश शर्मा उपाध्यक्ष, श्री सुरेश बजाज कोषाध्यक्ष, श्री अनंत श्रीमाली सचिव। इनके अतिरिक्त कार्यकारिणी के प्रारंभिक सदस्यों के रूप में सुभाष जैन, किशन शर्मा कौशल, बालकृष्ण नीमा और सुभाष त्रिवेदी अधिवक्ता रहे। संस्था का प्रारंभिक सदस्यता शुल्क रु 12 प्रतिवर्ष रहा और लंबे समय तक यही राशि रहने के बाद वर्ष 1986 में इसे ₹15 वार्षिक किया गया। प्रथम वर्ष में ही सदस्य संख्या 50 हो गई थी और इसी उत्साह से भरे हुए साथियों ने सबसे पहले यह तय किया कि लघुकथा को लेकर एक पत्रिका का प्रकाशन 'क्षितिज' नाम से ही शुरू किया जाए।
लघुकथा पत्रिका 'क्षितिज' का प्रथम अंक वर्ष 1984 में प्रकाशित हो गया। प्रारंभिक अंक का संपादन सतीश राठी एवं डॉक्टर अखिलेश शर्मा द्वारा किया गया। सहयोग अनंत श्रीमाली, सुरेश बजाज, किशन शर्मा कौशल का रहा। कला सहयोग श्री पारस दासोत एवं किशोर बागरे का रहा तथा सूर्यकांत नागर भी सहयोगी साथी के रूप में रहे। लघुकथा पत्रिका 'क्षितिज' का प्रथम अंक बहुत पसंद किया गया। इस प्रवेशांक में एक अखिल भारतीय लघुकथा प्रतियोगिता आयोजित कर उसमें पुरस्कृत लघुकथाओं को प्रकाशित किया गया था, तथा इसका लोकार्पण कार्यक्रम पद्मश्री दादा रामनारायण उपाध्याय, कहानी लेखिका मालती जोशी और कथाकार विलास गुप्ता के सानिध्य में किया गया। इस अंक में श्री कृष्ण कुमार अरोरा, अरुण कुमार धूत, अशोक शर्मा भारती, विश्वबंधु नीमा, नरेंद्र जैन एवम् लक्ष्मी नारायण राठौर विशेष सहयोगी साथियों के रूप में शामिल हुए। इस प्रवेशांक को डॉ. हरिवंश राय बच्चन, डॉ शिवमंगल सिंह सुमन, विष्णु प्रभाकर, बालकवि बैरागी, कवि रामविलास शर्मा जैसी हस्तियों का आशीर्वाद मिला। दादा रामनारायण उपाध्याय प्रमुख निर्णायक तथा सूर्यकांत नागर एवं राजेंद्र पांडेय 'उन्मुक्त' सहयोगी निर्णायकों के रूप में पत्रिका में उपस्थित रहे।
इस प्रतियोगिता में फजल इमाम मल्लिक की लघुकथा 'फर्क' प्रथम, मदन शर्मा की लघुकथा 'अनुभव' द्वितीय एवं शंकर पुणतांबेकर की लघुकथा 'अवैध संतान', पारस दासोत की लघुकथा 'उतार लो' एवं राजेंद्र राकेश की लघुकथा 'विवशता' तृतीय स्थान पर रहीं। डाॅ. रत्नलाल शर्मा का आलेख 'लघुकथा की प्रासंगिकता' तो इस अंक को महत्वपूर्ण बना ही रहा था लेकिन लघुकथा पर सतीश राठी द्वारा श्री सरोज कुमार, श्री रामविलास शर्मा, डॉ राजेंद्र कुमार शर्मा, सुश्री साधना जोशी से लिए गए साक्षात्कारों के साथ सबसे अंत में सतीश राठी द्वारा ही डॉ. सतीश दुबे से लिया गया एक महत्वपूर्ण साक्षात्कार इस संग्रह के योग्य बन गया। पूरा प्रवेशांक पारस दासोत एवं किशोर बागरे के रेखांकनों से सुसज्जित था।
यह अंक 'क्षितिज' के सोच की जमीन तैयार करने वाला अंक था। इसमें रतीलाल शाहीन, रंजीत राय, मधुकांत, जया नर्गिस, खान अब्दुल रशीद दर्द, तारिक असलम तस्नीम, मार्टिन जान अजनबी, नरेंद्र नाथ लाहा, हीरालाल नागर, योगेंद्र शर्मा, डॉ. कमल चोपड़ा, कालीचरण प्रेमी जैसे लघुकथाकारों की लघुकथाएं प्रशंसनीय लघुकथा के रूप में शामिल थीं।
