Saturday 8 December, 2018

लघुकथा : मैदान से वितान की ओर-05

[रमेश जैन के साथ मिलकर भगीरथ ने 1974 में एक लघुकथा संकलन संपादित किया था—‘गुफाओं से मैदान की ओर’, जिसका आज ऐतिहासिक महत्व है। तब से अब तक, लगभग 45 वर्ष की अवधि में लिखी-छपी हजारों हिन्दी लघुकथाओं में से उन्होंने 100 लघुकथाएँ  चुनी, जिन्हें मेरे अनुरोध पर उपलब्ध कराया है। उनके इस चुनाव को मैं अपनी ओर से फिलहाल घुकथा : मैदान से वितान की ओरनाम दे रहा हूँ और वरिष्ठ या कनिष्ठ के आग्रह से अलग, इन्हें लेखकों के नाम को अकारादि क्रम में रखकर प्रस्तुत कर रहा हूँ। इसकी प्रथम  4 किश्तें क्रमश: 17 नवम्वर 2018, 24 नवम्बर 2018 , 1 दिसम्बर 2018 तथा  4 दिसम्बर 2018 को  जनगाथा ब्लाग पर ही किया जा चुका है। यह इसकी  पाँचवीं किश्त है। 
            टिप्पणी बक्स में कृपया ‘पहले भी पढ़ रखी है’ जैसा अभिजात्य वाक्य न लिखें, क्योंकि इन सभी लघुकथाओं का चुनाव पूर्व-प्रकाशित संग्रहों/संकलनों/विशेषांकों/सामान्य अंकों से ही किया गया है। इन  लघुकथाओं पर आपकी  बेबाक टिप्पणियों और सुझावों का इंतजार रहेगा।  साथ ही, किसी भी समय यदि आपको लगे कि अमुक लघुकथा को भी इस संग्रह में चुना जाना चाहिए था, तो युनिकोड में टाइप की हुई उसकी प्रति आप  भगीरथ जी के अथवा मेरे संदेश बॉक्स में भेज सकते हैं। उस पर विचार अवश्य किया जाएगाबलराम अग्रवाल]

वरिष्ठ लघुकथाकार भगीरथ द्वारा चुनी 100 समकालीन लघुकथाओं के धारावाहिक प्रकाशन की 
पाँचवीं कड़ी में शामिल लघुकथाकारों के नाम और उनकी लघुकथा का शीर्षक…

 21 चंद्रभूषण सिंह --हमका नहीं पढाना
 22 चंद्रेश कुमार छतालानी--–भयभीत दर्पण
 23 चित्रा मुद्गल --बयान
(नोट: भगीरथ द्वारा चुनी 'बयान' 5 दिसम्बर 2018 को 'लघुकथा साहित्य' पर प्रस्तुत की जा चुकी है; 
इसलिए यहाँ उसके स्थान पर चित्रा जी की लघुकथा 'दूध' दी जा रही है।)
 24 चैतन्य त्रिवेदी---जूते और कालीन
 25 छवि निगम-- लिहाफ

21 
 चंद्रभूषण सिंह
 

हमका नहीं पढ़ाना

पूरी की पूरी दुनिया बदल गयी, परन्तु वह शिक्षक नहीं बदला। जब उसे ज्ञात्त हुआ कि भोलाराम के बेटे राजेंद्र ने एक सप्ताह से विद्यालय आना छोड़ दिया है, तो एक दिन वह उसके घर पहुँच गया। जब शिक्षक ने भोलाराम से राजेन्द्र की अनुपस्थिति  के बारे में पूछा तो भोलाराम ने तपाक से कहा, "हमका रजिन्दरा को अब नहीं पढ़ाना।"

"भाई कुछ कारण तो होगा?"

"आप रजिन्दरा को एक हफ्ता पहले मारा?"

वह शिक्षक याद करने लगा। कुछ मिनटों के बाद उसने बतलाया कि उसने राजेन्द्र को ताड़ी पीने के लिए पीटा था।

इतना सुनना था कि भोलाराम भड़क उठा, "इ ताड़ी नहीं पीयेगा, तो दूध पीयेगा? घी खायेगा ? मास्टर साहेब, इ पासी का बेटा है, ताड़ी उतारना, ताड़ी बेचना और ताड़ी पीना त इसका कमबे है!"

