Thursday, 11 June 2020

डॉ. सतीश दुबे का लघुकथा लेखन / डॉ. पुरुषोत्तम दुबे


(लघुकथा संग्रह सिसकता उजास’ के परिप्रेक्ष्य में)
                                                             
किसी खुलते हुए रहस्य की भाँति कोई ढाई दशक पूर्व मैं डॉ. सतीश दुबे से मिला हूँ, ग़ौरतलब बात यह है कि डॉ. दुबे से मेरी मुलाकात बगैर किसी मध्यस्थ के हुई है। मैं करता भी क्या? क्योंकि जिस प्रकार से इन्दौर महानगर के बौद्धिक परिवेश से डॉ. सतीश दुबे का नाम मुझको सुनाई पड़ रहा था, इस कारण से मैं स्वयं को रोक नहीं पाया था।

अपने सृजनकर्मी होने का द्वार डॉ. सतीश दुबे ने खुद ही खोला था। कोई सहारा, कोई बैसाखी का उपयोग किये बिना इस पथिक ने गति-मति को ही पाथेय मानते हुए साहित्य सृजन के अपने लक्ष्य को पाने का यत्न किया है। सन् 2011 में प्रकाशित अपने लघुकथा संग्रह ‘बूँद से समुद्र तक’ की भूमिका में लघुकथा रचना की निरन्तरता बनाये रखने के तारतम्य में सतीश दुबे स्वीकार करते हैं कि, ‘‘इस विधा से मन और उसकी सहचरी कलम ने विश्राम ले लिया हो, ऐसी बात नहीं। इस बीच बूँद-बूँद लेखन ने समय को जगाए रखा, बस बूँद आकार नहीं ले पाई। पर बूँद को आकार लेने में समय भी तो लगता है।’’ इस बात की आश्वस्ति डॉ. सतीश दुबे को तेलुगु कवि प्रो. एन.गोपि की लिखीं काव्यपंक्तियों से प्राप्त थीं—
‘‘थकने का सवाल ही नहीं उठता/
दूरी को तय करते हुए/उड़ने वाले पक्षी को/
रुकने की जरूरत नहीं होती/
आँखों की नमी को/बूँद का रूप लेने के लिए/
आँसू जो लम्बा सफर तय करते हैं-
उसमें बिजलियाँ नए गीत रचती है।’’1
       
