Sunday, 1 March 2020

शव-गृह से / डॉ॰ श्याम सुन्दर दीप्ति


डॉ॰ श्याम सुन्दर दीप्ति
कुछ हाथों ने वार किया। कुछ हाथ बचाने को लपके। कुछ ने संभाला। कुछ हाथ शव-गृह तक उठा लाए।
अलग-अलग जगहों से, अलग-अलग कारणों से इस शव-गृह तक पहुंचे, एक साथ पड़े थे। अब वो एक ही नाम थेलाश।

रात हुई। शान्त थी, अपने स्वभाव की तरह। शव-गृह से भी यही उम्मीद थी, पर‌ नहीं।




1.
-क्या नाम है?
-नाम ! देख नहीं रहा, नाम बताने का नतीज़ा।
-पर तुम्हें बुलाऊं कैसे?
-अरे नाम से कोई फर्क नहीं पड़ता। मेरे पिता ने पूरी मेहनत से नाम तलाशा कि नाम से मजहब का पता ना चले। पर कहां रुकने वाले थे, आगे क्या, आगे क्या, ये बता। बस अड गए।
-सच कह रहा है, आंख झपकते ही, एक धड़कते-थिरकते इन्सान को लाश में बदल दिया।

2.
-कहां जा रहे थे?
-बच्चों के लिए शाम के खाने का इंतजाम करने। ....और तुम कहां से आ रहे थे?
-मैं! बीमार बीवी के लिए दवा लेकर…।
खामोशी।.....और फिर गहरी सांस छोड़ते,
-यहां हम लाश हो गए और घर पर....पता नहीं, उनका क्या हुआ?

3.
-अरे भाई, तुम तो वही हो, जो रोज गली में सब्जी का ठेला लेकर आते थे।
 -अरे तू वही, जो फुटपाथ पर खिलौनों की फड़ी लगाता है।
-हां, कितनी बार आपस में खिलौने और फल बदले बांटे।
-अब भी कर रहे हैं, वही कुछ।
-क्या ?
-पहले जिस तरह सहयात्री थे, अब शवयात्री  हैं।

4.
-मैंने तो टोपी भी नहीं पहनी थी।
-मैंने भी तिलक नहीं लगा रखा था।
-फिर?
खामोशी।
-तुम्हें किसी ने नहीं बचाया?
-कोशिश तो हुई, पर दंगाई जीत गए।

5.
-यह चल क्या रहा है, हर तरफ पागलपन ?
-बिल्कुल, देश को शवगृह बनाने पर तुले हैं।
-वो तो ठीक है। (जरा रुक कर) एक अजीब-सी बात आती है मन में, इस शवगृह में हम‌ सब, अब कितने आराम से पड़े हैं, बिना नाम, बिना मजहब, सिर्फ लाश… लाश… लाश।
-हां भाई, जो सुकूं और भाईचारा मरकर है, जीते जी क्यों नहीं।

6.
-जानता है, आगे-आगे हिदायतें देते हुए कौन चल रहा था?
-चेहरा छुपाकर चलने वाले की क्या पहचान।
-आवाज तो जानी-पहचानी सी लगती थी।
-जान-पहचान! उससे, जिसे लाशों की गिनती बढ़ाने में मज़ा आ रहा हो।

7.
एकदम शोर । भीड़नारे ।
-अरे यह क्या, आधी रात को?
-और क्या होगा? हमारी तरह कोई लाश । रोना-चिल्लाना देख ।
-इतनी भीड़, कोई बड़ा नेता लगता है?
-मरकर भी तुझे मजाक सूझता है, नेता आते हैं क्या कभी?

8.
-वो जो उस किनारे पर पड़ा है, उसे जानता है?
-नहीं तो।
-औरों को बचाते-बचाते यह हालत हुई।
-अच्छा! कौन है?
-मेरा पड़ोसी।
-दंगाई कहां से आए थे?
-लाए गए थे,...पता नहीं किस धरती के थे।

9.
-अरे यह वही नहीं है, जो दंगाईयों को चुन-चुन कर घर दिखा रहा था?
-वह तो मुंह पर कपड़ा बांधे हुए था, अब कैसे पहचाना?
-आवाज तो इसी की थी।
-अब देख, इसे ठिकाने लगाने को जगह चुन रहे हैं।
-ठुंसा तो पड़ा है, कहां टिकाएंगे ?
-देखता जा, सबको खिसका रहे हैं, हम दोनों के बीच ही चिन दिया जाएगा इसे ।
मोबाइल--98158 08506

3 comments:

ve aurten said...

गजब

sneh goswami said...

आजकल के यथार्थ का लाजवाब चित्रण

सतीश राठी said...

बहुत ही शानदार और विचारोत्तेजक लघुकथाएं