"भोलाराम इस गंदी आदत से बच्चे बचे रहें तो अच्छा है।"

इसके उत्तर में भोलाराम ने जो कहा उसे सुनकर  शिक्षक चुपचाप लौट आए।

"आप इस्कूल में पढ़ाने आया है कि हमका रोजी बिगारने। आप  रजिन्दरा को नौकरी दे सकता है?"

संपर्क : प्रतीक्षित
 

22 



चन्द्रेश कुमार छतलानी


भयभीत दर्पण 
            हर माह के अंतिम दिवस की तरह आज भी राजा अपनी प्रजा के बीच में बैठा उनसे सुख-दुख की बातें कर रहा था। हर बार की तरह ही राजा के वक्तव्य के बाद उसके पास रखे एक तिलिस्मी दर्पण के ऊपर से पर्दा हटाया गया।
            मन्त्री ने पूरी प्रजा को सुनाते हुए उस दर्पण से पूछा, ‘‘मेशा सच कहने वाले दर्पण! बता, दुनिया में सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति कौन है; और वह क्या कार्य कर रहा है?’’
            मन्त्री को अपेक्षा थी कि हर बार की तरह दर्पण उत्तर देगाा कि, ‘‘हमारे देश के राजा सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं, प्रजा के हितों का पूरा ध्यान रखते हैं, धर्मरक्षक हैं, सर्वोत्तम वक्ता हैं, राज्य के हितों के बारे में ही विचार करते हैं, इनका हर कर्म प्रजा-हित के लिए होता है, इनके राज्य में प्रजा निर्भय है और आने वाले समय में इनके द्वारा किए गए श्रेष्ठ कार्यों से इतना धन आएगा कि प्रजा भी राजा समान ही जीवन व्यतीत करेगी।’’
            लेकिन इस बार दर्पण चुप रहा। मन्त्री ने आश्चर्य से राजा की तरफ देखा और दर्पण से फिर वही प्रश्न किया। दर्पण फिर भी कुछ नहीं बोला।
            अब मन्त्री को क्रोध आ गया। क्रोधित आँखों से वह दर्पण को देखने लगा। दर्पण में उसका प्रतिबिम्ब बहुत डरावना लग रहा था, जिसे अपने में समाहित कर दर्पण सिहर उठा। उसने बहुत धीमे-से कहा, इतना धीमे कि उसकी आवाज राजा और मन्त्री से आगे नहीं जाए, ‘‘आज तक मैं झूठ बोलता आया.... अब नहीं बोलूंगा... राजा केवल शिकार, भ्रमण और स्वयं के आमोद-प्रमोद के लिए प्रजा का धन लूट रहा है, मेरे कारण प्रजा झूठ को भी सच... ’’
            कहते हुए वह रुक गया।  उसने देखा कि मन्त्री के हाथ में पत्थर है। व घबरा गया और चिल्ला-चिल्लाकर कहने लगा, ‘‘हमारे देश के राजा सर्वश्रेष्ठ व्यक्ति हैं, प्रजा के...’’
संपर्क : 3 प 46, प्रभात नगर, सेक्टर 5, हिरण मगरी, उदयपुर-313002 (राजस्थान)