डॉ. पुरुषोत्तम दुबे 
प्रो. एन. गोपि की इन्हीं प्रेरणादायी काव्य पंक्तियों से, प्रेरित होकर डॉ. सतीश ने लघुकथा जगत में एक स्थान से दूसरे दूरवर्ती स्थान तक जाने की क्रिया अर्थात् अपने ‘प्रयाण’ को बनाए रखा और इस तरह डॉ. सतीश दुबे अपनी लघुकथा-लेखन यात्रा का मुहूर्त्त 1974 में अपने प्रथम लघुकथा संग्रह ‘सिसकता उजास’ की रचना कर सम्पन्न बनाया और फिर ‘सिसकता उजास’ (1974) लघुकथा संग्रह के अलावा ‘भीड़ में खोया आदमी’ (1990), ‘राजा भी लाचार है’ (1994), ‘प्रेक्षागृह’ (1998), ‘समकालीन सौ लघुकथाएँ’ (2001), ‘बूंद से समुद्र तक’ (2011) और ‘प्रेम के रंग’ (2017), नामक महत्वपूर्ण लघुकथा संग्रह लघुकथा जगत को विरासत में प्रदान की है।
         सन् 1974 में प्रकाशित ‘सिसकता उजास’ डॉ. सतीश दुबे का पहला एकल लघुकथा संग्रह है। मध्यप्रदेश की धरती से, विशेषकर मध्यप्रदेश के मालवा अंचल से लघुकथा संग्रह सिसकता उजास’ का प्रकाशित होकर सामने आना निस्सन्देह एक चौंकाने वाली आमद के मानिन्द था। डॉ. सतीश दुबे का लघुकथा संग्रह ‘सिसकता उजास’ तत्कालीन समय में कमलेश्वर द्वारा सम्पादित पत्रिका ‘सारिका’ से मिली चुनौतियों का प्रतिफल सिद्ध हुआ। लघुकथा के नाम पर ‘चुटकुले’ प्रकाशित करने की अति लघुकथाकार सतीश दुबे को भीतर तक आहत कर गईं। इस सच्चाई को डॉ. सतीश दुबे ने एक स्थान पर लिखा भी है कि, ‘‘कमलेश्वर के बोल को अनमोल बोल का रूप दिया जाकर लेखक बनने की होड़ सी चल पड़ी थी। उन्होंने कुछ बोला नहीं कि लघुकथा तैयार! इस सबका नतीज़ा यह हुआ कि धीरे-धीरे ‘सारिका’ में छपने वाली लघुकथाएँ चुटकुले ही मान ली जाने लगीं।’’2
         सन् 1969-70 मे कमलेश्वर ‘सारिका’ के सम्पादक नियुक्त हुए थे। लेकिन इसके पूर्व डॉ. सतीश दुबे की छह लघुकथाएँ 15 फरवरी, 1965 की ‘सरिता’ के अंक में प्रकाशित हो चुकी थीं और 17 अप्रेल, 1966 के ‘साप्ताहिक हिन्दुस्तान में उसकी लघुकथ ‘पोनीटेल’ प्रकाशित हुई थी। इस सन्दर्भ में लघुकथाकार मधुदीप का मानना है कि, ‘‘समकालीन लघुकथाकारों में सतीश दुबे ही अकेले लघुकथाकार जिनकी लघुकथाएँ 1970 से पूर्व के दशक में प्रकाशित हुई है।’’3 डॉ. अशोक भाटिया ने लघुकथा की विकास यात्रा से सन्दर्भित ‘नींव के नायक’ का सम्पादन किया है और खोज तथा परिश्रम के बल पर सन् 1901 से 1970 तक की अनमोल लघुकथाएँ पाठकों के लिए चुनी हैं। डॉ. सतीश दुबे लघुकथा विषयक इन 70 वर्षों की विकास यात्रा के अन्तिम पायदान के लघुकथाकार रूप में ‘पूरन मुद्गल, युगल, सुरेन्द्र मंथन के साथ लघुकथा-लेखन के अर्थ में खड़े मिलते हैं।’’4
         उपर्युक्त जानकारियाँ लघुकथाकार डॉ. सतीश दुबे के प्रति उन पाठकों या लघुकथाकारों के लिए कही गई बातों की तरह हैं जिनका सतीश दुबे के लेखकीय व्यक्तित्व पर कभी ध्यान न गया हो।
         इतना ही नहीं इसके अलावा लघुकथाओं का पाठक वर्ग यह जान ले कि डॉ. सतीश दुबे ने लघुकथा विषयक अपना संग्रह ‘सिसकता उजास’ तैयार करने के पूर्व ही लघुकथा - विषयक कितनी सृजनात्मक शक्ति को खर्च किया है और किस शिद्दत के साथ अपने इस एकल संकलन में अपने प्रारम्भिक दौर की लघुकथाओं की उपस्थिति दर्ज करायी है।
         वैसे तो डॉ. सतीश दुबे का लघुकथा संग्रह ‘सिसकता उजास’ उनकी कुल 34 लघुकथाओं का उनका पहला एकल संग्रह है। लेकिन जब डॉ. सतीश दुबे ने अपनी लघुकथाओं का पुनर्नवा संकलन सन् 2011 में ‘‘बूंद से समुद्र तक’’ तैयार किया तो इस संकलन में, पूर्व में संकलित 34 लघुकथाओं में से 18 लघुकथाओं को उनका पुनरावलोकन कर स्थान दिया। यही सतीश दुबे की ईमानदारी है कि उन्होंने ‘श्रेष्ठ में से सर्वश्रेष्ठ’ लघुकथाओं को प्रस्तुत कर वास्तव में नवागन्तुक लघुकथाकारों का लघुकथा लेखन विषयक मार्ग प्रशस्त किया है।
         वस्तुतः ‘बूँद से समुद्र तक’ डॉ. सतीश दुबे द्वारा सन् 2008 से सन् 2011 के बीच लिखी गई लघुकथाओं के बावजूद उनकी 1965-66 में प्रकाशित बारह लघुकथाओं का दस्तावेजीकरण तथा विभिन्न विद्वानों द्वारा डॉ. सतीश दुबे के अवदानों के लेखे-जोखे के साथ फरवरी 1974 में प्रकाशित उनके लघुकथा संग्रह ‘सिसकता उजास’ की अट्ठारह प्रतिनिधि लघुकथाओं का एक जिल्द में समावेशन है।