साथियों का उत्साह बढ़ गया था और उसकी परिणिति के रूप में वर्ष 1985 में दूसरा अंक सतीश राठी एवं सुरेश बजाज के संपादन में प्रस्तुत हुआ। यह अंक पुनः एक प्रतियोगिता अंक के रूप में था जिसे निर्णायकों के रूप में 'वीणा' के तत्कालीन संपादक डॉ. श्याम सुंदर व्यास, जलगांव के डॉ. शंकर पुणतांबेकर, दिल्ली के श्री राजकुमार गौतम, गंज बासौदा के पारस दासोत रहे। उस समय के उदीयमान लेखक पवन शर्मा की लघुकथा 'मजबूरी' प्रथम रही, साबिर हुसैन की लघुकथा 'ठेका' द्वितीय रही, जया नर्गिस की लघुकथा 'बेताल का बयान' तृतीय लघुकथा के रूप में सामने आई। अशोक मिश्र, श्यामसुंदर चौधरी, कमल चोपड़ा, आनंद बिल्थरे, सुभाष नीरव की लघुकथाएं प्रोत्साहन पुरस्कार से सम्मानित की गई एवं अशोक चतुर्वेदी, राजकुमार सिंह, सुरेंद्र तनेजा, पुष्पलता कश्यप, चांद शर्मा, भगीरथ, कृष्ण शंकर भटनागर एवं महेंद्र सिंह महलान की लघुकथाएं प्रशंसनीय लघुकथाओं के रूप में शामिल हुई। मालवा के लघुकथाकार शीर्षक से राजेंद्र पांडेय 'उन्मुक्त' का लेख चर्चा में रहा और निरंजन जमीदार की मालवी भाषा की लघुकथा 'भाटो' भी चर्चा में रही।
दादा रामनारायण उपाध्याय ने एक लेख 'शब्द में शक्ति सूक्ष्मता से आती है' शीर्षक से लिखा तथा प्रताप राव कदम ने भी लघुकथा को अपने आलेख का विषय बनाया।
दूसरे अंक में ही 'क्षितिज' ने सारे देश को समेटने का प्रयास किया। पंजाबी साहित्य की लघुकथाओं पर सुभाष नीरव का आलेख और जगदीश अरमानी की लघुकथा, राजस्थानी साहित्य में लघुकथा पर पुष्पलता कश्यप का आलेख एवं दुर्गेश की लघुकथा, गुजराती में लघुकथाओं पर डॉ. कमल पुंजाणी का आलेख एवं बल्लभ दास दलसाणिया की लघुकथा, नेपाली कथा साहित्य पर गोविंद गिरी प्रेरणा एवं किशोर पहाड़ी का आलेख एवं अशेष मल्ल की लघुकथा इस विशेष अंक को पुनः संग्रहणीय बना गई। उर्दू लेखक मंटो की लघुकथा 'सफाई पसंद', जेम्स थर्बर की चेक लघुकथा 'शेर और लोमड़ी', कार्ल सेण्डबर्ग की अमेरिकी लघुकथा 'रंगभेद', कन्फ्यूशियस की चीनी लघुकथा 'तानाशाह और शेर', एबरोस बियर्स की अंग्रेजी लघुकथा 'अफसर और ठग', टॉलस्टॉय की रूसी लघुकथा 'बोझ' इस अंक को अंतरराष्ट्रीय स्वरूप प्रदान कर गई। इस अंक की एक और विशेषता श्री चरण सिंह अमी द्वारा लघुकथा पर सर्वश्री बलराम, राजकुमार गौतम, राजेंद्र मिश्र, सूर्यकांत नागर, विलास गुप्ते, सतीश राठी, सिंघई सुभाष जैन, अशोक शर्मा भारती एवं लक्ष्मी नारायण राठौर के साथ बैठकर की गई बातचीत की प्रस्तुति थी, जिसमें लघुकथा के बहुत सारे मुद्दे चर्चा में रहे।
'क्षितिज' के इन दोनों अंको की ताजपोशी लघुकथा के जगत में एक जिम्मेदारी पूर्ण पत्रिका के रूप में हुई; हालांकि कुछ लोगों को परेशानी भी थी, पर इनके स्वरूप और निष्पक्ष प्रतियोगिता निर्णय लोगों के मन को भा गए। लघुकथा के क्षेत्र के कई बड़े-सारे नाम उस समय क्षितिज पत्रिका में शामिल होकर गौरवान्वित हुए।
संयोगवश यहाँ पर बताना चाहूँगा कि पिछले दिनों क्षितिज के कार्यक्रम में आदरणीय श्याम सुंदर अग्रवाल ने यह कहा कि 'क्षितिज' के इस अंक में पंजाबी लघुकथा पर सुभाष नीरव के आलेख ने उन्हें चिह्नित किया और उसी के परिणाम स्वरूप उन्होंने न सिर्फ मिन्नी पत्रिका का प्रकाशन शुरू किया, अपितु पंजाबी लघुकथाओं को शीर्ष पर बिठाने का प्रयास किया और आज आप देखिए हिंदी से भी अधिक पंजाबी लघुकथा गुणवत्ता की दृष्टि से स्वीकार की जाती है।
क्षितिज संस्था के साथियों का उत्साह चरम पर था और शहर के संस्थानों ने आर्थिक सहयोग प्रदान करने में भी कभी कोई कसर नहीं रखी। यहाँ तक कि सोमदत्त के समय साहित्य परिषद भोपाल ने भी इस पत्रिका को उस वक्त में सदैव विज्ञापन सहयोग प्रदान किया, जबकि आज इतनी पुरानी पत्रिका के आवेदन को साहित्य परिषद भोपाल सदैव नकार देती है। वहाँ की लालफीताशाही साहित्य को हाशिए पर डालने में लगी हुई है।
शेष आगामी अंक में…
1 comment:
बहुत बढ़िया।
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