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फोटो:'शब्दांकन' से साभार
(भगीरथ द्वारा चुनी लघुकथा 'बयान', चित्रा जी को 2016 में प्रकाशित उनके उपन्यास 'पोस्ट बॉक्स नं॰ 203 नाला सोपारा' के लिए 'साहित्य अकादमी सम्मान' की घोषणा पर बधाई के क्रम में दिनांक 5 दिसंबर, 2018 को 'लघुकथा साहित्य' पर प्रस्तुत की जा चुकी है; अत: उसके स्थान पर प्रस्तुत है उनकी एक और सशक्त लघुकथा 'दूध')
दूध घर के मर्द पीते हैं।
क्योंकि वे मर्द हैं।
उसका काम हैदूध के गुनगुने गिलास को सावधानीपूर्वक उन तक पहुँचाना। पहुँचाते हुए वह हर रोज दूध के सौंधे गिलास को सूँघती है। पके दूध की गन्ध उसे बौरा देती है।
एक रोज… 
माँ और दादी घर पर नहीं होतीं तो वह चटपट कोठरी खोलकर दुधहड़ी से अपने लिए दूध का गिलास भरती है और घूँट भरने को जैसे ही गिलास होंठों के पास ले जाती हैघर के भिड़े किवाड़ भड़ाक से खुल उठते हैं। उसके होठों तक पहुँचा गिलास हाथ से छूट जाता है और दुधहड़ी पर जा गिरता है। मिट्टी की दुधहड़ी के दो टुकड़े हो जाते हैं। कोठरी के गोबरलिपे कच्चे फर्श पर गुलाबी दूध चारों ओर फैल जाता है। निकट आई भौंचक्क माँ को देख वह थर-थर काँपती पश्चात्ताप व्यक्त करती माफी माँगती-सी कहती है, मैं, मैं...
दूध पी रही थी कमीनी?
हाँअ...
माँग नहीं सकती थी?
माँगा था, तुमने कभी दिया नहीं...
नहीं दिया तो कौन तुझे लठैत बनना है जो लाठी को तेल पिलाऊँ?
एक बात पूछूँ माँ? आँसू भीगी उसकी आवाज अचानक ढीठ हो आई।
पूछ!
मैं जनमी तो दूध उतरा था तुम्हारी छातियों में?
हाँ... खूब। पर... पर तू कहना क्या चाहती है?
तो मेरे हिस्से का छातियों का दूध भी क्या तुमने घर के मर्दों को पिला दिया था?
 संपर्क : 57 जी, मेधा अपार्टमेंट्स, मयूर विहार फेज़-1, दिल्ली-110091


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चैतन्य त्रिवेदी 


जूते और कालीन  

 ‘‘जब भी वे कालीन देखते हैं तो कोफ्त से भर जाते है। कालीन बुने जाने के उन कसैले दिनों की याद में। कुछ आँसू पी जाते हैं और गम खा लेते हैं।’’

     ‘‘क्यों भला, हमने उनका क्या बिगाड़ा?’’

     ‘‘यह कालीन जो आपने अपनी बिरादरी के चंद लोगों की कदमबोसी के लिए बिछाया है, उसके रेशे-रेशे में पल-पल के कई अफसोस भी बुने हुए हैं, जिसे आप नहीं जानते।’’

     ‘‘हमने दाम चुका दिए। उसके बाद हम चाहे जो करें कालीन का।’’ उन्होंने कहा।

     ‘‘नहीं श्रीमान, दाम चीजों के हो सकते हैं, लेकिन कुछ कलात्मक बुनावटें बड़े जतन से बनती हैं। उसके लिए हुनर लगता है। धैर्य लगता है। परिश्रम लगता है। दाम चुकाने के बाद भी उनकी कद्र करनी होती है, क्योंकि उसकी रचना के पीछे एक खास कलात्मकता काम कर रही होती है।’’

     ‘‘आप कहना क्या चाहते है?’’

     ‘‘आप जानते हैं कि इस कालीन के रेशे-रेशे में नन्हीं लड़कियों की हथेलियों की कोमलता भी छिपी है। स्त्रियों की हथेलियों के वे तमाम गर्म स्पर्श, जिनसे भरी ठंड में उनके बच्चे वंचित रह गए। इसके कसीदे देखिए श्रीमान, ये सुदंर-सलोने कसीदे, जो आपको क्षितिज के पार सपनों की दुनिया में ले चलने का मन बना  देते हैं, उन कसीदों के लिए उन लोगों ने अपनी आँखें गड़ाईं रात-रात, मन मारा जिनके लिए। उन्हें क्या मिला मजूरी में? सिर्फ रोटी ही तो खाई! लेकिन अपना आसमान निगल गए।’’

     ‘‘कुछ पैसे और ले लो यार, लेकिन इतनी गहराई से कौन सोचता है!’’ वह बोले।

     ‘‘बात पैसों की नहीं है। उन लोगों की तो बस इतनी गुजारिश भर है कि जिस कालीन को बुनने के लिए उन लोगों ने क्या-क्या नहीं बिछा दिया, उस पर पैर तो रख लें, लेकिन जूते नहीं रखें श्रीमान्!’’