         सिसकता उजास’ में जिन अट्ठारह लघुकथाओं का प्रकाशन योग्य चयन हुआ है वे क्रमश, भीड़, अन्तिम संस्कार, एक दिन, क्यों, अपने लोग, चक्र, श्वेत युद्ध, वह?, जिन्दगी, ज्ञानी, झंझट, दूसरी पारी, भूरी, बजट, धूं धूं हूं हूं, लोककथा, समाजवाद, स्टेच्यू, शीर्षक से सम्बद्ध लघुकथाएँ हैं।’’
         ‘‘सिसकता उजास’’ लघुकथा संग्रह के सम्बन्ध में तथा इस संग्रह में समाहित कतिपय लघुकथाओ के बारे में सूर्यकान्त नागर ने कहा है कि, ‘‘यह कहने में संकोच नहीं कि डॉ. सतीश दुबे ने लघुकथा विधा को पूरी तरह आत्मसात कर लिया है। इस बात का स्पष्ट उदाहरण ‘सिसकता उजास’ की लघुकथाएँ है, जिनमें लेखक ने परिवारजनों द्वारा ओढ़ी हुई झूठी सहानुभूति और संवेदनशीलता को उजागर उसकी असलियत को प्रकट किया है। संग्रह की लघुकथा ‘वह’ नारी-मन को लेकर लिखी गई बहुत ही प्यारी लघुकथा है, ‘एक दिन’ में दफ्तर का माहौल जमा है। ‘धूं-धूं-हूं-हूं’’ में आज के मशीनी-जीवन को रेखांकित किया गया है। ‘जिन्दगी’ संग्रह की सबसे छोटी, मारक तथा मार्मिक लघुकथा है जिसमें विवशताजन्य मातृत्व को गहरी सम्वेदना के साथ उकेरा गया है।’’5
         लघुकथाओं में विशुद्ध आदमी रचने की आकांक्षा’ शीर्षक लेख में डॉ. श्रीराम परिहार एक स्थान पर कहते है कि, ‘‘सिसकता उजास’, ‘भीड़ में खोया आदमी, ‘‘राजा भी लाचार है’’ और ‘प्रेक्षागृह’ संग्रहों में डॉ. सतीश दुबे जिन्दगी का मधुतिक्त अभिव्यक्त करते हैं। लेखक की दृष्टि उस व्यक्ति को खोजती है जो बाजार, राजनीति और अव्यवस्था की भीड़ में खोया हुआ है।’’6
         ‘‘लघुकथाओं में व्यक्ति तथा समाजमूलक चेतना के पैरोकार : डॉ. सतीश दुबे’’ शीर्षक लेख में डॉ. पुरुषोत्तम दुबे लिखते है कि, ‘सिसकता उजास’ की प्रायः सभी लघुकथाएँ पराभूत और बेजार हुई मानवता के हिस्से में उत्कीर्ण हुई है। उनकी लघुकथाओं के पात्र गर्त में जाकर भी संघर्षों का पीछा नहीं छोड़ते है।’’7
         सर्वोपरि रूप में ‘जीवन की बहुआगामी सच्चाइयों के सृजनधर्मी : डॉ. सतीश दुबे ‘शीर्षक आलेख में डॉ. कमलकिशोर गोयनका लिखते हैं कि, ‘‘जैसे जीवन के अनेक रूप हैं, वैसे ही डॉ. दुबे की लघुकथाओं में जीवन के विविध रूप हैं। सतीश दुबे जीवन के मूर्तिमान चित्रों को उद्घाटित करते है।’’8
         वास्तव में लघुकथा के नाम पर ‘चुटकुले बाजी’’ परोसने वाले लघुकथाकारों को सावधान करते हुए जब डॉ. सतीश दुबे अपना एकल लघुकथा संग्रह ‘सिसकता उजास’ लेकर लघुकथा-लेखन के पटल पर अवतरित हुए तो मानों उन्होंने लघुकथा-लेखन को नई और विश्वसनीय गति दी। डॉ. दुबे का लघुकथा संग्रह ‘सिसकता उजास’ लघुकथा साहित्य में ऐतिहासिक महत्त्व की पूँजी है।
         लघुकथा लेखन परम्परा में बड़ा नाम डॉ. सतीश दुबे का है। आठवें दशक के शुरूआती दौर में जब लघुकथा जैसी विधा हिन्दी में गुँजायमान हुई, तब कौन जानता था कि इस विधा का ‘बिंदु-बिंदु लेखन’ एक दिन हिन्दी जगत का ‘महानद’ बन जाएगा। आज लघुकथा लेखन की विधा से संयुक्त डॉ. सतीश दुबे का बुनियादी लेखकीय प्रयास यदि शोधपरक दृष्टि से दृष्टिगोचर होता है तो लघुकथा सृजन के व्यापक वांगमय में डॉ. दुबे इस विधा के प्रयोगवादी जनक के रूप में स्थापित हो चुके हैं। डॉ. दुबे की लघुकथाओं का तेवर सिर्फ हिन्दी भाषा में आँखे दिखाता हुआ नहीं मिलता, प्रत्युत इस विधा को उनकी अधिकांश रचनाएँ मराठी, पंजाबी और गुजराती भाषा में न केवल अनूदित हुई है वरन् प्रत्युत कृति रूप में प्रकाशित भी हुई है। यही ख्याति डॉ. दुबे को राष्ट्रीय स्तर पर उन सिद्धहस्त लघुकथाकारों की अग्रिम पंक्ति में खड़ा कर देती है, जिस पंक्ति में समाहित लोग लघुकथा लेखन को स्थापित लेखन बनाने में अपने-अपने तई दावा भरते है। मैंने लघुकथा की वकालत में अपने आलेख ‘उपन्यास का वामन अवतार’ में यह आशा व्यक्त किया है कि ‘लघुकथा’ विश्वविद्यालय परिसरों में पाठ्यक्रम के रूप में पहुंचायी जाएगी। इसका स्पष्ट रूप में उत्तर यह है कि लघुकथा के पास डॉ. सतीश दुबे जैसा समृद्ध रचना शिल्पी है।