संपर्क : 16 ए, अन्नपूर्णा नगर, इन्दौर-452009 (म॰प्र॰)

 

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छवि निगम

लिहाफ़  

इतने सालों के साथ के बाद इतना तो मैं समझ सकता था कि कोई तो बात जरूर है कि कभी-कभी रीना अपनी किसी ख्याली दुनिया में अक्सर गुम हो जाती है। हाँ, वैसे शिकायत नहीं कोई मुझे उससे। पर कभी-कभी महसूस होता है कि दस साल की शादी के बाद भी, कहीं कुछ तो था… एक इन्विज़िबल-सा गैप, जो हमें अच्छे दोस्त बनने से रोकता-सा रहा था।

आज फिर लेटे-लेटे यही ख्याल आ रहा था।

सुनिए, एक बात कहनी थी आपसे।” बालों में कंघा फिराते वह बोली।

नींद को बमुश्किल अपने से दूर करते, लिहाफ के एक कोने से मुँह निकाल मैंने पूछा, हाँ कहो, क्या हुआ?

वो दिन में चाचाजी का फोन आया थाकुछ दिनों में यहाँ आने की बात कर रहे थे… ”

अरे लो, आज तुम आज इसी सोच में डूबी हुई थी क्या?…अच्छा है। पर तुम तो महान हो; सच्ची। मायके से कोई आए, तो औरतें कितनी खुश हो जाया करती हैं। पर एक तुम हो। शाम से ही कितना अजीब बिहेव कर रही हो। ये चाचाजी तो पहले भी तुम्हारे घर काफी आया जाया करते थे न। बढ़िया है। चलो आओ लाइट ऑफ कर दो।

लेकिन क्या इतनी-सी ही बात थी बस? फिर रीना सारी रात करवटें क्यों बदलती रही थी!!!

ओहो राधा! बिटिया को क्यों ले आई हो साथ में? इसे स्कूल भेजा कर न। इतना समझाती हूँ तुझे, पर समझ ही नहीं आता! रीना की आवाज़ ने मुझे सन्डे सुबह -सुबह जगा दिया। और मैं रजाई में दुबके-दुबके गर्म चाय के कप का इंतज़ार करते, उनकी बातचीत सुनने लगा।

अरे, दीदी! बस ऐसे ही हमरे पाछे चली आत है।

मुझे सब पता है। ऐसे ही धीरे-धीरे पूरे काम बच्चियों के सर डाल देते हो तुम लोग।

कुछ नईं होगा दीदी वाको ।

अच्छा-अच्छा, ये पिंकू का पुराना स्वेटर इसे पहना दो तो पहले। चलो, दोनों जने भी चाय पी लो।

सब्बे कोठियाँन वाली में आप ही सबसे नीक हो दीदी। सुनो कोई पुराना-उराना कम्बल… सूटर, साल-वाल हमरे वास्ते भी पड़ी हो तो… ”

चाय सुडकते मुझे हँसी आ गई।

बस हो गया तुम्हारा माँगना शुरू! पुरानी चीजें हम रखते ही कहाँ है, बता तो। और इस समय तो तुम्हे पैसे भी नहीं दे पाएँगे

अरे क्कोनो बात नाही। जाड़ा कट ही जाई जईसे तैसे। असल में एक रजाई तो बा हमरे पासे। पार साल तक बिट्टी, हम, ई और मुन्ना तो ओमे ही दुबक जाइत थे। परे बिट्टी अब न आ पहिये। ऊपर से गाँव से रिश्ते के चाचा आई के चाह रहे हैं न, कछु काम ढून्ढहे खातिर तो हम सोचे रहे… ”

तो अब क्या करेगी?

अरे, ऊ च्चाचा आपन बिस्तर-उस्तर भी तो लाइ न। इत्तना जाडा म्में का ऐसे ही आ जाई? सो ई बिटिया को हम ओके साथ ही पौढा देब। ठीक बा न बिटिया?

दीदी?… दीदीदीदीका हुआ? भैय्याजी जल्दी इधर आओ तो जल्दी, देखो दीदी को का हुई गवा। राधा बौखलाई-सी जोर से चिल्ला रही थी।

मैं लिहाफ फेंक लम्बे डग भरता रसोई की तरफ दौड़ पड़ा और भौंचक्का रह गया। ये रीना ही थी या कोई और? उसकी तो पूरी की पूरी भावभंगिमा ही बदल गयी थी। चेहरा बुरी तरह तमतमाया हुआ था,  होंठ काँप रहे थे। तना हुआ बदन अजीब तरह से थरथरा रहा था। आँखों में आँसू छलक आये थे।  
क्या हुआ रीना? मैंने बेहद घबराते हुए पूछा। पर उसने मेरा हाथ झटक दिया।

जाइये, वो जो नया लिहाफ बनकर आया है, उसे ले आइये।

इतनी सर्द आवाज़ थी उसकी, कि क्यों,  किसलिए वगैरह पूछने की हिम्मत नहीं हुई मेरी। चुपचाप लाकर, लिहाफ उसके सामने रख दी।

ले राधा, ले जा इसे। ये सिर्फ तेरी बिटिया के लिए है। हमेशा वह इसी में सोएगी और अकेले। और तुम जो दिनभर मुन्ना-मुन्ना करती रहती हो, ध्यान इसका भी रखा करो। ये कुछ न भी कह पाए, तो भी इसके इशारे समझो। और खबरदार! जो इसे कब्भी किसी मामा, दादा, चाचा के साथ…

और कटे तने-सी रीना कुर्सी पर ढह गयी। अब वह अवश-सी हिचकियों से रोये जा रही थी। कभी उसकी पीठ, तो कभी सर सहलाते हुए मैं सोच रहा था—'इस समय दिल का भारी बोझ उतर जाने से कौन ज्यादा सुकून महसूस कर रहा है… राधा, रीना या मैं?
संपर्क : 503, हर्षित अपार्टमेंट, ए॰ पी॰ सेन रोड, चार बाग, लखनऊ-226001 (उ॰प्र॰)

6 comments:

राजेश उत्‍साही said...

चित्रा मुद्गल की 'दूध' और छवि निगम की ' लिहाफ' सहज और सरल लघुकथाएँ हैं। बाकी की तीन लघुकथा से ज्‍यादा भाषण लग रही हैं।

अर्चना तिवारी said...

'लिहाफ़' पढ़कर वही हाल हुआ जो रीना का हुआ। यह लघुकथा उन तमाम रीनाओं के बचपन की व्यथा कहती है जिनको किसी रिश्तेदार के घर आते ही यह लगने लगता है कि वह कब जाएगा?

अर्चना तिवारी said...

'भयभीत दर्पण' तो आज भी झूठ ही बोलता है। यह कब तक झूठ बोलेगा पता नहीं? इसका भय कब समाप्त होगा? प्रतीक्षा है कि वह सच बोलने लगे। चाहे बार बार उसे पत्थर ही क्यों न खाने पड़ें।

अर्चना तिवारी said...

'जूते और कालीन' लोग कालीनों पर उकेरी कसीदाकारियों को तो देखते हैं लेकिन किसी ने उन नन्हीं उँगलियों की कल्पना नहीं की जो इनको बुनते हुए कट जाती हैं। कालीनों को घर की शोभा बनाने वाला यदि उन तमाम चोटिल उँगलियों को देखे तो मुझे नहीं लगता कि कोई कालीन रखने का शौकीन होगा?

Niraj Sharma said...

हैं तो लगभग सभी पहले भी पढ़ी हुई कथाएँ पर इतनी अच्छी हैं कि बार बार पढ़ने को मन करता है।

Sumeet Chaudhary said...

चित्रा जी की यह कथा यूं ही बहुत पुरानी बात को दर्शा रही है... आजकल ऐसा भी होता है क्या???? कौन माँ अपनी बेटी को दूध ना पिलाती....
//एक रोज़... .... माँ दादी घर पर नहीं होतीं तो.... // पहले तो एक रोज़ है फिर रोज़ या होता ही रहता जैसी बात कहते शब्द... ???
थर-थर कांपती लड़की किसी नवोदित की रचना में दो चार मिनट में ढीठ हो जाए तो??
//माँ पहले कमीनी कह रही... प्रश्न पूछने पर.. हाँ खूब....// -- यहाँ भी व्यवहार बदलाव सम्झ से परे......
साथ में यह भी दिमाग में नहीं बैठ रहा.... छातियों में उतरे दूध का ताना मारा या सच में.पूछा. ... अगर ताना है तो माँ की ममता का उपहास है.. पूछा तो मूर्खता है....
आजकल के हिसाब से तो रचना जमी नहीं.......