संपर्क : डॉ. पुरुषोत्तम दुबे, ‘शशीपुष्प’, 74 जे/ए स्कीम नं. 71, इन्दौर-452009 (म.प्र.)
मो. : 9329581414 / ई-मेल : dubeypurushottam24@gmail.com
       
संदर्भ:
1.      ‘एक बूँद बात यह भी’ भूमिका : ‘बूँद से समुद्र तक’ डॉ. सतीश दुबे साहित्य संस्थान गाजियावाद।

2.      छोटी कथा : बड़ी यात्रा : डॉ. सतीश दुबे; सतीश दुबे की 66 लघुकथाएँ और पड़ताल; सम्पादक : मधुदीप पृ. 178

3.      अठारहवें पड़ाव पर हमारे कदम : मधुदीप; सतीश दुबे की 66 लघुकथाएँ और पड़ताल; सम्पादक : मधुदीप पृ. 19

4.      नींव के नायक : अशोक भाटिया पृ. 24

5.      लघुकथा साहित्य का प्रकाश स्तम्भः सिसकता उजास, भूमिका सूर्यकांत नागर ‘बूँद से समुद्र तक’, पृ. 150

6.      लघुकथा में विशुद्ध आदमी रचने की आकांक्षा : डॉ श्रीराम परिहार ‘बूँद से समुद्र तक (लघुकथा संग्रह) सतीश दुबे; पृ. 198

7.      लघुकथा में व्यक्ति तथा समाजमूलक चेतना के पैरोकार : डॉ. सतीश दुबे : डॉ. पुरुषोत्तम दुबे—‘आलोक अक्षर खबर’ सम्पादक : सुरेश जांगिड़; कैथल, हरियाणा, पृ. 4

8.      जीवन की बहुआयामी सच्चाइयों के सृजनधर्मी : बूँद से समुद्र तक (लघुकथा संग्रह) डॉ. सतीश दुबे : डॉ. कमल किशोर गोयनका; पृ. 195

2 comments:

sandhya said...

अति उत्तम

सतीश राठी said...

इंदौर शहर में डॉक्टर सतीश दुबे लघुकथा के प्राण तत्व के रूप में रहे और इस विधा के लिए उन्होंने अपना समस्त जीवन समर्पित किया निश्चित रूप से उनके इस समर्पण और सहयोग को रेखांकित किया जाना जरूरी है क्षितिज संस्था की स्थापना वर्ष 1983 में हुई उसकी प्रेरणा में भी वही थे मेरे लघुकथा संग्रह शब्द साक्षी हैं की भूमिका भी उन्होंने ही लिखी और मेरी पहली लघुकथा के प्रेरणा पुरुष भी वही रहे उन्हें याद कर भाई दुबे ने पुरानी सारी स्मृतियों को जीवंत किया है आभार